Antervasna नीला स्कार्फ़
10-05-2020, 12:41 PM,
#1
Lightbulb  Antervasna नीला स्कार्फ़
नीला स्कार्फ़

अपेक्षाओं का बोझ

रूममेट

कॉन्फ़्रेंस रूम में गहन विचार-विमर्श के बीच असीमा का फ़ोन इतनी तेज़ बजा कि सभी चौंक गए।

“फ़ोन साइलेंट पर क्यों नहीं है? मीटिंग में तहज़ीब का थोड़ा तो ख़्याल रखा करो असीमा।” अकबर ने सबके सामने असीमा को डाँट पिला दी। लेकिन असीमा का पूरा ध्यान फ़ोन पर था।

गाड़ी में बैठते ही अकबर ने पूछा, “खोई-खोई क्यों हो? सबके सामने डाँट दिया इसलिए?”

“नहीं अकबर। मुझे एक फ़ोन करने दो पहले।”

फ़ोन मिलाते ही लिली की चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी, “मियाँ-बीवी किसके लिए ताजमहल बना रहे हैं दुबई में कि मुंबई आने की भी फ़ुर्सत नहीं होती?”

“कहो तो तुम्हारे लिए भी एक बनवा दें! अपने लिए ऐसा कोई शाहजहाँ तो ढूँढ़ लो जो तुम्हारा ताजमहल फंड करे!”

“ढूँढ़ लिया। दो महीने बाद शादी है पटना में। आओगी या नहीं, उसका हिसाब बाद में। पहले ख़ास बात सुनो। नेशनल जिओग्रैफिक पर मेरी डॉक्युमेंट्री आ रही है आज रात। दुबई में चालीस मिनट बाद बीम करेगी। अब जहाँ भी हो, जल्दी घर पहुँचो और टीवी खोलकर बैठ जाओ। बाक़ी बातें बाद में”, इतनी सूचना देकर लिली ने फ़ोन काट दिया।

“अकबर, मुझे कितनी देर में घर पहुँचा सकते हो?”

“क्या हो गया, तबीयत दुरुस्त तो है?”

“लिली की फ़िल्म आ रही है। मैं एक मिनट भी मिस नहीं करना चाहती।”

फ़िल्म शुरू होने से ठीक पाँच मिनट पहले दोनों घर पहुँचे। नन्ही अलीज़ा को गोद में लेकर असीमा टीवी के सामने बैठ गई। लेकिन फ़िल्म देखने में मन लगा नहीं। अलीज़ा गोद में ही सो गई थी और असीमा के भीतर कई साल पुरानी यादों ने आँखें खोलना शुरू कर दिया था।

अलीज़ा को सोफ़े पर ही लिटाकर असीमा ने अपना लैपटॉप खींच लिया। इसके डी ड्राइव में एक फोल्डर था जो सालों से नहीं खुला था। असीमा के भीतर जाने क्यों उस फोल्डर को खोलने की बेचैनी-सी हो रही थी।
नौ साल पहले की तस्वीरें थीं उसमें। और थीं वो सारी कविताएँ और कॉन्सेप्ट नोट्स जो लिली रात-रात भर उसके लैपटॉप पर बैठकर लिखा करती। मुंबई से यादों की जो थाती सहेजकर असीमा दुबई आई थी, वो सबकुछ इसी फोल्डर में था।

पहली बार लिली से मिलना भी कितना अजीब-सा था!

“मेरा नाम असीमा है, असीमा कॉन्ट्रैक्टर। नाम से हिंदू लगती हूँ, लेकिन हूँ मुस्लिम। पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ती हूँ और रोज़े रखती हूँ। क्या किसी को मेरे यहाँ रहने से कोई परेशानी है?”

असीमा ने ऐसे अपना परिचय दिया था पहली बार। मुंबई के अंधेरी के चारबंगला इलाक़े की कोठी के एक कमरे में चार लड़कियों को पेइंग गेस्ट बनाकर रखने की जगह थी। तीन तो पहले से थीं। कमरे में वो चौथी रूममेट बनने के लिए घुसी थी।

दो मिनट तक असीमा के सवाल पर सब चुप्पी साधे बैठे रहे, अपने-अपने बिस्तरों पर, अपनी-अपनी दुनिया में। बीच वाले बिस्तर पर बैठी लड़की ने चुप्पी तोड़ी।

“मैं नफ़ीज़ा डीसूज़ा हूँ, न-फ़ी-ज़ा, नफीसा नहीं। डीसूज़ा हूँ तो ज़ाहिर है, क्रिश्चियन हूँ। खिड़की के बग़ल वाले बिस्तर पर जो मैडम बैठी हैं, उनका नाम है लिली पांडे। अब लिली जी पांडे कैसे हैं, ये तो उन्हीं से पूछिए। दरवाज़े के बग़ल वाले बिस्तर पर बैठी हैं विशाखा पटेल। नैरोबी से मुंबई आई हैं भरतनाट्यम सीखने। इनके धर्म, जाति का हमें पता नहीं। कभी ये फ़ोन पर गुजराती बोलती मिलती हैं, कभी मलयालम। बॉयफ़्रेंड जर्मन है। हममें से किसी को तो एक-दूसरे से परेशानी नहीं। न नाम, न सरनेम और न जाति-धर्म से। आप अपनी बात बताएँ असीमा जी।”

नफ़ीज़ा के इस तल्ख़ जवाब से असीमा थोड़ी देर सकते में खड़ी रही। फिर अपना सूटकेस लुढ़काती हुई कमरे के अंदर आ गई और विशाखा की ओर देखकर पूछा, “मेरा बिस्तर कौन-सा होगा?”

विशाखा ने इशारे से नफ़ीज़ा के ठीक बग़ल वाले बिस्तर की ओर इशारा कर दिया। असीमा चुपचाप बिस्तर पर अपना सामान खोल-खोलकर रखती गई और बग़लवाली अलमारी में घुसाती रही।

इस बीच विशाखा फ़ोन से चिपकी रही, लिली ने अख़बार में सुडोकू खेलना जारी रखा और नफ़ीज़ा ने अपने कानों में वापस सीडी प्लेयर के इयरप्लग्स लगा लिए। इतवार का दिन था। किसी को कोई जल्दी नहीं थी।

जल्दी का आलम तो अगले दिन सुबह सात बजे देखने को मिला। विशाखा को क्लास के लिए देर हो रही थी, लिली को शूट पर जाना था और नफ़ीज़ा को दफ़्तर। दस मिनट पहले भी कोई बिस्तर छोड़ने को तैयार नहीं होता, लेकिन बाथरूम के लिए दस मिनट की बहस सबको मंज़ूर थी। बस असीमा ही अपने कोने में बैठी थी, आज की मशक़्क़त के लिए पूरी तरह तैयार। अख़बार पकड़े कल की बासी ख़बरें पढ़ती हुई।

“कहाँ है ऑफ़िस तुम्हारा? कहीं काम करती हो या काम की तलाश में निकलोगी आज से?” पहला सवाल नफ़ीज़ा ने दागा।

“नौकरी करती हूँ। पेशे से आर्किटेक्ट हूँ, कर्माकर आर्किटेक्ट्स के साथ। वर्ली में है ऑफ़िस। बस निकलूँगी थोड़ी देर में।”

“आर्किटेक्ट हो। नाम भी असीमा कॉन्ट्रैक्टर है। कहीं हफ़ीज़ कॉन्ट्रैक्टर तुम्हारे रिश्तेदार तो नहीं लगते?”

अपने बालों को जूड़े मे लपेटते हुए, मुँह में हेयरपिन दबाए ये सवाल लिली ने आईने में देखते हुए असीमा की परछाईं से पूछा था, बड़ी संजीदगी के साथ।

कल से पहली बार असीमा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दिखाई दी थी, आईने के रास्ते ही सही।

“काश ऐसा होता! मुझे यहाँ तक पहुँचने के लिए इतनी मारा-मारी तो नहीं करनी पड़ती।” असीमा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

असीमा का इतना कहना था कि लगा जैसे कमरे का माहौल अचानक हल्का हो गया हो। लगा जैसे चारों का रूममेट बनकर रहना अब मुमकिन हो सकेगा। अपना ये कमज़ोर-सा छोर सबके सामने रखकर असीमा ने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था।

“चलो, चलो नाश्ता कर लो सब लोग। दूध-कॉर्नफ्लेक्स है आज। असीमा, तुम खा सकोगी न ये?” मकान मालकिन कविता दीदी कमरे में सबको बुलाने आईं।

“मेरे रोज़े चल रहे हैं। अब मैं रात को ही खाना खाऊँगी।”

“हाँ, हाँ तुमने बताया था कल। भई असीमा तो रोज़े रखेगी और नमाज़ पढ़ेगी। तुममें से किसी को कोई परेशानी तो नहीं है ना?”

“दीदी, रोज़-रोज़ के आपके बेसुरे भजनों से परेशानी नहीं होती तो किसी के नमाज़ पढ़ने से क्या होगी?” जवाब विशाखा ने दिया था। “अब चलो यार, वर्ना आज देर हुई तो गुरुजी मुझे बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह क्लास से लौटा देंगे।”

सब एक-एक कर घर से निकलते गए। विशाखा मलाड की ओर भरतनाट्यम की कुछ और मुद्राएँ सीखने, लिली आरे कॉलोनी की ओर क्रिएटिव आर्ट्स टेलीफिल्म्स के डेली सोप का प्रोडक्शन संभालने और नफ़ीज़ा जेके ट्रेडिंग के रिसेप्शन पर बैठने।

शाम को कमरे से कबाब की ख़ुशबू आ रही थी, दीदी के किचन में पकौड़ियाँ तली जा रही थीं और असीमा अपने बिस्तर पर बैठी पुराने अख़बार पर प्लेट रखकर फल काट रही थी।
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10-05-2020, 12:42 PM,
#2
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“इफ़्तारी का वक़्त हो गया है नफ़ीज़ा। ये कबाब लाई हूँ। खाओगी? दीदी कितनी अच्छी हैं! पकौड़ियाँ तल रही हैं मेरे लिए।”

“दीदी अच्छी हैं क्योंकि तुम नयी मुर्ग़ी हो। इन पकौड़ियों में डाले गए बेसन, प्याज और नमक की क़ीमत धीरे-धीरे वसूलेंगी तुमसे।” नफ़ीज़ा ने धीरे-से कहा।

“ऐसा? अच्छा हुआ तुमने आगाह कर दिया। लिली और विशाखा कब तक आती हैं?”

“लिली को देर होती है। कई बार बारह भी बज जाते हैं। स्टार पर प्राइमटाइम के सीरियल का प्रोडक्शन संभालती है। कभी फ़ुर्सत में हो तो टीवी स्टारों की गॉसिप सुनना उससे। और ये विशाखा है न, इसका एक्स-बॉयफ़्रेंड मॉडल था। नेस्ले का एड देखा है? वो हेज़ल आईज़ वाला हंक? नाम भूल रही हूँ उसका। शायद वीर सप्पल। विशाखा का बॉयफ़्रेंड था। रोज़ अपनी एन्टाइसर लेकर नीचे खड़ा हो जाता था। पता नहीं क्या हुआ, ब्रेक-अप हो गया उनका। अब कोई जर्मन है। पर मैंने देखा नहीं उसे।”

“मैंने सिर्फ़ उनके वापस आने का वक़्त पूछा नफ़ीज़ा।” असीमा नीचे देखते हुए सेब काट-काटकर प्लेट में रखती रही। उसके बाएँ हाथ की उँगली में एक हीरा चमक रहा था।

“एन्गेज्ड हो?” बातूनी नफ़ीज़ा ने न असीमा का व्यंग्य समझा न गॉसिप के लिए एक और सवाल ज़ुबान पर लाने से रोक पाई।

“नहीं। शादी-शुदा। शौहर दुबई में हैं।”

“हाउ इंटरेस्टिंग! इसलिए डिज़ाइनर कपड़े पहनती हो। मैं तो पहले ही सोच रही थी कि आख़िर ये आर्किटेक्ट कमाती कितना है कि पूरा वॉर्डरोब इतने महँगे कपड़ों से भरा पड़ा है। हस्बैंड गिफ़्ट करते होंगे, नहीं?”

असीमा ने नज़रें उठाकर नफ़ीज़ा को घूर भर लिया, कुछ कहा नहीं। लेकिन वो ये समझ गई कि किसी के सामने ज़रूरत से ज़्यादा खुलना उसे अपनी ज़िंदगी में ताक-झाँक का मौक़ा देने के बराबर होगा। ये ताक-झाँक असीमा को मंज़ूर न था।

लिली से बातचीत का पूरे हफ़्ते कोई मौक़ा नहीं मिला, न विशाखा ने असीमा से कोई सवाल पूछा। असीमा की चुप्पी और रवैये को देखकर नफ़ीज़ा भी कमरे में अपनी सरहद, अपने बिस्तर तक सिमट गई।

नफ़ीज़ा की ये क़सम अगले ही इतवार को टूट गई। सुबह-सुबह लिली ने कमरे में मौज़ूद तीनों रूममेट से पूछा, “फेम एडलैब्स में ‘अ ब्यूटीफुल माइंड’ लगी है। रसेल क्रो को पक्का ऑस्कर मिलेगा इसके लिए। सुबह के शो की टिकट तीस रुपए में मिल भी जाएगी। कोई चलेगा मेरे साथ?”

“आई एम गेम।” पहला जवाब विशाखा की ओर से आया।

“मैं चल सकती हूँ क्या?” ये सवाल पूछते ही असीमा मन-ही-मन पछताई।

एक बार फिर उसने अनजान रूममेटों से दोस्ती कर लेने का, उन्हें अपनी ज़िंदगी में ताक-झाँक करने देने का मौक़ा देने चली थी। लेकिन मसला रसेल क्रो से जुड़ा था। इसलिए रूममेट के साथ दोस्ती को लेकर तमाम आशंकाओं के बावजूद असीमा बाक़ी तीन लड़कियों के साथ फेम एडलैब्स जा पहुँची।

फ़िल्म के बाद लंबी बहस के साथ कॉफ़ी और फिर लंच का सिलसिला चलता रहा। फ़िल्म के कथानक से लेकर पात्रों की अभिनय-शैली, स्क्रिप्ट से लेकर कैमरा एंगल तक पर लिली कुछ-न-कुछ बोलती रही।

“जॉन नैश की तरह तो तुम भी कोई प्रोडिजी लगती हो लिली। मुझे तुम्हारी प्रतिभा का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।” असीमा ने कहा।

“अभी तुमने मुझे पहचाना कहाँ है जानेमन! अव्वल-अव्वल-सी दोस्ती है अभी। जुहू बीच चलोगी शाम को? अपने हुनर के और नमूने दिखाऊँगी।”

असीमा न कहते-कहते ‘हाँ’ बोल बैठी। कुछ संडे की शाम के कट जाने का लालच था, कुछ लिली की बेबाकी में दिलचस्पी।

“तुम मेरे लिए कहीं चार्ल्स हरमन तो नहीं बनने जा रही लिली, जॉन नैश के रूममेट के कभी ग़ायब, कभी हाज़िर रूममेट की तरह?” असीमा ने हँसते हुए पूछा था।

जाने क्या था इस लड़की में, जो उसे अनायास उसके क़रीब ले जा रहा था। दिन भर चार बंगला के आस-पास भटकने के बाद चारों रूममेट शाम को पैदल ही जुहू चौपाटी की ओर चल दीं।

पूरे रास्ते लिली का बोलना जारी रहा। पटना का घर, दिल्ली का हॉस्टल, आरा का गाँव, मुंबई के सेट। लिली बाक़ी लड़कियों को अपनी रंग-बिरंगी दुनिया की सैर कराती रही।

नफ़ीज़ा ने भी अपनी कहानी सुनाई थी सबको, भयंदर में कैसे एक कमरे के दबड़ेनुमा घर में बिन बाप की तीन बेटियों को माँ ने बड़ा किया। कैसे शराब की ख़ातिर बहन को जीजा ने चार ही दिनों में छोड़ दिया। कैसे अपनी ऑल-वूमैन फैमिली के लिए नफ़ीज़ा को कमाई का इकलौता ज़रिया बनना पड़ा।
“मेरी दुनिया इतनी रंग-बिरंगी नहीं लड़कियों। जीने के लिए बड़े पापड़ बेले हैं हमने।” नफ़ीज़ा ने कहा तो बहुत कम लेकिन बहुत उम्दा बोलनेवाली विशाखा ने जवाब दिया, “ज़िंदगी किसी के लिए आसान नहीं होती। जीने के लिए सेंस ऑफ ह्यूमर चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं है नफ़ीज़ा।” उस शाम विशाखा की बेशक़ीमती ज़ुबान से निकली ये पहली और आख़िरी बात थी।
रात के नौ बजे भी चारों में से कोई पीजी नहीं लौटना चाहता था। यूँ तो अपनी-अपनी ज़िंदगी के क़िस्से सबने सुनाए, लेकिन लिली की बातें सबने बड़े मज़े से सुनी। कैसे-कैसे पात्र थे लिली के जीवन में! प्रोडक्शन मैनेजर सतीश भाई जिन्होंने तेलुगू फ़िल्मों में क़िस्मत आजमाई लेकिन असफल रहे। मुंबई में अब आर्टिस्टों, तकनीशियनों के लिए नाश्ते-खाने का इंतज़ाम करने में ही उन्हें जीवन का अनुपम आनंद प्राप्त होता है। सात भाषाएँ बोलते हैं और भूल जाते हैं कि किससे कौन-सी भाषा में बात करनी हैं, तो स्पॉट बॉय से अंग्रेज़ी बोलते हैं, डायरेक्टर से गुजराती और लिली से तेलुगू। सामनेवाले को याद दिलाना होता है कि उससे किस भाषा में बात की जाए। जिस सीरियल का काम लिली संभाल रही है, उसकी कहानी सेट पर मौज़ूद कलाकारों को देखकर लिखी जाती है। कलाकार अनुपस्थित तो एपिसोड से किरदार भी ग़ायब!
जितना बोलती थी, उतना ही गाती भी थी लिली। बात बेबात।
उस रात भी उसने एक गीत सुनाया, वो झूमर जो उसकी माँ रोटियाँ बेलते हुए गाया करती है। अपनी माँ के बारे में बात करते-करते रेत पर पसरे हुए लिली अपनी खनकती हुई भोजपुरी में एक गीत गाने लगी थी, जिसमें सास-ननद के तानों की कोई बात थी। वहीं रेत पर पसरे-पसरे बाक़ी तीनों लड़कियाँ लिली की आवाज़ का सहारा लिए अपनी-अपनी ख़ामोशियों, अपने-अपने ख़्यालों, अपनी-अपनी ज़िंदगियों में डूबती-उतरती रही थीं। सिर्फ़ चौपाटी का शोरगुल था और समंदर की लहरों की बेपरवाह बातचीत थी। ख़ामोशी का अपना सुकून है, लेकिन बेपरवाह बातचीत ही ईंट-ईंट जुड़ते रिश्तों के बीच के सीमेंट और मसाले का काम करती है।
रूममेटों में रिश्ता जुड़ने लगा था, लेकिन सिर्फ़ दो रूममेटों में।
अब नई रूममेट से पूछा था लिली ने, “अपने बारे में भी कुछ बताओ असीमा।”
“मेरी ज़िंदगी में इतना रस नहीं।” असीमा ने कहा था, लेकिन उसकी आवाज़ में न नफ़ीज़ा की तल्ख़ी थी, न विशाखा की बेचारगी। इस आवाज़ में एक यथार्थ था। न नकारे जा सकने वाला यथार्थ।
“मॉल बनवाती हूँ, इमारतें बनवाती हूँ और कॉन्क्रीट के बारे में सोचते-सोचते ख़्याल भी पत्थर-से हो गए हैं।” असीमा ने सिर्फ़ इतना ही कहा।
“ये पत्थर हमारे साथ रहकर पिघल जाएगा असीमा।” लिली ने हँसते हुए कहा था और अपने कपड़ों से रेत झाड़ती हुई खड़ी हो गई।
“आज वीकेंड खत्म हो गया है। कल देखेंगे किसे कहाँ पत्थर तोड़ने जाना है, और किसमें पत्थरों को पिघलाने की ताक़त बची रहती है। अब चलोगी कि रात यही समंदर किनारे बिताने का इरादा है?” नफ़ीज़ा की आवाज़ में तल्ख़ी रह-रहकर लौट आती थी।
रूममेटों पर पूरा हफ़्ता वाक़ई भारी पड़ता था। किसी को किसी से मिलने या बात करने की फ़ुर्सत न होती। किसी के पास किसी के लिए वक़्त नहीं था। सब रूममेट थे, लेकिन दोस्त नहीं थे। विशाखा कई बार अपने बॉयफ़्रेंड के फ़्लैट पर रुक जाया करती। हर बात में नफ़ीज़ा का सिनिसिज्म झेलना मुश्किल होता इसलिए असीमा उससे दूरी बनाकर ही रखती। एक लिली थी जिससे बात करना असीमा के लिए मुमकिन था। लेकिन लिली का काम ऐसा था कि वो देर रात शूट से वापस लौटती। सबके सो जाने के बाद और दोपहर को उठती सबके ऑफ़िस चले जाने के बाद। सुबह-सुबह लिली को उठाना असीमा को उचित न लगता। लेकिन वो लिली से फिर भी बात करना चाहती थी, उससे कहना चाहती थी कि एक और झूमर सुना दे कभी। लिली से उसका मोबाइल नंबर भी नहीं लिया था असीमा ने। अब नफ़ीज़ा से माँगती तो नफ़ीज़ा शोले के गब्बर की तरह आँखें घुमा-घुमाकर कहती, “बड़ा याराना लगता है!”
मकान मालकिन से नंबर के लिए पूछा तो उन्होंने सीधे पूछ दिया, “कोई काम है? मुझे बता दो। मैं मैसेज दे दूँगी। वैसे तुम इन तीनों से दूर ही रहो तो अच्छा है असीमा। तुम पढ़ी-लिखी हो, शरीफ़ हो, इन तीनों से उम्र में भी बड़ी हो। इनसे क्या मतलब तुम्हें?”
असीमा समझ गई कि मकान मालकिन नहीं चाहतीं कि चारों में दोस्ती हो। दोस्ती होने का मतलब उनके विरुद्ध एकजुट होना, उनके ख़िलाफ़ साज़िश। और अगर चारों ने उनकी अधपकी दाल और प्रेशर कुकर में चढ़ने वाले बासी चावल के साथ पकनेवाले नए चावल के विरोध में झंडा उठा लिया तो उनका क्या होगा? इसलिए रूममेटों के बीच डिवाइड एंड रूल की नीति वो उतने ही सालों से चलाती आ रही थीं, जितने सालों से अपने घर में पेइंग गेस्ट्स रख रही थीं।
एक रोज़ फ़र्ज़ की नमाज़ के लिए असीमा उठी तो लिली उसे बाहर ड्राइंग रूम में बैठी मिली।
“नमाज़ के लिए उठी हो? सेहरी करोगी? दूध पियोगी? ले आऊँ?” लिली ने असीमा को देखते ही पूछा।
“तुम बैठो लिली। मैं सब कर लूँगी। कब लौटी?”
“थोड़ी देर पहले। नैश की एक बात नहीं भूल पा रही, फाइंड ए ट्रूली ओरिजिनल आइडिया। इट इज़ द ओनली वे आई विल एवर मैटर। एक ओरिजिनल आइडिया खोजना होगा। तभी कुछ हो सकेगा मेरा। ये टीवी सीरियल का काम नहीं होता मुझसे।”
“ओरिजनल आइडिया सुबह के चार बजे? कल शनिवार है और परसों इतवार। तुम्हारा शो ऑन-एयर नहीं होता होगा। कल से लेकर परसों तक सोचना इस बारे में। अभी सो जाओ, और अपना नंबर देती जाओ।” असीमा ने लिली को ड्राईंग रूम से क़रीब-क़रीब धक्का देते हुए बाहर कर दिया था।
दिन में असीमा ने लिली को एसएमएस किया कि शनिवार को उसे डिनर के लिए भिंडी बाज़ार ले जाएगी। इफ़्तार के वक़्त भिंडी बाज़ार की रौनक़ देखने लायक़ होती है और कई दिनों से असीमा शालिमार रेस्टूरेंट की तंदूरी खाना चाहती थी। लिली ने वापस एसएमएस कर डिनर के लिए ‘हाँ’ कह दिया।
लिली असीमा के दफ़्तर आ गई और दोनों वहाँ से मोहम्मद अली रोड के लिए टैक्सी में बैठ गए।
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10-05-2020, 12:42 PM,
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RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“मैं पहली बार किसी मुसलमान के साथ इफ़्तार के वक़्त खाना खाऊँगी असीमा। मेरी लंबी-चौड़ी उम्मीदों पर पानी मत फेरना।” लिली ने टैक्सी में बैठते हुए कहा।
थोड़ी देर में दोनों मोहम्मद अली रोड पर थे। सड़क के इस किनारे से भिंडी बाज़ार तक लगी रंग-बिरंगी दुकानें, खाने-पीने के स्टॉल, मिठाइयों के ढेर- मुंबई की इस गली का नाम किसी ने ‘खाऊ गली’ यही देखकर रख दिया होगा।
असीमा लिली को सीधे शालिमार ले गई। तंदूरी रान मसाला और शालिमार चिकनचिली, दोनों के लिए असीमा ने ही ऑर्डर किया था। लिली थोड़ी देर तक अंदर से आती गंध से परेशानी महसूस करती रही लेकिन खाने का लोभ उसे रोके हुए था। कुछ सोचते हुए उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट पसर आई।
“जानती हो असीमा, पापा के एक मुसलमान कॉलीग थे, शाहिद अंकल। घर से जब वे पापा से मिलकर जाते थे, दादी उस कुर्सी का कवर धुलवाया करती थीं, डिटॉल से। उनके लिए अलग कप, अलग बर्तन थे। माँ को पता लगेगा कि मैं यहाँ तुम्हारे साथ हलाल मीट खा रही हूँ तो मुझे हलाल कर देंगी।”
“अच्छा! इक्कीसवीं सदी में भी? ख़ैर, ये बताओ कि वो ओरिजिनल आइडिया क्या है जो तुम्हें परेशान किए जा रहा है?”
“वही आइडिया जिसके लिए मैं मुंबई आई। जानती हो, मैं बचपन से पूरी सिनेमची थी। मेरे यहाँ जब वीसीपी आया तो मैं ग्यारह साल की थी। दूरदर्शन पर आनेवाली हर फ़िल्म याद रहती। मैं देखती भी। वीसीपी पर भी सभी नई-पुरानी फ़िल्में देखती। बच्चे बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर बनना चाहते हैं, मैं फ़िल्मों की दुनिया में शामिल होना चाहती थी। मुझे याद है कि मैं ननिहाल में थी, गर्मी की छुट्टियाँ के लिए। मामाजी ट्रैक्टर की बैटरी चार्ज कराकर लाए थे कि इतवार को सब मिलकर रामायण देखेंगे। और मैंने हड़ताल कर दी कि नहीं, शाम को आनेवाली फ़िल्म देखेंगे। मैं जीत गई। हमने प्रकाश झा की ‘हिप हिप हुर्रे’ देखी थी उस शाम। तभी मैंने सोच लिया था कि मैं भी ऐसी ही फ़िल्में बनाऊँगी जिनमें छोटे शहरों के ख़्वाब हों, उनकी ख़ुशियाँ, उनकी इनसिक्युरिटी, उनकी संवेदानाएँ हों।”
“तो फिर, क्या रोके हुए है तुम्हें?”
“इतना आसान नहीं है। दिल्ली तक मेरे जाने में किसी को परेशानी नहीं हुई। पटना से दिल्ली रातभर की ही तो बात है। फिर आधे बिहारी तो दिल्ली में आ बसते हैं। लेकिन मुंबई आने के लिए ज़िंदगी दाँव पर लगानी पड़ी।”
“मैं समझी नहीं लिली।”
“पापा ने कहा मैं शादी कर लूँ तभी मुंबई आ सकती हूँ। किसी तरह शादी तो टाल दी मैंने, सगाई नहीं टाल पाई। मंगेतर यहीं पवई के पास लार्सन एंड टूब्रो में इंजीनियर है।”
“तो इसमें परेशानी क्या है। तुम मुंबई में हो, नौकरी कर ही रही हो। आइडिया तो वैसे भी दिमाग़ से सोचना है न। वो तुम कहीं भी सोच सकती हो।”
“परेशानी ये नहीं कि आइडिया कहाँ से आए, परेशानी है कि आइडिया एक्ज़िक्युट कैसे हो।”
“वो भी हो जाएगा। वैसे अपने मंगेतर से मिलवाओगी नहीं मुझे।”
“काहे नहीं जी।” लिली के भीतर की बिहारन अधिक प्यार में और अधिक उमड़ जाया करती।
“लंदन में है किसी प्रोजेक्ट के लिए। सच पूछो तो तुम्हारे साथ मैं बैठ भी इसलिए सकी हूँ क्योंकि वो है नहीं यहाँ।” लिली ने कहा।
उसकी आवाज़ में अचानक उतर आई उदासी को असीमा ने जान-बूझकर नज़रअंदाज़ कर दिया।
“ठीक है भई। ही डिज़र्व्स योर टाइम। वीकेंड पर तो मिलते होगे तुम दोनों।”
“हाँ। ख़ैर, मरीन ड्राइव चलोगी क्या? तुम्हें अपना ओरिजिनल आइडिया सुनाऊँगी।”
“बिल्कुल। ओरिजिनल आइडिया सुनने के लिए तो कुछ भी करूँगी।”
मरीन ड्राइव में समंदर के किनारे बैठे-बैठे लिली ने पहली बार अपनी वो कहानी सुनाई थी जिसपर उसे फ़िल्म बनानी थी। असीमा ने कहा था कि वो फाइनेंसर होती तो बिना दुबारा सोचे उसकी फ़िल्म में पैसे लगा देती। लेकिन चूँकि वो फाइनेंसर नहीं थी इसलिए फिलहाल वो लिली पर सिर्फ़ ढेर सारा भरोसा लगा सकती थी।
लिली के लिए इतना निवेश काफ़ी था।
ईद के लिए असीमा घर नहीं गई थी। कहा था कि एक ज़रूरी मीटिंग के लिए ईद की अगली सुबह ही बैंगलोर जाना है, इसलिए। लेकिन उस दिन लिली को लेकर वो हाजी अली गई थी। पीर की मज़ार पर चादर चढ़ाने के बाद सज्दे के लिए झुकी असीमा क्यों दुपट्टे में मुँह छुपाए रोती रही थी, लिली चाहकर भी नहीं पूछ पाई थी। दरगाह से निकलने के बाद लिली ने सिद्धिविनायक जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी।
“सारी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं यहाँ के गणपति। आज ईद का दिन भी है। पीर से जो माँगा, सिद्धिविनायक से भी माँग लो। रिइन्फोर्समेंट हो जाएगी”, लिली ने हँसते हुए कहा था।
“जो दुआ माँगी है वो बख़्शी नहीं जाएगी, न पीर की मज़ार पर न सिद्धिविनायक में।” असीमा ने धीरे से कहा था।
दर्शन की कतार में खड़ी लिली बहुत देर तक असीमा का चेहरा पढ़ने की नाकाम कोशिश करती रही, फिर धीरे से कहा, “मैं नहीं जानती कि तुम्हें कौन-सा ख़्याल परेशान कर रहा है, लेकिन कभी बात करना चाहो तो मैं हूँ असीमा।” उसके बाद किसी ने कुछ नहीं कहा।
दोनों दोपहर तक घर आ गए। कविता दीदी ने स्पेशल लंच बनाया था। खाने के बाद लिली ने मोटी-सी डायरी अपनी अलमारी से निकाली।
“आज ये खज़ाना बाटूँगी तुम सबसे। दस मिनट में मुशायरा शुरू होनेवाला है। सभी लोग अपनी-अपनी जगह ले लें।” लिली ने अनाउंस किया।
थोड़ी देर में चारों रूममेट फ़र्श पर ही पालथी मारकर बैठ गईं। लिली ने ग़ालिब से शुरूआत की।
“आज हम अपनी परीशानि-ए-ख़ातिर
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं।”
“एक मेरी ओर से सुनो, मजाज़ है।” असीमा ने कहा तो लिली ने ज़ोर से सीटी मारी। असीमा गुनगुनाने लगी, “मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़मे गा नहीं सकता / सुकूँ लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता / कोई नग़मे तो क्या, अब मुझसे मेरा साज़ भी ले ले / जो गाना चाहता हूँ आह! वो मैं गा नहीं सकता।”
लिली ने जवाब में कहा, “ओरिजनल है, सुनो। ना, छूना ना उस गिरह को / जो पिघला कहीं अगर तो / बह पाओगे तुम कहाँ तक / कि बंद है उस जगह पर / इक सोता है कि समंदर / हमको भी ख़बर नहीं है।”
मुशायरे से शुरू हुआ सिलसिला फ़िल्मी गानों की ओर बढ़ा, फिर विशाखा ने मीराबाई का एक भजन सुनाया और नफ़ीज़ा ने सिलिन डिओन का ‘आई एम योर लेडी’। देर शाम चारों रूममेट सामने वाली पार्क में जाकर बैठ गईं।
“व्हाट अ डे। बहुत मज़ा आया आज। अच्छा हुआ तुम घर नहीं गई असीमा।” विशाखा ने कहा।
“तुम्हारे हस्बैंड नहीं आए ईद पर असीमा?” नफ़ीज़ा का ये सवाल असीमा और लिली, दोनों को तीर की तरह लगा।
“छुट्‌टी नहीं मिली।” असीमा ने नज़रें झुकाए हुए ही जवाब दिया। उसकी उँगलियाँ लॉन की घास से उलझती रहीं।
लिली ने असीमा की ओर गहरी नज़रों से देखा भर, कहा कुछ नहीं।
उस रात दोनों को नींद नहीं आई लेकिन कमरे में मौज़ूद दो और रूममेट के सामने कोई बात नहीं हो सकती थी।
अगली सुबह असीमा घर से निकल चुकी थी। लिली के मोबाइल इन्बॉक्स में एक मेसैज था- “बैंगलोर नहीं, बांद्रा जा रही हूँ। फ़ैमिली कोर्ट। आज क़ानूनन तलाक़ मिल जाएगा। तुम्हें क्या बताती? आज शाम घर जाऊँगी, अम्मी-अब्बू को बताने। दो दिन बाद लौटूँगी तो बात करूँगी।”
लिली भारी मन से तैयार होती रही। घर से निकली तो चाँदिवल्ली स्टूडियो के बजाय बांद्रा-कुर्ला कॉम्पलेक्स के लिए ऑटो ठीक किया। बांद्रा कोर्ट के बाहर बहुत देर तक दुविधा में खड़ी रही। कुटुंब न्यायालय, मुंबई के बाहर कई कुटुंब टूटने-बिखरने के कगार पर खड़े थे। लिली ने कभी तलाक़ होते नहीं देखा था, न परिवार में, न जान-पहचान में।
रिश्तों को तोड़ने की क्या ज़िद होती होगी, कौन-सा झटका रेशमी डोर से मज़बूत रिश्तों को तोड़ डालता होगा? एक घर और एक छत के नीचे सपने बाँटनेवाले कैसे अजनबी बन जाते होंगे, इस बारे में कोई ज्ञान नहीं था।
लेकिन लिली को असीमा की फ़िक्र थी। फ़ोन मिलाया तो कोई जवाब नहीं मिला। अब लिली कोर्ट की दहलीज़ लाँघकर भीतर जा चुकी थी।
असीमा को ज़्यादा ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उसके साथ उसका कोई वकील था और उससे थोड़ी दूर पर उसके शौहर खड़े थे। लिली को देखकर असीमा बिल्कुल हैरान नहीं हुई। “इनसे मिलो, ये आदिल हैं। अब तक मेरे शौहर हैं, लेकिन अगले एक घंटे बाद नहीं होंगे।”
आदिल ने लिली की ओर बेफ़िक्री से अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। सकुचाती हुई लिली ने जल्दी से हाथ मिलाया और असीमा को लेकर एक कोने में चली गई।
“क्या है ये सब असीमा? आई फ़ील रिअली चीटेड।”
“मुझसे भी ज़्यादा?” असीमा की आँखों में तैरते पानी के जवाब में लिली कुछ न कह पाई।
“जब यहाँ तक आई हो तो मेरे लिए थोड़ी और परेशानी उठा लो। घर जाकर दो दिनों के लिए सामान ले आओ। पूना चलो मेरे साथ। मैं अम्मी-अब्बू के सामने थोड़ी-सी हिम्मत चाहती हूँ।”
शाम को लिली असीमा के साथ पूना जानेवाली बस में थी। क्यों, कैसे इन सवालों से फ़िलहाल लिली नहीं जूझना चाहती थी।
बस में ही असीमा ने लिली को सबकुछ बताना शुरू किया।
कॉलेज में असीमा और आदिल साथ थे। साथ आर्किटेक्ट बने। साथ नौकरी शुरू की और एक दिन पूना जाकर आदिल ने असीमा का साथ माँग लिया, हमेशा के लिए। तब दोनों ने मुंबई में बसने का फ़ैसला किया। आदिल ने अपनी कंपनी खोल ली और बीच-बीच में आर्किटेक्चर पढ़ाने लगे। असीमा ने कर्माकर आर्किटेक्स में नौकरी कर ली। शादी के बाद सालभर सबकुछ अच्छी तरह चलता रहा। पूरे हफ़्ते की नौकरी और फिर लोनावला, कजरथ या महाबलेश्वर में वीकेंड।
लेकिन एक साल में ही आदिल शादी से परेशान होने लगे। उन्हें बंदिशों से, सवालों से उलझनें होने लगीं। ससुराल लखनऊ में थी इसलिए रिश्ते को मज़बूती देने के लिए उनका सहारा भी मुश्किल था।
“आर्किटेक्ट भी कलाकारों की तरह होते हैं लिली। जैसे उनकी कला को नहीं बाँधा जा सकता, वैसे ही उनकी फ़ितरत भी मनमौजी होती है, बिल्कुल स्वच्छंद। पहले मैं बहुत रोती-चिल्लाती थी। बहुत झगड़ती थी। मेरे माँ-बाप पूना से आनेवाले थे हमसे मिलने। आदिल ने उनसे मिलने के बजाय अपनी एक क्लायंट के साथ मड आयलैंड में रुक जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा। अगले दो साल तक हम ऐसे ही डूबते-उतराते रहे। कभी बहुत क़रीब, कभी बहुत दूर। लेकिन फिर खींचना मुश्किल हो गया। हर छोटी-छोटी बात तक़रार का सबब बन जाती। एक रात मैं बैंगलोर से मीटिंग के बाद वापस आई तो मुझे मेरा सूटकेस फ़्लैट से बाहर पड़ा मिला। घर अंदर से बंद था। घंटे-भर तक घंटी बजाने के बाद भी आदिल ने दरवाज़ा नहीं खोला। मैं रातभर लावारिसों की तरह सड़कों पर घूमती रही, सूटकेस खींचते हुए। न किसी दोस्त को बता सकती थी न घर फ़ोन कर सकती थी। सुबह दफ़्तर आई, गेस्ट हाउस बुक किया और पीजी खोजने लगी। इस बीच आदिल ने न मेरे फ़ोन का जवाब दिया न एसएमएस का। मैं एक हफ़्ते तक फिर भी घर जाती रही, इस उम्मीद में कि शायद उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हो जाए। शायद कोई रास्ता हम तलाश कर सकें। एक रात एसएमएस पर उन्होंने तीन बार तलाक़ लिखकर भेज दिया। फिर ई-मेल किया और फिर अदालत के ज़रिए एक नोटिस मेरे दफ़्तर के पते पर आया। मैंने तब भी घर पर कुछ नहीं कहा और एक ट्रेनिंग के लिए छह महीने के लिए इटली चली गई। वापस आई तब भी आदिल तलाक़ पर क़ायम थे। और बस आज तुमने देखा, वो मेरी प्रेम-कहानी का आख़िरी पन्ना था।”
लेकिन पूना में सबके सामने असीमा ये सबकुछ इतनी आसानी से न कह पाई।
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10-05-2020, 12:42 PM,
#4
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
लिली उसके साथ समझाने की कोशिश करती रही। कभी उसे परिवार के लोगों ने सुना, कभी बेइज़्ज़त किया। कभी उसे ख़ुद पर कोफ़्त होती रही कि इस पचड़े में पड़ी ही क्यों, कभी लगता असीमा की जगह वो होती तो क्या करती।
इस तूफ़ान के बाद दोनों साथ ही लौटे थे। असीमा ज़्यादा दिनों तक घर पर नहीं रुकना चाहती थी।
दोनों की ज़िंदगी फिर वीकेंड के इंतज़ार में कटने लगी। लेकिन लिली ने कई रातों को नमाज़ के बहाने उठी असीमा की सिसकियाँ सुनी थी। उसे क़ुरान की आयतों में सुकून ढूँढ़ने की कोशिश करते देखा था।
लेकिन कमरे में किसी और को असीमा की हालत का ज़रा-भी इल्म ना था। चारों फेम ऐडलैब्स जातीं, लंच और डिनर के लिए मिलतीं। यहाँ तक कि साथ मिलकर मुंबई-दर्शन के लिए भी निकलतीं।
लिली के मंगेतर के मुंबई लौट आने के बाद ये सिलसिला कम हो गया। मार्च में लिली को घर जाना था, अपनी शादी के लिए। असीमा ने भी दुबई जाने का फ़ैसला कर लिया था और नौकरी के लिए अर्ज़ियाँ भी डालने लगी थी। फिर भी लिली अक्सर उसे एसएमएस में कोई-न-कोई शेर भेज दिया करती और साथ में लिख देती- रूममेट होने का फ़र्ज़ अदा कर रही हूँ।
“इट हैज़ टू बी दुबई इफ़ आई एम एन आर्किटेक्ट।” असीमा ने एक दिन दुबई के पक्ष में दलील दी और अपने लैपटॉप पर बुर्ज ख़लीफ़ा और पाम जुमैरा के कंस्ट्रक्शन की तस्वीरें और उनके थ्री-डी प्रेज़ेन्जेशन दिखाए, जिन्हें आर्किटेक्चर की दुनिया का अजूबा माना जाता है।
उस रात सोने से पहले लिली आदतन असीमा के पास गई, अपने बालों में तेल लगवाने के लिए। विशाखा और नफ़ीज़ा नहीं लौटे थे।
बालों में तेल लगाते हुए असीमा शादी की तैयारियों के बारे में पूछती रही। लिली हाँ-हूँ में ही जवाब देती रही।
बालों से निकलकर असीमा की उँगलियाँ लिली के कंधों को दबाने लगी थीं। लिली की आँखें अपने-आप बंद होने लगीं। पतली-सी नाइटी के भीतर से असीमा की उँगलियाँ अब लिली की गर्दन पर उभर आए उन नीले निशानों को सहला रही थीं जो उसने कल से कॉलर-वाली शर्ट पहनकर छुपा रखा था।
जब उँगलियों ने सवाल पूछने बंद कर दिए तब असीमा ने पूछा लिली से, “जिस मंगेतर से तुम अपनी रूममेट को नहीं मिलवा पाई, जिससे न मिलने के तुम सौ बहाने ढूँढ़ती हो और जिससे मिलकर आने के बाद तुम दो दिनों तक बीमार दिखती हो, उसी मंगेतर के प्यार की निशानी हैं ये ज़ख़्म?”
लिली हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। “नहीं, नहीं। वो तो बस ऐसे ही। शेखर को ग़ुस्सा ज़रा जल्दी आ जाता है।”
उसके पास इतना-सा ही जवाब था। ठीक ही कहता है शेखर, लिली को तो ठीक से झूठ बोलना भी नहीं आता।
“और ग़ुस्से का ये अंजाम होता है कि तुम चोट के दाग़ छुपाए फिरती हो? इतनी तकलीफ़ सह कैसे लेती हो लिली? दो ज़िंदगियाँ कैसे जीती हो?”
“शरीर के ज़ख़्मों को मन पर नहीं आने देती, इसलिए।”
“लेकिन कब तक? मैं रिश्तों की कोई एक्सपर्ट नहीं। बल्कि रिश्तों पर सलाह देने का मुझे कोई हक़ तो होना ही नहीं चाहिए। लेकिन जान-बूझकर ख़ुद को कुँए में मत ढकेलो लिली।”
लिली चुप रही। फिर धीरे-से कहा, “शादी के दो महीने पहले मैं कुछ नहीं कर सकती। मुझमें हिम्मत नहीं।”
“और सपनों को टूटने देखने की हिम्मत है, छुप-छुपकर पिटने की हिम्मत है? जो रात-रात भर बैठकर स्कि्रप्ट लिखती हो उनको समंदर में बहा आने की हिम्मत है? दस साल की उम्र से फ़िल्में बनाने का जो सपना देखा, उसे चूर-चूर करने की हिम्मत है?”
अगली सुबह लिली ने पटना फ़ोन किया, शादी तोड़ने की घोषणा करने के लिए।
अगला एक हफ़्ता बहुत भारी था। माँ-पापा और बाद में तमाम चाचाओं-मामाओं के सामने फ़ोन पर अपनी दलीलें रखते-रखते लिली थक गई थी। शेखर नाराज़ होकर सीधा उसके सामाजिक चरित्र-हनन पर उतर आया। टीवी की जिन पार्टियों में वो शेखर को अपना मंगेतर बनाकर ले गई थी, उससे कुछ न छुपाने के मक़सद से उसने जो राज़ शेखर से साझा किए थे, वे सभी आज उसी के ख़िलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे।
रिश्ता टूटने के बाद शेखर जैसे लिली से पेश आया, उसे देखकर लिली ने चैन की साँस ली। कम-से-कम शेखर का असली रूप तो सामने आ गया था!
एक शाम असीमा ने लिली को एसएमएस भेजा था, “हम जिस जन्नत की तलाश में हैं वो है कहीं!”
फिर एक दिन असीमा दुबई चली गई और लिली ने कुछ सालों के लिए मुंबई छोड़ दिल्ली को वापस अपना घर बना लिया। असीमा दुबई में इमारतें बनवाती रही, लिली दिल्ली में डॉक्यूमेंट्रीज़ बनाने में लग गई।
दोनों में बातचीत होती रही, लेकिन उतनी ही जितनी एक इंटरनेशनल कॉल पर मुमकिन हो सकती है। अकबर से मिलने और निक़ाह के बाद असीमा पहले अपना बिज़नेस बढ़ाने में मसरूफ़ हो गई और फिर अलीज़ा के आने के बाद तो दुनिया घर और दफ़्तर के बीच ही सिमटकर रह गई। लेकिन कुछ रिश्ते दूरियों से इतर हमारे भीतर उसी गर्माहट के साथ ज़िंदगी भर क़ायम रहते हैं, जिस गर्मजोशी के साथ उनकी शुरुआत होती है।
पिछले तीन घंटों में असीमा अपनी ज़िंदगी का रुख़ बदल डालनेवाले उन सात महीनों को एक बार फिर इन तस्वीरों के ज़रिए जी लिया था। उन सात महीनों की हमसफ़र अपनी सबसे अज़ीज़ रूममेट को उसने एक के बाद एक कई ई-मेल भेजे थे- उन पुरानी तस्वीरों और स्कि्रप्ट के साथ और मोबाइल पर भेजा था एक मैसेज, स्माइली के साथ- “हो गई ग़ालिब बलाएँ सब तमाम… आज एक बार फिर तुम्हारी रूममेट होने का फ़र्ज़ अदा कर रही हूँ।”
बिसेसर बो की प्रेमिका
पूरा गाँव मोतीचूर की खुशबू से गम-गम गमक रहा है। बाबू साब के यहाँ उनके छोटका सुपुतर का बियाह है और आँगन में आखिरी शादी का जशन पूरा टोला मना रहा है। टोला तो टोला, गाँव-जवार के लोग भी इसी एक ठो बियाह में उलझे हुए हैं।
बिसेसर बो को भी एक रत्ती फुर्सत नहीं है। पूरा-पूरा दिन मलकाइन के आगे-पीछे डोलती रहती है। जब देखो तब मलकाइन भी याद दिलाती रहती हैं उसको, “कान खोल के सुन लो बिसेसर बो। जो बियाह का सब काम ठीक से निपट जाएगा तऽ तुम्हरा दू ठो लुगा-धोती पक्का। एक जोड़ा बिछिया भी देंगे आउर चूड़ी-सिंदूर-टिकुली भी। कहीं जो गड़बड़ हुआ…”
“हाय हाय मलिकाइन! अईसा अपसगुन बात सब सुभ-सुभ मौका पर बोलते हैं का?” बिसेसर बो घी और बूँदी वाले हाथ से इतना कहकर अपना माथा ठोक के लड्डू पारने में या मिट्टी वाले हाथ से आँगन लीपने में या गेहूँ फटकने में और अधिक तन्मयता से लग जाती है। बात लुगा-धोती या रुपया-कौड़ी के लालच की नहीं है। बात पीढ़ियों के उस नाम की है जो बिससेरा बो के ससुराल वालों ने बबुआन लोगों की निश्छल सेवा करके इतने सालों में कमाया है।
पर्दे के पीछे से मलकाइन की बड़की पतोहू आवाज देती है तो आँगन छोड़ मिट्टी वाले हाथ लिए बिसेसर बो उधर भी दौड़कर हो आती है।
“आँगन लीप के आओ, फिर काम बताते हैं।” बड़की कनिया अपनी एड़ियों पर टह-टह लाल रंग लगाते हुए कह देती हैं। जो काम बड़की कनिया को कराने होते हैं, उनमें से अधिकांश काम बिसेसर बो के मिट्टी सने हाथों से नहीं हो सकते। अब मिट्टी सने हाथों से बड़की कनिया की उजली पीठ पर मुल्तानी मिट्टी और चंदन का उबटन तो नहीं लग सकता न…
ये जो बड़की कनिया हैं न, उनका बिसेसर बो पर विशेष स्नेह है। बियाह के दो बरस में बड़की कनिया ने अपने आगे-पीछे एक बिसेसर बो को छोड़कर किसी और को इतना घूमते-सेवा करते नहीं देखा। बड़की कनिया को अँगना में उतारने के सारे नेगचार के काम भी तो बिसेसर बो ही कूद-कूदकर करती रही थी।
इस वाले बियाह में भी उसी ने मोर्चा संभाला हुआ है। दउरा रंगवाने से कुदाल जुटाने तक, साड़ियों में फॉल लगाने से लेकर दाल भर के पूड़ी बेलने तक, जिम्मेदारियों वाले ऐसे सारे काम मलकाइन सिर्फ और सिर्फ बिसेसर बो को ही सौंपती हैं।
लेकिन दो साल बाद भी बिसेसर बो को बड़की पतोहू की खासम-खास टहलनी बनने की अनुमति बड़की मलकाइन नहीं दे पाई हैं। सास-बहू के बीच की ये दुखती रग है। दोनों बिसेसर बो पर अपना एकछत्र अधिकार चाहती हैं।
सास को घर-गृहस्थी के सारे काम कराने होते हैं। लाई, कसार बँधवाने से लेकर संक्रांत पर पूजा-पाठ के काम-इंतजाम तक, अँगना झाड़ने-बुहारने से लेकर शिवजी पर चढ़ाने के लिए कनैल फूल तोड़कर लाने तक। और बहू को अकेलेपन की एक सहेली चाहिए। ऐसी सहेली जो कभी उसके बालों में तेल लगा दे। कभी हाथों में लगाने के लिए मेहँदी के पत्ते सिल-बट्टे पर पीसकर ले आए और कभी दुआर पर चुपके से झाँक आए कि बड़की कनिया के मियाँजी वहाँ कौन-सी महफिल जमाए बैठे हैं। दिन-दिनभर कोर्ट-कचहरी, खेत-खलिहान, जमीन-जायदाद, पंच-सरपंच के चक्कर में गायब रहने वाले पति की गैर-मौजूदगी में दो बोल बतियाने वाली, बड़की कनिया के शिकवे-शिकायतों को झेलनेवाली एक घरेलू साथिन बनने का माद्दा अगर कोई रखता है, तो वो है बिसेसर बो।
लेकिन सास बड़ी हैं, सास के काम बड़े हैं। गृहस्थी पर दबदबा भी उन्हीं का चलता है। जाहिर है, घर-आँगन के साथ-साथ बिसेसर बो पर भी उन्हीं की चलती। फिर भी बदलते मौसम के बीच छोटी-बड़ी होती दुपहरी में मलकाइन की छोटी-सी परछाईं बनी घूमती बिसेसर बो दिन के ढलते-ढलते दो-एक बार बड़की कनिया की कोठरी में जरूर झाँक आती है।
ये जो बिसेसर बो है न, मलकाइन की गोड़िन ही नहीं है, उनके सारे मर्जों का इलाज भी है। जितना अच्छा भूँजा भूँजकर लाती है अपने गोड़सार से, उतना ही अच्छा कसार पारती है और उससे भी अच्छा आँगन लीपती है। खटकर काम करती है, चाहे बाड़ी में लगा दो चाहे चौके में। खुरपी थमा दो तो मिट्टी कोड़ आती है, वो भी गा-गाकर- “बलमुआ भईले दरोगा, हम हो गइनी दरोगाइन / सलामी बजईह, घरे मत अईह, हम भ गईनी दरोगाइन…”
एक हजार काम बिन मोल के निपटा देने वाली गोड़िन को कौन छोड़ देता कि बड़की मलकाइन छोड़ दें! एक वफादार चाकर अपनी बहू के नाम करना अपनी तिजोरी की चाभी सौंप देने के बराबर है। इसलिए बिसेसर बो पर खींचातानी चलती रहती है और दो साल में उसने भी बीच का रास्ता निकालते हुए दोनों पार्टियों को खुश रखने का तरीका सीख लिया है। एक आज है तो दूसरी उसका भविष्य है। बिससेर बो चाहकर भी दोनों में से किसी को नाराज कर ही नहीं सकती।
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10-05-2020, 12:42 PM,
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RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
वैसे बिसेसर बो खाली बिसेसर बो यानी बिसेसर की पत्नी नहीं है। उसका एक अदद-सा नाम भी है जो माँ-बाप ने बड़े लाड़ से रखा होगा- चंपाकली। लेकिन लाड़ से किस्मत थोड़े न बदल जाती है? गोड़िन की बेटी गोड़िन की पतोहू बन गई और एक गाँव छोड़कर दूसरे गाँव का गोड़सार संभाल लिया। बिसेसर दिन भर पता नहीं पोखर किनारे बैठे-बैठे मछलियाँ पकड़ने के लिए दाना डालता है या जुआ खेलता है… लेकिन शाम को घर लौटता है तो मछलियाँ पकड़ने वाले जाल में जलकुंभी और कूड़ा-करकट के अलावा कुछ भी नहीं होता। जाने पूरे गाँव की मछलियाँ किस पोखर में खुदकुशी कर आईं? कम-से-कम बिसेसर बो उर्फ चंपाकली ने तो जिंदा मछलियाँ तब से नहीं देखी जब से बियाह के इस गाँव में आई है। हाँ, जिस दिन दिमाग दुरुस्त रहा उस दिन मरी हुई मछलियाँ ले आता है बिसेसर। उस दिन गोड़सार से सोन्हाते हुए बालू से मकई के लावे की खुशबू नहीं आती, खड़ी लाल मरीच के फोरन के पटपटाने की आवाजें आती हैं।
बिसेसर का बड़की मलकाइन के परिवार से गहरा नाता है, जुग-जुगांतर का। ये नाता मालिक बाबू के गुजर जाने के बाद और पुख्ता ही हुआ है, टूटा नहीं है। पता नहीं कितनी पीढ़ियों से बिसेसर का परिवार मालिक बाबू के परिवार की बिना पैसे की चाकरी कर रहा है। बदले में कटनी-दौउनी के वक्त चार पैसे और थोड़े से अनाज का जुगाड़ हो जाता है। बाकी के साल कभी पर्व-अनुष्ठान कभी शादी-ब्याह के बहाने लुगा-धोती, कपड़े-लत्ते की चिंता से मुक्ति मिल जाती है। महीने-दो महीने में जो जिंदा मछलियाँ हाथ आती हैं, उन्हें शायद मालिक बाबू के दरवाजे पर ही भेंट चढ़ा आता है बिसेसर।
पता नहीं बिसेसर कितना काम करता है और कितना आराम, लेकिन बिसेसर बो तो हाड़-तोड़ मेहनत करती है। अभी पौ के फटने से पहले टोले की औरतें अपना अँगना बहारने की तैयारी कर ही रही होती हैं कि बिसेसर बो के गोड़सार का चूल्हा सुलग जाता है। चूड़ा-दही के नाश्ते से पहले तक बिसेसर बो पूरे टोले का भूँजा और मूढ़ी दरवाजे-दरवाजे घूमकर पहुँचा आती है। बिसेसर काम पर जाए न जाए, बिसेसर बो एक भी दिन नागा नहीं करती। पति की अकर्मण्यता की भरपाई चौगुना काम करके करती है। रात से पहले घर लौटते-लौटते उसके अंग-अंग में दर्द रेंगनी काँटे की तरह चुभता है। जिस दिन बिसेसर की अम्मा यानी बिसेसर बो की सास थोड़ी रहमदिल होती हैं, उस दिन कहती हैं कि रेंगनी के फल को जलाकर उबट गए दरद पर लगाओ तो बड़ा आराम मिलता है। बाकी दिन तो खैर दोनों के बीच माँ-बाप, नैहर और हराम के नाम की गालियों का रिश्ता होता है।
वैसे कुछ लोग हराम का खाने के लिए ही पैदा होते हैं और कुछ लोगों की आराम से पिछले कई जन्मों की दुश्मनी होती है। बिसेसर बो के देह को भी आराम नहीं लिखा और इसका बड़की मलकाइन के घर से दो दिन में निकलने वाले छोटका बाबू की बारात का कोई रिश्ता नहीं है।
छोटका बाबू की बारात निकलने के चहल-पहल के बीच एक बात जरूर हुई है। बड़का बाबू अब अचानक अपने स्वर्गीय पिताजी उर्फ मालिक बाबू की भूमिका में आ गए हैं और घर से लेकर दुआर, बारात से लेकर बाजार की जिम्मेदारी उन्होंने बड़ी अच्छी तरह संभाल ली है। दो-चार दिन में जेठ बन जाएँगे, यही ख्याल शायद उन्हें अपनी चाल-ढाल और रवैए में संजीदगी लाने पर मजबूर किए जा रहा है। यूँ तो तीन ही साल का फासला है बड़के और छोटके के बीच, लेकिन बिन बाप के आँगन का बड़ा बेटा वक्त से पहले ही पूरे घर-परिवार का बाप बन जाता है।
“हमारा दुनाली साफ करवाना है। छज्जा पर से उतरवा देना।” कलफ लगे कुर्ते का बटन बंद करते हुए बड़का बाबू जाने आईने से कह रहे हैं या पीछे बैठी बड़की कनिया से!
“अम्माजी को बोल दीजिएगा। ये सब काम हमारे बस का नहीं है।” सेफ्टी पिन की नोक से अपनी पायल की जालियों में से गंदगी निकालने पर पूरा ध्यान लगाए बैठी बड़की कनिया जाने अपनी पायल से कह रही हैं या सामने खड़े अपने पति से!
बड़का बाबू अपनी दो साल और कुछ हफ्ते पुरानी पत्नी को दो-चार कड़ी बातें बोलना चाहते हैं, लेकिन शादी-ब्याह के घर में इस कमरे को पत्नी द्वारा कोपभवन बना देने के डर से कुछ नहीं कहते, सिर्फ किनारे रखी मेज छज्जे की ओर खींचने लगते हैं।
बड़की कनिया की मिजाजपुर्सी के बहाने कमरे में रंगी हुई धोतियाँ गिनवाने आई बिसेसर बो की रगों में अपने मालिक को धोती समेट मेज पर चढ़ने की कोशिश करते देख स्वामी-भक्ति का उबाल आ जाता है और वो आगे बढ़कर झट से मेज पर चढ़ जाती है।
“अरे आपसे न होगा मालिक। हमको बुला लेते। इतना-इतना गो काम के लिए आप अपना कपड़ा-लत्ता काहे खराब कर रहे हैं?” कुछ अपनी पत्नी की उदासीनता से चिढ़कर और कुछ अपने सीधे पल्ले को कमर में खोंसकर कुछ निचली, कुछ ऊपरी पीठ उघाड़े छज्जे पर से उचक-उचककर सामान उतारती बिसेसर बो को देखकर लिहाज में बड़का बाबू कमरे से बाहर चले गए हैं।
लेकिन अपने काम के प्रति बिससेरा बो की इस तत्परता और लगन के कई नतीजे निकल आए हैं। पहला, बड़का बाबू की दुनाली के साथ-साथ छज्जे पर का अनाप-शनाप कचरा भी साफ हो गया है। दूसरा, बिसेसर बो की पीठ में और तेज दर्द उबट गया है। तीसरा, गोली के लिए बड़की कनिया के पलंग के पाए के पास बैठी बिसेसर बो को बड़का बाबू की बेदिली और बड़की कनिया के दुखते दिल का हाल सुनते-सुनते रात हो आई है। चौथा, बड़की मालकिन ने बिना काम के आड़े-तिरछे काम करने के लिए बिसेसर बो को कस के झाड़ लगाई है।
लेकिन इस पूरी घटना का एक और नतीजा निकला है, जिसका बिसेसर बो को इल्म तक नहीं। जिस गोड़िन को उनकी माँ और पत्नी, दोनों ने माथे पर बिठा रखा है, वो गोड़िन अब बड़का बाबू के ध्यान में भी चढ़ गई है। जो चाकरी के काम इतना मन लगाकर, इतनी फुर्ती से, पटाक से, इतनी तेजी से करती है वो दुनिया का सबसे जरूरी काम कितनी अच्छी तरह करती होगी? जिसके बाजुओं में इतनी ताकत है कि अकेले दो-चार बक्से खींचकर पटक डाले, उन बाजुओं को मजबूती से थामने का सुख कैसा होता होगा? पियक्कड़, घुमक्कड़, उजबक बिसेसर ऐसी बहुमूल्य अमानत का मोल क्या जानता होगा? ऊपरवाला भी अजब खेल रचता है। अपने छोटे भाई की बारात निकालने की तैयारी में जुटे बड़का बाबू का मन किसी और तैयारी में लग गया है।
ये मन भी अजीब जंतु है। शरीर की दशा-दिशा, हालत-मकसद, ताकत-आदत और सीमाओं का कभी ख्याल नहीं रखता। शरीर होता कहीं है और मन शरीर को लिए कहीं और जाता है। मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते मन सबसे पापी हो सकता है और किसी का गला रेतते हुए यही जटिल मन गंगास्नान-से भाव में डूबा हो सकता है।
बड़का बाबू के मन ने भी उनके शरीर का साथ छोड़कर बस ऐसा ही एक अबूझ खेल शुरू कर दिया है। बारात का स्वागत करते सरातियों की तैयारी में मीन-मेख निकालते हुए, अपनी दुनाली से हवा में चार राउंड फायर करते हुए, जनवासे में विदेशी शराब के प्यालों पर नचनिया के ठुमकों पर सीटियाँ बजाते हुए, पैसे लुटाते हुए भी बिसेसर को अपनी नजरों से एक पल के लिए ओझल न होने देकर बड़का बाबू के मन की किसी ख्वाहिश ने उनके शरीर पर जीत दर्ज कर ली है।
जाने बड़का बाबू का अपने ऊपर बरसता स्नेह है या जनवासे में गूँजती दमदार आवाज में ‘सात समंदर पार मैं तेरे पीछे-पीछे आ गई’ की पैरोडी पर चलता लौंडा नाच, या खुले दिल से पिलाई गई शराब, भोर होते-होते पूरी तरह भाव-विभोर बिसेसर बड़का बाबू के मन की मुराद के पूरा होने में अपना हाथ बँटाने का पक्का वायदा कर चुका है। नीम तले चबूतरे पर सदियों से बैठे पत्थर के मोरारजी के नाम की किरिया पचहत्तर बार खाता है वो। जितनी बार शराब और बड़का बाबू के अप्रत्याशित स्नेह के नशे में बड़बड़ाता है, उतनी बार दुहराता है, “मोरारजी बाबा के नाम का किरिया मालिक, साम-दाम-दंड-भेद कुछो नहीं छोड़ेंगे। चंपाकली और हम उस दुआर का अहसान मानते हैं। इतना-सा काम नहीं करेंगे हम दोनों आपके लिए!”
बियाह-शादी का सब काम शांति से निपट जाने तक मन की मुराद का ये मामला टाल दिए जाने पर स्वामी और सेवक, दोनों राजी हो गए हैं। चंपाकली को राजी करने में बिसेसर को उतना ही वक्त लगेगा जितना बड़का बाबू बिसेसर के लिए अपनी पुरानी मोटरसाइकिल ठीक करवाने में लगाएँगे। दोनों के इस समझौते के बारे में किसी को पता चले, इसका तो खैर सवाल ही नहीं है। दोनों को किसी और का ख्याल हो न हो, गाँव-चौपाल में अपनी इज्जत का जरूर है।
उधर उसी रात बारात के जाने के बाद बड़की मलकाइन के आँगन में डोमकच खेलते हुए बिसेसर बो का मन भर आया है। अगर लोग बियाह वंश बढ़ाने के लिए करते हैं, वैध संतानें पैदा करने के लिए करते हैं और शरीर का अंतिम उद्देश्य ही संतति होता है तो बिसेसर बो की जिंदगी निरर्थक है और उसका शरीर भी। बियाहे हुए आठ साल हुए और शरीर ने खटने के अलावा कुछ न जाना। बिसेसर के साथ रहते हुए शरीर ने पूरा होना जान लिया होता तो शायद बच्चा न हो पाने का अफसोस कम हो गया होता। लेकिन बिसेसर बो को अक्सर ऐसा लगता है कि ऊपरवाले ने बच्चा इसलिए नहीं दिया क्योंकि एक बिसेसर के बाद अब दूसरा बच्चा अकेले कैसे पालेगी वो?
अपने-अपने भतार के नाम का भद्दा मजाक करती औरतों को देखकर बिसेसर बो महफिल से उठ गई है और सबके लिए चाय बनाने आँगन के उस पार चौके की ओर बढ़ गई है। चलन है कि जबतक दुल्हन के माँग में सिंदूर नहीं पड़ जाता तबतक औरतें और लड़के की माँ जागती रहती हैं। रतजगे का खेल है डोमकच। औरतों को उनकी जरूरत और औकात बताने का खेल, जो औरतें ही खेला करती हैं।
चौके में बर्तन माँजने वाले चबूतरे से लगकर बड़की कनिया को उल्टियाँ करते देख बिसेसर बो चाय-पानी भूलकर उन्हें संभालने में लग गई है। बड़की कनिया जितनी उबकाई नहीं ले रहीं, उतनी सिसकियाँ ले रही हैं।
“आप बैठिए। हम मलकिनी को बुलाकर लाते हैं।” मचिया खींचकर बड़की कनिया को बिठा रही बिसेसर बो का हाथ बड़की कनिया ने जोर से थाम लिया है। उसकी बगल में बिसेसर बो बैठी क्या है, बड़की कनिया के भीतर से आती सिसकियाँ तेज रुदन में बदल गई हैं। उल्टी से आती बास से बिसेसर बो को पूरा माजरा समझ में आ गया है। बिसेसर बो जान गई है कि मालकिन को या किसी को बताने की कोई जरूरत नहीं। वो ढेर सारा नमक-पानी देकर, बड़की कनिया के मुँह में उँगली डाल-डालकर और उल्टियाँ करवाती जाती है। फिर निढ़ाल पड़ती बड़की कनिया को चौके में ही एक कोने में बिठाकर बिसेसर बो फिनायल की बोतल उझल-उझलकर उल्टियाँ साफ करने में लग गई है। उल्टियाँ और चूहा मारने की दवा की मिली-जुली बास को सिर्फ और सिर्फ फिनायल काट सकता है।
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#6
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
सबकी अपनी-अपनी तकलीफें, सबके अपने-अपने दर्द। ये दर्द डोमकच छोड़कर महफिल में बैठी औरतों की बतकुंचन का कारण न बन जाए, ये सोचकर बिसेसर बो जल्दी से चूल्हे पर दस-बारह कप चाय चढ़ा देती है।
“चाय पिएँगी बड़की कनिया?” कोने में चुकु-मुकु बैठी बड़की कनिया से वैसे किसी उत्तर की उम्मीद है नहीं बिसेसर बो को।
“जहर किसी काम नहीं आया। चाय ही दे दो।” बड़की कनिया का जवाब सुनकर जाने क्यों बिसेसर बो खिलखिलाकर हँस देती है।
“मरना ही था तो हमसे कहते बड़की कनिया। हम कोई देसी बढ़िया इंतजाम करते। ऐसा कि अभी नाचने-गाने वाली ई सब औरत लोग छाती पीट-पीटकर रो रही होतीं।” चाय की प्याली बड़की कनिया की ओर करते हुए बिसेसर बो कहती है। इस बार फीकी-सी हँसी हँसने की बारी बड़की कनिया की है।
“तुम रात में यही रहोगी?” बड़की कनिया का ये सवाल अनेपक्षित है और संदर्भ से बाहर भी। “अगर यहीं रहोगी तो मेरे कमरे में आकर सो जाना। हमको अकेले अच्छा नहीं लगता। सुनो… अम्माजी को…”
“कुछ नहीं कहेंगे। दिमाग खराब है मेरा कि बिना बात के बात उठाएँ? आप ठीक हैं, ईहे बहुत है। अब आप अपनी कोठरी में जाइए। हम चाय-पानी करके एको घंटा के लिए सोने आ सके तो आ जाएँगे।”
बिसेसर बो चाय की ट्रे लेकर बाहर निकल गई है और बड़की कनिया का कप धरा-का-धरा रह गया है। जिस जुबान ने अभी थोड़ी देर पहले जहर चखा, उस जुबान को चाय की मिठास क्या रास आएगी!
बड़की मालकिन से कह-सुनकर थोड़ी देर के लिए बिसेसर बो बड़की कनिया की कोठरी में चली आई है। बड़की मालकिन भी शायद नई बहू के स्वागत की खुमारी में इस कदर व्यस्त हैं कि न खुद में और सिमटती जाती बड़ी बहू के बारे में सोचने की फिक्र है, न अपने हाथ से निकलती अपनी सबसे वफादार नौकरानी की चिंता। नए की उम्मीद कई बार पुराने के नियंत्रण में होने का भ्रम भी पैदा करती है।
“तू इधर रुकी है तो तेरे घरवाले नाराज नहीं होंगे?” बड़की कनिया पूछती हैं। जिसे अकेले अटारी तक जाने की आजादी न हो, उसे पराए घर में सोने के लिए रुकी औरत की स्वंच्छदता तो हैरान करेगी ही।
“घरवालों को लुगा-धोती, पायल-बिछिया से मतलब है। फिर नेगचार के नाम का थोड़ा-बहुत रुपया मिलेगा। दुधारु गाय किसके खेत में चरने जाती है, ग्वाले को इससे क्या मतलब है?” बिसेसर बो जवाब देते-देते दीवार की ओर मुँह किए लेट गई है।
बड़की कनिया न चाहते हुए भी सोच रही है कि जमीन पर ऐसे बिना चटाई-चादर के सोना पड़ता, दिनभर दूसरों की चाकरी करनी पड़ती, गोबर उठाना पड़ता, चिपरी पाथना पड़ता… तो उसकी क्या हालत होती? पता नहीं बेचारगी किसकी ज्यादा बड़ी है, लेकिन किसी की भी इतनी नहीं कि जहर खा लेनी पड़े। फिर उसे क्या हो गया था?
लेकिन नींद बड़ी बेरहम है। बड़की कनिया के जेहन में कोई जवाब आए, इससे पहले ही उसके कमजोर वजूद पर काबिज हुए जाती है नींद…
नींद को भगाने के लिए पौ फटते घर में फैलता शोर काफी है। बिसेसर बो कमरे में नहीं है। खिड़की से देखती है बड़की कनिया कि वो झुककर आँगन लीप रही है। थोड़ी देर में नई बहू के आने की तैयारी शुरू होनी है, घर में एक हजार काम हैं लेकिन बड़की कनिया के पास झूठ-मूठ का भी कोई काम नहीं। बड़की कनिया के पति बेशक दुआर और बाजार के मालिक बने बैठे हैं, बड़की कनिया के पास इस छह फुट के पलंग और बारह फुट के कमरे के अलावा कोई जागीर नहीं। चौका भी अम्माजी का इलाका है, आँगन भी और एक इलाके में एक ही शेरनी अपने शावकों को शिकार करना सिखा सकती है। बड़की कनिया के पास तो न सिखाने के लिए कोई है, न सीखने के लिए। उम्र में नौ साल बड़े जिस पति के साथ घरवालों ने दामन बाँध दिया था…जिससे जिंदगी, नाते-रिश्ते, प्यार-मोहब्बत, रीत-रिवाज सीखने की उम्मीद थी, उसने बेरुखी का दामन थाम लिया। गुसलखाने की तरफ जाने से पहले हर रोज की तरह आज भी बड़की कनिया घूम-घूमकर अपना बदन देख रही है। जाने पीठ की फिसलन में कोई अड़चन है या गर्दन की लचक में कमी… उसके साथ बड़का बाबू को कोई ठहराव क्यों नहीं मिलता? उसे क्यों लगता रहता है कि उसको थामनेवाले हाथ कहीं और से होकर आए हैं? ये सोचते ही उसे लगता है कि बड़का बाबू के हाथ नागफनी हो गए हैं और उसका शरीर बन गया है रेत का टीला।
बारात निकलने से पहले वाली रात किस बात पर नाराज हो गई थीं बड़की कनिया, ये तो अब उसको भी याद नहीं। लेकिन नागफनी के काँटे चुभते रहते हैं रात-दिन। दुनिया का कोई कमबख्त जहर न रेत में घुल सकता है न नागफनी की जड़ों को सुखा सकता है।
नई बहू के स्वागत की आपा-धापी में बिसेसर बो अपने शरीर पर चलते रेंगनी के काँटे भूल गई है और बड़की कनिया को नागफनी याद नहीं रहा। नेगचार, रस्म-रिवाज, मेहमान, मुँह-दिखाई, कंकन उतराई में घर की औरतें मसरूफ हो गई हैं और दुआर पर दुल्हन और कलेवा-मिठाई, दान-दहेज सहित दुल्हन को सही-सलामत अपने घर ले आने में काम आई मर्दानगी का सुकून पसरा है। इस सुकून में भी न बिसेसर नशे में खाई कसमें भूला है, न बड़का बाबू के मन की मुराद बदली है।
कनिया उतारने के बाद अपने हिस्से का ईनाम लिए बिसेसर बो उस दिन बड़ी प्रफुल्लित घर लौटने लगी है। हाथ में लटकते प्लास्टिक के थैले में वो सारी चीजें हैं जिनका वायदा बड़की मलकाइन ने किया था- साड़ी-लुगा, धोती, एक जोड़ी बिछिया और यहाँ तक कि पायल भी। बड़की मलकाइन की खुशी तिहरी जो हो गई है। अव्वल तो चंदन के रंग वाली कनिया उतरी है। ऊपर से दान-दहेज आया है, सो अलग। साथ में समधियाने से छोटकी कनिया और उनकी सास की सेवा करने के लिए छोटकी कनिया की दू ठो मुँहलगी सेविका भी आई हैं।
“पिछलग्गू कहीं की। थोड़ा भी सरम नहीं है कि समिधायन के दरवाजे नून-भात खाने आ गई दूनो।” जाने आँगन में अपने वर्चस्व और अपनी जरूरत के कम हो जाने की आशंका है या नीम के तले बैठे मोरारजी बाबा के स्थान की महिमा, बिसेसर बो वहीं धप्प से चबूतरे पर बैठ गई है और अपने आप बड़बड़ाने लगी है। भविष्य की चिंता ऐसी बीमारी है जो वक्त, जगह, दिन-रात – कुछ नहीं देखती। इस आँगन का काम छूटा तो गोड़सार से घर चलेगा नहीं, ये बात बिसेसर बो उतनी ही अच्छी तरह समझती है जितनी अच्छी तरह डागडर बदलते मौसम पर चढ़ते बुखार के लक्षण पहचानता है। खुद को थोड़ी-सी सांत्वना देने के लिए उसने अपने आँचल में बाँधे हुए बड़की कनिया के दिए दो सौ रुपए को जल्दी से टटोलकर देख लिया है। अब चढ़ती किरणों की सलामी करने के उपाय ढूँढ़ने होंगे। मंथराएँ जन्मजात नहीं होतीं, हालात की पैदा की हुई होती हैं।
अँधेरे में बैठे-बैठे बिसेसर बो का मन उकता गया है, लेकिन कदम हैं कि न घर की ओर बढ़ते हैं न पीछे लौटते हैं। घर में कोई इंतजार नहीं, कोई जरूरत नहीं और जहाँ से लौटी है अभी, वहाँ शादी के बाद का उजड़ा हुआ पंडाल है। अब लेन-देन और नवकी कनिया के रंग-रूप की जुगाली करती बची-खुची मेहमान औरतों को चाय-पानी पहुँचाने की बिसेसर बो की इच्छा एकदम मर गई है। एक बड़की कनिया के पायताने बैठने का उपाय हो सकता है तो उनकी कोठरी में भी आज की रात बड़का बाबू लौटेंगे शायद… वैसे ऐसा क्या दुख है कि बड़की कनिया को जहर खाना पड़ गया?
बैसाख की अधकट चाँद वाली रात नीम के ऊपर से होते हुए धीरे-धीरे पोखर की ओर बढ़ती जा रही है। यूँ तो अपने गाँव में कोई खतरा नहीं, लेकिन भटकती आत्माओं पर किसका वश चलता है! नीम के पेड़ तले चुड़ैलों के हमलों से तो मोरारजी भी रक्षा करने से पहले चार बार सोचेंगे। ख्याल का रुख बदलते ही बूढ़े नीम ने भी अचानक अपना रूप बदल लिया है और किसी कामुक बुड्ढे की तरह अपनी डाल झुका-झुकाकर नीचे बैठी औरत को छूने के बहाने ढूँढ़ रहा है। जाने क्यों बिसेसर बो को लग रहा है कि एक जोड़ी चमकीली आँखें उसकी पीठ से चिपकती जा रही हैं। ये सोचते ही बिसेसर बो के पूरे बदन में झुरझुरी फैल गई है और वो एक झटके से घर जाने को खड़ी हो गई है। उमस भरी उस रात में झूम-झूमकर चलती पुरवाई के बावजूद नीम के तले खड़ी बिसेसर बो के माथे पर पसीना उतर आया है। प्लास्टिक की थैली में हफ्तों की अपनी कमाई थामे बिसेसर बो हाँफती-दौड़ती सीधा अपने दरवाजे पर जाकर रुकी है।
बिसेसर वहीं है। बिसेसर की अम्मा वहीं है। उनकी नजरें बदली हुई लगती हैं लेकिन। मुमकिन है कि चंपाकली की आँखों का दोष हो। लेकिन कुछ-न-कुछ तो बदला है। जहाँ तक नजरों का सवाल है, पर्दे खुलते उसी के दम पर हैं और भ्रम की पराकाष्ठा भी उन्हीं में होती है।
उस रात रेंगनी के काँटों से चुभते दर्द पर बिसेसर के घूमते हुए हाथ अच्छे लग रहे हैं चंपाकली को। लेकिन रात की वीरानी को एक दीया कहाँ जीत सका है भला! बिसेसर तुरंत मुद्‌दे पर आ गया है।
“उस दुआर-आँगन का बहुत अहसान है हमपर।” बिसेसर कहता तो है लेकिन फूस की छत को एकटक निहारती, वहाँ से झाँकती रात की मुफलिसी पर तरस खाती बिसेसर बो अपने पति की बात का कोई जवाब नहीं देती, बस घूमकर उसकी ओर थोड़ा और खिसक जाती है।
“हम मालिक लोग की कोई बात काट नहीं सकते।” बिसेसर की आवाज में एक किस्म की बेचारगी है जिसे भाँपकर बिसेसरा बो को गुस्सा आ जाता है। “माँगे हैं हम किसी से, कुछ भी हाथ फैलाकर? काम करते हैं, चमचई नहीं करते। किसी को देखकर ही-ही नहीं करते। किसी के साथ मिलकर उसी परिवार में दूसरों के लिए गड्ढा नहीं खोदते। देह खटाकर, मन मारकर चाकरी कर ही रहे हैं। अब और क्या करें? जान दे दें क्या?” चंपाकली झटके में उठकर बैठ गई है।
जाने क्यों बड़की कनिया का सोचकर उसके भीतर कोई हूक-सी उठी है। वो तो चाकर है। अपमान उसकी नियति है। बड़की कनिया किस बात के लिए अपमानित की जा रही हैं? नई कनिया की घर-भराई के बाद मलकाइन ने बड़की कनिया को चुमावन के लिए बुलाया तक नहीं था। कोठरी में बहुत देर तक रोती रही थीं बड़की कनिया।
“बड़का बाबू ने बुलाया है तुझे चंपा। देख, मना मत करना। अम्मा भी कहती है कि तुझे मना नहीं करना चाहिए।” बिसेसर अचानक मुद्‌दे पर आ गया है।
“बुलाया है मने? हम कल काम पर जा ही रहे हैं। घर का बियाह-सादी निपट गया तो क्या, अँगना लीपने-पोतने के काम से छुट्‌टी थोड़े न मिल गई है?”
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10-05-2020, 12:42 PM,
#7
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“अँगना में नहीं… कामथ पर बुलाए हैं तुमको। कल दिन का काम निपटाकर चली जाना थोड़ा। अँगना में कोई कुछ नहीं बोलेगा। सबको मालूम है कामथ पर गेहूँ दौउनी का काम चल रहा है।” बिसेसर बात अपनी पत्नी से कर रहा है लेकिन देख अलगनी पर लटकते कपड़ों की ओर रहा है। लेकिन जो इज्जत उसने अभी-अभी अपनी जुबान से निकाले हुए शब्दों से तार-तार की है उस इज्जत को अलगनी पर पड़े ये पुराने चिथड़े कपड़े कहाँ ढँक पाएँगे?
बिसेसर बो यानी चंपाकली जहाँ बैठी है, वहीं जड़ हो गई है। हवा थिर है। चंपाकली थिर है, भावशून्य। अधकटे चाँद वाली रात शून्य की परिक्रमा कर रही है। संभव है, परिक्रमा करते हुए बिसेसर के दरवाजे पहुँची रात अभी-अभी कही हुई उसकी बात सुनकर शर्माकर लौट भी जाए। लेकिन रात को शर्म नहीं है। जमीन, दौलत, औकात, पहचान, स्त्री, अधिकार… सब बंधक हैं। ताकतवरों के, रसूखवालों के बंधक। रात भी उनकी बंधक है, शर्म और इज्जत भी। रेंगनी के काँटों की चुभन बिसेसर बो की आँखों में उतर आई है। शरीर जड़ हो गया है। उसकी अंतरात्मा से न कोई आवाज निकलती है न किसी को धिक्कारती है वो- न किस्मत को, न बिसेसर को और न ही बड़का बाबू को जिनका इस रूप में आया प्रणय-निवेदन बड़की कनिया की बदहाली की सारी परतें उघेड़ देता है।
बिसेसर बो कुछ नहीं कहती। कोई जवाब नहीं देती। बिसेसर से थोड़ा-सा अलग हटकर सो जाती है बस। छाया की भाँति उम्मीद का पीछा करो तो यही होता है। परछाईं जीता-जागता इंसान नहीं होती और बंजर उम्मीद की कोख से अंकुर नहीं फूटते।
अगली सुबह बिसेसर बो ने सारे काम यंत्रवत किए हैं। दुआर और कोठरी को लीप-पोतकर चमकाना, गोड़सार में चूल्हा सुलगाना, दरवाजे-दरवाजे भूँजा पहुँचाना और हर किस्म के अपराधबोध को खर्राटों में निकालते बिसेसर को सोता छोड़कर मलकाइन के अँगना में सही वक्त पर हाजिर हो जाना… बिसेसर बो को वक्त पर कामथ पहुँचना है। उससे पहले उसे कई काम निपटाने हैं। बड़की कनिया की कोठरी में हाजिरी बजाना भी एक जरूरी काम है।
“मैदा घोल दिए हैं। अपना साड़ी कलफ के लिए दे दीजिएगा बड़की कनिया।” कोठरी में झाड़ू लगाते-लगाते बिसेसर बो कहती है।
“रहने दे बिसेसर बो। हम कलफ का साड़ी पहनकर कहाँ पटपटाते हुए जाने वाले हैं! इसी कोठरी में तो रहना है।” बड़की कनिया ने आज न उबटन तैयार करने को कहा है न मेहँदी पीसकर लाने को। बिस्तर पर ओलरकर बैठी हुई हैं बस। जाने सुबह से मुँह पर पानी के छींटे पड़े भी हैं कि नहीं।
“आप हमको चंपकली कहिएगा तो हमको ठीक लगेगा। उतरिए। बिस्तर झाड़ दें थोड़ा।” झाड़ू छोड़कर बिसेसर बो यानी चंपाकली अब बड़की कनिया की कोठरी का रंग-रूप सुधारने में लग गई है।
बड़की कनिया बिस्तर पर से फिर भी नहीं उतरतीं। बिस्तर बीती रात का मौन साक्षी रहा है। रात की सिलवटें जीवित हैं। अमिट हैं। जाने रेत-से शरीर में चुभते नागफनी के काँटों का क्या हुआ लेकिन बड़की कनिया की आत्मा अछूती रही है। प्रेम, ईर्ष्या, त्याग, समर्पण, स्वार्थ, जरूरत, छलावा, धोखे, झूठ… सबकुछ देखती रही है आत्मा। बड़की कनिया को लगता है कि उसके शरीर से नागफनी ने आप ही जन्म ले लिया एक दिन। आप ही काँटें उग आए थे उसमें। उसका शरीर रेत है रेत। ये शरीर दियारा की उपजाऊ बलुआही मिट्टी कभी नहीं हो सकता जिसपर अंकुर फूटे, वृक्ष लगे, पत्ते निकलें, फूल खिलें और फलियाँ आएँ। आकाश को टटोलती कोई टहनी नहीं निकलेगी बड़की कनिया के शरीर से। सिर्फ काँटे उगेंगे। आत्मसम्मान रहित शरीर ऐसे ही जी लेगा पूरी जिंदगी। कोई वशीकरण मंत्र भी तो नहीं है उसके पास।
“उठिए न। कितना सोचिएगा बड़की कनिया? सोचकर कोई जग की रीत बदल सका है जो आपका कुछ बदलेगा?” बिसेसर बो ने फटाक से बिस्तर से चादर खींचकर जोर से झटक दिया है, जैसे रात की सिलवटों के साथ-साथ छल और धोखे का बोझ भी उतार फेंकेगी। इस दुनिया में कितने अजीब-अजीब लोग हैं। एक से एक अजीब! कैसी-कैसी विकृति! कितना टेढ़ा-मेढ़ा स्वार्थी दिमाग! ऐसा दिमाग जो सिर्फ अपनी और अपने शरीर की सोचता है। बाकी, सामनेवाले का जिस्म तो जैसे सहजन की फलिया है- तोड़ा, पकाया, रस में डुबोया, चखा, दाँतों तले मसलते हुए जब बेस्वाद हो गया तो जुबान से बाहर ठेल दिया और कचरे में निकाल दिया। ये और बात है कि बिसेसर बो इतने सालों में आजतक सरसों-मसाला डालकर सहजन की तरकारी बनाना नहीं सीख पाई है।
कमरा साफ करके जाते हुए बड़की कनिया से बस इतना कह गई है बिसेसर बो, “मरद जात के गरदन में चाहे जो लटकता रहे, दुनिया को औरत के गले में लटकता हुआ मंगलसूत्तर ही अच्छा लगता है।”
कामथ की ओर जाते हुए बिसेसर बो की चाल में तेजी है और गर्दन में अकड़। बिसेसर पीछे-पीछे चलता आता है तो वो उसे वापस भेज देती है। “जेतना दलाली करना था, तुम किए। अब हमको अपना काम करने दो।” चंपाकली की आवाज की सख्ती से बिसेसर घबरा गया है। उसने अपनी पत्नी का ये रूप आठ सालों में नहीं देखा। लेकिन उसने इतने सालों में अपनी पत्नी को किसी और के बिस्तर पर जाते भी तो नहीं देखा!
पोखर किनारे उसे छोड़कर बिसेसर बो आगे बढ़ गई है- चंपाकली बनकर। बिसेसर पोखर में लगे कमल के पत्तों पर जमी काई देखने बैठ गया है। दुर्गंध को छुपाती है काई और काई को छुपाता है कमल। पोखर के आसपास सन्नाटा पसरा है। अब तो चंपाकली के पैरों की आहट भी गुम हो गई है। बिसेसर कामथ पर नहीं है, लेकिन उसका मन वहीं है। अब पहुँची होगी चंपा… अब बड़का बाबू ने थामा होगा उसको…
अचानक चंपा की तीखी गंध उसके नथुनों में भर आई है। उसका मन अति सीमित समयावधि में अति तीव्र गति से कामथ का भ्रमण कर आया है।
चंपाकली बिसेसर के मन के कामथ से लौट आने के कुछ देर बाद ही लौट आई है। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। जो घटना बिसेसर ने देखी नहीं, उस घटना के शब्दचित्र बिसेसर बो ने तीन वाक्यों में समेट दिया है।
“कह दिए हम बड़का बाबू को, हाथ एक ही शर्त पर लगाने देंगे। उनकी प्यास जितनी बड़ी बड़की कनिया की भी प्यास है। बड़की कनिया को बिसेसर दे दो एक रात के लिए, तुम बिसेसर बो को रख लो चाहे कितनी ही रातों के लिए।”
बिसेसर सुन्न हो गया है और चंपाकली पोखर में उतर गई है। पानी अंजुलि में भरकर मुँह में ले लिया है। फिर पानी में पानी के कुल्ले फेंक रही है। कटे हुए होठों से रिसते खून वाले पानी के कुल्ले। फिर उसी पानी से हाथ और माथे पर आए जख्मों को धो रही है। बड़का बाबू ने बिसेसर बो के दुस्साहस का बड़ा साहसिक जवाब दिया है।
हाथ-मुँह धोकर बिसेसर बो मलकाइन के आँगन लौट गई है – बियाह के बाद का घर समेटने, सीटने-साटने, मलकाइन के गोतिया-पटीदार लोग के यहाँ कलेवा की मिठाई का बायना बाँटने, शाम की चाय बनाने, चूल्हा सुलगाने, आलू छीलने और रोटी बेलने…
आँगन में घुटनों तक साड़ी खींचे बिसेसर बो भर परात आटा लिए गूँधे बैठी है और जोर-जोर से गा रही है, “बलमुआ भईले दरोगा, हम हो गइनी दरोगाइन / सलामी बजईह, घरेमत अईह, हम भ गईनी दरोगाइन…”
बड़की कनिया अपनी कोठरी में बिसेसर बो की चोट पर लगाने के लिए सुफ्रामाइसिन लिए बैठी हैं और वहीं से उसका बेसुरा गीत सुन-सुनकर मुस्कुरा रही हैं।
सिगरेट का आख़िरी कश
कमरे का कोना-कोना दुरुस्त कर दिया गया था। केन के लैंपशेड से ठीक उतनी ही रौशनी आ रही थी जितनी उसे पसंद थी- सिर्फ़ उसी कोने पर बिखरती हुई, जहाँ काँच के एक फूलदान में नर्गिस के गुच्छे बेतरतीबी से डाल दिए गए थे।
फूलदान के नीचे मेज़पोश पर गिरती रौशनी में उसने जल्दी से उसपर बिखरे रंग गिन लिए। छः थे। एक रंग छूट गया था। खरीदते हुए उसने ध्यान क्यों नहीं दिया था? सपने देखते हुए भी कहाँ सोचा था कि सात ही रंग के हों ये नामाकूल सपने?
कपड़े बदलते हुए उसने लिली ऑफ द वैली की शीशी को देखा। दम तोड़ती ख़ुशबुओं की कुछ आख़िरी बूँदें बाक़ी थीं। कुछ स्थायी नहीं होता। अपनी-सी लगने वाली ख़ुशबू का अपनापन भी एक दिन जाता रहेगा।
फ़्रिज़ में पिछली पार्टी की बची हुए बीयर की कुछ बोतलें थीं जिनका नसीब तय किया जाना था। पार्टी में उसने अपने एक कॉलिग से कहा था कि बीयर और घोड़े की लीद की बदबू में कोई ख़ास अंतर नहीं होता। उसका इतना कहना था कि पार्टी में सब बीयर को छोड़कर ब्रीज़र पर भिड़ गए थे और किंगफिशर की ये बोतलें अभी भी वैसी ही पड़ी थीं। लावारिस।
“बालों की कंडिशनिंग अच्छी होती है इनसे।” उसकी रूममेट ने कहा तो उसे सोनमर्ग की घाटियों पर पसरे आर्मी कैंप के अस्तबलों से आती बदबू याद आ गई।
“मिसमैच होगा। तुम्हारे बाल, ये बदबू… सोनमर्ग और कैंप्स की तरह।” और बोतलों में बची बीयर के इस्तेमाल की योजना फिर अनिश्चितकाल के लिए मुल्तवी हो गई।
जाने क्या सोचकर उसने बीयर के दो मग और बोतलें डाइनिंग टेबल पर रख दीं। बहुत ठंडी बीयर गले को नुकसान पहुँचाएगी और फिर कल प्राइम टाइम में उसी के शो के लिए कोई वॉयस ओवर करनेवाला नहीं मिलेगा।
रूममेट आज रात देर से आने वाली थी, क्लायंट पार्टी में एप्पल जूस पर बेतुके बहस-मुहाबिसों वाली एक लंबी शाम काटने की सज़ा भुगतकर। लड़का कभी एक घंटे से ज़्यादा वक़्त के लिए आता नहीं था इन दिनों उसके पास। दूरी एक बहाना हो सकती थी लेकिन रोहिणी और जीके वन की दूरी से उसे ये ज़ेहन की दूरी ज़्यादा लगती थी। मार्स और वीनस की दूरी जैसी कुछ।
हम दूरियाँ बचाए रखने पर आमादा हों तो कोई भी बहाना काम करने लगता है।
ख़ैर, रोहिणी से लड़के को आने में कम-से-कम डेढ़ घंटे तो लगते ही। यानी उसके पास बहुत सारा वक़्त था। इतनी देर में डिनर के लिए राजमा-चावल बन सकता था, कपड़ों की अलमारी ठीक की जा सकती थी, कोई किताब पढ़ने का दंभ भरा जा सकता था, हर हफ़्ते मँगाए जाने वाले न्यूज़वीक का एक आर्टिकल पढ़कर अख़बारवाले पर अहसान किया जा सकता था। या ये तय किया जा सकता था कि अपनी दिशाहीन रिलेशनशिप का करना क्या है। ये आख़िरी काम सबसे आसान था, क्योंकि इस रिलेशनशिप का करना क्या है, ये तय करना अब मुश्किल नहीं था।
छोटे शहर से आई थी वो, लौटकर वहीं चली जाती। वहाँ सुकून था, कुशन था और पहचान बनाने की कोई जद्दोज़हद नहीं थी। और प्यार भी कर लिया था आसानियों वाला। फलाँ-फलाँ की बेटी अमुक साहब की बहू होती, किसी को कोई शिकायत न होती। दोनों बचपन के दोस्त थे। ये अंतर्जातीय विवाह नहीं था। परिवार एक दूसरे को जानते थे, इसलिए पैरों के नीचे छह इंच मोटी गद्देदार लाल कालीन बिछाकर उसका स्वागत किया जाता। कोई लड़ाई नहीं थी, एक आसान रास्ता था। ज़िंदगी भर की आसानी थी।
मन सवाल पूछता रहा। मन जवाब देता रहा।
फिर ये ज़िद किसलिए? कैसी बेताब तमन्ना जो पूरी होते हुए भी अधूरी दिखती है?
ज़िद इसलिए क्योंकि ज़िंदगी की आसानियाँ ही सबसे बड़ी मुश्किलें होती हैं। हम जितने संघर्षों के बीच होते हैं, उतनी आसानी से जिए जाने के भ्रम को लेकर संतोष में होते हैं। और तमन्नाओं का क्या है? बेताब बने रहना उनकी फ़ितरत है।
फिर क्या बचाए रखना था?
बचाने वाले हम कौन होते हैं? ताउम्र बिखेर के समेटने का काम ज़रूर हमारा होता है।
तो फिर? हासिल क्या करना था आख़िर?
सिगरेट। सिगरेट हासिल करना था फ़िलहाल।
आदत न सही, तलब सही।
तलब न सही, ज़रूरत सही।
उसने लड़के को फ़ोन करके क्लासिक माइल्ड्स लाने की हिदायत दे दी। लड़के के आने में अब भी एक घंटे का वक़्त था।
60 मिनट। 3600 सेकेंड।
ज़रूरत इतना लंबा इंतज़ार क्यों करती? सो, उसने नीचे जाकर ख़ुद ही सिगरेट ख़रीदने का फ़ैसला किया। लाल रंग के चमकी चप्पलों में चमकते लाल रंग के नाख़ूनों पर नज़र गई तो रूममेट की एक और ज़िद का जीत जाना याद आया। वो इतनी जल्दी क्यों हार मान लेती है? अब घर जाकर नेलपॉलिश रिमूवर ढूँढ़ने का अलग काम करना होगा। वैसे हर नाख़ून पर बीस सेकेंड के हिसाब से वक़्त लगाया जाए तो 200 सेकेंड कम किए जा सकते हैं। रिमूवर ढूँढ़ने में कम-से-कम 600 सेकेंड।
जीके में लड़कियों को सिगरेट ख़रीदते देखकर किसी की भौंहें नहीं चढ़तीं और यहाँ सुपरमार्केट में आसानी से एल्कोहॉल मिल जाया करता है। सिगरेट भी ख़रीद ली गई और ग्रीन एप्पल फ़्लेवर वाले वोदका की बोतल भी। इस ख़रीददारी में 600 सेकेंड का सौदा भी कर आई थी वो।
वक़्त का सौदा इतना भी मुश्किल नहीं होता।
इंटरनेट नहीं था, वर्ना कोई अच्छी-सी कॉकटेल बनाई जा सकती थी। वोदका को नीट पिया जा सकता है या नहीं, ये जानने के लिए उसने फिर लड़के को फोन किया। ‘आख़िरी ट्रैफ़िक सिग्नल पर हूँ’ इस जवाब में लड़की के पूछे गए सवाल के जवाब जैसा कुछ नहीं था। नीट सही, ये सोचते हुए उसने एक ग्लास में वोदका डाल ली और क्लासिक माइल्ड्स के डिब्बे से सिगरेट निकाल ली, जलाने के लिए।
“तुम्हें सिगरेट पीना कभी नहीं आएगा लड़की।” रूममेट का ताना याद आ गया। बाएँ हाथ में सिगरेट थी और दाहिने में माचिस की जलती हुई तीली।
“मुँह में लेकर जलाओ और गहरा कश लो।” दिमाग़ में रूममेट का निर्देश फॉलो करती रही और वॉयला! जलती हुए एक सिगरेट उसके हाथ में थी। 240 सेकेंड…
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10-05-2020, 12:42 PM,
#8
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
फ़ोन की घंटी बजी। माँ थी। 1200 सेकेंड, कम-से-कम। वक़्त पर शादी और बच्चे हो जाने चाहिए। लोग बातें बनाते हैं…200 सेकेंड…मोहल्ले में चिंकी-पिंकी-बिट्टू-गुड़िया की शादियाँ तय हो गईं। लड़कों के खानदान का विवरण और दहेज की तैयारी…600 सेकेंड… तुम्हारी नालायकी और सिरफिरेपन पर हमले…600 सेकेंड… यह तो बोनस था!
दरवाज़े की घंटी बजी और फ़ोन से सुबह तक के लिए निजात मिल गई।
“सिगरेट नहीं मिली। गाड़ी नहीं रोक सका कहीं,” लड़के ने कहा।
“मुझे मिल गई, पियोगे?” उसने पूछा।
“ओह! नो थैंक्स।” लड़के ने कहा।
“वोदका या बीयर?” उसने पूछा।
“कुछ ख़ास है?” लड़के ने पूछा।
“नौकरी की दूसरी सालगिरह है। अगले पच्चीस साल वहीं टिके रहने का वायदा कर आई हूँ।” उसने कहा।
“क्या चाहती हो?” लड़के ने पूछा।
“पूछो क्या नहीं चाहती। जवाब देना आसान होगा।” उसने कहा।
“तुम्हें उलझने की बीमारी है?” लड़के ने पूछा।
“इतने सालों में आज पता चला है?” उसने कहा।
“कुछ खाओगी? बाहर चलना है?” लड़के ने शाम की बदमिज़ाजी बदलने की नाकाम कोशिश की।
“ग्रीन एप्पल वोदका के साथ काला नमक मस्त लगता है,” उसने जवाब दिया।
“आई गिव अप,” लड़के ने कहा।
“बचपन से जानती हूँ तुम लूज़र हो,” उसने जवाब दिया।
“व्हॉट्स रॉन्ग विथ यू? आई फील लाइक शेकिंग यू अप,” लड़के ने झल्लाकर कहा।
“यू वोन्ट बिकॉज़ आई डोन्ट परमिट। तुम तो मुझे छूने के लिए मुझसे ही इजाज़त माँगते हो,” सिगरेट का गहरा कश लेते हुए उसने आराम से जवाब दिया।
“आर यू ड्रंक?” लड़के ने प्यार से पूछा।
“देखकर क्या लगता है?” उसने उतनी ही बेरूख़ी से जवाब दिया।
“लगता है कि कोई फ़ायदा नहीं। हम बेवजह कोशिश कर रहे हैं। मुझे वापस घर लौट जाना चाहिए,” लड़के ने हारकर कहा।
“दरवाज़ा तुम्हारे पीछे है। जाते-जाते मुझे सिगरेट की एक और डिब्बी देते जाना। रूममेट को चाहिए हो शायद। हम आधी रात को कहाँ खोजते फिरेंगे?” लड़की ने बात ही ख़त्म कर दी।
“यही होता है जब छोटे शहरों से लड़कियाँ आती हैं दिल्ली पढ़ने। बिगड़ जाती हैं। कुछ तो अपने वैल्युज़ याद रखा करो। यही करने के लिए आई थी यहाँ?” लड़के ने एक आख़िरी कोशिश की।
“ये अगर तुम्हारा आख़िरी वार था तो ख़ाली गया। अगली कोई कोशिश मत करना,” लड़की ने कहा और वोदका गिलास में डालने लगी, जान-बूझकर इतने ऊपर से कि शीशे के ग्लास में उतरते हुए वोदका की खनक दूर तक जाती। कम-से-कम लड़के तक तो जाती ही।
“आई गिव अप,” लड़के ने कहा।
“ये वोदका लेते जाओ। यू मे नीड इट। सिगरेट भी एक्स्ट्रा ख़रीद लेना। तुम्हारे सारे गुनाह माफ़ हैं। वैल्युज़ मुझे ही गठरी में बाँधकर दिए गए थे दिल्ली आते हुए। लेते जाओ। मेरे घर वापस कर आना। बॉयफ़्रेंड…सॉरी…एक्स बॉयफ़्रेंड होने का कोई तो फ़र्ज़ अदा करोगे!” लड़की ने ये कहते हुए दरवाज़े का पल्ला थाम लिया।
लड़के ने उसकी तरफ़ बहुत उदास होकर देखा और कहा, “मुझे क्यों लग रहा है कि तुम्हें आख़िरी बार देख रहा हूँ?”

“फिर तो ठीक से देख लो। मैं इतनी ख़ूबसूरत दुबारा नहीं लगूँगी।” लड़की ने दरवाज़े को थामे रखा और अपनी आवाज़ को बहकते जाने की इजाज़त दे दी।
लड़के ने नज़र भर उसको देखा, फिर एक गहरी नज़र उसके चेहरे पर छोड़कर चला गया। थोड़ी देर बाद वॉचमैन क्लासिक माइल्ड्स के पाँच डिब्बे पहुँचा गया था।
रूममेट के इंतज़ार में वो बालकनी में बैठकर एक डिब्बा फूँक चुकी थी। नया डिब्बा उसने रूममेट के आने पर ही खोला।

“मेरी कोशिश कामयाब रही। वो अब वापस नहीं लौटेगा,” उसने अचानक आ गई हिचकी को पानी के घूँट से गटकते हुए कहा।

“तुमने ऐसा किया क्यों आख़िर?”

“उसे अपने घर पर होना चाहिए, अपने माँ-बाप के साथ। ही ओज़ देम हिज़ लाइफ़। ही डिडन्ट ओ मी एनीथिंग। वैसे भी मेरे साथ रहेगा तो ज़िंदगी भर रोएगा,” उसने रूममेट के कंधे पर सिर टिका दिया था और बहुत थकी हुई आवाज़ में कहा था, “बचपन से जानती हूँ उसको। वो नहीं बदलेगा। और देखो न, मैं कैसे हर लम्हा, कित्ती तेज़ी से बदल रही हूँ। मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगा तो कोसेगा। रोएगा। चिल्लाएगा। उसका जाना मंज़ूर है लेकिन उसका एक दिन तंग आकर मुझे छोड़ देना मंज़ूर नहीं।” वो एक सुर में बड़बड़ाए जा रही थी, यूँ कि जैसे सिगरेट का नशा धीरे-धीरे हावी होने लगा हो।
“तुम उसके साथ भी तो जा सकती थी। वो किसी अनजान शहर तो जा नहीं रहा था,” रूममेट ने जाने क्यों पूछ लिया था।

“शहर अनजान या अपना नहीं होता। हम उसे अपना या बेगाना बना देते हैं,” लड़की ने कहा और रूममेट की बग़ल से उठकर जाने को हुई।
“प्यार नहीं करती थी उससे?” ये रूममेट का आख़िरी सवाल था। ज़मीन पर बैठे-बैठे अपनी बग़ल में खड़ी हो गई लड़की की आँखों में आखें डालकर रूममेट ने पूछा था ये मुश्किल सवाल।
“करती थी। करती हूँ। इसीलिए तो उसके साथ नहीं गई,” ये कहते हुए लड़की ने रूममेट के हाथ से सिगरेट लेकर एक आख़िरी गहरा कश लिया और उठकर बीयर से बालों की कंडिशनिंग करने के लिए बाथरूम में घुस गई।
देखवकी
सुशीला चाची का मन एकदम गदगद था। बात ही कुछ ऐसी थी। मन की मुराद पूरी हो जाने पर मन की हालत तो समझते ही होंगे आप!

अब बेटी के लिए अच्छा लड़का मिल जाना कोई आसान बात तो है नहीं। वो भी ऐसा लड़का, जो दिल्ली में रहता हो! बड़े भाग से मिला था ये रिश्ता। वर्ना सुशीला चाची को तो लगने लगा था कि उनकी ही तरह उनकी बेटी की पूरी ज़िंदगी भी गाँव में ही कट जाएगी, आँगन लीपते हुए। मिट्टी के चूल्हे पर जलावन फूँक-फूँक कर रोटियाँ सेंकते हुए। हर साल गर्मी की छुट्‌टी में आने वाले शहर में बसे रिश्तेदारों को देख-देखकर दिल जलाते हुए…।
लेकिन इसकी नौबत नहीं आई। विनोद चाचा से लड़-झगड़कर इकलौती बार ही सही, सुशीला चाची ने अपनी ज़िद मनवा ली थी। उनका फ़ोन आया था मेरे पास।

“आएँगे रउरा लगे। देखवकी उहे होगा, दिल्ली में। कौनो परेशानी तऽ न होगी आपको आउर मेहमान को?”

“न चाची। ये तो हमारा सौभाग्य है। इसी बहाने आप हमारे पास आएँगी, दो-चार दिन रह लेंगी। बताइए ना कब आना है?” मैंने अपने कमरे के दरवाज़े पर लगे पर्दे के नीचे से झाँकने वाली उघड़न पर सरसरी नज़र डालते हुए कहा था।
फ़िक्र ये भी थी कि इस दो कमरे के घर में कैसे इंतज़ाम कर पाऊँगी देखवकी का। लड़की देखने-दिखाने की रस्म भी तो कोस-भर लंबी होती है हमारे यहाँ। किसी समारोह से कम कहाँ होती है! जो बात बन गई तो ठीक, जो बात न बने तो इस सदमे से उबरने की मातमपुरसी में महीने दो महीने लगते हैं। ये मुझसे बेहतर कौन जानता होगा?
शाम को ये दफ़्तर से लौटे तो डरते-डरते चाची के फ़ोन के बारे में मैंने बताया इन्हें। शुक्र था कि मूड चंगा था। ये भी उत्साहित होकर बोले, “आने दो न सबको। किसी के बेटी की शादी-ब्याह में मदद करना बड़े पुण्य का काम होता है। हम उनके किसी काम आ सके, ये तो हमारी खुशकिस्मती होगी। फिर गाँव-जवार के अपने लोगों की मदद हम ना करेंगे तो किसकी करेंगे?”
दरअसल सुशीला चाची मेरी अपनी चाची न थीं। हमारे गाँव के घर में चार पुश्तों का परिवार एक ही आँगन में रह रहा था। अब ठीक-ठीक समझाऊँ तो सुशीला चाची के अजिया ससुर और हमारे परबाबा चचेरे भाई थे। उनका बँटवारा तो कई साल पहले हो गया था लेकिन उसके बाद की पीढ़ियों में अभी बँटवारा नहीं हुआ था। हमारे बाबा चार भाई थे, चारों शहरों में बस गए थे लेकिन ज़मीन से जुड़े रहे। दूसरे आँगन वाले बाबा एक ही भाई थे और उन्हें बेटा भी एक, विनोद चाचा। इसलिए इस आँगन से तो सब एक-एक कर आस-पास के शहरों में जा बसे, लेकिन खेती-बाड़ी, गाय-गोरू और घर-दुआर की देखभाल करने के लिए विनोद चाचा गाँव में ही रह गए।
हम सबका गर्मी की छुट्टियों में गाँव आना-जाना लगा रहा। दोनों ओर के परिवारों के चूल्हे तो बँट गए थे लेकिन आँगन और दरवाज़ा एक ही था। इसलिए अलग-अलग होते हुए भी हम पट्टीदार कम, परिवार ज़्यादा थे।
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10-05-2020, 12:43 PM,
#9
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
मेरी सुशीला चाची से ख़ूब गहरी छनती थी। जब सारे बच्चे फुलवारी और बग़ीचे में पूरी-पूरी दुपहर अमलतास के फूल और अंबियाँ चुन रहे होते, मैं उनके कमरे में बैठकर कोई-न-कोई गीत सुन रही होती। क्या मीठा गला था चाची का! जब साड़ी पर कढ़ाई करती चाची अपनी मीठी आवाज़ में बेटी के ब्याह के गीत गातीं तो उनकी आवाज़ में जाने क्या जादू होता कि मैं नाक सुड़क-सुड़ककर सुबक रही होती।

निमिया तले डोली रख दे कहरवा
आईल बिदाई के बेला रे
अम्मा कहे बेटी नित दिन अईहऽ
बाबा कहे छव मास रे
भईया कहे बहिनी काजे परोजन
भाभी कहे कौन काम रे
अम्मा के रोवे से नदिया उमड़ गईल
बाबा के रोवे पटोर रे
भईया के रोवे से भींगे चुनरिया
भाभी के मन में आनंद रे।

तभी से मेरे मन में ये बात गहरी पैठ गई कि लड़कियों की सबसे बड़ी दुश्मन तो दरअसल भाभियाँ ही होती हैं। शुक्र है कि मेरा कोई भाई नहीं था।
लेकिन मैं सुशीला चाची के बेटे रोहित के लिए हर साल राखी भेजती थी। श्वेता को तो मैंने गोद में खिलाया था। उसकी चुटिया में लाल रिबन लगाए थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल पारने का काम मेरा ही होता था, पूरी गर्मी। दोनों बच्चे बड़े होने लगे तो उनको अक्षर ज्ञान से लेकर हिसाब पढ़ाने का काम मैंने ही किया हर गर्मी-छुट्टी। बदले में मुझे चाची से कई तोहफ़े मिलते, इमली डालकर लाल मिर्च का अचार चाची ख़ास मेरे लिए बनाकर रखतीं। पटना वापस आने लगते हम तो चुपके से बराबर का अचार, आम की खट्टमीठी, चने का सत्तू, तीसी और असली खोए का पेड़ा, ये सब चाची मेरे लिए एक बैग में बंदकर रात में हमारे कमरे में पहुँचा आया करतीं। दिक़्क़त ये थी कि उनके इस अगाध स्नेह के बारे में मैं परिवार में किसी के सामने शेखी भी नहीं बघार सकती थी। बाक़ी दादियों, चाचियों और बहनों की जलन का कोई इलाज न मेरे पास था, न सुशीला चाची के पास।
इलाज तब भी नहीं था, अब भी नहीं है। दिल्ली में मेरे तीन चाचा रहते हैं और कई भाई-बहन शहर के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। तब भी चाची ने मेरे यहाँ आकर ही अपनी दुलरवी बेटी की देखवकी करना तय किया है।
दरअसल, अपने-अपने छोटे शहरों से हमारी पीढ़ी के सभी बच्चे दिल्ली ही आए थे पढ़ाई करने। सबके-सब एक ही ख़्वाब लेकर आए थे दिल्ली-आईएएस बनने का ख़्वाब। दिल्ली विश्वविधालय के बी और सी ग्रेड कॉलेजों में किसी तरह पढ़ने-लिखने के बाद हम सबको अपनी हक़ीक़त का अहसास हो गया था। मैंने भी कॉलेज के बाद एक कॉल सेंटर में मार्केटिंग असिस्टेंट की नौकरी कर ली।
तीन साल की लगातार कोशिश के बाद पापा मेरी शादी कराने में किसी तरह कामयाब हो गए थे। लड़के का परिवार पास के ही गाँव से था, पारिवारिक पृष्ठभूमि बिल्कुल हमारे जैसी। मेरे भावी ससुर भी मेरे पिता की तरह ही एक सरकारी दफ़्तर में मुलाज़िम थे। लड़के के पिता की सरकारी नौकरी की वजह से कानपुर में दो कमरों का एक सरकारी फ़्लैट था जहाँ बाक़ी परिवार रहता था। साल में एक बार ये लोग भी अपने गाँव आते कभी होली पर, कभी छठ पर। पापा की तरह ही मेरे भावी ससुर ने भी एक ही कभी न पूरी होने वाली महत्वाकांक्षा पाल रखी थी, रिटायरमेंट के बाद गाँव में बस जाने की। फिर भी पापा और मेरे भावी ससुर, दोनों ने अपने-अपने शहरों में चार-चार कट्ठा ज़मीन लेकर चहारदीवारी डलवा दी थी।
मेरी तरह ही मेरे होनेवाले पति न गाँव के थे, न किसी छोटे शहर के हो सके और न दिल्ली को ही अपना घर बना पाने में कामयाब रहे। हम जड़ों से उजड़े हुए लोग कहीं बसे होने का ढोंग ही कर सकते हैं बस! और जो अपनी जड़ों का नहीं हो पाता, वो कहीं का नहीं हो पाता।
मेरे पति दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टेंट सेल्स मैनेजर थे। चार लाख नक़द में इससे बेहतर दामाद क्या खोज पाते पापा? फिर मेरे पीछे मेरी दो बहनें भी तो थीं। सो, जब कुल तीन बार देखवकी और रिजेक्शन के बाद मुझे दिल्ली में इनसे मिलने के लिए कहा गया तो मैं बिना किसी उम्मीद के चली गई थी वसंत विहार के प्रिया कॉम्पलेक्स में मिलने। जब इन्होंने कहा कि मैं वसंत कुंज में रहता हूँ तो मैं समझ गई कि इनके लिए भी वसंत कुंज की चौहद्दी दरअसल किशनगढ़ तक बढ़ जाती है, वैसे ही जैसे मेरे लिए निलौठी गाँव में रहना पश्चिम विहार के पॉश मीरा बाग में रहने से कम नहीं।
मेरी शादी गाँव से ही हुई। सुशीला चाची ने मम्मी का सारा काम संभाल लिया था। मेरे लिए चादरें और साड़ियाँ कढ़ाई करके रखी थीं उन्होंने। दादी जब पराती गाने के लिए पौ फटने से पहले उठतीं तबतक सुशीला चाची अपनी ओर के चौके का काम निपटाकर हमारे आँगन के चौके में दूध उबालने और चाय बनाने के लिए आ डटतीं। शाम को घर की औरतें गीत गाने बैठतीं तो चाची पहला तान छेड़तीं।

पीपल पात झलामल बाबा बहेऽला सीतल बतास
तहि तर बेटी के बाप पलंग बिछवनी
आ गईल सुख के रे नींद
राती राती जागे बेटी के माई
काहे बाबा सुतेनी निस्चिंत रे
जेकर घर बाबा धियरे कुमारी
से कैसे सुते निस्चिंत रे।

मैं और श्वेता अंदर बातें करते।

“सुने न दीदी गीत? बेटी के बाप को चैन से निश्चिंत सोने का अधिकार थोड़े है? आप तो इतनी पढ़ी-लिखी, शहर में रहीं, इतनी सुंदर। जब आपकी शादी में इतनी अड़चन आई तो जाने मेरी शादी कैसे होगी!”
मैं उसे हँसकर चिढ़ाती, “तुम तो सुशीला चाची की बोली बोलने लगी हो श्वेता।”

“हाँ दीदी, क्या करें। पूरा-पूरा दिन यही सुनना पड़ता है। भोरे से माँ का टेपरिकॉर्डर चालू हो जाता है। ‘आपन बेटी के बियाह तऽ हम शहर में रहे वाला लईका से करब। इहाँ रहकर चिपरी थोड़े पाथेगी बेटी?’ ये कैसी जिद है दीदी? इतना आसान थोड़े है? बाबूजी पटना वाले चाचा की तरह चार लाख कहाँ से ला पाएँगे?”
“सब हो जाएगा श्वेता। जिसकी किस्मत जैसी, वो वहाँ पहुँच ही जाता है। सुना नहीं अभी बाहर मम्मी लोग क्या गा रही थीं? जाईं बाबा जाईं अबध नगरिया / जहाँ बसे दसरथ राज / पान सुपारी बाबा तिलक दीहें / तुलसी के पात दहेज / कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा / मानी जायब श्रीराम हे।”
“ये सब बोल गीतों में ही अच्छे लगते हैं दीदी। श्रीराम को भी सीता से ब्याह रचाने के लिए शिवजी का धनुष तोड़ना पड़ा था।”

गाँव में ही पली-बढ़ी श्वेता वैसे भी मुझसे ज़्यादा व्यवहारिक बातें करती थी।

फिर श्वेता के लिए धनुष तोड़ने को कौन राज़ी हो गया था? दिल्ली में नौकरी करनेवाले लड़के के लिए दहेज़ कहाँ से जुटा पाएँगे विनोद चाचा?
इन सभी सवालों पर विचार करना मैंने चाची के दिल्ली पहुँचने तक छोड़ दिया। वैसे भी चाची के शहर के प्रति सम्मोहन से मैं वाकिफ़ तो थी ही। उनकी ज़िंदगी के दो ही मक़सद थे- श्वेता की किसी शहर में बसे परिवार में शादी और रोहित की शहर में नौकरी। वो शहर दिल्ली हो तो और भी अच्छा।
मैं जितनी बार गाँव जाती, चाची खोद-खोदकर शहर के बारे में पूछतीं, “बबुनी, घर कईसन बा? उहाँ के घर में आँगन तो नाहिए होता होगा? चलो, लीपने से छुटकारा। रसोई गैस मिल तो जाता है वहाँ? ऐं! अइसन बड़ा बाज़ार लगता है वहाँ? मेट्रो कवन चीज है बबुनी? चापाकल थोड़े चलाना पड़ता होगा हर काम के लिए। नल खोलो तो हर-हर पानी…”
शहर के प्रति उनका ये मोह समझना मुश्किल नहीं था। हम बचपन से गाँव आते रंग-बिरंगे रेडिमेड कपड़ों में और चाची रोहित-श्वेता के लिए चैनपुर बाज़ार से कपड़े मँगवातीं। देहाती कपड़ों के अलावा यहाँ मिलेगा भी क्या, बाद में तो श्वेता भी कहने लगी थी।
हमारी बोली-चाली, रवैया, रहन-सहन सब शहरी हो चला था। माँ भी अक्सर हिंदी में ही बात किया करतीं। माँ की शिफॉन-सी दिखने वाली सिथेंटिक साड़ियों और पापा की चक-चक पैंट-शर्ट पर भी फ़िदा थीं चाची।
“भाई साहब केतना सुंदर शर्ट पहिनेनी। एकदम बड़े आदमी के माफ़िक़। आउर चाचा आपके पूरा दिन उघारे देह एक ठो धोती लपेटे कभी गाय को सानी-पानी दे रहे होते हैं, कभी खेत में ट्रैक्टर चलाते हैं। हमको तो उनका देह भी भूसा जइसा महकता है।” चाची कहती तो मैं खी-खी करके हँस देती। अक्सर मैंने अपने ऊटपटाँग सपनों में चाची को भूसे की ढेरी पर पैर फेंककर सोते देखा था!
पता नहीं चाची को चाचा के देह से भूसे की महक आनी बंद हुई या नहीं, लेकिन चाची का शहर-प्रेम आख़िर उन्हें दिल्ली ज़रूर खींच लाया।
चाची और श्वेता के साथ पूरा-का-पूरा पकवलिया गाँव उतरा था दिल्ली स्टेशन पर! पकवलिया गाँव में सुशीला चाची का मायका है और ये गाँव अपनी उज्जडता के लिए मशहूर है। जाने उस गाँव की बेटी होकर चाची की बोली और आचरण में इतना माधुर्य कहाँ से आया था!
मेरे होश तो स्टेशन पर उतरी उस छोटी-मोटी बारात को देखकर ही उड़ गए। इन लोगों को अपने दो कमरों और एक टॉयलेट-बाथरूम के घर में कहाँ रख पाऊँगी?
श्वेता मेरी गर्दन से आकर लग गई और मैंने उसी से पूछा, “ये सब तेरे साथ आए हैं क्या? लड़के को अगवा करने का इरादा है? हथपकड़ा शादी करनी है?”
“अरे नहीं बबुनी। हमारे बड़का भैया ही का तो लगाया हुआ रिस्ता है। सो, उनका आना जरूरी था। बाक़ी एक मेरा भतीजा है, एक भगीना, एक सुमित्रा फुआ का बीच वाला बेटा और वो किनारे…,” चाची बिना थमे सबका परिचय देने में लग गईं।
“वो तो ठीक है चाची, लेकिन ये सब लोग रहेंगे कहाँ?”

“काहे? आपके घर में जगह नहीं है?” चाची का ये प्रश्न मुझे दंश की तरह चुभा।

तभी श्वेता के मामा ने बात संभाल ली। “काहे परेसान हो बबुनी? हम दिल्ली पहिली बार थोड़े आए हैं? हमरा एक ठो साला रहता है यहाँ, उसके यहाँ चले जाएँगे।”
यही तो ख़ास बात है दिल्ली की। हर बिहारी परिवार के हर वयस्क सदस्य का कोई-न-कोई रिश्तेदार दिल्ली में ज़रूर रहता है।

मैं चाची और श्वेता को लेकर बस स्टैंड की ओर बढ़ गई। चाचा नहीं आए थे।

“कटनी-दौनी के टैम पर कइसे निकलते?” पूछने पर चाची ने मायूस होकर कहा था।

हम तीनों ने 604 नंबर की बस ले ली थी। नई दिल्ली से वसंत कुंज तक की। चाची खिड़की के पास बैठी थीं और बैसाख की धूप में बाहर दौड़ते-भागते शहर को देखकर बच्चे की तरह आह्लादित हो रही थीं। उन्हें जैसे मुँहमाँगा वरदान मिल गया था। श्वेता चुप-सी थी, बस में ठुँसी चली आ रही भीड़ को देखकर परेशान।
हम वसंतकुंज के डी-3 ब्लॉक के स्टैंड पर उतर गए थे। हम तीनों ने थोड़ा-थोड़ा सामान ले लिया था और किशनगढ़ की धूल भरी गलियों को पीछे छोड़ते हुए एक तीन मंज़िले मकान के पहले तल्ले में आकर थमे थे।
श्वेता बाहर वाले कमरे में लगे दीवान पर धप्प से बैठ गई थी। चाची घूम-घूमकर मेरे दो कमरे के घर का मुआयना कर रही थीं।

“खड़ा होकर खाना बनाती हैं, नहीं बबुनी? ठीके है। हम तो मिट्टी का चूल्हा पर चुका-मुका बईठकर खाना बनाते-बनाते घुटने के दर्द के मरीज हो गए। छोटा-सा घर है, साफ-सफाई में सुबिस्ता। ओतना बड़का आँगन में झाड़ू बुहारते-बुहारते हमारे डाड़ में दरद उबट जाता है।” श्वेता कुछ नहीं बोली, सिर्फ़ इधर-उधर देखती रही।
शनिवार का दिन था, इसलिए मेरी छुट्‌टी थी। मैं मशीन में कपड़े डालकर गई थी, वो श्वेता के साथ लेकर छत पर पसारने चले गए हम दोनों।
छत पर से जब किशनगढ़ का नजारा देखा श्वेता ने तो और परेशान हो गई। “बाप रे! इतनी भीड़ दीदी। कैसे माचिस के डब्बों जैसे घर हैं दीदी!”
“यहाँ तो कुछ नहीं है श्वेता। गुड़गाँव चल गुड़गाँव। वहाँ जाकर तो आकाश छूती इमारतें देखकर तेरा सिर घूमने लगेगा, सच्ची में। वैसे ये गुड़गाँव वाला लड़का मिल कैसे गया चाची को?”
“बड़े मामाजी के बचपन के दोस्त हैं लड़के के पिता। बीस-पच्चीस साल पहले पकवलिया से यहीं, दिल्ली आ गए थे ये लोग। मामाजी ने ही बात की थी लड़केवालों से। दीदी, फोटो खिंचवाने के लिए भी कितना तमाशा हुआ घर में! माँ जिद करती रही कि फोटो दिल्ली के किसी प्रेम स्टूडियो में ही खिचवाएँगे। आपका भी फोटो तो वहीं खिंचाया था न दीदी?”
मैं हँस दी। अपनी शादी वाली तस्वीर खिंचवाने का अनुभव याद आ गया और ये भी याद आया कि कैसे गाँव में माँ सबको मेरी फोटो दिखा-दिखाकर बता रही थी, “वैसे तो हमारी ऋचा रिजेक्ट करने लायक थोड़े है लेकिन फोटो भी हम लोग प्रेम स्टूडियो में जाकर खिंचवाए। दू-तीन सौ रुपैया ज्यादा लिया तो क्या, लड़केवालों को देखते ही पसंद आ गई फोटो।” माँ ने बातों बातों में बड़ी सफाई से फोटो पसंद आने के बाद से लेकर लड़की और पैसे की बात पसंद आ जाने के बीच की कवायद गोल कर दी थी।
“तो खिंची गई या नहीं कोई फोटो?” फ्लैशबैक से उस लम्हे में लौटते हुए मैंने हँसते हुए श्वेता से पूछा। “और पैसा-वैसा? उसकी बात हुई कि नहीं?”
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10-05-2020, 12:43 PM,
#10
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“अभी तो हुई नहीं दीदी। लड़केवाले कह रहे हैं कि जो आपके पास है, उसी में से आशीर्वाद समझकर कुछ दे दीजिएगा। मेरा तो जी बड़ा घबराता है दीदी। माँ का शहर में मेरी शादी करने का विचार महँगा न पड़ जाए।”
“तू क्या चाहती है बन्नी?” मैंने श्वेता की आँखों में देखकर उससे पूछा।

“सच कहें तो हमको कोई फर्क नहीं पड़ता कि शहर है कि गाँव। हम यही चाहते हैं बस कि माँ-पापा की परेशानी का कारण न बन जाए हमारी शादी।”
सारी बेटियाँ कैसे एक ही तरह से सोचती हैं! सारी बेटियाँ कैसे शादी के नाम पर समझौते करने के कारण भी ढूँढ़ लेती हैं!

प्रेम स्टूडियो में श्वेता की फोटो खिंचाने की नौबत नहीं आई। लड़केवालों को चैनपुर वाली फोटो की श्वेता ही पसंद आ गई और बुधवार की शाम का दिन देखवकी के लिए मुक़र्रर कर दिया गया।
गुड़गाँव के किसी मॉल में इकट्ठा होना था सबको। मैंने आधे दिन की छुट्‌टी ले ली और इन्होंने पूरे दिन की। टैक्सी वग़ैरह बुक हो गई।

चाची देखवकी की तैयारी में जुट गईं। रविवार का दिन पार्लर ढूँढ़ने और साड़ी तय करने में गुज़रा। चाची कोई कोताही नहीं बरतना चाहती थीं।
सोमवार को ये सुबह-सुबह दफ़्तर के लिए निकल गए और मैं ग्यारह बजे। मैंने रसोई की सारी जानकारी चाची और श्वेता को दे दी और सभी ज़रूरी फ़ोन नंबर भी सौंप दिए। देर रात जब हम दोनों घर पहुँचे तो न अपना घर पहचान में आ रहा था न श्वेता और चाची!
चाची ने दो कमरों का रूप तो जो बदला सो बदला, पार्लर जाकर अपना भी कायाकल्प कर आईं। सजे-सँवरे कमरे में बिस्तर पर बिछी कढ़ाईवाली चादर पर सलवार-सूट पहनी चाची को मुस्कुराते देखकर हम दोनों को लगा कि हम किसी दूसरे घर में घुस आए हैं। सामने से अपने बाल कुतरवाकर आई श्वेता भी कोने में खड़ी होकर फिक्क-फिक्क हँसती रही।
मैं हँसती हुई चाची के गले लग गई। “श्वेता की जगह चाचीजी आपको भेज दें तो भी लड़केवाले मना नहीं करेंगे।” इन्होंने भी मुस्कुराते हुए कहा। लगा जैसे चाची की गुलाबी ओढ़नी का रंग किसी ने उन्हीं के चेहरे पर मल दिया हो।
चाची बेहद ख़ुश थीं। हमारे लिए खाना तैयार था। श्वेता खाना लगाने में लग गई और चाची गर्म-गर्म रोटियाँ उतारने में। बेलने के साथ चकले पर गोल-गोल घूमती उनकी कलाइयों के साथ ताल बिठाते हुए चाची ने राम-जानकी विवाह का गीत छेड़ दिया, “जब श्रीरामचंद्र चलले बियाह करे, ताही बीचे चिरिया कलस लेले धावे कि ताही बीचे ना…” फिर ख़ुद से ही बातें करती हुईं चाची ने अपना माथा ठोक लिया, “ई हम का गा रहे हैं? कोई अपसकुन गीत नहीं गाएँगे।”
चाची आगे गाने लगीं, “रामचंद्र चलल बिवाह करे बाजन बाजे हे / आहे ऋषि मुनि आरती उतारे कउन बर सुंदर हे / रामचंद्र देखने में सावर, ओढ़ले पीतांबर हे / आहे उहे बर के आरती उतारब, उहे बर सुंदर हे।”
देखवकी की सुबह से जैसे चाची के पैरों में चक्कर लग गए थे। सुबह आठ बजे से ही चाची तीन बार पास के किराने की दुकान में जा चुकी थीं, कभी रोली, कभी अक्षत, कभी सिंदूर, कभी गुड़ लेने। पूजावाला कोना तो सुबह पाँच बजे से ही हथिया रखा था उन्होंने। पता नहीं कितनी मनौतियाँ माँगी थीं।
“ऋचा बबुनी, बियाह हो जाएगा न तो मोरार बाबा तर पूजा करेंगे, अपने से जाकर। पाकड़ पेड़ वाला मंदिर पर सवा किलो लड्डू का भोग लगाएँगे, मेहदार जाएँगे खाली पैर, बाबा महेंद्रनाथ का पूजा करने के लिए। एक बार इ रिस्ता पक्का हो जाए।”
बेचारी श्वेता डरी-सहमी-सी उनकी बातें सुनती रहती। इससे बड़ा इम्तिहान ज़िंदगी में उसे दुबारा न देना था। पास हो गई तो ठीक, न पास हुई तो बार-बार बैठने का डर!
मैंने श्वेता को अपनी साड़ी पहनाई, जॉर्जेट की पीली साड़ी में वो और खिल उठी थी।

“रिजेक्ट होने वाली नहीं है हमारी साली।” इन्होंने कहा तो चाची का चेहरा और खिल गया। टैक्सी पर सवार होकर हम सब गुड़गाँव के लिए रवाना हो गए।
चाची के बाक़ी नाते-रिश्तेदार सीधे वहीं पहुँच गए थे। मॉल की छटा देखकर चाची का मुँह खुला-का-खुला रह गया। शहर का ये रंग इन्होंने कभी नहीं देखा था। बड़े-बड़े शोरूम। आदमकद शीशों में सेल के बहाने आपको लूटने के लिए लगाए गए रंग-बिरंगे परिधान, जूते, घड़ियाँ!
हमारे साथ मॉल में घुसी बारात किसी बैंड पार्टी से कम नहीं लग रही थी। रंग-बिरंग कुर्तों और कलफ़वाली धोतियों में हमारे मामा-चाचा-भैया अलग से नज़र आ रहे थे। एक श्वेता की देखवकी के लिए कुल बारह लोग आए थे।
रेस्टोरेंट में टेबल एक साथ करवाकर हम बैठ गए और लड़केवालों का इंतज़ार करने लगे। थोड़ी देर में लड़का अपने माता-पिता के साथ आया और टेबल के दूसरे कोने पर बैठ गया। मामाजी और लड़के के पिता आपस में बातें करने लगे और लड़के की माँ उठकर मेरे और चाची की बग़ल में आकर बैठ गई।
प्रणाम-पाती के बाद लड़के से बातचीत का सिलसिला इन्होंने ही शुरू किया। लड़का पिता के साथ अपना बिज़नेस करता था, कई टैक्सियाँ चलती थीं उनकी। शादी के बाद यहीं गुड़गाँव से आगे मानेसर में टी-शर्ट और शर्ट बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहता था।
बातचीत दरअसल, असली मुद्‌दे पर आकर रूक गई। तमाम कोशिशों के बाद श्वेता के मामाजी ने ही ज़िक्र छेड़ा, “लईकी पसंद हो तो बात आगे बढ़ाएँ।”
लड़के के पिता ने हँसकर उनका हाथ पकड़ लिया, “लड़की पसंद है और बात आगे बढ़ाते हैं। हम जानते हैं कि आप क्या पूछना चाहते हैं। हमको और कुछ नहीं चाहिए लड़की के अलावा। हम ठहरे बिजनेस वाले लोग। यहाँ भी अपने और आपके फायदे की ही बात करेंगे।”
मामाजी टुकुर-टुकुर अपने दोस्त का चेहरा निहारते रहे। लड़की के बियाह में लड़कीवालों के फायदे की भी भला कोई बात होती है क्या?

“बात ये है कि ये तो तुम्हें मालूम ही होगा कि पकवलिया में हमारा कोई नहीं। लेकिन उस गाँव में हमारी कुछ जमीन है, जानते हो ना रामखिलावन?” मामाजी ने सिर हिलाया।
“तो हम बस ये चाहते हैं कि तुम लोग हमारी जमीन को खरीद लो। तुमको जमीन मिल जाएगी और हमको पैसा। अब पैसा हमको माँगना होता तो सीधे माँगते। लेकिन हम तो तुम्हारा नफा भी नऽ देख रहे हैं। तुम हमारे दोस्त ठहरे।”
मामाजी चाची की ओर देखने लगे। चाची को तो इस सौदे की उम्मीद भी नहीं थी! कोई रुपया-पैसा, दान-दहेज़ माँगता तो उसपर बातचीत हो सकती थी, मोल-तोल हो सकता था। लेकिन इसपर क्या बातचीत होती? साठ बीघा ज़मीन वाले परिवार के बारे में सोच-सोचकर जिस चाची का दिल बल्लियाँ उछलता था, वही दिल आज बैठा जा रहा था। अपनी औक़ात देखकर शादी-ब्याह की बात करनी चाहिए, मुझे पापा का ब्रह्मवाक्य याद आ गया।
बिना किसी बातचीत के देखवकी वहीं ख़त्म हो गई। बाहर निकलते हुए मामाजी ने चाची के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “मन बा तऽ बात आगे बढ़ी सुशीला। वैसे हमार मन नईखे जमत।” चाची ने कहा कुछ नहीं, सिर्फ़ गाड़ी में आकर बैठ गईं।
घर तक का आधे घंटे का रास्ता आधी सदी जितना भारी था। श्वेता और चाची चुपचाप थे, मैं और ये दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें सांत्वना कैसे दें। मेरे दिमाग़ में गाँव के आँगन में और फिर फ़ोन पर विभिन्न शहरों तक बीबीसी की माफ़िक़ पहुँचने वाले संदेश गूँज रहे थे, “बड़ा गई थी दिल्ली देखवकी कराने। कूद-कूद कर बेटी शहर में दिखा आने को किसने कहा था?”
मुझे पूरा यक़ीन था, चाची भी यही सोच रही थीं।
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