Desi Porn Kahani काँच की हवेली
05-02-2020, 01:13 PM,
#41
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
"उम्म्म......वाहह....!" रवि ने चटकारा लिया. - "मेरी तो किस्मत खुल गयी कंचन, तुम कितना स्वदिस्त खीर बनाती हो. आहा.....अब तो विवाह के बाद रोज़ तुम्हारे हाथ की बनी खीर खाउन्गा."

कंचन का चेहरा खुशी से खिल गया. उसके मुरझाए हुए चेहरे की रौनक लौट आई. अपने साहेब के मूह से अपनी प्रसंसा पाकर उसका रोम रोम महक उठा.

हालाँकि खीर उतनी स्वदिस्त नही थी. रवि ने बस कंचन को खुश करने के लिए......बढ़कर तारीफ़ की थी. वो नही चाहता था कि कंचन के दिल को ज़रा भी ठेस पहुँचे. इच्छा ना होते हुए भी रवि सारा खीर चाट कर गया. कंचन बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से उसे खीर खाते हुए देखती रही. जो मन अभी कुच्छ देर पहले तरह तरह की शंकाओं से पीड़ा ग्रस्त था अब वो खुशी के झूले में सवार आकाश की बुलंदियों में सैर कर रहा था. अब उसे किसी चीज़ की चिंता नही थी. माहौल फिर से सुहाना हो उठा था. पक्षियो का कलरव अब उसे अच्छा लगने लगा था. प्रकृति में बिखरा सौंदर्या अब उसकी आँखों को भी भाने लगा था.

"पीने के लिए पानी कहाँ है?" अचानक रवि की आवाज़ से कंचन चौंकी. साथ ही हड़बड़ाई.

वह तो जल्दबाज़ी में पानी लाना ही भूल गयी थी. कंचन दायें बायें देखने लगी. उसका चेहरा फिर से उदास होता चला गया. रवि को समझते देर नही लगाई. वह तपाक से बोला - "कोई बात नही, अच्छा हुआ तुम पानी नही लाई. पानी पीने के बाद मेरे मूह से खीर का स्वाद चला जाता. जो कि मुझे अच्छा नही लगता." ये कहकर रवि एक गड्ढे में जमे बारिस के पानी से हाथ धोने लगा.

"साहेब, मैं आपके लिए कल फिर से खीर बनाकर लाउन्गि साथ में पानी भी." कंचन रवि के पास जाते हुए बोली.

"नही....बिल्कुल नही." रवि खड़ा होकर रुमाल से अपना मूह सॉफ करते हुए बोला - "अब तुम्हे खीर लाने की ज़रूरत नही है. आज के बाद तुम मेरे लिए कोई भी परेशानी नही उठाओगी. अब जो भी खिलाना पिलाना हो विवाह के बाद मेरे घर आकर खिलाना. अब तुम सिर्फ़ एक ही काम करो. मुझसे प्रेम करो. मेरे पास आओ. मेरे साथ बैठो और बातें करो." रवि ये कहते हुए उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर लेता है. और उसकी आँखों में झाँकने लगता है.

कंचन की निगाहें भी रवि पर ठहर जाती है. वह भी अपनी आँखों में शर्म लिए अपनी उठी गिरती पलकों के साथ रवि को देखने लगती है.

तभी ! दूर कहीं जोरदार बिजली कड़कती है और कंचन चिहुनकर रवि से लिपट जाती है. रवि भी उसे अपनी मजबूत बाहों में भीच लेता है.

मौसम एक बार फिर से करवट लेता है. पर इस बार भयंकर गर्जना के साथ. आकाश में बादल फिर से मंडराने लगते हैं. और कुच्छ ही पलों में फिर से बूँदा बाँदी शुरू हो जाती है.

रवि कंचन को लेकर तेज़ी से उस पत्थेर की ओर बढ़ा, जो झरने के बिल्कुल निकट था और जिसमें बारिश से बचने के लिए खोहनुमा स्थान था. वहाँ तक पहुचने में उन्हे मुस्किल से दो मिनिट लगे. पर इतनी ही देर में बारिश की तेज़ बूंदे उन्हे भीगा चुकी थी. कंचन तो पहले ही भीगी हुई थी किंतु अब रवि भी लगभग भीग चुका था.

*****

कल्लू की आँखे नम थी. ऐसा बारिश की बूँदों की वजह से नही था. उसकी आँखें उस पीड़ा से गीली हुई थी जो इस वक़्त उसका दिल महसूस कर रहा था.

कल्लू काफ़ी देर से कंचन और रवि को छुप-छुप कर देख रहा था. वो वहाँ उस वक़्त से था जब कंचन अकेली खड़ी रवि का इंतेज़ार कर रही थी.

कंचन को अकेली बेचैनी से वहाँ देखकर कल्लू समझ गया था कि कंचन वहाँ किसी से मिलने आई है. पर किससे मिलने आई है यही जानने की उत्सुकता उसे वहाँ रोके रखी थी. वह छुप्कर सब कुच्छ देखता रहा था. कंचन अकेली बारिश में नही भीगी थी. वह भी भीगा था. कंचन के साथ उसकी आँखों से भी आँसू बहे थे ये सोचकर कि जिसे वा बचपन से प्यार करता आया है. जिसे देखकर वह अब तक जीता आया है वो किसी और के लिए बेक़रार है. वह वहीं झाड़ियों के पिछे खड़ा बारिस में भीगते हुए कंचन का रोना उसका सिसकना, फिर रवि का आना उससे कंचन का लिपटना, उसे खीर खिलाना. और फिर गुफा के अंदर जाना. वो सब कुच्छ अपनी आँखों से देख चुका था. और ये सब देखकर उसका मंन टूटकर रोने को कर रहा था. लेकिन आज वो अकेला नही रोना चाह रहा था. आज वो एक कंधा ढूँढ रहा था जिसपर अपना सर रखकर जी भर-कर रो सके.

वह वहाँ से बोझील कदमो के साथ मुड़ा. उपर चढ़ा तो देखा सामने निक्की खड़ी उसे घुरे जा रही है. उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे. उसे देखते ही कल्लू सकपका गया. फिर अपनी नज़रें नीची करके तेज़ी से अपने रास्ते बढ़ गया. निक्की पलटकर उसे जाते हुए देखती रही.
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#42
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अपडेट 31

पत्थर की शरण में आते ही रवि और कंचन अपने अपने कपड़ों से पानी झाड़ने लगे. दोनो बिल्कुल पास पास खड़े थे. सहसा रवि की नज़र कंचन की ओर उठी. उसपर नज़र पड़ते ही उसका शरीर हौले से काँप उठा. कंचन के गीले कपड़ों के अंदर से झाँकते उसके उरोज सॉफ दिखाई पड़ रहे थे.

कंचन का ध्यान उस ओर नही था, वो गर्दन को झुकाए अपने बालों से पानी झाड़ने में व्यस्त थी. बालों से पानी निकालने के लिए वो बार-बार अपने सर को झटक रही थी. उसके ऐसा करने से उसके उन्नत उरोज लहरा उठते थे. रवि विस्मित सा उसके सौंदर्य पर्वतों को देखता रहा. उसके बदन में तेज़ सनसनाहट सी होने लगी. उसने कंचन पर से नज़रें हटाकर बारिश की गिरते बूँदों पर टीका दी. फिर वहीं पत्थेर से टेक लगाकर ज़मीन पर बैठ गया.

कंचन भी थोड़ी देर में उसके पास आकर उससे सटकार बैठ गयी. कंचन काफ़ी ठंड का अनुभव कर रही थी. वह बार बार ठंड से झुरजुरी ले रही थी.

रवि ने उसे ध्यान से देखा वो इस वक़्त बहुत खूबसूरत लग रही थी. उसके चेहरे पर एक दो गीले बाल चिपके हुए थे जिससे उसके चेहरे की सुंदरता और भी बढ़ गयी थी. वह अपलक कंचन को देखता रहा.

"ऐसे क्या देख रहो हो साहेब?" कंचन रवि को अपनी और देखते पाकर शरमाते हुए उससे पूछी.

"कंचन." रवि उसके खूबसूरत चेहरे को निहारता हुआ बोला. - "क्या तुम्हे किसी ने बताया है कि तुम कितनी सुंदर हो?"

कंचन रवि के इस सवाल से शरमा गयी. वैसे तो उसकी सुंदरता की प्रसंसा सभी ही करते थे. पर रवि के मूह से अपनी खूबसूरती की तारीफ़ सुनकर कंचन का दिल झूम उठा. वह रवि के मूह से और अधिक प्रसंसा सुनना चाहती थी. - "साहेब आप बहुत अच्छे हो, आप बहुत अच्छी बातें करते हो. आपके मूह से अपने बारे में सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है. दिल करता है आप बस बोलते जायें और मैं बैठी सुनती रहूं."

"तुम बहुत अच्छी हो कंचन." रवि उसके चेहरे पर बिखरे बालों को हटाते हुए कहा. फिर एक लंबी साँस छोड़ते हुए आगे बोला - "कभी कभी सोचता हूँ कंचन, अगर तुम मुझे ना मिलती तो मेरा क्या होता? कहाँ जाता मैं? कैसा होता मेरा जीवन? तुमने जो प्यार का नज़राना मुझे दिया है, मैं उसे कभी नही भुला सकता. तुम्हारा उपकार है मुझपर....कि तुमने मुझे अपने क़ाबिल समझा."

"ये क्या कह रहे हो साहेब? मैं इस लायक नही कि आप पर उपकार कर सकूँ. धन्य तो मैं हुई जो मुझे आप जैसा साथी मिला."

"तुम नही जानती कंचन, तुम्हे पाकर मैने क्या पाया है. मेरी सुनी ज़िंदगी तुम्हारे आने से आबाद हुई है कंचन. तुमसे पहले मेरी ज़िंदगी वीरान रेगिस्तान जैसी थी." रवि भावुकता से भर कर बोला.

"साहेब......!" कंचन रवि के कंधे पर अपना सर रखते हुए बोली - "मैं प्यार, मोहब्बत, नज़राना इनके बारे में ज़्यादा नही जानती, बस इतना जानती हूँ कि आप ही मेरी दुनिया हो, आपके बगैर मैं नही जी सकती. मुझसे कभी कोई भूल हो जाए तो जो जी चाहे सज़ा दे देना, पर कभी मुझसे रूठ मत जाना. नही तो मैं मर जाउन्गा."

रवि ने कंचन को अपनी बाहों में समेट लिया. कंचन भी बिना लोक लाज के उसकी बाहों में सिमट गयी. रवि की बाहों में आकर कंचन खुद को हर तरह से सुरक्षित महसूस करती थी. उसके मजबूत बाहों के घेरे में आकर उसे किसी चीज़ का भय नही रहता था. वो हर भय से मुक्त हो जाया करती थी.

कंचन अपनी आँखों को बंद किए उसके गर्म बाहों में पड़ी रही. उन दोनो के लिए वो पल जैसे थम सा गया था. वे खामोश थे किंतु उनकी धड़कने आपस में बातें कर रही थी. दोनो आँखें बंद किए एक दूसरे से लिपटे पड़े रहे. उन्हे किसी चीज़ का होश नही था. ना उन्हे समय का ज्ञान था. ना ही मौसम का.

लगभग 1 घंटा बीत चुका था. बारिश का शोर भी थम चुका था. अंधेरा उजाले को निगलता जा रहा था.

कुच्छ देर बाद रवि की आँख खुली. उसने बाहर नज़र दौड़ाया. मौसम सॉफ देखकर उसने धीरे से कंचन को पुकारा. - "कंचन उठो, देखो बाहर बारिश थम चुकी है. और सांझ भी ढल चुकी है. तुम घर नही जाओगी?"

रवि की आवाज़ से कंचन सचेत हुई. वा रवि से अलग होते हुए बाहर नज़र दौड़ाई. - "हाय राम ! कितनी देर हो गयी. बुआ तो मेरी जान ले लेगी." ये कहते हुए कंचन अपने खीर के डब्बे को हाथ में लेकर खड़ी हो गयी. फिर रवि को देखकर बोली. - "साहेब अब मुझे जाना होगा. नही तो सच में बाबा और बुआ बहुत परेशान होंगे."

"ठीक है. आओ चलें." रवि बोला और कंचन का हाथ पकड़कर बाहर निकल गया.

सड़क तक आने के बाद कंचन रवि से विदा लेकर घर के रास्ते बढ़ गयी. रवि भी बाइक पर बैठकर हवेली की ओर बढ़ गया.

*****

कल्लू तेज़ी से अपने घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था. उसका दिल छल्नि छल्नी हो चुका था. वो इस वक़्त खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहा था. इतना अकेलापन उसे आज से पहले कभी महसूस नही हुआ था. क्योंकि तब उसके साथ उसके अरमान होते थे, उसके सपने होते थे. किंतु आज वो सब कुच्छ उससे छिन गया था. अब ना तो उसके पास वो अरमान रहे थे और ना ही वो सपने.

वो ये बात शुरू से ही जानता था कि कंचन और उसका कोई मेल नही है. वो उसकी कभी नही हो सकती.....पर फिर भी उसके दिल में एक आस थी, जो उसके जीने का सहारा थी. वो कंचन को अपना मान कर तरह तरह की कल्पनायें किया करता था. रोज़ नये ख्वाब बुना करता था. अपने उन्ही ख्वाबों और कल्पनाओ के सहारे अपना दिन बीताया करता था. लेकिन अब कल्लू फिर से वैसी कल्पनायें नही कर सकता था. क्योंकि अब वो ये जान चुका था कि कंचन के दिल की धड़कनो को सुनने का अधिकार किसी और को है. उसके सुंदर शरीर को घेरे में लेने वाली मजबूत बाहें किसी और की हैं. उसके फूल से भी कोमल होंठों को चूम सके वे होंठ किसी और के हैं.

अपनी इन्ही विचारों में कराहता सिसकता कब वो अपने टूटे फुट झोपडे तक पहुँचा उसे पता ही ना चला. वह दरवाज़ा तेलकर अंदर दाखिल हुआ.

उसकी मा एक टूटी फूटी चारपाई पर लेटी हुई थी . घर में जहाँ तहाँ बारिश का पानी जमा पड़ा था. उसके खपरैल की छत से अभी भी बारिश का जमा पानी बूँद बूँद बनकर टपक रहा था.

कल्लू के आने की आहट से उसकी मा जाग कर चारपाई पर उठ बैठी. कल्लू भारी कदमो से चलता हुआ अपनी मा के पास पहुँचा. फिर वहीं मा के पैरों के पास गीली ज़मीन पर बैठते हुए अपना सर मा के घुटनो पर रख दिया. उसकी मा अपनी बूढ़ी और कमज़ोर उंगलियों को उसके बालों पर फेरने लगी.

जैसे दाई की नज़र से पेट नही छिपता वैसे ही मा के सामने उसके बच्चे की उदासी नही छिपती. कल्लू की मा एक नज़र में जान गयी कि आज कल्लू परेशान है. वैसे तो वो कल्लू की पीड़ा से परिचित थी. पर उसके दिल में कंचन के लिए जो तड़प थी उससे अंजान थी.

"क्या हुआ कल्लू? तू इतना उदास क्यों है?" उसके सर के गीले बालों को सहलाते हुए उसकी मा ने पुछा.

"मैं उदास नही हूँ मा. आज मैं बहुत थक गया हूँ. आज तुम्हारी गोदी में सर रखकर सोने का बड़ा मन कर रहा है. मुझे अपनी गोदी में लो ना मा." कल्लू ने लाख चाहा पर उसकी आवाज़ में करुणा आ ही गयी.

उसकी मा समझ गयी. आज फिर किसी ने उसके जिगर के टुकड़े का दिल दुखाया है. आज फिर किसी ने इसकी ग़रीबी का मज़ाक उड़ाया है. वह झुककर उसके माथे को चूमते हुए बोली. - "मेरे लाल.....मैं जानती हूँ आज फिर किसी ने तुम्हे सताया है. आजा मेरी गोद में अपना सर रख ले."

कल्लू उठा और चारपाई पर लेट गया. फिर अपना सर अपने मा की गोद में रखकर अपनी आखों को बंद कर लिया. आँखें बंद करते ही कंचन और रवि का प्रेम भरा मिलाप उसके आगे नाच उठा.. उसके सीने में एक दर्द सा उठा और उसकी आँखें डॅब्डबॉ आई. उसका गला ऐसे सुख गया जैसे महीनो से प्यासा हो. उसने लाख चाहा रोकले पर आँखों से आँसू छलक ही पड़े. उसकी आँखों से बहते हुए आँसू उसकी मा के दामन को भिगोने लगे.

बेटे की आँख से बहते आँसू देख उसकी ममता भी रो पड़ी. पर सिवाए उसे दिलासा देने के वह और कुच्छ भी ना कर सकी.

कुच्छ देर तक मा की गोद में सर रखे आँसू बहाने के बाद कल्लू के दिल का गुबार थोड़ा कम हुआ. वह उसी तरह अपनी मा के गोद में सर को रखे सो गया.

*****
नेक्स्ट डे.

दिन के 11 बजे होंगे. निक्की अपनी जीप में बैठकर हवेली से निकली. उसकी दिशा सरपंच के खेत थे. उसके दिलो दिमाग़ पर कल से एक ही व्यक्ति छाया हुआ था. वो था कल्लू.

कल शाम को जब उसका सामना कल्लू से हुआ था तब उसकी आँखों में एक ऐसी दर्द की परच्छाई देखी थी जो रह रह कर उसे बेचैन किए जा रही थी. जब भी आँखें बंद करती उसे कल्लू का उदास चेहरा और पीड़ा भरी आँखें दिखाई देते.

कल से वो ना तो रवि के बारे में सोच पाई थी और ना ही कंचन के बारे में. वैसे भी दीवान जी ने उसे उनके बारे में कोई भी निर्णय लेने से मना किया था. वो तो बस दीवान जी के लौटने की राह देख रही थी. किंतु आज उसे कल्लू से मिलने की इच्छा हो रही थी. उसे कल्लू के दुख का कुच्छ कुछु अनुमान हो गया था. और अब उसके देख को अपने दुख से मिलान कर रही थी.

कुच्छ ही देर में उसकी जीप कच्चे उबड़ खाबड़ रास्तों से होते हुए उस जगह पहुँची जहाँ पर सरपंच के खेत थे.

कल्लू उसे दूर से ही दिखाई दे गया. वो नंगे बदन चिलचिलाती धूप में गीले खेत की मिट्टी काटने में व्यस्त था. आस पास के खेतों में एक भी आदमी दिखाई नही दे रहा था. सरपंच जी कल्लू से कोई ना कोई काम हमेशा लेते रहते थे. कल्लू भी कभी मना नही करता था. उन्ही के खेतों में काम करके उसके घर का चूल्हा जलता था. सरपंच जी से बहुत कम पैसे मिलते थे. पर उसके अलावा कल्लू के पास और कोई चारा भी नही था. कोई दूसरा उसे काम दे नही सकता था. गाओं के दूसरे लोग अपने खेतों में खुद ही काम किया करते थे. ले देकर एक मुखिया जी ही थे जिनके पास कुच्छ करने को मिल जाता था. कोई दूसरा काम वो कर नही सकता था, क्योंकि वो नीर मूर्ख अग्यानि था. मा को छोड़ कर गाओं से बाहर काम पर जाने की भी उसकी हिम्मत नही होती थी. यही कारण था कि दिन दोपेहर रात....जब कभी मुखिया जी किसी काम को कहते वो बिना कोई सवाल किए उस काम में लग जाता. इस वक़्त भी वो उन्ही के आदेश से काम पर लगा हुआ था. वह पसीने से तार-बतर था. पसीने से भीगा उसका काला बदन सूर्य की रोशनी से चामक रहा था.

निक्की जीप से उतरी और खेत की आधे टेढ़े मेढ़ो पर चलते हुए कल्लू तक पहुँची. कल्लू अपने काम में ऐसे खोया हुआ था कि उसे निक्की के आने का पता तक ना चला.

निक्की उसे फावड़ा चलाते हुए देखती रही. कल्लू के हाथ जब फावड़ा लेकर उपर उठाते तो उसके बदन की सारी नशे फेडक उठती.भुजायें फूलकर चौड़ी हो जाती. उसे बचपन से ही मेहनत करते हुए लोगों को देखना अच्छा लगता था. लेकिन इस वक़्त उसे बेहद आश्चर्य हो रहा था कि उसके आए हुए 10 मिनिट हो चुके थे पर कल्लू ने पलटकर उसे देखा तक नही था.
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05-02-2020, 01:14 PM,
#43
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अपडेट 32




कल्लू पसीने से लथ-पथ फावड़ा चलाए जा रहा था. वह अपने हाथों को फावड़ा सहित उपर तक उठाता और ज़ोर से मिट्टी पर दे मारता. वह मिट्टी पर फावड़ा ऐसे मार रहा था जैसे उस मिट्टी से उसका जनम का बैर हो.

कुच्छ देर निक्की उसे फावड़ा चलाते हुए देखती रही फिर धीरे से उसे आवाज़ दी. - "कैसे हो कल्लू?"

निक्की की आवाज़ से कल्लू चौंककर पिछे मुड़ा. निक्की पर नज़र पड़ते ही उसकी आँखों में आश्चर्य समाया. वह काँपते स्वर में बोला - "आप?"

निक्की की नज़र उसके चेहरे पर जम गयी. वह कल्लू को ध्यान से देखने लगी. उसकी आँखें सूजी हुई और लाल थी. ऐसा लगता था जैसे वो रात भर सोया नही था, या देर रात तक रोता रहा था. उसकी आँखों में अभी भी वही पीड़ा व्याप्त थी. जो कल शाम को थी. निक्की ने पुछा - "तुम इतनी धूप में काम क्यों कर रहे थे?"

निक्की की बात पर कल्लू धीरे से मुस्कुराया. उसकी मुस्कुराहट में व्यंग था. वह खुद की लाचारी पर व्यंग से मुस्कुराया था. - "ग़रीब मजदूर, धूप और बारिश की परवाह करने लगे तो उसके घर का चूल्हा कभी नही जलेगा निक्की जी." उसकी आवाज़ में कंपन था. वह आगे बोला - "आप बताइए? आप यहाँ किस लिए आई हैं?"

"मैं तुम्ही से मिलने आई हूँ, कुछ बातें करनी थी तुमसे." निक्की ने उसे उत्तर दिया - "क्या तुम मेरे साथ उस पेड़ के नीचे बैठ सकते हो? यहाँ बहुत धूप है, मैं ज़्यादा देर यहाँ खड़ी नही रह सकती."

"जी चलिए." कल्लू बोला और फावड़ा वहीं छोड़कर मेध पर रखा तथा गम्छा हाथ में उठाए पेड़ की छाँव तले आया. फिर निक्की से पुछा -"कहिए क्या कहना चाहती हैं आप?"

"कल जब मैं तुम्हे झरने के किनारे देखी थी तब तुम बहुत उदास से थे. तुम्हारी आँखों में मैने एक गहरी पीड़ा देखी थी. लेकिन मैं उसका कारण नही जान सकी. मुझे बताओ कल तुम किस लिए उदास थे?" निक्की कल्लू के चेहरे पर अपनी नज़रें जमाए रखी.

"क्या करेंगी आप ये जानकार....?" कल्लू एक फीकी मुस्कुराहट छोड़ता हुआ बोला - "दुख और उदासी तो ग़रीबों का गहना है निक्की जी. इनके बिना तो वो विधवाओ जैसा लगता है."

"कल्लू.....मैं तुम्हारी पीड़ा समझती हूँ. क्योंकि आज कल मैं भी उसी पीड़ा को भोग रही हूँ." निक्की कल्लू की बातों से भावुक होकर बोली - "तुम कंचन से प्यार करते हो ना?"

कल्लू चौंका ! उसने आश्चर्य से निक्की को देखा. उसे निक्की के चेहरे पर घनी उदासी के बादल दिखाई दिए. उसकी भी आँखों में वही पीड़ा का अनुभव किया. जिस पीड़ा से वह पूरी रात कराहता रहा था.

"हां कल्लू, मैं रवि से प्रेम करती हूँ. उससे शादी करना चाहती हूँ. पर वो मुझसे नही कंचन से प्यार करता है." निक्की कल्लू की उलझन दूर करते हुए बोली - "मैं कल तुम्हे देखते ही जान गयी थी कि तुम कंचन से प्रेम करते हो. लेकिन ये बात मैं तुम्हारे मूह से सुनना चाहती थी. बोलो प्रेम करते हो ना कंचन से?"

कंचन की याद से उसकी आँखें डॅब्डबॉ आई. वैसे तो वो सुबह से ही कंचन के ख्यालो में डूबा हुआ था. पर अब निक्की का स्नेह पाकर उसकी पीड़ा बाहर छलक आई थी. उसके कुच्छ बोलने से पहले ही उसकी आँखों से आँसू की दो मोटी-मोटी बूंदे निकल कर उसके गालों में फैल गयी. वह बेबसी में अपने होठ चबाने लगा. उसने निक्की को देखा. निक्की उसे ही देख रही थी. कल्लू निक्की से कुच्छ कहना चाहा पर उसके गले ना उसका साथ नही दिया.

"कुच्छ ना कहो कल्लू, मैं सब समझ गयी. तुम्हारी आँख से बहते आँसुओ ने मुझे वो सब कह दिया जो मैं जान'ना चाहती थी." कल्लू की पीड़ा की आँच से निक्की का नारी हृदय पिघल गया. कल्लू के दुखो का अनुभव करके उसकी आँखे भी बरस पड़ी.

"निक्की जी. मैं बहुत अभागा इंसान हूँ, बचपन से मुझे सिवाए दुख के कुच्छ भी ना मिला. जो भी मुझसे मिला सबने मेरा तिरस्कार किया किसी ने मुझे गले से नही लगाया." कल्लू भर्राये स्वर में बोला - "आज मैं सिर्फ़ इसलिए नही रो रहा हूँ कि मैं बचपन से जिसे चाहता आया हूँ वो किसी और को चाहती है. बल्कि आज मेरी आँखें इसलिए रो रही है कि आज किसी ने मुझसे पुछा कि मैं दुखी क्यों हूँ. किसी ने ये जान'ने का प्रयास किया कि मैं क्या चाहता हूँ. निक्की जी......जब आपसे कोई कड़वी बात कहता होगा तब आप बहुत दुखी होती होंगी, तब आपका मन रोने को करता होगा. लेकिन मैं उस वक़्त दुखी होता हूँ जब कोई मुझे सहानुभूति दिखाता है. मुझसे ढंग से प्यार से बातें करता है. क्योंकि मुझे इसकी आदत नही है निक्की जी. मैं बचपन से लोगों की गालियाँ फटकार- दुतकार खा-खाकर बड़ा हुआ हूँ. किसी की सहानुभूति मुझे अच्छी नही लगती. लोगों की प्यार भरी बातें मुझे रुला देती है. इसलिए मैं आपसे हाथ जोड़कर निवेदन करता हूँ कि मुझसे ऐसे बोल ना बोलिए जो मेरी पीड़ा को बढ़ा दे. कंचन को चाहना मेरी भूल थी. मैं अब उसे भूलना चाहता हूँ. आप भी भूल जाइए की आपने क्या देखा. क्या नही देखा. मुझ ग़रीब पर रहम कीजिए और अपनी हमदर्दी से मुझे दूर रखिए. मैं सह नही सकूँगा....मर जाउन्गा मैं." ये कहकर कल्लू फफक पड़ा.

एक खंजर सा निक्की के सीने में धस्ता चला गया. वह पीड़ा से कराह उठी. उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई उसके सीने में खंजर घुसाकर उसके दिल को कुरेद रहा रहा हो. "ये क्या हो रहा है मुझे." वह बड़बड़ाई - "ये कैसी पीड़ा है जो मेरी छाती में उठ रही है?. क्या ये कल्लू की पीड़ा है या कुच्छ और है?" निक्की छटपटाई. वह अपनी छाती को मसल्ने लगी. उसे अपने अंदर कुच्छ बदलता सा महसूस हुआ. वो नही जान पाई उसे क्या हो रहा है पर वो तड़प रही थी.

कल्लू की सिसकियाँ थमी तो उसने निक्की को देखा. निक्की के चेहरे पर नज़र पड़ते ही उसकी आँखों में आश्चर्य उभरा. निक्की की आँखों में आँसू थे. - "निक्की जी आप......आप क्यो रो रही हैं?"

"बस ऐसे ही रोने का मन हुआ." निक्की अपने आँसुओ को पोछते हुए बोली - "लेकिन आज के बाद तुम कभी खुद को अकेला मत समझना. आज के बाद मैं तुमसे रोज़ मिलूंगी और ऐसे ही रुलाने वाली बातें करूँगी. तुम्हे बाद में जितना रोना हो रो लेना." निक्की बोली और पलटकर जाने लगी.

कल्लू स्तब्ध सा खड़ा निक्की को जाते हुए देखता रहा. अचानक निक्की मूडी. फिर वो तेज़ी से चलते हुए कल्लू तक आई और बोली. - "मुझे किस करो."

"जी....!" कल्लू हकलाया.

"किस का मतलब नही समझते?" निक्की ने पलकें झपकई. - "मैं चुम्मि की बात कर रही हूँ. चुमो मुझे."

कल्लू का सर चकराया. उसके समझ में नही आ रहा था कि अच्छी भली निक्की को क्या हो गया? वह काँपते स्वर में बोला - "निक्की जी, क्यों मुझ ग़रीब का मज़ाक बना रही हैं आप?"

"देखो मुझे मज़ाक पसंद नही. मैं जो कुच्छ कह रही हूँ बहुत सीरियस्ली कह रही हूँ." निक्की ने गंभीरता से कहा.

कल्लू मूर्खों की तरह निक्की को देख रहा था. उके समझ में नही आ रहा था कि निक्की उसपर इतनी दया क्यों दिखा रही है? वह हैरान परेशान खड़ा रहा.

"देखो मैं तुम पर कोई तरस नही खा रही हूँ, और ना ही ये समझना कि मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूँ. बस अभी मेरा मन कर रहा है तुम्हे किस करने को. इसलिए कह रही हूँ. किस मी." निक्की ने आँखें दिखाई.

कल्लू अब भी असमंजस में पड़ा हुआ था. निक्की आगे बढ़ी और उसकी गर्दन को पकड़कर अपने होंठ उसके होंठों से सटा दिए.

एक लंबा चुंबन उसके होंठों पर धरने के बाद उससे अलग हुई. फिर मुस्कुराते हुए बोली - "अब कैसा महसूस कर रहे हो?"

कल्लू कुछ ना बोला. वो पागलों की तरह निक्की को देख रहा था.

निक्की एक मुस्कुराहट छोड़ती हुई वहाँ से चल दी.
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05-02-2020, 01:14 PM,
#44
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अपडेट 33

निक्की को गये हुए 10 मिनिट बीत चुके थे पर कल्लू अभी भी उसी स्थान पर खड़ा गहरी सोच में डूबा हुआ था. उसके मस्तिष्क में कुच्छ देर पहले की घटना का चलचित्र चल रहा था. उसे अब भी अपनी आँखों देखी पर बिस्वास नही हो रहा था. उसे लग रहा था जैसे कुछ देर पहले जो कुच्छ यहाँ हुआ वो एक सपना था. निक्की का यहाँ आना. उसके साथ अप्नत्व से भरी बातें करना, और फिर अमीरी ग़रीबी, और गोरे काले की भेद को मिटाकर उसके होंठों को चूमना. ये सब उसे सपना सा जान पड़ रहा था.

हां सच में उसके लिए ये सपना ही था. जो आदमी बचपन से लोगों की स्नेह और प्यार के लिए तरसता रहा हो. जिसे लोगों ने सदा जग हसाई का साधन समझा हो. बार- बार जिसका तिरस्कार किया गया हो. जिसके रंग रूप का कदम कदम पर मज़ाक बनाया गया हो. वो भला इसे हक़ीक़त मान भी कैसे सकता था. उसके लिए तो ये सपना ही हो सकता था.

कल्लू ये सोचकर हैरान था कि आज तक गाओं में कंचन को छोड़ कर किसी दूसरी लड़की ने उसके साथ ढंग से बात तक नही की थी. उस जैसे अभागे इंसान पर आज निक्की ने इतना प्यार लूटाया क्यों? उसके जिस काले और भद्दे सूरत को देखकर गाओं की सभी लड़कियाँ मूह फेर लिया करती थी आज निक्की ने उसे चूमा क्यों?

कल्लू के पास इसका उत्तर नही था. पर इस विचार ने उसकी आँखों में फिर से आँसू भर दिए थे कि वो हर किसी के लिए नफ़रत का पात्र नही है. वो भी इंसान है, उसे भी अधिकार है की वो किसी को चाहे, किसी को प्यार करे, किसी के सपने देखे. हर वो खुशी हाशील करे जो दूसरे करते हैं.

कल्लू गीली आँखों से उसी रास्ते की ओर देख रहा था जिस और निक्की गयी थी. आज उसका मन निक्की के प्रति श्रधा भाव से भर गया था. उसके लिए वो किसी देवी से कम नही थी. जिसके अंदर ना तो दौलत की अकड़ थी और ना ही खूबसूरती का घमंड.

कुच्छ देर तक यूँही रास्ता निहारने के बाद कल्लू. फिर से खेत पर पसीना बहाने चला गया.

*****

निक्की जब से कल्लू से मिलकर आई थी तब से उसकी के बारे में सोच रही थी. उसकी ज़िंदगी के बारे में जानकार उसे बड़ा दुख हुआ था. वह सोच रही थी - 'कैसे कोई इंसान इतना दुख झेलकर भी ज़िंदा रह सकता है. बचपन से ही वो अकेलेपन का शिकार रहा है. अकेलापन का दर्द क्या होता है ये मैं खूब जानती हूँ. मैं तो सिर्फ़ मम्मी पापा से दूर होकर उदास रहती थी. जीवन नीरस सा लगता था. पर कल्लू तो सारी ज़िंदगी अकेला जीया है. कोई साथी नही कोई दोस्त नही. कैसा दुखदायी रहा होगा उसका जीवन? लोग उसे हीन भावना से क्यों देखते हैं? बदसूरत है तो क्या हुआ? क्या वो इंसान नही है? मैं दूसरों की तरह कभी उसका दिल नही दुखाउन्गि. लेकिन आज मुझे हो क्या गया था? मैं उसकी बातें सुनकर अज़ीब सा महसूस करने लगी थी. ऐसा लगता था कोई मेरे शरीर में घुसकर मेरे मन के तारों को छेड़ रहा हो. जाने मुझे क्या हो गया था. वो कैसी पीड़ा थी जो मेरे दिल में उठी थी. वो किस तरह की भावना थी जिसके बहाव में बहकर मैं उसके होंठों को किस कर बैठी थी. मुझे ये भी ध्यान नही रहा कि वो कितना गंदा और मैला कुचेला है.

"बीबी जी" अचानक दरवाज़े पर मंगलू की आवाज़ गूँजी.

निक्की ने चौंक कर दरवाज़े की तरफ देखा. वहाँ पर उसे मंगलू खड़ा दिखाई दिया. - "क्या है मंगलू?" निक्की ने पुछा.

"बीबीजी....खाना यहीं लगा दूं या बैठक में आएँगी." मंगलू धीमे स्वर में पुछा.

"यहीं ले आओ." निक्की मंगलू से बोली और उठकर बिस्तर पर बैठ गयी.

थोड़ी देर में मंगलू उसका लंच रखकर चला गया. उसे बहुत जोरों की भूख लगी थी. उसने कल्लू से संबंधित सारी बातों को दिमाग़ से झटका और फिर खाने में व्यस्त हो गयी.


*****

शांता के कदम सुंदरी के घर की तरफ उठते जा रहे थे. आज शांता का मन उससे कुच्छ बातें करने का हो रहा था. कुच्छ ही देर में उसके कदम शांता के दरवाजे पर जाकर रुके. अमूमन गाओं के लोग घर के दरवाज़े खुले ही रखते हैं पर सुंदरी अपने घर का दरवाज़ा हमेशा बंद ही रखती थी.

शांता ने दरवाज़े की कुण्डी बजाई. थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद दरवाज़ा खुला. दरवाज़ा सुंदरी ने ही खोला था.

"आओ बहिन, आज हमारे घर का रास्ता कैसे नाप ली.?" सुंदरी उसे देखते ही मुस्कुराकर बोली.

"अकेली घर पर जी नही लग रहा था भाभी. सोची थोडा तुमसे मिल आउ. अंदर आने की आग्या हो तो पावं धरू?" शांता ने दरवाज़े से खड़े खड़े कहा.

"अरे कैसी बात कर रही हो बहिन? अंदर आओ......तुम्हे आग्या की क्या ज़रूरत है? ये तो तुम्हारा ही घर है." सुंदरी ये कहते हुए शांता का हाथ पकड़ कर अंदर ले गयी.

शांता उसके साथ चलते हुए बैठक तक आई फिर एक और पड़े सोफे पर बैठ गयी. इस घर में वो पहले भी आ चुकी थी. पर उस वक़्त जब सुंदरी दुल्हन बनकर इस घर में आई थी. उसके बाद से उसका इस घर में दोबारा आना नही हुआ.

मुखिया जी ने घर में साजो सजावट के सारे सामान रख छोड़े थे. किसी चीज़ की कमी नही थी इस घर में. शांता घर की वैभवता को कुच्छ देर निहारती रही.

"क्या लोगि बहिन?" सुंदरी ने उसे टोका.

शांता मुस्कुराकर उसकी ओर देखते हुए बोली - "कुच्छ नही भाभी. व्यर्थ में परेशानी ना उठाओ. मैं तो बस तुमसे मिलने आई थी."

"तो फिर अपना कष्ट बताओ बहिन. उसका भी इलाज़ करा दूँगी." सुंदरी रहस्यमयी मुस्कुराहट छोड़ते हुए बोली.

"मुझे कोई कष्ट नही भाभी. तुम लोगों के होते मुझे कोई कष्ट हो सकता है भला." शांता फीकी मुस्कान लिए बोली.

"ना बताना हो तो ना सही." सुंदरी मूह बनाकर बोली - "पर मैं तुम्हे भी जानती हूँ और तुम्हारे कष्ट को भी."

शांता कुच्छ ना बोली. सिर्फ़ एक लंबी साँस लेकर रह गयी. कष्ट तो उसे सच में था. वो यूँही मिलने नही आई थी. उसे उसका अकेलापन सुंदरी के पास खींच लाया था. वो किसी का सान्निध्य चाहती थी. चाहें वो सुंदरी हो या बिरजू. लेकिन कहते हुए डरती थी. वो बेशर्मी के साथ अपनी पीड़ा सुंदरी के सामने नही रख सकती थी. उसमे इतनी निर्लजता नही थी.

"क्या सोचने लगी बहिन?" सुंदरी ने उसे खोया हुआ देख पूछा - "कुच्छ बोलो बतियाओ. जो दिल में लेकर आई हो कह दो बहिन. शायद मैं कोई मदद कर सकु" सुंदरी उसके जाँघो पर हाथ धरते हुए बोली.

शांता सोचती रही !

"किसी और का साथ चाहिए तो वो भी कर सकती हूँ. वो भी अभी." सुंदरी उसके जांघों पर हाथ फेरते हुए बोली.

शांता ने आश्चर्य से उसे देखा. सुंदरी के होंठ शरारत से मुस्कुरा रहे थे.

सुंदरी की बातें और उसकी हरकतें दोनो ही शांता के शरीर को गरमाने में लगे थे.

"सच कह रही हूँ. बिरजू यहीं है. अंदर कमरे में." सुंदरी उसके कान में फुस्फुसाइ. शांता के पूरे शरीर में चिंगारी दौड़ गयी. इस एहसास से कि बिरजू अंदर कमरे में है, ये सोचकर की उसके आने से पहले सुंदरी बिरजू के साथ बंद कमरे संभोग कर रही थी......उसकी देह सुलग उठी. साँसे गर्म होकर तेज़ तेज़ चलने लगी. शरीर भट्टी की तरह तपने लगा और उसके कानो से गर्म धुआँ सा निकलने लगा.

"चल....." सुंदरी उसकी मनोदशा का अनुमान कर उसका हाथ पकड़कर उठाते हुई बोली - "किसी को कुच्छ पता नही चलेगा की अंदर क्या हो रहा है. तू जब तक चाहे अपने अरमान पूरे करती रह. मैं बाहर पहरा देती हूँ."

"नही भाभी....मैं ये नही कर सकूँगी." शांता ने घबराकर अपनी कलाई छुड़ानी चाही पर असफल रही. उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था. शांता लाचारी से सुंदरी को देखते हुए बोली - "मैं सच कहती हूँ मुझसे ये नही होगा. मैं लाख दुखी सही पर अपने माथे पर कुलटा होने का टीका नही लगा सकती."

शांता कह तो गयी. पर उसकी बातों में वो स्थिरता नही थी जो एक पतिव्रता नारी में होती है. उसका शरीर पुरुष संसर्ग के लिए तड़प रहा था. वह चाह रही थी कि अभी दौड़कर अंदर जाए और बिरजू से अपने तड़प्ते मन की प्यास बुझा लें. भूल जाए कि लोग क्या कहेंगे क्या सोचेंगे. बस आज वो किसी की हो जाए. जो आग कुच्छ दिनो से उसके शरीर को धीरे धीरे जला रही थी, उस आग को बिरजू के शरीर से लिपटकर बुझा ले.

सुंदरी को शांता की मनोदशा का पूरा ग्यान हो गया था. वो ये समझ चुकी थी शांता का इनकार दिखावा है. उसने शांता को और समझाना उचित नही जाना. वह उसे खिचते हुए कमरे के अंदर ले गयी.

अंदर बिरजू बिस्तर पर लेटा हुआ था. शांता को अंदर आते देख उसकी कामुक आँखें खुशी से चमक उठी. वहीं शांता का दिल जोरों से धड़क उठा. उसका पूरा शरीर घबराहट और उत्तेजना से बुरी तरह काँप रहा था.

"शांता अब लोक लाज छोड़ दे. अब तो मिलन की बेला है. देख कैसे तैयार बैठा है तेरा रसिया." सुंदरी बिरजू को देख एक कुटील मुस्कुराहट होंठों पर लाकर बोली. - "बिरजू ख्याल रखना इसका. बहुत दुखी है बेचारी. इसका सारा दुख आज दूर कर देना. कोई शिकायत नही मिलनी चाहिए."

सुंदरी ये कहकर बाहर चली गयी. जाते जाते दरवाज़ा भिड़ा गयी.

बिरजू शांता को देखकर नशे से भर उठा. वो किसी शराबी की तरह झूम कर उठा और शांता की तरफ बढ़ा.

बिरजू को अपनी ओर बढ़ते देख शांता का दिल जोरों से धड़का. पावं थर-थर काँपने लगे. उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके टाँगों की शक्ति ख़त्म हो गयी हो और वो अभी लहराकार गिर पड़ेगी.

बिरजू आगे बढ़ा और शांता को कमर से थाम लिया. फिर उसे एक झटके में खुद से सटा लिया.. शांता के लिए अब पिछे हटना संभव नही रह गया था. उसकी युवा भावनाएँ उसके मस्तिष्क का साथ छोड़ चुकी थी. शांता अपने बदन को बिरजू के बदन से मिलाती चली गयी.

बिरजू ने शांता को अपने मजबूत बाहों से उठाया और बिस्तर पर गिरा दिया. फिर स्वयं पलंग पर चढ़कर शांता के उपर झुकता चला गया. अगले ही पल शांता के होंठ उसके होंठों की गिरफ़्त में थे. शांता की गर्म साँसे बिरजू के चेहरे से टकरा रही थी. और बिरजू दीवानवार उसके होंठों को चूस्ता जा रहा था. साथ ही अपने हाथों से उसके कमर और जाँघो को सहला रहा था.

शांता लगभग होश खो चुकी थी. यही दशा बिरजू की भी थी. वह शांता के होंठों को चूस्ते हुए उसकी गर्दन तक आया और अपने जलते हुए होंठों से उसकी गर्दन को चूमने लगा.

"क्या जिस्म पाया है तुमने कंचन, तुम नही जानती तुम्हारे इस शरीर ने मेरी काई रातों की नींद उड़ा रखी थी. आज मैं सारी थकान तुमपर उतारूँगा." ये कहते हुए बिरजू उसके ब्लाउस के बटन्स खोलने लगा.

शांता के दिमाग़ को एक तेज़ झटका लगा. उसने मदहोशी में भी जो शब्द सुने थे वो अब भी उसके कानो में गूँज रहे थे. बिरजू ने उसे कंचन कहकर संबोधित किया था.

जब इंसान किसी के बारे में हद से ज़्यादा सोचने लगता है तब वो किसी दूसरे के नाम की जगह में उसका नाम ले लेता है. बिरजू से भी यही भूल हो गयी थी. उसने शांता के नाम की जगह कंचन का नाम ले लिया था. जिसे सुनकर शांता के होश उड़ गये थे.
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05-02-2020, 01:14 PM,
#45
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
किंतु बिरजू को शायद अपनी भूल का एहसास ना था. उसकी उंगलिया तेज़ी से शांता के ब्लाउस के बटन्स खोलते जा रहे थे. तभी शांता ने अपने हाथो से एक ज़ोर का धक्का बिरजू को दिया. बिरजू संभाल ना सका और बिस्तर से नीचे जा गिरा. शांता फुर्ती के साथ खड़ी हुई और चिंगारी बरसाती आँखों से फर्स पर फैले बिरजू को घूर्ने लगी.

बिरजू हक्का-बक्का उसे ही देख रहा था. शांता की आग उगलती आँखें देखकर उसके पसीने छूट पड़े थे. किंतु अचानक से हुए इस तब्दीली का कारण अभी तक उसके समझ में नही आया था. वह लड़खड़ाते शब्दों में बोला - "क....क्या हुआ शांता?"

"क्या चल रहा है तेरे दिमाग़ में?" शांता ने गुस्से से बिरजू को घूरा. - "कंचन का नाम तेरे होंठों पर आया कैसे? कहीं तू कंचन के बारे में कुछ ग़लत तो नही सोच रहा है?"

"कैसी बातें कर रही हो शांता?" बिरजू ने घबराहट में अपनी थूक निगली. - "मैं भला कंचन के बारे ग़लत क्यों सोचूँगा. भूल से कंचन का नाम मेरी जीभ पर आ गया होगा. पर सच कहता हूँ, मेरे मन में उसके लिए कोई बुरे विचार नही."

"यही तेरे लिए उचित रहेगा बिरजू. कंचन के बारे में सोचने की भूल भी मत करना." शांता ने धमकी भरे स्वर में से कहा - "अब मैं जा रही हूँ.. पर जाने से पहले आख़िरी बार तुम्हे सचेत किए देती हूँ. जो तूने कंचन को छुने की भी कोशिश की. तो फिर तू बहुत बुरी मौत मरेगा."

शांता ये कहते हुए दरवाज़े से बाहर निकल गयी. हॉल में सुंदरी ने उसे टोका. पर शांता ने कोई जवाब नही दिया और सीधा अपने घर को बढ़ गयी.

वह रास्ते भर इसी बात को सोचती जा रही थी. उसका मन ये मानने को तैयार ही नही था कि बिरजू के मूह से कंचन का नाम भूलवश निकला होगा. - 'ज़रूर उसके मन में कंचन के प्रति बुरे विचार होंगे, तभी उसके मन की बात उसके होंठों पर आ गयी.' शांता मन ही मन बोली - 'अब मुझे सतर्क रहना होगा. कहीं ऐसा ना हो वो पापी कंचन के साथ कुच्छ बुरा कर जाए. कंचन मेरी बेटी नही है तो क्या हुआ? उसे मैने चिंटू से ज़्यादा प्यार किया है. मेरे होते कोई उसपर बुरी नज़र रखे, उससे पहले मैं उसकी आँखें निकाल लूँगी.'

शांता इन्ही विचारों में चलते हुए अपनी चौखट तक पहुँची. फिर बाहर का दरवाज़ा थेल्कर आँगन में दाखिल हुई. पर जैसे ही वो आँगन में आई उसकी नज़र फटी की फटी रह गयी. उसकी आँखें उसे जो दिखा रही थी उसपर उसे बिसवास नही हो रहा था. शांता फटी - फटी आँखों से अपने पति दिनेश को देख रही थी. जो इस वक़्त बरामदे में बिछि चारपाई पर लेटा हुआ था. उसकी नज़रें उपर छप्पर की ओर उठी हुई थी. शांता के आने की आहट से उसका ध्यान टूटा. उसने पलटकर शांता की और देखा. शांता पर नज़र पड़ते ही वह चारपाई पर उठ बैठा.

शांता काँपते पैरों से उसके पास जाकर खड़ी हो गयी. वह अब भी विस्मित नज़रों से अपनी पति को देख रही थी. उसे अब भी जैसे अपनी आँखों देखी पर यकीन नही हुआ था.

दिनेश उसे देखकर मुस्कुराया. तत्पश्चात बोला - "कैसी हो शांता? कहाँ चली गयी थी? मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ. पूरा घर खाली पड़ा है, सुगना दद्दा कहाँ हैं. कंचन और चिंटू भी दिखाई नही दे रहे हैं. कुच्छ बोलो भी इस तरह चुप क्यों खड़ी हो?" दिनेश ने एक साथ कयि सवाल पुच्छ डाले.

शांता से कुच्छ कहते ना बना, उसे तो ये भी समझ में नही आ रहा था कि ऐसी घड़ी में वो क्रोध करे या खुशी जताए.

"क्या मुझे देखकर तुम्हे खुशी नही हुई जो इस तरह चुप हो गयी हो?" दिनेश चारपाई से खड़ा होते हुए बोला - "मैं जानता हूँ मैने तुम्हे बहुत कष्ट दिया है. मेरा पाप क्षमा के लायक नही, फिर भी कर सको तो मुझे क्षमा कर दो." दिनेश ने शांता के आगे अपने हाथ जोड़ दिए.

"ऐसे ना कहिए." शांता अपने पति के उठे हुए हाथों को पकड़ते हुए बोली - "ईश्वर की कृपा से आप लौट आएँ हैं, यही मेरे लिए बहुत है. अब मेरे आगे हाथ जोड़कर मुझे अपराधिनी मत बनाइए." शांता ये कहते हुए सिसक पड़ी.

ऐसा नही था कि शांता अपने पति से नाराज़ नही थी. उसने 8 साल तन्हाई में गुज़ारे थे, एक-एक दिन सौ-सौ बार मरी और जीई थी. लेकिन कुच्छ देर पहले बिरजू के बहकावे में आकर उसने जो ग़लती की थी उसके अपराध बोध से वह दबी हुई थी. वो अपने पति की नींदा कर भी कैसे सकती थी जबकि वह खुद दोषी थी.

उसका दिल वर्षों से पति से विछोह की आग में जल रहा था. वह आयेज बढ़ी और दिनेश के चरनो में झुक गयी. दिनेश ने उसे उठाया और अपने सीने से लगा लिया.

तभी खुले दरवाज़े से कंचन अंदर आई, उसकी आहट से दोनो अलग हुए.

"इसे पहचाना आपने?" शांता मुस्कुराकर कंचन की ओर इशारा करते हुए दिनेश से बोली - "ये कंचन है."

"क्या...? कितनी बड़ी हो गयी है ये तो." दिनेश ने कंचन को देखकर शांता से कहा.

कंचन पास आकर आश्चर्य से दिनेश को देखने लगी.

"कंचन तुमने पहचाना इन्हे? ये तुम्हारे फूफा हैं." शांता कंचन को देखकर बोली.

कंचन ने दिनेश को ध्यान से देखा. वह जब 12 साल की थी तब उसने अंतिम बार दिनेश को देखा था. तब दिनेश 30 साल का था. इतने वर्षों बाद भी उसके अंदर कुच्छ खास परिवर्तन नही आया था. वही रंग रूप, वही कद-काठी. सिर्फ़ सर के बाल कहीं - कहीं से सफेद हो गये थे.

कंचन आगे बढ़ी और दिनेश के पावं च्छू लिए. दिनेश ने उसे आशीर्वाद दिया. फिर चिंटू के बारे में पुछा. वो अभी तक स्कूल से नही लौटा था.

"शांता तुमने तो मुझे माफ़ कर दिया, अब सुगना दद्दा आए मिलकर माफी माँग लूँ तो मेरा कार्य पूरा हो जाएगा." दिनेश ने शांता से कहा.

"वो इस वक़्त भैया खेतों में होंगे. शाम तक लौट आएँगे." शांता ने उसे बताया.

"मैं शाम तक का इंतेज़ार नही कर सकता. मैं अभी उनके पास जाकर उनके चरण च्छुकर आता हूँ." दिनेश बोला और घर से बाहर निकल गया.

*****

नेक्स्ट डे. शाम के 7 बजे.

रवि कंचन से मिलने के बाद जब हवेली पहुँचा तो उसकी खुशी की सीमा ना रही. हाल में कदम रखते ही उसकी नज़र अपनी मा पर पड़ी. जो इस वक़्त सोफे पर बैठी ठाकुर साहब से बातें कर रही थी. पास ही दूसरे सोफे पर दीवान जी और निक्की भी बैठी थी.

रवि पर नज़र पड़ते ही वो भी खुशी से उठ खड़ी हुईं.

"मा..." रवि ये कहते हुए आगे बढ़ा और अपनी मा से लिपट गया. - "कैसी हो मा? आपको आने में कोई तकलीफ़ तो नही हुई?"

"मैं ठीक हूँ मेरे बच्चे." कमला जी ने रवि के माथे को चूमते हुए कहा - "तू सुना तू कैसा है?"

"मैं ठीक हूँ मा." रवि ने मुस्कुराकर उत्तर दिया और वहीं सोफे पर उनके बगल में बैठ गया.

कुच्छ देर हॉल में औपचारिक बातें करने के बाद रवि अपनी मा को अपने कमरे में ले गया.

"अब बताओ मा तुम कैसी हो?" रवि मा को सोफे पर बिठाते हुए पुछा.

"मेरी चिंता कब तक करता रहेगा?" रवि की मा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा. - "तू मेरे लिए कोई बहू क्यों नही ले आता. जो मेरा ख्याल रखे."

"तुम आ गयी हो तो तुम्हे तुम्हारी बहू से मिलवा ही दूँगा मा." रवि ने शरमाते हुए कहा. - "मैने तुम्हारे लिए बहू पसंद कर ली है, वो बहुत अच्छी है, तुम इनकार नही कर सकोगी."

"तुम्हारी पसंद को तो मैं देख चुकी हूँ और वो मुझे भी पसंद आ गयी है." रवि की मा ने स्नेह से भारी दृष्टि रवि पर डालते हुए कहा.

"तुम किस की बात कर रही हो मा?" रवि ने आश्चर्य से मा को देखा.

"मैं ठाकुर साहब की बेटी निक्की की बात कर रही हूँ, क्या तू किसी और की बात कर रहा है?"

"हां मा." रवि ने उत्तर दिया - "निक्की मेरी पसंद नही है, मेरी पसंद कोई और है."

"कौन है वो?" मा ने पुछा.

"उसका नाम कंचन है, बस्ती में रहती है, उनके पिता खेती करते हैं, मा नही है, उनकी बुआ है जो उसी घर में रहती हैं और उन्होने ही कंचन को मा की तरह पाला है." रवि ने एक ही साँस में सब कुच्छ मा को बता दिया.

"रवि, तू ठाकुर साहब जैसे खानदानी आदमी को छोड़ कर.....एक हल चलाने वाले मामूली इंसान से रिश्ता जोड़ना चाहता है, तुझे हो क्या गया है? तू आकाश को देखना छोड़ कर धरती की ओर क्यों देख रहा है?" कमला जी सोफे से उठते हुए बोली.

"मा, जिन्हे तुम एक मामूली सा हल चलाने वाला कह रही हो.....अगर ये लोग हल चलना छोड़ दे तो वही आकाश में उड़ने वाले लोग मूह के बाल धरती पर आकर गीरेंगे." रवि भी सोफे से उठकर मा के नज़दीक जाते हुए बोला. - "मा इंसान काम से छोटा बड़ा नही होता. विचारों से होता है. मेरी नज़र में वो छोटा है. जिसके विचार छोटे हों. और तुम्हारे विचार तो बड़े उँचे होते हैं मा. फिर आज इस तरह की छोटी बातें क्यों कर रही हो? क्या तुम चाहती हो मैने जो वादा कंचन से किया है उसे तोड़कर उसकी नज़रों में गिर जाउ? फिर तुम बताओ मा कि मेरे ऐसा करने के बाद छोटा कौन होगा वे लोग या हम ?" रवि अपनी मा के कंधो को पकड़कर गंभीर स्वर में बोला.

"लेकिन....बेटे !" कमला जी ने कुच्छ कहना चाहा. लेकिन कहते-कहते रुक गयी.

"मा, तुम अमीरी-ग़रीबी को परे रखकर एक बार कंचन से मिल लो, अगर वो तुम्हे अच्छी ना लगे तो फिर जो तुम कहोगी मैं वो करूँगा." रवि ने मुस्कुराते हुए कहा.

"ठीक है....मैं कल उसके घर जाउन्गि. पर तुम मेरे साथ नही रहोगे, और ना ही उसे बताओगे कि मैं उससे मिलने आने वाली हूँ. मैं देखना चाहती हूँ वो मुझसे कैसे बर्ताव करती है." कमला जी ने रूखे स्वर में कहा. वह अब भी रवि के फ़ैसले से खुश नही थी.

"थॅंक यू मा." रवि खुश होते हुए बोला - "तुम जो कहोगी मैं वो करूँगा. मैं जानता हूँ कंचन तुम्हे बहुत पसंद आएगी." रवि मा से लिपट'ते हुए कहा.

"बस.....बस, ज़्यादा खुश होने की ज़रूरत नही है. अगर वो मुझे अच्छी नही लगी तो मैं कतयि उसे अपनी बहू नही स्वीकार करूँगी." कमला जी मूह फुलाकर बोली.

रवि मा की इस बात पर मुस्कुरा दिया.

*****

कंचन आज स्कूल नही गयी थी. उसका मन आज कल पढ़ाई पर लगता ही नही था. अक्सर स्कूल ना जाने के लिए कोई ना कोई बहाने बनाया करती थी. आज तो उसके पास अच्छा बहाना था. आज वो सबेरे ही बुआ से बोली कि आज वो स्कूल नही जाएगी. क्योंकि फूफा जी आएँ हैं. उनके साथ कुच्छ देर बातें करूँगी. शांता ने भी उसपर ज़ोर नही डाला. कंचन की देखा देखी चिंटू भी स्कूल नही गया. उसे भी खेलने का बहाना चाहिए था. सुगना भी आज के दिन घर पर ही था. सिर्फ़ दिनेश जी कहीं को गये हुए थे.

इस वक़्त घड़ी पे 11 बजे थे, शांता खाना बना चुकी थी और नदी जाने की तैयारी कर रही थी. सुगना अंदर चारपाई पर लेटा सो रहा था. और कंचन सुबह से ही घर के कामो में लगी हुई थी. शांता उसे मगन से घर के काम करते देख बहुत खुश हो रही थी, पर चिंटू खुश नही था. वह पिच्छले कुच्छ दिनो से परेशान था. वह परेशान इस लिए था कि आज कल दीदी उसके साथ नही खेलती. पहले जब भी वो कंचन से खेलने को कहता वो तुरंत उसके साथ खेलने लग जाती थी. पर पिच्छले कुच्छ दिनो से कंचन ने उसके साथ खेलना बंद कर दिया था. अब वह अकेला सा हो गया था. उसके समझ में नही आ रहा था की दीदी आज कल मेरे साथ क्यों नही खेलती, वा या तो घर के काम करती रहती है या अकेली पड़ी खोई - खोई रहती है.

कंचन इस वक़्त बरामदे के छप्पर पर बने मकड़ी के जालों को झाड़ू से सॉफ कर रही थी वो एक लकड़ी के स्टूल पर खड़ी थी.. चिंटू उसके पास आकर खड़ा हो गया. कंचन ने उसकी ओर देखा तक नही.

चिंटू कुच्छ देर कंचन को देखता रहा फिर साहस करके बोला - "दीदी चलो आज कंचा खेलते हैं. तुम कितने दिनो से मेरे साथ कंचा नही खेली हो"

कंचन ने एक नज़र चिंटू को देखा फिर बोली - "देख तो रहा है मैं घर के काम कर रही हूँ, फिर क्यों तू मुझसे खेलने को कह रहा है?"

"दीदी, तू अब मेरे साथ क्यों नही खेलती? पहले तो रोज़ खेला करती थी. मा कहती थक जाती थी पर तू कभी घर का काम नही करती थी. अब क्यों करती हो घर का काम?" चिंटू ने शिकायत की.

उत्तर में कंचन मुस्कुराइ फिर बोली - "क्या सारी उमर खेलती रहूंगी, घर का काम कब सीखूँगी? अब मैं तेरे साथ नही खेल सकती? तू किसी और के साथ क्यों नही खेलता?"

"अब क्यों नही खेल सकती मेरे साथ? मुझे तुम्हारे साथ खेलना अच्छा लगता है दीदी, चलो ना दीदी." चिंटू ने कंचन के टाँगों को पकड़ कर ज़ोर से हिलाते हुए कहा.

चिंटू के हिलने से वह लड़खड़ाई और गिरते - गिरते बची.

"चिंटू क्या कर रहा है, ऐसे मत हिला मुझे, मैं गिर जाउन्गि." कंचन घबराकर बोली.

"मेरे साथ खेलो नही तो मैं गिराउन्गा." चिंटू फिर से कंचन के पावं को हिलाते हुए बोला

चिंटू के हिलाने से कंचन लड़खड़ाई, उसके लड़खड़ाते ही स्टूल का पावं एक ओर से उठा, अगले ही पल कंचन ज़मीन पर चारो खाने चित पड़ी थी.

उसे गिरता देख चिंटू के होश उड़ गये. उसे समझते देर नही लगी कि अब उसकी पिटाई होनी सुनिश्चित है. वह बाहर की ओर भागा.

कंचन भी अपनी पीठ सहलाते हुए तेज़ी से उठी और झाड़ू लेकर चिंटू के पिछे दौड़ी. चिंटू बाहर के दरवाज़े तक पहुँच चुका था. कंचन भी उसके थोड़ी पिछे थी. चिंटू ने दरवाज़ा पार किया और कंचन ने झाड़ू घुमाया. तभी अचानक से दरवाज़े पर रवि की मा प्रकट हुई. कंचन की नज़र उनपर पड़ी, कमला जी ठीक कंचन के झाड़ू के निशाने पर थी. कंचन ने अपने हाथ रोकने चाहे.....पर उसके हाथों की गति इतनी तेज़ थी कि वा अपने हाथों में लहराती हुई झाड़ू को रोक नही पाई. कमला जी की आँखें हैरत से फैलती चली गयी.
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05-02-2020, 01:14 PM,
#46
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 35

वो तेज़ी से पिछे हटीं.

कंचन का झाड़ू सनसानता हुआ उनके चेहरे को हवा देता निकल गया. और सीधा दरवाज़े के खुले पट से जा टकराया.

कमला जी गिरते गिरते बची. उन्होने संभलते हुए आश्चर्य से कंचन को देखा.

उस अजनबी औरत को देखकर कंचन की बोलती बंद हो गयी. ये सोचकर कि अभी वो इस औरत को झाड़ू मार देती खुद से शर्मिंदा हो गयी. उसके तत्काल समझ में नही आया कि वो इस औरत से क्या कहे.

"ये क्या मूर्खता है लड़की." कमला जी कंचन के गंदे हुलिए और उसके गँवारो जैसी हरकत पर गुस्से से चीखी. - "क्या तुम्हारे यहाँ घर आए मेहमान का ऐसे स्वागत करते हैं?"

"म....माफी चाहती हूँ मा जी. मुझसे भूल हो गयी. मैं आपको देख नही पाई थी." कंचन शर्मिंदा होते हुए बोली.

"क्या तुम्हारा ही नाम कंचन है?" कमला जी ने अगला सवाल किया. और फिर से कंचन को उपर से नीचे तक घूरा.

"ज.......जी हां." कंचन थूक निगलकर बोली. कमला जी के मूह से अपना नाम सुनकर उसकी आँखें हैरत और घबराहट से चौड़ी हो गयी थी.

"तुम्हारे बाबा और बुआ हैं घर पर? मुझे रवि ने यहाँ भेजा है. मैं उसकी मा हूँ." कमला जी ने अपना परिचय दिया.

"क....क्या....? आ.....आप......साहेब की मा जी हैं?" कंचन का चेहरा खुशी से खिल उठा. पर ये खुशी क्षण भर के लिए थी. अगले ही पल इस विचार के आते ही की उसने अभी भी इनपर झाड़ू से हमला किया था. उसके चेहरे से सारी खुशी गायब हो गयी..

इस एक पल में सैंकड़ों बुरे विचार उसके कोमल मन में आकर चले गये. ये जान लेने के पश्चात कि जिस औरत को अभी वो झाड़ू मारने वाली थी वो रवि की मा है.....कंचन के हाथ पावं फूल गये थे.

उसने झट से अपने दोनो हाथों को उन्हे प्रणाम करने हेतु जोड़ दिए. उसके ऐसा करने से उसके हाथ में थमा झाड़ू एक बार फिर से कमला जी के आगे लहरा गया. कंचन फिर से बौखला गयी, उसने झाड़ू को एक ओर फेंका और अपनी छाती से बँधे दुपट्टे को खोलकर घूँघट ओढ़ ली.

कमला जी खड़ी-खड़ी कंचन की हरकतों को देख रही थी.

कंचन ने घूँघट काढने के बाद काँपते स्वर में बोली - "आ.....आप अंदर आइए ना माजी. आप बाहर क्यों खड़ी हैं?"

कमला जी आँगन में दाखिल हुई. एक नज़र उन्होने पूरे आँगन पर घुमाया फिर अपनी नज़रें कचे मिट्टी से बने खपरैल के घर पर टीका दी.

कंचन उनके पिछे ही खड़ी थी. वह बुरी तरह से घबराई हुई थी. उसकी समझ में नही आ रहा था कि वो क्या कहे क्या करे. उसकी जगह कोई और होता तो अब तक कमला जी के बैठने के लिए चारपाई या कोई कुर्सी ले आता. पर कंचन को इतनी अक़ल ना थी. और जो थी भी तो इस वक़्त काम नही कर रही थी. वह सहमी सी खड़ी सोचती रही.

"अपने बाबा और बुआ को मेरे आने की सूचना दो." कमला जी ने कंचन को तुच्छ नज़रों से देखते हुए कहा.
"जी.....अभी बुलाई." कंचन तेज़ी से बोली, फिर अंदर को भागी.

"बुआ...." बरामदे में पहुँचते ही कंचन ने उँची आवाज़ में शांता को पुकारा. उसकी आवाज़ में तेज़ कंपन थी.

"क्या हुआ कंचन?" बुआ कपड़ों की गठरी हाथ में लिए बाहर निकली.

"बुआ साहब की मा जी आई हैं. वो तुमसे और बाबा से मिलना चाहती हैं." कंचन घबराते हुए बोली.

"कौन साहेब? किसकी बात कर रही तू?" शांता आश्चर्य से कंचन को देखते हुए बोली.

"बुआ, मैं हवेली के डॉक्टर साहेब की बात कर रही हूँ. उनकी मा जी आईं हैं." कंचन रुन्वान्सि होकर बोली.

"लेकिन वो हमारे घर क्यों आईं हैं?" बुआ ने अगला सवाल किया - "और तू इतनी घबराई हुई क्यों है?"

"बुआ मा जी मुझे देखने आईं हैं. साहेब मुझे जानते हैं, वो मुझसे शादी करना चाहते हैं. इसीलिए उन्होने मा जी को यहाँ भेजा है." कंचन धड़कते दिल से बोली.

"क्या...?" बुआ ने आश्चर्य से कंचन को देखा -"पर तूने पहले क्यों नही बताया हमें?

कंचन की नज़रें शर्म से झुक गयी.

"ठीक है....तुम अंदर जाओ. मैं उन्हे देखती हूँ." शांता कंचन के भावों का अनुमान लगाकर बोली.

कंचन सहमति में सर हिलाई और तेज़ी से अंदर चली गइई.

शांता अंदर से एक धूलि हुई चादर उठा लाई और बरामदे में खड़ी चारपाई को गिरा कर उसपर बिच्छा दी फिर कमला जी के पास गयी.

"नमस्ते जी." शांता कमला जी के पास जाते हुए बोली. उसके शब्दों में आदर के पुट थे. उनमें मिशरी से भी अधिक मिठास थी. और होती भी क्यों ना बात कंचन की ज़िंदगी की थी.

कमला जी शांता की तरफ पलटी. एक नज़र उन्होने शांता के पहनावे पर डाला फिर जवाब में उन्होने भी हाथ जोड़ दिए - "नमस्ते."

"आप अंदर आइए बेहन जी." उसने कमला जी से कहा और उनको लेकर अंदर बरामदे तक आई. फिर उन्हे चारपाई पर बैठने का आग्रह किया.

कमला जी सकुचाती हुई चारपाई पर बैठ गयी.

शांता अंदर जाकर पानी और थोड़ा नाश्ता लेकर आ गयी. कुच्छ ही देर में सुगना भी बदन पर कुर्ता डाल कर बाहर आ गया.

कंचन अंदर ही दुब्कि पड़ी थी. और दरवाज़े से कान लगाए बाहर होने वाली बातों को सुनने का प्रयास कर रही थी. उसका दिल रह रह कर ज़ोरों से धड़क उठता था. मन में तरह-तरह के सैंकड़ों विचार आ रहे थे. उसका नन्हा मन अनेकों शंकाओ के झूले में झूल रहा था. उसे लग रहा था वो अब गिरी- तब गिरी.

बार बार मन में एक ही बात सोचे जा रही थी. -"क्यों मैं चिंटू को मारने दौड़ी, भाई ही तो था मेरा, जो मैं उसे माफ़ कर देती तो कितना अच्छा होता. ना मैं उसे मारने को जाती ना माजी के सामने मुझे शर्मिंदा होना पड़ता. अब ना जाने मा जी मेरे बारे में क्या सोच रही होंगी? अब तो मा जी मुझे अपनी बहू कभी स्वीकार नही करेंगी. मुझसे कितनी बड़ी भूल हो गयी."

कंचन मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी - 'हे प्रभु इस बार मुझे बचा लो, कोई चमत्कार कर दो, मा जी के दिल में मेरे लिए प्यार भर दो, कसम खाती हूँ आज के बाद अपने छोटे भाई पर कभी नाराज़ नही होउंगी, कभी उसे नही मारूँगी. उसकी हर ज़िद्द सहूंगी. ज़रा भी गुस्सा नही करूँगी. बस इस बार बचा लो मेरे प्रभु'

अचानक ही उसके कानो से कमला जी की आवाज़ टकराई. वो कह रही थी - "सुगना जी मेरा एक ही बेटा है, बड़े कष्ट से पाला है उसे. हज़ार दुख उठाए हैं मैने उसके लिए. मैं उसकी खुशी चाहती हूँ, और इसीलिए आपके द्वार तक आई हूँ."

"ये तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है बेहन जी की आप मुझ ग़रीब के घर आईं. वरना हमारे ऐसे नसीब कहाँ की अपनी बेटी का रिश्ता आप जैसे लोगों के घरों में कर सकें." सुगना ने कमला जी की बातों का उत्तर दिया. वो कमला जी के नज़दीक ही स्टूल पर बैठा हुआ था. शांता उसके बगल में खड़ी थी.

"मैने अमीरी-ग़रीबी को कभी महत्व नही दिया है. सच पूछिए तो हम लोग भी कोई बड़े धनी नही हैं, फाकों की ज़िंदगी भी देखी है मैने. हां अब हालत पहले से सुधर गये हैं. मैं तो हमेशा यही सोचती आई हूँ कि रवि की शादी ऐसे घर में करूँ जहाँ शभ्य और संस्कारी लोग रहते हों. फिर चाहें वो हल चलाने वाले किसी किसान का घर हो या महलों में रहने वाले राजा का. मेरे लिए दोनो समान हैं." कमला जी सपाट लहज़े में बोली.

"आप धन्य हैं बेहन जी, ईश्वर ने आपको बहुत अच्छा दिल और उँचे विचार दिए है." सुगना ने अपने शब्दों में आदर और शीतलता भरते हुए कहा. वो नही चाहता था कि उसके किसी भी बात से कमला जी कोई ठेस पहुँचे. वह आगे बोला - "मेरी कंचन के तो भाग्य खुल गये जो वो आपके घर की बहू बनने जा रही है. आप जैसा कुटुम्ब हमें मिला, ईश्वर से हमें और कुच्छ नही चाहिए."

"मैं इस संबंध में 2 दिन बाद उत्तर दूँगी. मैने कल एक पंडित जी को बुलवाया है, उनसे मिलने के बाद ही आपको बता सकूँगी. फिलहाल तो मैं आप लोगों से मिलने आई थी. और अब जाने के अनुमति चाहती हूँ." कमला जी चारपाई से उठते हुए बोली.

"जी जैसी आपकी इच्छा. पर कुच्छ भोजन...पानी करके जाती तो हमारा मान बढ़ जाता...!" सुगना ने झिझकते हुए कमला जी से आग्रह किया.

"क्षमा चाहती हूँ आप लोगों से. खाने के लिए मैं किसी और दिन आपके घर आ जाउन्गि. आज के दिन मैं ठाकुर साहब से ये कह के आई हूँ कि दोपेहर का भोजन मैं हवेली में ही करूँगी." कमला जी बोली और सुगना तथा शांता को नमस्ते कहकर बाहर जाने लगी.

शांता और सुगना उन्हे बाहर तक छोड़ने आए. बाहर हवेली का ड्राइवर जीप लिए खड़ा था. कमला जी ने जीप में बैठने से पहले अंतिम बार सुगना और शांता को नमस्ते किया फिर जीप में बैठकर हवेली को मूड गयी.

कुच्छ ही देर में कमला जी हवेली में दाखिल हुई. उन्हे हॉल में निक्की बैठी दिखाई दी.

कमला जी को देखकर निक्की झट से सोफे से उठ खड़ी हुई. और फिर अपने होंठो पर मुस्कान भरते हुए उन्हे नमस्ते किया.

कमला जी धीरे से चलती हुई निक्की के पास गयी. और प्यार से उनके सर पर हाथ फेरा. उनके इस स्नेह से निक्की की आँखें भर आई.

कमला जी बिना कुच्छ बोले मूडी और अपने कमरे की ओर बढ़ गयी. निक्की भीगी पलकों से उन्हे जाते हुए देखती रही.

*****

"क्या हुआ मा? तुम्हे कंचन कैसी लगी? कुच्छ बताओ भी. जब से कंचन से मिलकर आई हो चुप बैठी हो, कुच्छ बोलो ना मा.?" रवि ने व्याकुलता के साथ अपनी मा से पुछा.

रवि इस वक़्त कमला जी के कमरे में उनके बराबर सोफे पर बैठा हुआ था. कमला जी उदास और खामोश थी. रवि ने काई बार उनसे कंचन के बारे में पुछा पा उन्होने कोई जवाब नही दिया. थक हार कर रवि भी चुप बैठ गया.

"मुझे कंचन पसंद नही." कुच्छ देर खामोश रहने के बाद कमला जी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.

"क....क्या?" रवि ने चौक कर मा को देखा - "लेकिन क्यों मा? आख़िर उसमे बुराई क्या है?" रवि ने आश्चर्य से कहा.

"ये कहो कि उसमे अच्छाई ही क्या है?" कमला जी गुस्से से खड़ी होते हुए बोली - "किसी चीज़ का सालीक़ा नही है उसके अंदर, गँवारो जैसी कपड़े पहनती है, मूर्खों जैसी हरकतें हैं उसकी, ना बात चीत का तरीका जानती है ना बड़ों का लिहाज़, तुम कैसे उस लड़की को हमारे घर की बहू बनाने के लिए तैयार बैठे हो?"

"मा तुम कंचन से ही मिलकर आ रही हो ना? या किसी और लड़की से?" रवि ने आश्चर्य से मा को देखा - "मुझे लगता है तुम किसी ग़लत घर में चली गयी होगी. तुम जो बता रही ऐसा एक भी दोष कंचन में नही है."

"मज़ाक बंद करो रवि...!" कमला जी गुस्से में बोली - "तुम्हारी आँखों में प्यार का नशा चढ़ा हुआ है. इसलिए तुम सही ग़लत के फ़र्क को भूल गये हो. मैं इस विषय में अब और कुच्छ कहना सुनना नही चाहती. बेहतर होगा कि तुम कंचन का ख्याल दिल से निकाल दो और निक्की से शादी के लिए हां कह दो."

"नही मा, कंचन कोई वस्तु नही जो आपको पसंद आए तो ही घर में लाउ. वो एक जीती जागती लड़की है, वो नादान है, भोली है, कम पढ़ी लिखी है, ग़रीब है पर बुरी नही, वो लाखों में एक है उसका दिल हीरे की तरह है, और सबसे बड़ी बात तो यह है की वो मुझसे बेपनाह प्यार करती है, ऐसी लड़की को मैं तन्हा कष्ट उठाने के लिए नही छोड़ सकता." रवि ढृढ संकल्प में बोला. उसके शब्दों में चट्टान सी सख्ती थी.

कमला जी रवि से कुच्छ कहती उससे पहले दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी.

रवि दरवाज़े की तरफ बढ़ा.

रवि ने दरवाज़ा खोला. बाहर दीवान जी खड़े थे.

"आप....! आइए अंदर आइए." रवि ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा. - "कोई आवश्यक काम था तो आप मुझे बुला लेते."

"नही रवि बाबू....बस आप लोगों का हाल जानने आ गया." दीवान जी अंदर आते हुए बोले - "सब कुशल तो है यहाँ? आप लोगों को कोई दिक्कत हो तो मुझसे बिना किसी झिझक के कह दीजिएगा. हवेली का पुराना वफ़ादार हूँ. मैं आप लोगों की सेवा में तत्पर हाज़िर रहूँगा."

"आप जैसे सच्चे लोग संसार में बहुत कम ही देखने को मिलते हैं. ईश्वर की कृपा से हमें कोई परेशानी नही हां ज़रूरत पड़ी तो हम आपकी मदद ज़रूर लेना चाहेंगे." कमला जी दीवान को सम्मानित करती हुई बोली.

किंतु दीवान जी के कानो तक कमला जी की बात नही पहुँची, उनका ध्यान कही और था. अचानक ही उन्होने कुच्छ ऐसा देख लिया था कि उनके चेहरे का रंग उड़ गया था.

"ये ताश्वीर किनकी है?" दीवान जी ने बिस्तर के सिरहाने स्टूल पर रखे एक फोटो फ्रेम की और इशारा करते हुए पुछा.

"ये मेरे पति हैं" ये कहते हुए कमला जी गंभीर हो उठी.

जबकि दीवान जी ये सुनते ही बुरी तरह से चौंक पड़े. गनीमत थी कि रवि और कमला जी की नज़र फोटो की तरफ थी इसलिए उनका चौंकना दोनो ही नही देख पाए.

"पर आपके पति हैं कहाँ? पहले कभी इनका ज़िक्र नही सुना आप लोगों से." दीवान जी अपने मन की घबराहट छुपाते हुए बोले.

"अब पता नही कहाँ हैं आज कल......रवि जब 6 साल का था तभी उन्हे किसी काम के सिलसिले में घर से दूर जाना पड़ा. तब के गये आज तक नही लौटे हैं." कमला जी पीड़ा से कराह कर बोली. उनकी आँखों के कोरों पर आँसू की बूदे छलक आई. रवि ने आगे बढ़कर मा को दिलासा दिया.

"ओह्ह....माफ़ कीजिएगा. मैने अंजाने में आपके दुख को छेड़ दिया." दीवान जी शर्मिंदा होते हुए बोले. - "अच्छा अब मैं चलता हूँ. और हां आप लोगों को किसी भी चीज़ की दिक्कत हो तो ज़रूर कहिएगा."

"जी शुक्रिया." कमला जी ने उत्तर दिया.

"नमस्ते आग्या चाहता हूँ." दीवान जी बोले फिर एक नज़र रवि पर डालकर तेज़ी से बाहर निकल गये.

रवि उन्हे जाते हुए देखता रहा.
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05-02-2020, 01:15 PM,
#47
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 36

निक्की अपने बिस्तर पर गुम्सुम लेटी हुई थी. उसकी आँखें शुन्य में टिकी हुई थी. ऐसा नही कि वो चिंतित थी. वो केवल ख्यालो में खोई हुई थी. आज उसके ख्यालों में पिच्छले 3 दिनो से बसा रहने वाला ग़रीब कल्लू नही था. बल्कि खूबसूरत व्यक्तित्व का स्वामी रवि था.

जब से रवि की मा आई थी, निक्की का मन बार बार रवि की और जा रहा था. वो रवि के बारे में अधिक सोचना नही चाहती थी. पर दिल पर किसका ज़ोर चला है. वह तो एक ऐसा बेलगाम घोड़ा है जो अपनी मर्ज़ी से जिस और चाहे सरपट भागता है और अपनी मर्ज़ी से लौट आता है.

निक्की का दिल भी एक बार फिर बेलगाम होकर रवि की तरफ भागा जा रहा था. कल्लू के दुख से रु-बरु होने के बाद रवि के प्रति उसके जो अरमान सो गये थे. अब कमला जी के आते ही फिर से जाग उठे थे. अब उसका मन फिर से उसे हासिल करने को मचल उठा था.

निक्की काँच की बनी भीतरी छत (सीलिंग) को घूरते हुए इन्ही विचारों में खोई हुई थी कि तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी.

"कौन है?" निक्की बिस्तर पर उठकर बैठते हुए बोली.

बाहर जो शख़्श था वो निक्की के सवाल का जवाब देने के बजाए धीरे से दरवाज़ा खोलकर अंदर आया. निक्की उसे देखते ही संभलकर बैठ गयी. ये दीवान जी थे. कमला जी और रवि से मिलने के बाद वो सीधा निक्की के पास आए थे.

दीवान जी निक्की के बराबर बिस्तर पर जाकर बैठ गये. फिर अपना दायां हाथ उसके सर पर प्यार से फेरते हुए बोले - "कैसी हो निक्की बेटा?"

"अच्छी हूँ अंकल." निक्की ने फीकी मुस्कुराहट के साथ कहा.

"तुम चिंता ना करो बेटा, जब ता ये बूढ़ा जी रहा है तब तक तुम्हारे अधिकारों पर कोई दूसरा डाका नही डाल सकता."

"क्या बात है अंकल? आप कुच्छ परेशान लग रहे हैं." निक्की दीवान जी की उतरी हुई सूरत को देखकर बोली.

"निक्की बेटा, मैं आपके पास आने से पहले रवि और उनकी माता जी के साथ बैठा हुआ था."

रवि का नाम सुनते ही निक्की ने अपनी नज़रें नीचे कर ली. रवि के ज़िक्र से उसका चेहरा फिर से उदास हो गया.

"क्या कहा उन्होने?" निक्की दीवान जी के चेहरे को देखते हुए बोली.

"कुच्छ खास बातें नही हुई, मैं बस उनसे दुआ सलाम करके निकल आया. पर तुम चिंता ना करो.....मैं सब ठीक कर दूँगा." दीवान जी उसे तसल्ली देते हुए बोले.

जवाब में निक्की ने खामोशी से अपनी गर्दन झुका दी.

"अच्छा अब मैं चलता हूँ." दीवान जी उठते हुए बोले - "मैं बस तुम्हे देखने और ये कहने आया था कि तुम बेफिक़र रहो. रवि को तुमसे कोई अलग नही कर सकता."

निक्की इस बार भी कुच्छ ना बोली. बस दीवान जी के उठते ही वो भी उठ खड़ी हुई.

दीवान जी मुड़े और दरवाज़े से बाहर निकल गये.

दीवान जी के जाते ही निक्की वापस बिस्तर पर फैल गयी और पुनः उन्ही विचारों में खो गयी.

*****

कंचन झरने के किनारे उसी पत्थेर पर बैठी हुई थी. जहाँ अक्सर बैठकर रवि का इंतेज़ार किया करती थी.

उसके मन में एक उदासी सी छाई हुई थी. आज सुबह की घटना का असर अब भी उसके मस्तिष्क पर शेष था. जब से कमला जी उसके घर आई थी, तब से वो मुस्कुराना भूल गयी थी. आज सुबह कमला जी के जाने के बाद वो काफ़ी देर तक सिसकती रही थी. उसके दिल में एक अंजना सा भय समा गया था. उसे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे अब वो कभी रवि से नही मिल सकेगी. इस एहसास से कि अब उसे रवि के बिना ही जीना पड़ सकता है उसके आँसू नही थम रहे थे.

शांता बुआ काफ़ी देर तक उसे समझाती रही थी.

सुगना का दिल भी अपनी जान से प्यारी बेटी को रोता देख उदास हो गया था. उसके ईए संसार में कंचन से कीमती कुच्छ भी ना था. वा तो कंचन की खुशी के लिए अपने शरीर के माँस तक को बेच सकता था. परंतु कंचन के इस पीड़ा का इलाज़ उसके पास भी नही था. लेकिन उसने ये ज़रूर तय कर लिया था कि चाहें उसे कमला जी के पावं पर क्यों ना गिरना पड़े, वो गिरेगा, पर अपनी बेटी की खुशियों को आग लगने नही देगा.

उसने कंचन से रवि के बारे में कुच्छ भी पुच्छना आवश्यक नही समझा. कंचन का उदास चेहरा और उसकी आँखों से बहते मोती सरीखे आँसू इस बात के साक्षी थे कि वो रवि से कितना प्यार करती थी.

सुगना और शांता ने कंचन को समझा बुझाकर चुप तो करा दिया था पर उसकी उदासी दूर नही कर पाए थे.

कंचन सारा दिन उदास रही थी. चिंटू की शरारातें भी उसके होंठों की हँसी को वापस नही ला पाई थे

कंचन को इंतेज़ार करते हुए 30 मिनिट से भी ज़्यादा वक़्त हो चला था. वह बार-बार अपनी नज़र उठाकर रास्ते की ओर देखती....किंतु रवि को ना आता देख उसकी उदासी बढ़ जाती.

'कहीं ऐसा ना हो की साहेब मुझसे मिलना ही ना चाहते हों? कहीं माजी ने साहेब से ये ना कह दिए हों कि मैने उन्हे झाड़ू से मारा है - जो माजी ने सच-मच में यही बात साहेब से कही होंगी तो फिर साहेब मुझे कभी माफ़ नही करेंगे. वे तो मुझसे नाता ही तोड़ लेंगे.' लेकिन ईश्वर जानता है कि मैं झाड़ू माजी के लिए नही उठाई थी, वो तो मैं चिंटू को मारना चाहती थी. तभी माजी सामने आ गयीं,

और फिर मेरा झाड़ू माजी को लगा भी नही था. क्या इतनी सी बात के लिए साहेब मुझे छोड़ देंगे. उन्होने तो मुझे जीवन भर साथ देने का वादा किया है. क्या वो अपना वादा भूल जाएँगे? क्या सच में मैं उनसे अब कभी नही मिल सकूँगी? जो सच में साहेब मुझे छोड़ गये तो मेरा क्या होगा.?' कंचन के शंका पूर्ण विचार उसका पीछा नही छोड़ रहे थे.

कंचन यूँही गुमशुम, उदास सी बैठी रही. इस वक़्त वा खुद को बहुत अकेला और कमज़ोर महसूस कर रही थी. शरीर हौले हौले ऐसे काँप रहा था जैसे हवा का एक मामूली सा झौंका उसे उड़ा ले जाएगा.

"कंचन !" सहसा उसके कानो से रवि का स्वर टकराया.


कंचन रवि की आवाज़ से चौक-कर पलटी. फिर रवि पर नज़र पड़ते ही वह झटके से खड़ी हुई. पर हमेशा की तरह दौड़कर उसकी छाती से नही लगी. आज उसके कदम जहाँ के तहाँ चिपके रह गये. वह उसी जगह से खड़े खड़े रवि की टक-टॅकी लगाए देखने लगी. उसकी आँखों में गीलापन था. कंचन अपनी भीगी पलकों से रवि को ठीक वैसे ही देख रही थी जैसे कोई मरने वाला ज़िंदगी की और हसरत से देखता है.

रवि को अपने पास देखकर उसका मन भावुकता से भर उठा था. देखते ही देखते उसके अंदर की पीड़ा आँसू बनकर बाहर निकली और उसके गुलाबी गालों में फैल गयी.

"कंचन क्या हुआ?" रवि एक दम से उसके पास जाते हुए बोला

"साहेब.....मुझे माफ़ कर दो, मेरी वजह से माजी का अपमान हुआ और वो मुझसे नाराज़ होकर मेरे घर से लौट गयी. पर साहेब......मैं सच कहती हूँ मैने कुच्छ भी जानकार नही किया. मुझसे ये ग़लती अंजाने में हुई थी. आप जो भी मन करे मुझे इसकी सज़ा दे दो पर मुझसे मूह मत फेरो. मैं आपके बगैर नही जी........." इसके आगे के शब्द उसके गले के भीतर ही घुट कर रह गये. रवि ने फुर्ती से अपना हाथ उसके मूह पर रख दिया था.

"कुच्छ ना कहो कंचन....!" रवि उसे कंधे से पकड़ अपने करीब लाते हुए कहा. फिर उसे उसी प्रकार पकड़े हुए खाई के और करीब ले गया.

"ये देख रही हो कंचन?" रवि ने अपनी उंगली का इशारा गिरते झरने की ओर करते हुए कहा. - "ये ठीक तुम्हारी तरह है. और मैं उस झील की भाँति हूँ. जिसकी गोद में ये झरना गिर रहा है. जैसे इस झरने के बिना उस झील का कोई वज़ूद नही वैसे ही तुम्हारे बिना मेरा भी कोई वज़ूद नही. मैं जानता हूँ कि तुम किस बात से उदास हो, तुम शायद ये सोच रही होगी की मैं कहीं मा के दबाव में आकर तुमसे अपने संबंध ना तोड़ लूँ., नही कंचन........आज मैं इस प्रकृति में मौजूद हर चीज़ को, ये नदियाँ, पर्वत, झील, झरने, दूर तक फैली हुई ये वादियाँ इन सब को साक्षी मानकर कहता हूँ कि मैं तुम्हारा साथ कभी नही छोड़ूँगा. चाहें उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े. पर तुम्हारा साथ कोई अन्याय नही करूँगा"

"साहेब...!" कंचन फफक-कर बोली और रवि से लिपट गयी. रवि ने उसे अपनी छाती में छुपा लिया.

कंचन रवि की मजबूत बाहों के घेरे में अपनी सारी पीड़ा भूल गयी थी. वह जब भी रवि के बाहों में होती थी उसे किसी चीज़ का भय नही रहता था. वह बिल्कुल उसी प्रकार निश्चिंत हो जाया करती थी. जैसे कोई दूधमुहा बच्चा अपनी मा की गोद में जाकर निश्चिंत हो जाता है.

कुच्छ देर यूँही लिपटे रहने के बाद रवि ने उसे पुकारा. - "कंचन....जब मा तुम्हारे घर आई थी तब हुआ क्या था? मा जब हवेली लौटी तो काफ़ी उखड़ी हुई थी."

रवि की बात सुनकर कंचन ने अपना चेहरा उपर उठाया. फिर रवि को देखते हुए बोली - "माजी क्या कह रही थी साहेब? वो तो मुझपर बहुत बिगड़ रही होंगी"

"नही.....ऐसा नही है. पर नाराज़ ज़रूर थी. वैसे हुआ क्या था?"

कंचन पहले घबराई फिर झिझकते हुए सुबह की घटना ज्यों का त्यों रवि को सुनाने लगी.

उसकी पूरी बात सुन लेने के बाद रवि हंसते हुए कंचन से कहा - "तो तुम मा को झाड़ू से मारने वाली थी. फिर तो मा का गुस्सा जायज़ है."

"साहेब मैं माजी से माफी माँगना चाहती हूँ. वो मुझे माफ़ तो कर देंगी ना?" कंचन घराहट भरे स्वर में बोली.

"हां क्यों नही." रवि ने प्यार से कंचन के गाल थपथपाते हुए कहा - "मा नाराज़ ज़रूर है पर मैं जानता हूँ वो करेगी वही जो मैं चाहूँगा. क्योंकि उन्होने मुझे बचपन से ही बहुत प्यार किया है. लेकिन उन्हे मनाने में थोड़ा समय लगेगा. और जब तक मैं मा को मना ना लूँ हम पहले की तरह नही मिल सकते. ऐसे माहौल में मिलना ठीक नही रहेगा."

"लेकिन......मैं आपसे मिले बिना नही रह सकूँगी साहेब." कंचन जुदाई की बात से घबरा उठी.

"कुच्छ दिन के लिए हमें दूरी बनानी ही होगी कंचन." रवि ने उसे समझाया. - "मैं नही चाहता कि हमारी अधिरता हमारे लिए कोई नयी परेशानी लेकर आए."

"ठीक है साहेब." कंचन मायूस होकर बोली - "जो आप ठीक समझे."

"उदास ना हो कंचन.....सब ठीक हो जाएगा." रवि कंचन को गले लगाते हुए कहा.

कंचन उसके गले लगकर सूबक उठी. रवि उसे दुलारता रहा.
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05-02-2020, 01:15 PM,
#48
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 37

इस वक़्त 2 बजे हैं. सुगना अपने खेत में काम पर लगा हुआ है. किंतु उसका मन काम पर नही है, कारण है कंचन....! जो अभी कुच्छ देर पहले चिंटू के साथ उसे खाना खिलाने आई थी. वैसे तो उसके लिए रोज़ शांता खाना लेकर आती थी. पर आज उसने कंचन और चिंटू को भेज दिया था. संभवतः....ऐसा उसने दिनेश जी के साथ कुच्छ पल बिताने के लिए किया होगा.

कंचन कुच्छ खोई खोई और उदास सी थी. उसके अंदर कल शाम से ही उदासी छाई हुई थी जब रवि ने कहा था कि अब वे दोनो कुच्छ दिनो तक नही मिल सकेंगे. वह सुगना के सामने ब्लात मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी. ताकि सुगना को उसकी उदासी का पता ना चले.

कंचन और चिंटू के जाते ही सुगना अपने काम पे लग गया. किंतु कंचन से मिल लेने के बाद उसका मन काम पर नही लग रहा था. आज उसे कंचन उदास सी लगी थी. कंचन की उदासी उससे छुपि नही रह पाई थी. सुगना इसी बात की चिंता में डूबा हुआ था कि अगर कमला जी ने इस रिश्ते से इनकार कर दिया तो कंचन कैसे जी पाएगी? वह मन ही मन प्रण कर रहा था - "कुच्छ भी हो मैं कंचन को दुखी नही देख सकता.....उसके लिए मुझे जो भी करना पड़े मैं करूँगा. पर उसे उसकी सारी खुशियाँ देकर रहूँगा."

अभी सुगना इन्ही विचारों में गुम था कि उसके कानो से जीप की आवाज़ टकराई. उसने आवाज़ की दिशा में नज़र दौड़ाया तो उसे दीवान जी की जीप आती दिखाई दी.

दीवान जी पर नज़र पड़ते ही सुगना के माथे पर बल पड़ गये और चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच गयीं.

जीप कुच्छ दूरी पर आकर रुकी. दीवान जी जीप से उतरे और सुगना की तरफ देखने लगे.

सुगना फावड़ा ज़मीन पर रखकर दीवान जी के तरफ बढ़ गया. वो समझ चुका था कि दीवान जी उसी से मिलने आएँ हैं. हालाँकि उसके अतिरिक्त कुच्छ और भी लोग थे जो कुच्छ-कुच्छ फ़ासले में अपने खेतों में काम कर रहे थे. पर दीवान जी का उन लोगों से कभी कोई संबंध नही रहा था.

"नमस्ते दीवान जी." सुगना दीवान जी के निकट जाकर बोला.

उसने दीवान जी को ध्यान से देखा. उनके चेहरे पर परेशानी के भाव थे.

"नमस्ते !" दीवान जी सुगना के नमस्ते का उत्तर देते हुए बोले - "कैसे हो सुगना?"

"अच्छा हूँ, मालिक की कृपा है. आप सुनाए.....आपको कौनसा कष्ट आन पड़ा है, जो आज 20 साल बाद मेरी खबर लेने की सोचे?" सुगना के शब्दों में व्यंग का पुट था.

"मैं कंचन के बारे में तुमसे कुच्छ बातें करने के लिए आया हूँ."

"कंचन?" उसके मूह से बेशखता निकला.दीवान जी के होंठों से कंचन का नाम सुनकर वह बुरी तरह से चौंक उठा था. उसका दिल किसी अंजनी आशंका से जोरों से धड़क रहा था. वह सवालिया नज़रों से दीवान जी की तरफ देखते हुए बोला - "मैं समझा नही? आप कंचन के बारे में क्या बात करना चाहते हैं?"

"सुगना मेरी बात का बुरा मत मान'ना. मैं बहुत विवश होकर यहाँ तक आया हूँ." दीवान जी अपने शब्दों में पीड़ा भरते हुए बोले."

"दीवान जी, आप जो भी कहना चाहते हैं साफ साफ कहिए. पहेलियों की भाषा ना तो मुझे पहले कभी समझ में आई और ना अब आ रही है." सुगना बेचैनी से भरकर बोला.

"ठाकुर साहब निक्की का विवाह रवि से करना चाहते हैं. इस रिश्ते से रवि की मा भी खुश हैं. लेकिन तुम्हारी बेटी कंचन रवि और निक्की के आड़े आ रही है. सुगना मैं कंचन का बुरा नही चाहता पर उसकी वजह से निक्की की.......!"

"बस दीवान जी." सुगना तैश में आकर गरजा. - "आप किसका कितना भला चाहते हैं ये मैं खूब जानता हूँ. रही बात कंचन की......तो मैं एक बात आपको बता देना चाहता हूँ. कंचन मेरा गुरूर है. उसके उपर किसी भी तरह का लान्छन मैं सहन नही करूँगा. कंचन और रवि एक दूसरे से प्यार करते हैं. बीच में तो निक्की आ रही है. या शायद आप आने की कोशिश कर रहे हैं"

"अपनी हद में रहकर बात करो सुगना." दीवान जी क्रोध में चीखे. - "कंचन तुम्हारी बेटी है और निक्की की दोस्त है इसीलिए यहाँ तक आया हूँ, नही तो यहाँ तक आने की ज़रूरत भी ना पड़ती मुझे. आगे तुम खुद समझदार हो. तुम चाहो तो मैं तुम्हे कुच्छ पैसे भी दे सकता हूँ. कहीं कोई दूसरा अच्छा सा लड़का देखकर कंचन की शादी कर दो."

"संसार की कोई भी वास्तु, मुझे कंचन से अधिक प्रिय नही है. उसकी खुशी के लिए मैं खुद को बेच सकता हूँ." सुगना का स्वर चट्टान की तरह सख़्त था. - "एक बात आप अपने मन में अच्छी तरह उतार लीजिए दीवान जी. अगर कंचन को हल्की सी भी खरोंच तक आई तो हवेली की दीवारें ढह जाएँगी. इंट से इंट बजा दूँगा हवेली की. मैं आज भी वही सुगना हूँ, थोड़ा बूढ़ा ज़रूर हुआ हूँ पर इतना भी नही कि अपनी बेटी की रक्षा ना कर सकूँ."

सुगना के गुस्से से भरी सूरत देखकर दीवान जी उपर से नीचे तक काँप गये. वो सुगना के गुस्से से परिचित थे. उन्होने मौक़े की नज़ाकत को समझा और नर्म स्वर में बोले - "तुम नाहक बिगड़ रहे हो सुगना. मैने तो सदेव तुम्हारा भला चाहा है. कभी कंचन और निक्की में कोई फ़र्क नही समझा. पर शायद तुम मुझे समझ नही पाए. ठीक है, अब मैं चलता हूँ. ईश्वर तुम्हारा भला करे." ये कहकर दीवान जी जाने के लिए मुड़े.

"विधाता पर मुझे पूरा भरोसा है दीवान जी." सुगना उत्तर में बोला - "वो बड़ा ही न्यायी है. जिसकी जो मंज़िल है उसे वहाँ तक ज़रूर पहुँचाएगा. नमस्ते !"

दीवान जी एक पल ठहरकर सुगना की तरफ देखे. फिर तेज़ी से जीप में सवार हो गये. उनके बैठते ही जीप वापस मूडी और देखते ही देखते सुगना की नज़रों से ओझल हो गयी.

सुगना चिन्तीत मुदारा में खड़ा उन्हे जाते हुए देखता रहा.

*****
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05-02-2020, 01:16 PM,
#49
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
शाम के 4 बजे हैं.

कंचन इस वक़्त गाओं के मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रही है. उसके हाथ में पूजा की थाली है. सफेद सलवार कमीज़ में वो किसी अप्सरा की तरह सुंदर लग रही है. और अपने कपड़ों की ही भाँति सॉफ और स्वच्छ दिखाई दे रही है.

आज उसका मन किया कि वो मंदिर जाकर पूजा करे. और अपने प्यार की सलामती की प्रार्थना करे.

वो मंदिर पहुँची. अंदर आरती की, प्रार्थना किया फिर पूजारी जी से आशीर्वाद लेकर बाहर निकली.

जैसे ही वो मंदिर की सीढ़ियाँ उतरने को हुई. उसे रवि की मा सीढ़ियाँ चढ़ती दिखाई दी. उनपर नज़र पड़ते ही कंचन घबरा गयी. उसके समझ में नही आया अब वो क्या करे. वह सोचने लगी - कहीं ऐसा ना हो माजी मुझे देखकर उस दिन का बदला ले. और मुझे जली कटी सुनाने लग जायें.

कंचन उनसे छुप्ने के लिए जगह ढूँढने लगी. तभी कमला जी की नज़र कंचन से टकराई. कंचन ने उन्हे अपनी ओर देखते पाया तो भय से काँप उठी. हाथ ऐसे काँपने लगे जैसे थाली अभी उसके हाथों से छूट कर गिर पड़ेगी.

वह जड़वत खड़ी उन्हे अपने नज़दीक आते देखती रही.

कमला जी उसके करीब आईं. कंचन को उपर से नीचे तक घूरा.

कंचन की सिटी-पिटी गुम हो गयी. उसने भय से अपनी नज़रें झुका ली.

"क्या माँगने आई थी?" कमला जी ने कंचन की हालत पर गौर करके व्यंग से बोली.

"ज......जी.....मैं...." उसकी जीभ लड़खड़ाई. उसने सहमी सी निगाह से कमला जी को देखा.

"तुम इतनी घबरा क्यों रही हो? मैं कोई शेर नही हूँ जो तुम्हे खा जाउन्गि."

कमला जी की बात सुनकर कंचन की हालत और भी पतली हो गयी. वो इस वक़्त सच-मुच खुद को खुले जंगल में किसी शेरनी के बीच महसूस कर रही थी. भय के कारण उसकी सूरत रोनी सी हो गयी थी.

"मुझे तुमसे कुच्छ बातें करनी है. आओ कुच्छ देर मेरे साथ वहाँ बैठो." कमला जी उसे सीढ़ियों के किनारे बने चबूतरे की और इशारा करती हुई बोली तथा खुद चबूतरे की तरफ बढ़ गयी.

कंचन किसी यंत्रचलित मशीन की तरह उनके पिछे चलती हुई उनके पास खड़ी हो गयी.

"बैठ जाओ." कमला जी ने कंचन को खड़ा देख बैठने का इशारा किया.

कंचन झिझक और डर के साथ चबूतरे पर बैठ गयी.

"कंचन कितना प्रेम करती हो रवि से?" कमला जी कंचन के भय से पीले पड़े चेहरे को देखती हुई बोली.

कंचन कमला जी के पुच्छे गये प्रश्न से बौखला गयी. उसे तत्काल कोई उत्तर देते ना बना. वह कहती भी तो क्या? क्या प्यार कोई वस्तु है जिसकी तोल-मोल की जाए. जो प्यार का हिसाब रखते हैं वो मेरी नज़र में व्यापारी हो सकते हैं.....प्रेमी नही. और कंचन का प्यार तो भक्ति की तरह था जिसकी ना तो कोई सीमा थी ना ही आकर. वह चुप रही. उसके पास कमला जी के प्रश्ना का कोई उत्तर नही था.

"बताओ....चुप क्यों हो गयी?" कमला जी कंचन को खामोश देख फिर से पुछि. - "क्या तुम्हे नही पता कि तुम रवि से कितना प्रेम करती हो?"

कंचन विवशता में अपने होंठ चबाने लगी. उसे लगा मा जी उस दिन झाड़ू वाली बात से खफा हैं और कदाचित् इसीलिए वो मुझे पसंद नही करती. उसने उस दिन की ग़लती की क्षमा माँगनी चाही - "म....मा जी मैं उस दिन के लिए आपसे माफी मांगती हूँ. उस दिन मुझसे भूल हो गयी थी. पर सच कहती हूँ वो भूल मुझसे अंजाने में हुई थी."

"मैं तो उस दिन की बात ही नही कर रही हूँ, मैं तो बस ये पुच्छ रही हूँ कि तुम रवि से कितना प्रेम करती हो, और उसके लिए क्या क्या कर सकती हो?] कमला जी उसी लहज़े में बोली.

"मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ. और साहेब भी मुझसे उतना ही प्रेम करते हैं. माजी मैं फिर कभी कोई ग़लती नही करूँगी....इस बार मुझे माफ़ कर दीजिए." कंचन भीगी पलकों के साथ हाथ जोड़ते हुए कमला जी से बोली.

"अगर तुम सच में रवि से प्रेम करती हो और उसे खुश देखना चाहती हो तो मेरा कहा मनोगी?"

"आप कहिए तो सही, मैं साहेब और आपकी खुशी के लिए कुच्छ भी कर सकती हूँ." कंचन बिना कुच्छ सोचे कमला जी को खुश करने के लिए हामी भर दी. उसे लगा शायद कमला जी उसे एक मौक़ा देना चाहती हैं.

"तो फिर सुनो ! अगर तुम सच में रवि से प्रेम करती हो और उसकी खुशी चाहती हो तो तुम्हे रवि की ज़िंदगी से दूर जाना होगा. सुना है त्याग करने से प्यरा और भी पवित्र हो जाता है." कमला जी शुष्क स्वर में बोली.

कंचन को लगा जैसे कमला जी ने उसके सीने में अंदर तक कोई छुरा घोंप दिया हो. वा तड़प कर रह गयी. उसने दम तोड़ती नज़रों से कमला जी के तरफ देखा. उसके होंठ कुच्छ कहने के लिए काँपे.....पर मूह से बोल ना फूटे. सीने में अतः पीड़ा का अनुभव हुआ. उसका मन चाहा अभी यही दहाड़े मार-मार कर रोए. और मा जी से कहे कि वो उनके साथ ऐसा ज़ुल्म क्यों कर रही हैं, ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है उसने जिसकी इतनी बड़ी सज़ा वो उसे देना चाह रही हैं.

"मा जी मैं साहेब के बगैर नही जी सकूँगी, मुझे उनसे दूर मत कीजिए. साहेब भी मुझसे बहुत प्रेम करते हैं." कंचन उनके आगे हाथ जोड़े विनती की.

"उसकी आँखों में तो तुम्हारी सुंदरता का लेप चढ़ा हुआ है, इसलिए वो सही और ग़लत के फ़र्क को नही देख पा रहा है. किंतु मैं उसकी मा हूँ, मैं जानती हूँ उसके लिए क्या सही है और क्या ग़लत है." कमला जी कंचन की हालत की परवाह किए बिना कहती रहीं - "मैं तुमसे केवल इतना कहना चाहती हूँ कि आगे से तुम कभी रवि से नही मिलोगि. या मिल भी गयी तो उससे प्रेम नही जताओगि. अगर तुम ऐसा कर सकी तो मैं समझूंगी कि तुम रवि से सच्चा प्यार करती हो. नही तो मैं समझूंगी कि तुम्हारा प्यार एक दिखावा है.....सिर्फ़ उँचे घर में रिश्ता करने के लिए प्यार का ढोंग कर रही हो."

"म......मा जी." कंचन कराह कर बोली.

"कंचन मैं तुमसे कोई दुश्मनी नही निकाल रही हूँ.......एक सच है जिससे तुम्हारा परिचय करा रही हूँ. तुम उस समाज के लायक नही हो जिसमें रवि को जीना है. रवि से शादी करके तुम तो प्राहास का कारण बनोगी ही साथ में रवि भी बनेगा. 2 दिन में ही उसके अंदर का प्रेम छ्छू-मंतर हो जाएगा और वो तुमसे घृणा करने लगेगा. हां तुम्हारे स्थान पर निक्की होगी तो रवि को कभी शर्मिंदा नही होने देगी. वो उसी समाज में रहती है. उसे पता है उस समाज में कैसे जिया जाता है. फिर तुम ये क्यों नही सोचती, जिस ठाकुर साहब ने तुम्हे बेटी जैसा प्यार दिया क्या तुम उनकी खुशियाँ छीन कर ठीक करोगी?." ये कहकर कमला जी रुकी और कंचन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी.

"निक्की और साहेब का विवाह?" कंचन कमला जी को देखती हुई आश्चर्य से बड़बड़ाई. - "मैं कुच्छ समझी नही मा जी?"

"क्या तुम नही जानती निक्की रवि से प्रेम करती है?" कमला जी ने सवालिया नज़रों से कंचन की ओर देखा. - "हम सब इस रिश्ते से खुश हैं. सब की मर्ज़ी यही है कि रवि की शादी निक्की से हो. सिर्फ़ तुम्ही हो जो इस रिश्ते में बाधा बन रही हो. रवि की ज़िद्द है की वो तुमसे ही शादी करेगा. जाने तूने उसे कौन सी घुट्टी पिला दी है."

कंचन स्तब्ध थी !

"मैने तो सुना है तुम निक्की की दोस्त हो?" कमला जी आगे बोली - "क्या तुम्हे अपने दोस्त की खुशियाँ छीनते अच्छा लगेगा?"

कंचन के सामने एक के बाद एक विस्फोट होते जा रहे थे. कमला जी के इस रहस्योदघाटन से वो दंग रह गयी थी की निक्की रवि से प्रेम करती है और ठाकुर साहब उन दोनो का विवाह करना चाहते हैं.

कमला जी ने कंचन के चेहरे का परीक्षण किया. उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी. वो किसी गहरी सोच में डूबती जा रही थी. कमला जी ने उसे ढील देना उचित नही समझा उन्होने अपना फँदा और कसा. वह आगे बोली - "ज़रा सोचो कंचन, ठाकुर साहब 20 साल से एक लंबी पीड़ा भरी ज़िंदगी जी रहे हैं. बेटी की शादी की बात सुनकर उनके चेहरे पर बरसों बाद मुस्कुराहट लौटी है.....जब उन्हे ये पता चलेगा कि तुम्हारी वजह से निक्की की शादी टूट गयी है तो क्या गुज़रेगी उनपर? कैसा आघात पहुँचेगा उनके दिल पर जब निक्की अपनी ज़िंदगी से निराश होकर अपनी जान दे देगी? क्या वो जी सकेंगे? नही कंचन.......ठाकुर साहब ये पीड़ा सहन नही कर सकेंगे. उनकी छाती फट जाएगी. इतना जान लो कंचन अब हवेली में जो भी अच्छा बुरा होगा उसकी ज़िम्मेदार तुम होगी. सिर्फ़ तुम......!"

"बस कीजिए मा जी. अब और कुच्छ मत कहिए." कंचन तड़प कर बोली - "अगर आप लोगों को लगता है कि मेरे हट जाने से आप सब खुश रह सकेंगे तो जाइए......मैं आज के बाद कभी साहेब से नही मिलूंगी. आज के बाद मैं उनके लिए मर गयी. अब कंचन कभी आप लोगों के रास्ते नही आएगी." कंचन ये कहते हुए फफक पड़ी. वा दोनो हाथों से अपना चेहरा छुपाकर रोने लगी.

कमला जी को उसका रोना अंदर तक हिला गया. पर उन्होने अपने अंदर की नारी को बाहर नही आने दिया. वह कुच्छ देर उसे रोते हुए देखती रही फिर धीरे से उसके कंधों को पकड़ कर बोली - "कंचन.....मुझे माफ़ कर दो. मेरी वजह से तुम्हारा दिल दुखा. पर मैने वही कहा जो सच है. अब तुम अपने घर जाओ......और मेरी तरफ से कोई मैल मत रखना."

कंचन कुच्छ ना बोली. अपने आँसू पोछती हुई उठ खड़ी हुई और काँपते पैरों के साथ सीढ़ियाँ उतरने लगी.
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05-02-2020, 01:18 PM,
#50
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
वह दुखी थी बेहद दुखी ! कमला जी के मूह से निकले एक एक शब्द उसके कानों में ज़हर घोलते जा रहे थे.

वह भारी कदमो से चलती हुई घर के रास्ते बढ़ी चली जा रही थी. मन पूरी तरह अशांत था. लड़खड़ाते कदमो से चलती हुई बस एक ही बात सोचे जा रही थी. - "ये क्या हो रहा है मेरे साथ? मा जी क्यों नाराज़ हो गयीं मुझसे? सिर्फ़ एक छोटी सी ग़लती के लिए माजी मुझे इतनी बड़ी सज़ा क्यों दे रही हैं? क्या मैं इतनी बुरी हूँ? या मेरा ग़रीब होना बुरा हो गया? हां यही बात होगी.....माजी मुझे अपने समाज के लायक नही समझती. अगर मैं निक्की की तरह अमीर होती तो माजी मुझे अपनी बहू ज़रूर स्वीकार कर लेती. मेरे बाबा के पास पैसे नही है ना इसलिए उनको मैं पसंद नही. उन्हे निक्की पसंद है क्योंकि ठाकुर साहब के पास बहुत पैसे हैं.

निक्की की याद आते ही कंचन का दिल और दुखी हो गया. जिस सहेली को उसने अपनी जान से ज़्यादा प्यार किया आज वही उसकी जान की दुश्मन बन गयी थी.

हां ! वो निक्की ही तो थी जिसकी वजह से उसे रवि से अलग किया जा रहा था. निक्की ने जाने-अंजाने में ही सही पर आज उसने कंचन का दिल दुखा दिया था. आज कंचन निक्की और खुद के फ़र्क को समझ चुकी थी. आज वो जान गयी थी कि अमीरों का ग़रीबों से नाता केवल खेलने के लिए होता है, ना कि किसी बंधन में बाँधने के लिए.

वह निक्की से नाराज़ तो नही थी पर उसके दिल में गुस्सा सवार था. कोई आपको कितना ही प्रिय क्यों ना हो-किंतु वो जब आपके टूटे दिल का कारण बनता है तब आपको उसपर क्रोध आ ही जाता है. कंचन का गुस्सा भी उसी प्रकार का था.

कंचन की हालत इस वक़्त ठीक उस व्यापारी की तरह थी. जो दिन भर गली गली बाज़ार बाज़ार घूम कर अपना सौदा बेचा हो और घर लौट'ते समय किसी ने उसके सारे पैसे छीन लिए हों. जो मानसिक स्थिति उस समय उस सौदागर की होती है वही कंचन की थी. और फिर यहाँ बात एक दिन की कमाई की नही थी-कंचन की पूरी ज़िंदगी की थी. उसके उन सपनो की थी जो अब तक वो देखती आई थी. वे सारे सपने उससे एक झटके में छीन लिए जा रहे थे. उसका गुस्सा होना तो स्वाभाविक था.

कंचन सिसक रही थी. इस एहसास से कि अब वो कभी रवि से नही मिल सकेगी उसकी आत्मा लहू-लुहान होती जा रही थी. उसके समझ में नही आ रहा था वह ऐसा क्या करे जिससे कि वह फिर से रवि को हासिल कर सके. उसका साहेब फिर से उसका हो सके? पर ये ख्याली पुलाव थे. रवि को वापस पाने का कोई भी रास्ता उसे दूर दूर तक दिखाई नही दे रहा था

कंचन इन्ही सवालों के चक्रवात में घिरी अपने घर की चौखट तक पहुँची. आगन में पावं धरते ही बुआ ने कुच्छ पुछा....किंतु शांता की बात उसके कानो तक नही पहुँची. वह किसी और ही दुनिया में पहुँची हुई थी.

कंचन अपने उसी दशा में चलती हुई रसोई तक पहुँची. पूजा की थाली को एक और रखा. फिर अपने कमरे में घुस गयी. कमरे में पहुँचकर चारपाई पर ऐसे फैल गयी जैसे महीनो की बीमार हो.

शांता से उसकी हालत छुपि ना रही. वह कंचन को देखते ही ताड़ गयी कि इसे कुच्छ तो हुआ है. शांता कंचन को आज से पहले इतनी चुप और उदास कभी नही देखी थी. वह कमरे के भीतर आई. कंचन पर निगाह डाली. कंचन के माथे से पसीना बह रहा था किंतु शरीर ऐसे काँप रहा था मानो वो किसी ठंडे प्रदेश में आ गयी हो. आँखें बिना पलके झपकाए छप्पर को घुरे जा रही थी.

कंचन की ऐसी हालत देखकर शांता के होश उड़ गये. वह झुकी और कंचन के माथे पर हाथ रखा. शांता का हाथ पड़ते ही कंचन चिहुनक उठी. वह फटी फटी आँखों से बुआ को देखने लगी.

"कंचन क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?" बुआ चिंतित होकर बोली.

बुआ का स्नेह मिलते ही कंचन की आँखों से आँसू के दो गोले लुढ़क कर उसके गालो में फैल गये. कंचन कुच्छ कहने के लिए अपने होंठ हिलाई पर आवाज़ बाहर ना निकल सकी. उसके होंठ सिर्फ़ फड़फड़ाकर रह गये. वह सहायता के लिए लालसा से बुआ को देखने लगी. वह किसी नन्हे बच्चे की तरह फफक पड़ने को तैयार थी.

कंचन को रोता देख शांता की छाती फट गयी. वह किसी अंजानी आशंका से घबरा उठी. उसकी आवाज़ सुनकर कंचन के फूफा और चिंटू भी दूसरे कमरे से आ गये. अपनी दीदी को रोता देख चिंटू उदास हो उठा था.

"कंचन तू कुच्छ बोलेगी भी? किसी ने कुच्छ कहा है तुम्हे?" शांता ने फिर से पुछा.

कंचन सिसकती हुई शांता को कमला जी की कही सारी बातें बताने लगी. कंचन की बात सुनकर शांता भी परेशान हो उठी. उसने कंचन को छाती से लगा लिया और उसके आँसू पोच्छने लगी. कंचन के टूटे दिल की पीड़ा अब उसके दिल तक पहुँच गयी थी. उसकी समझ में नही आ रहा था कि वो कंचन से कहे भी तो क्या कहे? वह उसे दिलासा देने लगी. उसके अतिरिक्त शांता कर भी क्या सकती थी. चिंटू और फूफा भी उसके आस-पास बैठ गये. चिंटू कंचन से लिपट सा गया था. उसके समझ में कुच्छ भी नही आ रहा कि दीदी क्यों रो रही है? पर कंचन को रोता देख उसे भी रोना आ रहा था. उसकी आँखें भी भर आई थी.

तभी कमरे में सुगना ने कदम रखा. दीवान जी से मिलने के पश्चात उसका काम पर मन नही लग रहा था. कुच्छ ही देर बाद उसने घर का रुख़ कर लिया था.

"क्या हुआ?" भीतर आते ही सुगना ने कंचन को रोते हुए देखा तो पुछा.

शांता उसे सारी बातें बताने लगी.

सुनकर सुगना के जबड़े भींच गये. क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गयी. उसने अपने गुस्से पर नियंत्रण किया और कंचन के बराबर बैठकर उसके सर पर हाथ फेरने लगा. तत्पश्चात उसने कंचन से कहा - "नही कंचन....नही ! अब तुम्हे रोने की आवश्यकता नही. अब तुम्हारे दुख के दिन गये कंचन. अब तुम्हारे साथ कोई अन्याय नही कर सकता. कम से कम मेरे जीतेज़ी तो नही. तुम्हे, तुम्हारे सारे अधिकार मिलेंगे. मैं अभी हवेली जाता हूँ और ठाकुर साहब से बात करता हूँ. तू चुप हो जा रवि तुम्हारा है और तुम्हारा ही रहेगा. उसे तुमसे कोई अलग नही कर सकता"

"बाबा...! माजी को मैं पसंद नही. वो मेरा विवाह साहेब से कभी नही होने देंगी." कंचन की सिसकियाँ अभी भी जारी थी.

"तू चिंता मत कर बेटी. मैं हूँ ना. मैं अभी हवेली जाता हूँ. सब ठीक हो जाएगा."

"भैया, क्या आप सच में ठाकुर साहब से बात करेंगे?" शांता आश्चर्य से बोली.

"हां शांता, अब वो दिन आ गया है जिसका मुझे इंतेज़ार था. तुम कंचन का ध्यान रखना....मैं अभी आया." सुगना बोला और तेज़ी से दरवाज़े से बाहर निकल गया.
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