FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
06-13-2020, 12:57 PM,
#11
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
शराब मेरे दिमाग को घुमा जरूर रही थी, परन्तु इतना नशे में न था कि बहकने लगूं या कदम लड़खड़ाने लगें।

बस से कनॉट प्लेस पहुंचा।

स्टॉप से पैदल ही उस कोठी की तरफ जिसे देखकर मेरे दिल पर सांप लोटा करते थे—यूं कोठियां तो बहुत थीं, उससे भी सुन्दर, मगर मेरी डाह का केन्द्र 'सुरेश की कोठी' थी।

वह, जिसने कनॉट प्लेस जैसे महंगे इलाके के दो हजार गज भूखण्ड को घेर रखा था—चारदीवारी के अंदर, चारों ओर फैले लॉन से घिरी तीन-मंजिली इमारत 'ताजमहल' की डमी-सी मालूम पड़ती थी।
मैं लोहे वाले गेट पर पहुंचा।

गेट पर जाना-पहचाना दरबान खड़ा था—वर्दीधारी दरबान के कंधे पर लटकी बन्दूक, कमर पर बंधी गोलियों वाली चौड़ी बैल्ट, ऊंचा कद, स्वस्थ शरीर, चौड़ा रौबदार चेहरा और बड़ी-बड़ी और सुर्ख आंखों में जो भाव उभरते, वे हमेशा जहर बुझे नश्तर की तरह मेरे जिगर की जड़ों तक को जख्मी करते रहे हैं।हमेशा ग्लानि हुई है मुझे।
और।

ऐसा वह अकेला व्यक्ति नहीं है जिसकी आंखों में मुझे देखते ही नफरत और हिकारत के चिन्ह उभर आते हैं, बल्कि अनेक व्यक्ति हैं।

सुरेश का हर नौकर।
हां, मैं उन्हें नौकर ही कहूंगा।

मुझ पर नजर पड़ते ही उसके ऑफिस के हर कर्मचारी, वाटर ब्वॉय से जनरल मैनेजर तक के चेहरे पर एक ही भाव उभरता है—ऐसा भाव जैसे किसी आवारा कुत्ते को दुत्कारने जा रहा हो।

सुरेश की पत्नी भी मुझे कुछ ऐसे ही अंदाज में देखती है।

वे नजरें, वह अंदाज मेरे दिल को जर्रे-जर्रे कर डालता है—सहन नहीं होता वह सब कुछ, मगर फिर भी वहां पहुंचा।
लोहे वाले गेट के इस तरफ ठिठका।

उस तरफ खड़े दरबान ने सदाबहार अंदाज में मुझे देखा, चेहरे पर ऐसे भाव उत्पन्न हुए जैसे मेरे जिस्म से निकलने वाली बदबू ने उसके नथुनों को सड़ाकर रख दिया हो, अक्खड़ अंदाज में बोला वह—"क्या बात है?"

"सुरेश है?" मैंने अपने लिए उसके चेहरे पर मौजूद हिकारत के भावों को नजरअन्दाज करने की असफल चेष्टा के साथ पूछा।

"हां हैं.....मगर इस वक्त साहब बिजी हैं।"

"मैं उनसे मिलना चाहता हूं।"

वह मुझे इस तरह घूरता रह गया जैसे कच्चा चबा जाना चाहता हो। कुछ देर उन्हीं नजरों से घूरता रहा, फिर दुत्कारने के-से अन्दाज में बोला— "अच्छा, मैं कह देता हूं, तू यहीं ठहर।"

पलटकर वह चला गया।
करीब पांच मिनट बाद लौटा।

नजदीक पहुंचकर गेट खोलता हुआ बोला— "जाओ।"

मेरे दिलो-दिमाग से जैसे कोई बोझ उतरा।
कोठी की चारदीवारी में कदम रखा।

दरबान उपेक्षित भाव से बोला— "ड्राइंगरूम में बैठना, साहब तुमसे वहीं मिलेंगे।"

बिना जवाब दिए मैं यूं आगे बढ़ गया जैसे उसके शब्द सुने ही न हों।
खूबसूरती से सजे ड्राइंगरूम में मौजूद एक-से-एक कीमती वस्तु को मैं उन्हीं नजरों से देखने लगा जिनसे पहले भी अनेक बार देख चुका था।
मुझे खुद याद नहीं कि वहां कितनी बार जा चुका हूं?

मगर।
मौजूदा चीजों को देखने से कभी नहीं थका—हां, दिलो-दिमाग अंगारों पर जरूर लोटा है—सारी जिन्दगी डाह से सुलगता रहा हूं मैं।
कम-से-कम पच्चीस हजार के कालीन को अपनी हवाई चप्पलों से गन्दा करता हुआ करीब दस हजार के सोफे पर कुछ ऐसे भाव जेहन में लिए 'धम्म' से गिरा कि वह टूट जाए।

परन्तु।
डनलप की गद्दियां मुझे झुलाकर रह गईं।

जेब से माचिस और बीड़ी का बण्डल निकालकर एक बीड़ी सुलगाई, हालांकि तीली विशाल सेन्टर टेबल के बीचों-बीच रखी सुनहरी ऐश ट्रे में डाल सकता था मगर नहीं, तीली मैंने लापरवाही से कालीन पर डाल दी।
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सुरेश ने ड्राइंगरूम में कदम रखा।

मैं खड़ा हो गया।

डाह की एक तीव्र लहर मेरे समूचे अस्तित्व में घुमड़ती चली गई—वह 'मैं' ही था—शक्ल-सूरत, कद-काठी और स्वास्थ से 'मैं' ही।
मगर नहीं।
'वह' मैं नहीं था।
वह सुरेश था, मैं मुकेश हूं।

उसके पास जिस्म भले ही मुझ जैसा था, उस पर मौजूद कपड़े मेरे कपड़ों के ठीक विपरीत—'फर' का बना काला कोट पहने था वह, गले में 'सुर्ख नॉट'—अत्यन्त महंगे कपड़े की सफेद पैन्ट और आइने की माफिक काले जूतों में वह सीधा आकाश से उतरा फरिश्ता-सा लग रहा था।
और मैं।
आवारा कुत्ता-सा।

हम एक-दूसरे के हमशक्ल थे—एक ही सूरत, एक ही जिस्म और एक जैसा ही स्वास्थ्य होने के बावजूद हममें गगन के तारे और कीचड़ में पड़े कंकड़ जितना फर्क था।

दोनों के पास एक ही चेहरा था, एक ही रंग।
मगर फिर भी, मेरी गर्दन से जुड़ा चेहरा सूखा और निस्तेज नजर आता था, सुरेश की गर्दन से जुड़े चेहरे पर चमक थी, प्रकाश-रश्मियां-सी फूटती मालूम पड़ती थीं उसमें।

यह फर्क पैसे का था।

पैसे के पीछे था—नसीब।
मेरा दुश्मन।

"बैठो भइया।" सुरेश ने हमेशा की तरह आदर देने के अंदाज में कहा, जबकि मैं जानता था कि वह आदर देने का सिर्फ नाटक करता है, उसके दिल में मेरे लिए कोई कद्र नहीं है।

मैं बैठ गया।
आगे बढ़ते हुए उसने जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकालकर सोने के लाइटर से सिगरेट सुलगाई—मैंने अपनी उंगलियों के बीच दबी बीड़ी का सिरा कुछ ऐसे अंदाज में, मेज पर रखी ऐशट्रे में कुचला जैसे वह मेरे नसीब का सिर हो, बोला— "मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं सुरेश।"

"कहिए।" उसने पुनः सम्मान दर्शाया।

उसके इस अभिनय पर मैं तिलमिलाकर रह जाता। कसमसा उठता, मगर कुछ कह न पाता.....जी चाहता कि चीख पड़ूं, चीख-चीखकर कहूं कि मुझे बड़ा भाई मानने का ये नाटक बन्द कर सुरेश, परन्तु हमेशा की तरह आज भी इस सम्बन्ध में कुछ न कह सका।
मुझे चुप देखकर उसने पूछा—"क्या सोचने लगे मिक्की भइया?"

"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुमने मेरी जमानत क्यों कराई?"

"क्या मैंने कोई ऐसा काम किया है, जो नहीं करना चाहिए था?"

"हां?"

दांत भिंच गए, वह अजीब-से आवेश में बोला—"मैं अनेक केसों में आपकी जमानत कराता रहा हूं—पहले तो आपने कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई।"

मेरा तन-बदन सुलग उठा, मुंह से गुर्राहट निकली—"क्योंकि पहले तुम्हारे दिमाग पर मुझे सुधारने का भूत सवार नहीं था।"

"ओह! आप शायद पिछली मुलाकात का बुरा मान गए हैं—आपने दो हजार रुपये मांगे थे और मैंने इंकार कर दिया था।"

मेरे होंठों पर स्वतः जहरीली मुस्कराहट उभर आई, बोला— "उसमें बुरा मानने जैसी क्या बात थी, मदद करो या न करो.....यह तुम्हारी मर्जी पर है।"

"ऐसा न कहिए, भइया।"

"क्यों न कहूं.....क्या मैंने कुछ गलत कहा है?" मुंह से जहर में बुझे व्यंग्यात्मक शब्द निकलते चले गए—"हमारी शक्लें जरूर एक हैं, हमारे मां-बाप भले ही एक थे मगर नसीब एक-दूसरे से बहुत अलग हैं.....हमारे पैदा होने में सिर्फ दो मिनट का फर्क है और उन दो मिनटों में ही नक्षत्र साले इतने बदल गए कि आज तुम कहां हो है, मैं कहां—तुम कम-से-कम दस हजार रुपये वाला 'फर' का कोट पहनते हो—मैं पालिका बाजार से लेकर आठ रुपये की टी-शर्ट।"

"यह सब सोचकर मुझे भी दुख होता है भइया, मगर.....।"

"मगर—?"

"दो मिनट ही सही लेकिन आप मुझसे बड़े हैं और यदि सीना चीरना मेरे वश में होता तो दिखाता कि आपके लिए मेरे दिल में कितनी इज्जत है.....कितना सम्मान है।" सुरेश मानो भावुकता के भंवर में फंसता चला गया—"हमारे पिता सेठ जानकीनाथ के यहां मुनीम के घर जब एक साथ दो लड़कों का जन्म हुआ तो सेठजी ने उनमें से एक को गोद लेने की इच्छा जाहिर की।"

"और उन्होंने तुझे गोद ले लिया, मुझे नहीं—यह हम दोनों के नसीब का ही तो फर्क था वर्ना क्या फर्क था हममें, आज भी क्या फर्क है—सेठ ने अगर तेरी जगह मुझे गोद लिया होता तो आज मैं ट्रिपल फाइव पी रहा होता और तू बीड़ी।"

"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"

मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।

"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?

अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"

"ऐसा क्या किया है मैंने?"

मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"

"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"

मैं चुप रहा।

"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"

"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"

"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"

"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।
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06-13-2020, 12:57 PM,
#12
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
सुरेश की आंखें भर आईं, मगर मैं जानता था कि वे मगरमच्छी आंसू हैं, वह टूटे स्वर में बोला—"ये सही है कि बाबूजी के जीते-जी मैंने उनकी बातें कभी न मानीं—आपकी मदद करता रहा और बाबूजी मेरी इस धृष्टता को सिर्फ इसलिए सहते रहे हैं क्योंकि वे मुझसे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, मगर मदद के पीछे मेरी मंशा आपको जाहिल या नकारा बनाने की बिल्कुल नहीं थी।"

"फिर क्या मंशा थी?"

"सोचा करता था कि बाबूजी गलत कहते हैं, आप दिक्कत में हैं—परेशान हैं और मदद करना मेरा फर्ज है—हर बार, जब भी आपने मांगी, मैं यह सोचकर मदद करता रहा कि शायद इस मदद के बाद आप सुधर जाएंगे।"

"फिर आज से दो महीने पहले क्या हो रहा था?"

"बाबूजी की मौत के बाद भी अपनी सोचों को ही ठीक जानकर मैंने कई बार आपकी मदद की—धीरे-धीरे ऐसा महसूस किया कि हर मदद के बाद जुर्म की दलदल में आप कुछ और गहरे धंस जाते हैं, और फिर मुझे यह अहसास हुआ कि मेरी सोचें गलत थीं, बाबूजी ठीक कहते थे—आप इसलिए कोई काम नहीं करते क्योंकि हर जरूरत तो मैं पूरी कर ही देता हूं—दरअसल जरूरत ही इंसान से मेहनत-मजदूरी कराती है, इस सिद्धान्त की सच्चाई जानने के बाद मैंने भविष्य में आपकी कोई मदद न करने का संकल्प लिया—सिर्फ और सिर्फ इस इच्छा के साथ कि यदि मैं मदद नहीं करूंगा तो जरूरतें आपको जुर्म की दुनिया त्यागने और 'कोई काम' करने पर विवश कर देंगी।''

"तभी तो पूछ रहा हूं कि जमानत क्यों कराई?"

"अपने दिल के हाथों मजबूर होकर।" सुरेश ने कहा— "इस कल्पना ने मेरे समूचे अस्तित्व को झंझोड़ डाला कि मैं इस महल में ऐश कर रहा होऊंगा और आप जेल में सड़ रहे होंगे।"

"यदि तुम मुझे वास्तव में सुधारना चाहते थे तो जमानत भी नहीं करानी चाहिए थी।" मैंने उस पर बड़ा जबरदस्त व्यंग्य किया—"क्योंकि यदि इसी तरह मेरी जमानतें होती रहीं, तो मेरे हौंसले और बढ़ेंगे, जुर्म की जिस दलदल में मैं फंसा हुआ हूं, उसमें गहरा धंसता चला जाऊंगा—तुम्हें तो यह सोचना चाहिए था सुरेश कि मुझे जेल में सड़ने दो.....शायद, वह सड़न मुझे सुधार दे, सही रास्ते पर ले आए मुझे।"

"हां.....शायद मुझे यही करना चाहिए था।" सोचने के साथ ही सुरेश मानो स्वयं से कह रहा था- "दिल के हाथों मजबूर होकर मैं ये कदम उस ट्रीटमेंट के विरुद्ध उठा गया, जो आपको सुधारने के लिए कर रहा था।"

"अब तो कभी मेरी जमानत नहीं कराओगे?"

"न.....नहीं—दिल पर पत्थर रख लूंगा।"

तिलमिलाकर मैं गुर्रा उठा—"तुम जमानत कराओगे!"

"क्या मतलब?"

"उसके बाद फिर कहोगे कि ऐसा तुमने अपने दिल के हाथों मजबूर होकर किया है।"

"मैं समझा नहीं, मिक्की भइया।"

मेरे मुंह से जहर बुझे शब्द निकले—"किसी धनवान व्यक्ति के पास गरीब को मुकम्मल तौर पर तबाह करने के लिए ढेर सारे तरीके होते हैं और तुम मुझ पर वह तरीका इस्तेमाल कर रहे हो जो उन सब तरीकों से ज्यादा नायाब है।"

"य.....ये आप क्या कह रहे हैं?"'

"खामोश!" दहाड़ता हुआ मैं एक झटके से खड़ा हो गया, उसे एक भी शब्द बोलने का मौका दिए बगैर बोला— "वह तरीका ये है कि पहले गरीब आदमी को उसकी जरूरत से ज्यादा धन देकर जरूरतें बढ़ा दो—बढ़ाते रहो और फिर तब, जब उसकी जरूरतें नाक के ऊपर पहुंच जाएं तो मदद देनी बन्द कर दो—साला मुकम्मल रूप से तबाह हो जाएगा।"

सुरेश इस तरह आंखें फाड़े मेरी ओर देखता रह गया जैसे मैं कोई अजूबा हूं और अपनी ही धुन में मग्न मैं हल्का-सा ठहाका लगाकर कह उठा—"क्यों, हैरान रह गए, यह सोचकर कि मैं तुम्हारी इतनी गहरी चाल को समझ कैसे गया?"
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06-13-2020, 12:58 PM,
#13
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"हैरान हूं आपके दिमाग पर, आपके सोचने के तरीके पर।"

"क्या मैंने कुछ गलत कहा?"

"सरासर गलत, मगर आपको समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि.....।"

"क्यों?"

"क्योंकि बचपन से, जब से आपने होश संभाला, तभी से मन में एक 'कुंठा' पाल ली है—यह कि आप बदनसीब हैं—आपको गोद क्यों नहीं लिया—मुझे ही क्यों, मेरा कोई दोष न होते हुए भी आप मुझसे डाह करने लगे—इसी डाह, इसी कुंठा ने आपको कभी सही ढंग से सोचने तक नहीं दिया—आपकी बर्बादी का कारण गरीबी नहीं, मस्तिष्क में बचपन से पलती चली जा रही कुंठा है और उसी से ग्रस्त आप मुझ पर यह आरोप लगा रहे हैं कि मैं आपको तबाह करने पर तुला हूं।"

अभी कुछ कहने के लिए मैंने मुंह खोला ही था कि सुरेश की पत्नी ने कमरे में दाखिल होते हुए पूछा—"क्या हुआ, आप लोग इतनी जोर-जोर क्यों बोल रहे हैं?"

"क.....कुछ नहीं विनी, कोई खास बात नहीं है।" सुरेश ने जल्दी से कहा।

विनीता ने मेरी तरफ देखा।

आंखों में नफरत और हिकारत का वही भाव था जो अपनी तरफ देखते मैंने हमेशा ही उसकी आंखों में देखा है—बॉबकट बालों वाली विनीता को मैंने कभी साड़ी पहने नहीं देखा। वह हमेशा अजीब-सी चुस्त पैंट और कोटी पहने रहती थी.....शादीशुदा होने के बावजूद मैंने कभी उसके पैर की उंगलियों में बिछुवे, कलाइयों में चूड़ियां, मस्तक या मांग में सिन्दूर नहीं देखा।
उसके बालों में मांग कहीं थी ही नहीं।

हालांकि विनीता सुन्दर थी, गोरी—कोमल और गदराए जिस्म वाली, मगर फिर भी यह सोचकर मुझे अजीब-सी खुशी का अहसास होता कि सुरेश को अच्छी बीवी नहीं मिली है, वह पत्नी किस काम की जो पति की लम्बी आयु तक की कामना न करे?

उसने कहा— "कुछ तो है, आप लोगों की आवाज सारी कोठी में गूंज रही है।"

"स......सॉरी विनी.....बस यूं ही, किसी मसले पर भइया से थोड़ा मतभेद हो गया था।" सुरेश बोला— "तुम जरा काशीराम को देखो, मैंने उसे भइया के लिए नाश्ता लाने को कहा था.....जाने इतनी देर क्यों लगा रहा है?"

"मुझे कोई नाश्ता नहीं करना है।"

विनीता ने मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे भिखमंगा भीख लेने से इंकार करने का नाटक कर रहा हो, जबकि सुरेश ने इस तरह कहा जैसे अपनी और मेरी तकरार विनीता के सामने न चाहता हो—"तुम जाओ विनी, काशीराम को भेजो।"

वह चली गई मगर जाते-जाते मेरी तरफ ऐसी नजर उछाल गई, जिसने मेरे बचे-खुचे आत्मसम्मान को भी राख के ढेर तब्दील कर दिया था।
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नाश्ता आया।
सुरेश ने काफी जिद की, मगर मैंने उसे छुआ तक नहीं।

मेरे और सुरेश के बीच हो चले तनावपूर्ण वातावरण के मध्य विनीता ठीक ही आई थी, क्योंकि उससे तनाव ज्यादा नहीं बढ़ पाया।

हालांकि मैं वहां दस हजार रुपये मांगने गया था—कम-से-कम वहां उत्तेजित वातावरण पैदा करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, किन्तु सुरेश और उसके ठाट-बाट देखते ही जाने मुझे क्या हो जाता.....होश गंवा बैठता मैं।
पता नहीं क्या—क्या कह जाता?

इधर-उधर की बातों के बाद सुरेश ने कहा— "क्या आप सिर्फ यही कहने आए थे कि अगर भविष्य में आप पुनः कभी पुलिस के चंगुल में फंस जाएं तो मैं जमानत न कराऊं?"

मैं मतलब की बात पर आता हुआ बोला— "आगे शायद ऐसी जरूरत न पड़े।"

"मैं तो यही चाहता हूं, मगर कैसे—आप ऐसा कैसे कह रहे हैं?"

"मैंने चोरी-चकारी और जिल्लत भरी इस जिन्दगी को हमेशा के लिए अलविदा कहने का निश्चय कर लिया है।" मैंने उसे अपने निश्चय से अवगत कराया—"अलका को तो तुम जानते ही हो, उसे भी सीधी-सादी जिन्दगी पसन्द है—मैंने उससे शादी करने का निश्चय किया है—शराफत, ईमानदारी और मेहनत की रोटी खाना चाहता हूं।"

सुरेश ने सशंक निगाह से मुझे घूरते हुए पूछा—"क्या आप सच कह रहे हैं?"

"बिल्कुल सच, लेकिन.....।"

"लेकिन—?"

"इस सबके लिए मुझे दस हजार रुपये की जरूरत है।"

सुरेश की आंखें सिकुड़कर गोल हो गईं, बोला— "मैं समझा नहीं।"

"मैं कर्जे में दबा हूं, इस वक्त कुल मिलाकर लोगों का मुझ पर करीब साढ़े छः हजार रूपया है—बाकी से कोई धंधा शुरू करूंगा।"

"साढ़े तीन हजार में कौन-सा धंधा शुरू हो जाएगा?"

"कुछ भी.....जैसे पानी पिलाने की मशीन ही खरीद लूंगा—अलका कहती है कि उसमें अच्छी कमाई है, वैसे मुझे मशीन खरीदकर देने के लिए वह भी तैयार है, मगर उससे मदद लेना मुझे गंवारा नहीं सुरेश, जिससे शादी करने वाला हूं।"

"क्या यह फैसला आपने पूरी गम्भीरता के साथ लिया है?"

"हां।"

"मुझे यकीन नहीं है।" सुरेश ने एक झटके से कहा।

मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा—"क्या मतलब?"

"अब मैं समझा कि वे उत्तेजनात्मक बातें आपने मुझसे क्यों की थीं?" वह एक झटके से खड़ा होता हुआ बोला— "आप मुझे बेवकूफ बनाने आए हैं, यह चार्ज लगाकर कि मैं आपकी बर्बादी चाहता हूं और मुझसे दस हजार रुपये ठगना चाहते हैं।"

मैं ठगा-सा उसे देखता रह गया।

"वे सब बातें आपने इसीलिए कीं ताकि जब आप दस हजार रुपये मांगें तो मैं इंकार न कर सकूं, यह सोचकर पैसा दे दूं कि यदि इंकार किया तो आप यह सोचेंगे कि मैं आपकी बर्बादी चाहता हूं।"

"ऐसा नहीं है, सुरेश।"

"ऐसा ही है।" वह दृढ़तापूर्वक बोला— "मैं आपकी चाल समझ चुका हूं और भले ही आप चाहें जो साचते रहें, मगर वह नहीं होगा जो आप चाहते हैं।"

"क्या मैं ये समझूं कि तुम दस हजार देने से इंकार कर रहे हो?"

"दस हजार मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखते, मगर काश, आपने यह मांग सच्चे दिल से की होती—काश, आप सचमुच वही करने की सोच रहे होते जो कह रहे हैं।"

"यकीन मानो, मैं सच कह रहा हूं—मेरा दिल बिल्कुल साफ है।"

"आप गर्म तवे पर बैठकर ये शब्द कहें तब भी मैं सच नहीं मान सकता।" सुरेश कहता चला गया—"मैं जानता हूं कि आप कभी नहीं सुधर सकते, यह रकम भी आपको जुए और शराब के हवाले कर देने के लिए चाहिए—मैं उन बेवकूफों में से नहीं हूं जो आज आपकी बातों के चक्रव्यूह में फंसकर रुपये दे और कल किसी के मुंह से यह सुने कि मिक्की फलां जगह बैठा यह कह रहा था कि उसने शब्दों का जाल बिछाकर सुरेश से दस हजार रुपये ठग लिए।"

मैं कसमसा उठा, बोला— "तुम गलत सोच रहे हो।"

"अगर आपने सच बोलकर यानि यह कहकर पैसे मांगे होते कि जुए और शराब के लिए चाहिए तो शायद मैं पसीज जाता, दस नहीं बीस हजार दे देता, मगर आप झूठ बोल रहे हैं—ठगने की कोशिश कर रहे हैं मुझे, अतः बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है भइया कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता।"

"तुम विश्वास क्यों नहीं करते?" न चाहते हुए भी मैं चीख पड़ा।
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06-13-2020, 12:58 PM,
#14
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"यदि आप यहां से चले जाएं तो मुझ पर बड़ी मेहरबानी होगी।" सुरेश के इन शब्दों ने मेरे दिल को छलनी कर दिया—उसका हर नौकर भले ही मुझसे नफरत करता था, हिकारत भरी नजर से देखता था मगर आज.....आज वह पहला मौका था जब उसने अपमान किया—हालांकि मुझे पहले ही शक था कि वह भी मेरे लिए अपने दिल में वैसे ही भाव रखता है, जैसे नौकरों के हैं और मुझे सम्मान देने, इज्जत करने का सिर्फ नाटक करता है मगर वह इतना खूबसूरत नाटक करता था कि मेरा शक कभी विश्वास में न बदल सका।

मगर आज।

खुले अंदाज में मेरा अपमान करके.....खैरात में मिले उस महल से निकल जाने के लिए कहकर उसने साबित कर दिया कि मेरा शक
सही था।

ताजमहल की डमी-सी नजर आने वाले उस महल से जब बाहर निकला तो मेरी झोली, दिलो-दिमाग और जिस्म का जर्रा-जर्रा अपमान से भरा था।
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रात के दो बजे हैं।
अपने कमरे में बैठा मैं ये डायरी लिख रहा हूं।

इस वक्त भी मेरा रोम-रोम अपमान की उस आग में सुलग रहा है जिसका सामना आज पहली बार खुलकर करना पड़ा—मैं सबके द्वारा किया गया अपमान सह गया, मगर जाने क्यों सुरेश द्वारा किए गए अपमान को जज्ब नहीं कर पा रहा हूं।

उफ..... उसका 'अपनी' कोठी से निकल जाने के लिए कहना।
ईश्वर ऐसा मनहूस मंजर किसी को न दिखाए।

वहां से सीधा अपने कमरे में आया.....आते ही यह डायरी लिखनी शुरू कर दी—मुझे नहीं मालूम कि कितने पेज लिख चुका हूं। बस इतना जानता हूं कि अब यह डायरी 'अंत' पर है।
मेरी तरह।
हां।
मैं मरने का फैसला कर चुका हूं।

आप इसे आत्महत्या कहेंगे, क्योंकि मैं खुद मर रहा हूं, मगर मेरी नजरों में यह आत्महत्या नहीं, हत्या है।
हत्यारा है सुरेश।

साफ शब्दों में लिख रहा हूं कि मेरी मौत का जिम्मेदार सुरेश है।

आज मैं कर्जे से इस कदर घिरा हूं कि न इस कमरे में रह सकता हूं, न सड़क पर घूम-फिर सकता हूं—अदालत में इतने केस चल रहे हैं कि लगभग रोज नसीब विफल कर देता है—हर तरफ अपमान, जिल्लत, बेइज्जती, हिकारत और नफरत-भरी नजरें।
जीकर करूं भी क्या?

मेरे चारों ओर इन सब हालातों को इकट्ठा करने वाला सुरेश है। यह सब उसने कैसे किया.....वह मैं विस्तार से लिख चुका हूं। शुरू में मदद की, पैसा देकर मेरी जरूरतें बढ़ाईं और फिर पैसा देना बंद कर दिया।

ऐसे हालातों में जीऊं भी तो कैसे?
अपनी पूरी जिन्दगी में मुझे दो बेवकूफों से प्यार मिला है।
हां, मैं उन्हें बेवकूफ ही कहूंगा।
पहली अलका.....दूसरा रहटू।

सिर्फ इन दोनों को मेरी मौत का दुःख होगा, मगर इन दोनों मूर्खों को मेरी अंतिम सलाह ये है कि किसी को सोच-समझकर प्यार किया करें—प्यार इंसानों से किया जाता हैं, जानवरों से नहीं।

मैंने मरने का सारा इंतजाम कर लिया है, बल्कि अगर यह लिखूं तो गलत न होगा कि पूरी योजना तैयार कर चुका हूं—अपनी आदत के मुताबिक अंतिम क्षणों में योजना को अच्छी तरह ठोक-बजाकर भी देखूंगा।

फिर भी डरता हूं कि हमेशा की तरह मेरा दुश्मन इस अंतिम प्रयास में भी मुझे विफल न कर दे, मगर नसीब के डर से मैंने कभी, अपनी किसी योजना को कार्यान्वित करने में कोताही नहीं बरती।
आज भी नहीं बरतूंगा।

बचपन से आज तक मेरा नसीब मुझे हराता चला आया है, मगर इसके सामने मैंने कभी घुटने नहीं टेके—टकराया हूं—आज भी नहीं टेकूंगा, हमेशा की तरह इस बार भी मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने दुश्मन को शिकस्त दूंगा।

जिन लोगों का कर्ज न दे सका, उनसे माफी चाहता हूं।
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06-13-2020, 12:58 PM,
#15
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
डायरी पढ़ने के बाद सब-इंस्पेक्टर शशिकान्त ने एक नजर लाश पर डाली—कमरे की छत के बीचों-बीच शायद सीलिंग फैन लगाने के लिए लोहे का कुन्दा लगाया गया था, मगर इस वक्त उसमें पंखा नहीं, एक रस्सी लटक रही थी।
रस्सी के निचले सिरे पर फंदे में मुकेश की लाश।

लाश के मुंह पर एक कपड़ा बंधा था, जो इस वक्त ढीला था, मुंह में ठुंसी ढेर सारी रुई का छोटा-सा हिस्सा नजर आ रहा था।
गले की नसें फंदे के कसाव के कारण फूली हुई थीं।
चेहरा पीला जर्द और निस्तेज।

पलकों के किनारों पर आंखें इस कदर लटकी हुई थीं जैसे यदि लाश को जरा भी हिलाया-डुलाया गया तो 'पट्ट' से जमीन पर गिर पड़ेंगी।
फर्श पर एक स्टूल लुढ़का पड़ा था।

कमरे में मौजूद एकमात्र चारपाई की 'अदवायन' गायब थी, बल्कि यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि 'अदवायन' लोहे के कुन्दे और लाश की गर्दन के बीच नजर आ रही थी।

जाने कहां से आकर लाश पर कई मक्खियां भिनभिनाने लगीं।

कमरे के अंदर दो कांस्टेबलों और शशिकान्त के अलावा कोई न था—हां, बाहर गली में जरूर हजूम इकट्ठा हो गया था।

मात्र एक व्यक्ति के रोने के आवाज गली से यहां तक आ रही थी और सब-इंस्पेक्टर शशिकान्त जानता था कि यह आवाज अलका की है।

बाहर तीन पुलिसमैन लोगों को कमरे में घुसने से रोकने के लिए तैनात थे और नजरों ही से लाश का निरीक्षण करने के बाद शशिकान्त एक कांस्टेबल से कुछ कहना चाहता था कि चांदनी चौक थाने के इंचार्ज इंस्पेक्टर महेश विश्वास ने कमरे में कदम रखा।
कांस्टेबलों सहित शशिकान्त ने सैल्यूट किया।

महेश विश्वास के साथ पुलिस फोटोग्राफर और फिंगर प्रिन्ट एक्सपर्ट भी थे—कमरे में पहुंचते ही सबकी नजरें लाश पर ठहर गईं।

कुछ देर बाद।
फिंगर प्रिन्ट्स विशेषज्ञ और फोटोग्राफर अपने-अपने काम में मशगूल हो गए। महेश विश्वास ने शशिकान्त से पूछा—"कोई खास बात?"

"चारपाई से यह डायरी और एक पैन मिला है, सर।"

शशिकान्त ने रुमाल से पकड़ी डायरी दिखाते हुए बताया।

"पैन कहां है?"

"चारपाई पर ही पड़ा है, सर।" शशिकान्त ने इशारा किया—"उसे मैंने छेड़ा नहीं है, डायरी उठाने और पढ़ने में भी मैंने सावधानी बरती है कि फिंगर प्रिन्ट्स न मिट पाएं।"

"कोई सुसाइड़ नोट लिखा है?"

"काफी लम्बा है सर।"

फिंगर प्रिन्ट्स एक्सपर्ट को डायरी और पैन से उंगलियों के निशान लेने के हुक्म देने के बाद महेश विश्वास ने सवाल किया—"क्या लिखा है?"

"यूं नोट तो बहुत लम्बा है, सर, स्वयं पढ़ने से ही आप सबकुछ समझ पाएंगे, लब्बो-लुआब ये है कि मकतूल ने आत्महत्या की बात को कबूल करते हुए जिम्मेदार अपने भाई सुरेश को ठहराया है।"

"क्या मतलब?" महेश विश्वास चौंका।

शशिकान्त ने डायरी में लिखीं बातों का सारांश इंस्पेक्टर को बता दिया, सुनने के बाद महेश विश्वास ने पूछा—"क्या सुरेश का पता कोई जानता है?"

"जी हां—प्रत्येक केस में वही मिक्की की जमानत कराता था, अतः थाने के रजिस्टर में उसका पता दर्ज है।"

महेश विश्वास ने एक कांस्टेबल से कहा— "तुम थाने जाओ, रजिस्टर से इसके भाई का 'एड्रेस' लो और उसे तुरन्त यहां लेकर आओ।"

"ऑलराइट सर।" कहने के बाद कांस्टेबल ने एड़ियां बजाईं और बाहर निकल गया। महेश विश्वास ने कहा— "अब तक की कार्यवाही का संक्षेप में विवरण दो।"

"करीब साठ मिनट पहले मौहल्ले के एक व्यक्ति ने थाने फोन करके वारदात की सूचना दी—जब हम यहां पहुंचे, तब गली में जबरदस्त भीड़ थी—पता लगा कि अलका के काफी खटखटाने.....।"

"कौन अलका?"

"इस मकान के सामने वाले मकान में किराए का एक कमरा लेकर रहती है, सर लालकिले पर लोगों को पानी पिलाती है।"

"उसने मिक्की के कमरे का दरवाजा क्यों खटखटाया?"
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06-13-2020, 12:58 PM,
#16
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"सारा मौहल्ला कहता है सर और कुछ-कुछ पुलिस को भी भनक है कि मिक्की के अलका से नाजायज ताल्लुकात थे, हालांकि डायरी के मुताबिक यह बात गलत है, मगर मिक्की ने स्वीकारा है कि अलका इससे प्यार करती थी और शादी भी करना चाहता थी.....शायद वह इसी नाते सुबह-सुबह दरवाजे पर पहुंची।"

"खैर, फिर?"

"काफी खटखटाने के बावजूद जब दरवाजा नहीं खुला तो अलका घबरा गई, वह पागलों की तरह चीख-चीखकर दरवाजा तोड़ने की असफल कोशिश करने लगी—उसकी ऐसी अवस्था देखकर लोग जुट गए और फिर जब किसी के भी प्रयास से दरवाजा नहीं खुला तो थाने फोन किया गया।"

टूटे हुए दरवाजे को देखते हुए महेश विश्वास ने कहा— "यानी दरवाजा अन्दर से बन्द था और यहां पहुंचने के बाद इसे तुमने स्वयं तोड़ा है?"

"जी हां।"

"उसके बाद?"

"इस डायरी के अलावा अभी तक मैंने किसी वस्तु को हाथ नहीं लगाया, अतः स्थिति यथापूर्व है.....मौहल्ले के दो व्यक्तियों ने मिक्की को कल शाम सात बजे अपने कमरे का ताला खोलते देखा था।"

"इसके बाद किसी ने नहीं देखा?"

"अलका मिक्की से मिली थी।"

"कब?"

"रात नौ बजे, अपना काम बंद करके लालकिले से लौटी थी, मिक्की के कमरे में रोशनी देखकर अपने कमरे में जाने की बजाय इधर आ गई—दरवाजा बिना खोले मिक्की ने अलका को टालना चाहा, परन्तु अलका न टली—अन्ततः उसे दरवाजा खोलना पड़ा।"

"फिर?"

"अलका के अनुसार उस वक्त डायरी में वह कुछ लिख रहा था—उसने कहा कि वह काम कर रहा है, डिस्टर्ब न करे, मगर अपनी आदत के मुताबिक अलका नहीं मानी—उसे छेड़ती रही और अचानक वह बहुत गुस्से में आ गया—अलका का कहना है कि मिक्की को इतने गुस्से में उसने पहले कभी नहीं देखा।"

"क्या मिक्की ने अलका से कोई ऐसी बात कही थी जिससे उसकी मनःस्थिति का आभास मिलता हो?"

"जी—मिक्की ने कहा था कि तू मुझे बहुत परेशान करती है, कल से देखूंगा किसे परेशान करेगी—यह बताने के बाद अलका दहाड़े मार-मारकर रो रही है
—ठीक ऐसे अन्दाज में सर, जैसे किसी औरत का सुहाग उजड़ गया हो—रोने के बीच वह बार-बार चिल्लाए जा रही है कि रात में मिक्की के वाक्य का मतलब नहीं समझ पाई थी, क्या हो गया था मेरे मगज को?"

"वह अपने कमरे में कब लौटी?"

"दस मिनट बाद सर—जब उसने महसूस किया कि मिक्की सचमुच गुस्से में है तो सुबह बात करने के लिए कहकर चली गई।"

"किसी अन्य मौहल्ले वाले ने कोई ऐसी बात कही, जिससे इस वारदात पर कोई रोशनी पड़ती हो?"

"मकान मालिक का बयान है कि कल दोपहर अलका ने उसे मिक्की के कमरे का किराया दिया था—उसने यह बताया कि रात करीब तीन बजे वह टॉयलेट के लिए उठा, उस वक्त मिक्की के कमरे की लाइट ऑन थी।"

"वह तो अब भी ऑन है।" महेश विश्वास ने बल्ब की तरफ देखा।

शशिकान्त ने बताया—"यह हमें इसी पोजीशन में मिला है सर।"

"मिलना भी चाहिए था, मकतूल की आत्महत्या के बाद इसे 'ऑफ' कौन करता?" बड़बड़ाने के बाद महेश विश्वास ने कहा— "मगर लाश के मुंह में ठुंसी रूई और उसके ऊपर बंधे कपड़े का अर्थ समझ में नहीं आ रहा।"

"यह शायद उस योजना का अंग है सर, जिसके बारे में मकतूल ने डायरी में लिखा है।"

"क्या मतलब?"

"मिक्की को अपने नसीब से खतरा था, डर था कि कहीं आत्महत्या के प्रयास में भी विफल न हो जाए, अतः यह काम भी उसने अपनी आदत के मुताबिक पूरी योजना बनाकर किया—इतना वह समझता होगा कि जब दम घुटेगा तो न चाहते हुए भी हलक से चीखें निकलेंगी—उसे डर होगा कि कहीं चीखें सुनकर कोई बचाने न आ जाए—सो, हलक से चीखें न निकलने का इन्तजाम कर लिया—मुंह में रूई ठूंसी, उसके ऊपर कसकर कपड़ा बांधा—कपड़ा इस वक्त थोड़ा ढीला है—जो जाहिर करता है कि जब दम घुट रहा था तो उसने अपने हाथों से इसे खोलने की कोशिश की।"

"यह बहुत स्वाभाविक है, आत्महत्या करने वालों के साथ हमेशा यही होता है कि अन्तिम क्षणों में जब उसका दम निकल रहा होता है तो खुद को बचाने के लिए हाथ-पैर मारता है।"
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06-13-2020, 12:58 PM,
#17
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"आत्महत्या के लिए तैयार की गई मिक्की की स्कीम से जाहिर कि वह इस मनोविज्ञान से वाकिफ था, उसने इस बात के कड़े इन्तजाम कर लिए कि अन्तिम समय में कोशिश के बावजूद अपने-आपको न बचा सके।"

"इस बार वह अपने नसीब को शिकस्त देने में कामयाब हो ही गया सर।"

"शायद यही होना था, ऐसे बदमाशों का अन्त यही होता है शशिकान्त—या तो वे अपने चारों ओर खुद पैदा किए गए हालातों से घबराकर आत्महत्या कर लेते हैं अथवा इन्हीं का कोई संगी-सीधा इनका कत्ल कर देता है।"

शशिकान्त ने वह सवाल किया जिसका जवाब जानने की जिज्ञासा डायरी पढ़ने के बाद से ही उसे थी—"क्या इसके भाई पर कोई केस बनता है सर?"

"शायद नहीं।"

"म.....मगर क्यों नहीं सर?" शशिकान्त ने पूछा—"मिक्की ने डायरी में बिल्कुल साफ-साफ लिखा है कि मौत का जिम्मेदार सुरेश है।"

"इस आधार पर सिर्फ केस चल सकता है, मगर उससे कुछ होगा नहीं।"

"क्यों?"

"जिस घटना और जिन विचारों को लेकर मकतूल ने अपनी मौत की जिम्मेदारी सुरेश पर डाली है, वे दमदार नहीं हैं—सुरेश का उसे पैसा देने से इन्कार करना कोई जुर्म नहीं है, क्योंकि मकतूल का उस पर कुछ चाहिए नहीं था।"

"उस लॉजिक को कैसे भूला जा सकता है सर, जो मिक्की ने स्वयं डायरी में लिखा है, यह कि शुरू में सुरेश पैसा देकर उसकी जरूरतें बढ़ाता रहा और जब जरूरतें नाक तक पहुंच गईं तो पैसा देना बन्द कर दिया—एक तरफ वह मिक्की की जमानत कराता है, दूसरी तरफ अपने घर में अपमान करता है, क्या ये सब बातें किसी को इस हद तक परेशान करने की गवाह नहीं हैं कि मजबूर होकर वह आत्महत्या कर ले?"

"बकवास।" महेश विश्वास बुरा-सा मुंह बनाकर बोला— "मकतूल के जीवन की हर घटना की पीछे सिर्फ और सिर्फ वह 'कुण्ठा' है जो उसने जानकीनाथ द्वारा सुरेश को गोद लिए जाने से स्वयं अपने दिमाग में पाल ली—उसके दिलो-दिमाग में यह बात जम गई कि नसीब उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और जिसके दिमाग में यह बात बैठ जाए, वह अपने जीवन में कम ही सफल हो पाएगा—कुण्ठाग्रस्त होने की वजह से ही सुरेश का कोई दोष न होते हुए भी वह उससे डाह करने लगा—इस 'डाह' ने ही उसे गुण्डों की सोहबत में डाला, वह गुण्डा बन गया—मकतूल के चारों ओर जो हालात थे, वे सुरेश ने नहीं, खुद मिक्की ने पैदा किए, जब वह आत्महत्या कर रहा था, तब भी खुद को 'कुण्ठा' और सुरेश के प्रति 'डाह' से मुक्त नहीं कर पाया—इसी डाह से ग्रस्त होकर उसने अपनी मौत की जिम्मेदारी सुरेश पर डाली है—जो व्यक्ति सुरेश से ही नहीं बल्कि उसकी हर वस्तु से ईर्ष्या करता था, क्या उसके बारे में यह नहीं चाहेगा कि मुझे आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने के आरोप में बंधा-बंधा फिरे?"

"आप मकतूल के अन्तिम बयान पर शक रहे हैं, सर जबकि माना यह जाता है कि बुरे-से-बुरा व्यक्ति कम-से-कम मरते वक्त सच बोलता है।"

"हमने यह नहीं कहा कि उसने 'झूठ' लिखा है, बल्कि सिर्फ यह कि 'ठीक' नहीं लिखा।" महेश विश्वास ने कहा— "इसमें शक नहीं कि जब इंसान को यह मालूम हो कि जो कुछ वह लिख रहा है, उसके बाद मरने वाला है तो बेहद भावुक हो उठता है और भावुक व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ सच लिखता है, मगर यहां यह बात गौर करने वाली है शशिकान्त कि जो बात उसके नजरिए से 'ठीक' है, जरूरी नहीं कि 'ठीक' ही हो—मिक्की ने डायरी पूरी ईमानदारी से लिखी है क्योंकि इसमें सुरेश का पक्ष भी है, अगर लिखना चाहता तो यह भी लिख सकता था कि सुरेश ने ही मुझे साफ-साफ आत्महत्या करने के लिए कहा, मगर ऐसा उसने नहीं लिखा—सो जाहिर है कि उसने झूठ नहीं लिखा—अपनी मौत की जिम्मेदारी उसने सुरेश पर सिर्फ अपने नजरिए से डाली है और हम उस नजरिए से सहमत नहीं है, क्योंकि यह नजरिया एक 'कुण्ठाग्रस्त' व्यक्ति का उसके प्रति है, जिससे वह 'डाह' करता था।''

"यहां आकर तो बात उलझ गई, सर।" शशिकान्त ने कहा— "आप मिक्की के नजरिए से सहमत नहीं हैं किन्तु मुमकिन हैं कि मैं हूं।"

"यह तो तुम मानते हो न कि प्रत्येक हत्या के पीछे कोई वजह जरूर होती है?"

"यकीनन, सर।"

"अगर यह हत्या है, अगर सुरेश ने मिक्की को आत्महत्या के लिए विवश किया, तो क्या तुम बता सकते हो कि वह ऐसा किसलिए करेगा—मिक्की के मर जाने से उसे क्या लाभ होने वाला है?"

शशिकान्त बगलें झांकने लगा।
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06-13-2020, 12:58 PM,
#18
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
गली इतनी संकरी थी कि उसमें मर्सड़ीज दाखिल नहीं हो सकती थी, अतः वर्दीधारी ड्राइवर ने गाड़ी गली के सिरे पर ही रोक दी।

कांस्टेबल के साथ सुरेश बाहर निकला।

इस वक्त उसके चेहरे पर हर तरफ वेदना-ही-वेदना थी, आंखें रह-रहकर भर आतीं और अपने जबड़े उसने सख्ती के साथ भींच रखे थे—साफ जाहिर था कि वह अन्दर से फूट पड़ने वाली रुलाई को रोकने का भरपूर प्रयत्न कर रहा था।

गली में लगी भीड़ को चीरते हुए वे आगे बढ़े।

मुकेश के कमरे के बाहर अलका के मार्मिक रूदन से सारी गली दहल रही थी—सुरेश ने देखा कि कुछ लोगों ने उसे पकड़ रखा है—मस्तक से बहता खून अलका के सारे चेहरे पर फैल चुका था—जाहिर था कि उसने अपना सिर पटक-पटककर दीवारों में मारा है।

तभी लोगों ने उसे पकड़ा होगा।

इस वक्त भी वह दहाड़े मार-मारकर रो रही थी—लोगों की गिरफ्त से निकलने के लिए बुरी तरह मचल रही थी वह—जाने क्या—क्या चीख रही थी।
उसकी हालत देखकर सुरेश की आंखें भर आईं, होंठ कांपे और शीघ्र ही अपने जबड़ों को भींचे वह आगे बढ़ गया—अभी मुकेश के दरवाजे से दूर ही था कि एक इंसान हवा में लहराता नजर आया।

सुरेश के चेहरे पर इतना जबरदस्त घूंसा पड़ा कि न सिर्फ हलक से चीख निकल गई, बल्कि यदि भीड़ ने न संभाल लिया होता तो वह गली में गिर जाता।
अभी सुरेश कुछ समझ भी न पाया था कि—कुल तीन फुट लम्बाई वाले ने बिजली की-सी गति से उछलकर उसके सीने पर फ्लाइंग किक मारी—सुरेश के कण्ठ से एक और चीख निकल गई।
इस बार वह गली में गिर गया।

तीसरा वार करने से पहले ही कांस्टेबल और मुहल्लेवासियों ने रहटू को दबोच लिया और उनके बंधनों से निकलने का असफल प्रयास करता हुआ रहटू हलक फाड़कर चिल्लाया—"छोड़ दो मुझे, मैं इसका खून पी जाऊंगा—इसी ने मिक्की को मारा है, ये हत्यारा है मेरे यार का।"

सुरेश खड़ा हुआ।
तीन फुटे पर नजर पड़ने के बाद उसे अपने कपड़ों से धूल तक झाड़ने का होश न रहा.....गुस्से से तमतमाए रहटू के चेहरे और अंगारा बनी उसकी आंखों पर नजर पड़ते ही सुरेश के समूचे जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ गई।

मौत की सिहरन।

लगा कि ये छोटे-से कद का व्यक्ति उसे कच्चा चबा जाएगा।

उसके पहले हमले से सुरेश का होंठ कट गया था, वहां से खून बह रहा था—रहटू को विचित्र निगाहों से देख रहा था वह—और तीन फुटा अब भी अपने उक्त शब्द दोहराता हुआ मुक्त होने की पुरजोर कोशिश कर रहा था।

रहटू के शब्द सुनकर अलका रोना भूल गई।
वह भी इधर ही देख रही थी।

शायद ठीक से अभी कुछ समझ भी न पाई थी कि कमरे के दरवाजे के प्रकट हुए शशिकान्त ने ऊंची आवाज में पूछा—"क्या बात है, क्या हो रहा है वहां?"

"रहटू मिस्टर सुरेश को मिक्की का हत्यारा बता रहा है, सर।" कांस्टेबल ने कहा— "इसने मिस्टर सुरेश पर हमला भी किया है।"

सन्नाटा छा गया।

सुरेश अब भी अजीब नजरों से उस तीन फुटे आफत के पुतले को देख रहा था कि शशिकान्त ने कहा— "रहटू को भी अंदर ले आओ।"

कांस्टेबल ने हुक्म का पालन किया।

सुरेश ने जेब से रूमाल निकाला, होंठों से बहता हुआ खून पोंछने के बाद वह दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
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"खामोश!" इंस्पेक्टर महेश विश्वास इतनी जोर से दहाड़ा कि लगातार चीख रहे रहटू की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई—समूचा अस्तित्व कांप उठा उसका—चुपचाप, एकटक महेश विश्वास की ओर देखता रह गया।

"होश में आओ।" महेश विश्वास ने अपेक्षाकृत शांत स्वर में कहा— "और आदमी की तरह बताओ कि किस आधार पर मिस्टर सुरेश को हत्यारा कह रहे हो?"

"स.....साहब—ये आदमी उसका भाई नहीं दुश्मन है—भला ऐसा भी दुनिया में कोई भाई होगा जो खुद मौज उड़ाता रहे, बड़ा भाई कंगला बना घूमता रहे और छोटा उसकी मदद न करे?"

"मगर हमें पता लगा है कि मिस्टर सुरेश मिक्की की मदद करते थे। "

"वह पुरानी बात है साहब, मैं मिक्की का दोस्त हूं—वह अपने दिल की सारी बातें मुझे बताता था—करीब दो महीने पहले वह इससे दो हजार रुपये मांगने गया था, मगर इसने नहीं दिए, जबकि ये कमीना करोड़पति है, दो हजार की इसके लिए कोई अहमियत नहीं है।"

"हम ये पूछ रहे हैं कि तुम इन्हें मिक्की का हत्यारा क्यों कह रहे हो?"

"कल मिक्की बहुत परेशान था साहब.....वह अपनी घटिया और जुर्म से भरी जिन्दगी को छोड़कर शराफत और ईमानदारी की जिन्दगी अपनाना चाहता था—वह अलका से शादी करना चाहता था साहब।"

"फिर?"

"दिक्कत यह थी कि वह लोगों का कर्जमन्द था, कर्जमुक्त होने के लिए उसने अपने जीवन का अन्तिम गुनाह मानकर मेरठ में ठगी की, परन्तु पकड़ा गया—उस तरफ से निराश होने के बाद पूरी तरह निराशा में डूबा वह आत्महत्या की बात कर रहा था, यह उसकी आखिरी उम्मीद थी साहब, आज जब मेरे यार की लाश आंखों के सामने पड़ी है तो मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस जलील आदमी ने मिक्की की मदद न की होगी—इसकी तरफ से निराश होने के बाद ही मिक्की ने आत्महत्या की है, अगर इसने दस हजार रुपये दे दिए होते तो मिक्की कभी न मरता।"

डायरी का कोई जिक्र न करते हुए महेश विश्वास ने सुरेश से कहा— "क्यों मिस्टर सुरेश, क्या रहटू ठीक कह रहा है?"

"जी हां।" अजीब से स्वर में एक झटके से कहने के बाद मुकेश की लाश की तरफ देखा, फोटोग्राफर और फिंगर प्रिंट्स विभाग का कार्य पूरा होने के बाद लाश को कुन्दे से उतारकर फर्श पर लिटा दिया गया था—चेहरे पर दर्द-ही-दर्द लिए वह लाश के समीप पहुंचा, घुटनों के बल उसके नजदीक बैठा और निरन्तर मिक्की के निस्तेज चेहरे की ओर देखता हुआ बोला— "ये आदमी ठीक कह रहा है इंस्पेक्टर, मिक्की का हत्यारा मैं ही हूं।"

"क.....क्या मतलब?" महेश विश्वास उछल पड़ा।

"कल ये मेरे पास दस हजार रुपये मांगने आए थे—वह सब भी कहा था जो रहटू कह रहा है, मगर मैंने सच नहीं माना, अपने ही नशे में रहा मैं—सोचता रहा कि मुझसे शराब और जुए के लिए दस हजार ठग रहे हैं.....मैंने इनकी एक न सुनी, जो सुनी उस पर यकीन न मानकर अपनी ही सोचों को सही माना—और न सिर्फ रुपये नहीं दिए, बल्कि अपने घर से निकल जाने के लिए भी कहा।"

"इसका अपमान क्यों किया आपने?"
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06-13-2020, 01:03 PM,
#19
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"वह मेरे बेवकूफाने 'ट्रीटमेण्ट' का ही एक हिस्सा था।"

"ट्रीटमेण्ट?"

"हां इंस्पेक्टर।" वह एक झटके से महेश विश्वास की ओर देखकर बोला— "अपनी समझ में मैं ट्रीटमेण्ट ही कर रहा था—कल तक की सोचों के अनुसार वह ठीक भी था मगर आज......आज यहां भइया की इस लाश को देखकर समझ में आ रहा है कि वह ट्रीटमेण्ट नहीं बेवकूफी थी.....सनक थी मेरे दिमाग की।"

"हम समझे नहीं।"

"अपने मरहूम बाबूजी के चन्द शब्द याद करके मैंने आज से करीब दो महीने पहले मिक्की का ट्रीटमेण्ट शुरू किया था—मैं भइया को सुधारना चाहता था, इनकी हालत देख-देखकर मुझे दुख होता था—ट्रीटमेण्ट का तरीका इस सोच पर आधारित था कि शायद भइया इसीलिए कोई काम नहीं करते क्योंकि मैं उनकी हर जरूरत पूरी कर देता हूं—सोचा कि शायद मेरी मदद बन्द होने पर ये काम करने पर मजबूर हो जाएं और इसीलिए.....।"

"ये बकता है, साहब।" रहटू गुर्रा उठा—"ऐसा यह पैसा न देने की बात पर पर्दा डालने के लिए कहता है—अगर मदद न देने वाली बात थी तो इससे पूछिए कि परसों कोर्ट में इसके वकील ने मिक्की की जमानत क्यों कराई?"

"भावुकतावश मैंने ऐसा किया था, उस वक्त यह भी महसूस नहीं किया कि मैं गलती कर रहा हूं.....वह तो कल जब भइया ने कहा कि कोर्ट में जमानत कराना क्या मेरी मदद नहीं थी तो अहसास हुआ कि भावुकता में बहकर मैं सचमुच अपने ट्रीटमेण्ट के विरुद्ध कदम उठा बैठा—कोई मदद न करने का निश्चय करके अनजाने में अप्रत्यक्ष मदद कर बैठा—उसी क्षण मैंने फैसला किया कि भइया के दिमाग से हमेशा के लिए यह बात निकाल देनी चाहिए कि यहां से भविष्य में कोई मदद मिल सकती है—सो, मैंने उनसे कोठी से निकल जाने के लिए कह दिया—सोचा था कि मेरे ऐसा कहने से उन्हें यकीन हो जाएगा कि मैं भविष्य में कोई मदद करने वाला नहीं हूं, तब शायद कोई काम करने की सोचें—मगर क्या सोचा था—क्या हो गया!"

"ये आदमी झूठ बोल रहा है, सर।"

"तुम चुप रहो।" महेश विश्वास ने रहटू को डांटा।

सुरेश ने कहा, "ये सच है, इंस्पेक्टर कि अगर मैं कल भइया को दस हजार रुपये दे देता तो आज यह सब न होता..... मैं दोषी हूं इंस्पेक्टर, मैं अपने मूर्खाना ट्रीटमेण्ट का शिकार रहा—मैं ही भइया का हत्यारा हूं, मुझे गिरफ्तार कर लीजिए और वही सजा दिलवाइए जो किसी को गोली मारकर हत्या करने पर होती है, उफ.....भइया ने मुझसे कितना कहा था, मैं ही न माना—मूर्ख था मैं—मेरी मूर्खता की सजा मुझे मिलनी ही चाहिए, इंस्पेक्टर।"

महेश विश्वास और शशिकान्त ही नहीं बल्कि रहटू भी उसकी तरफ हैरत से देखता रह गया। महेश विश्वास ने कहा— "सुसाइड नोट के रूप में हमें यहां से मकतूल के हाथ की लिखी एक डायरी मिली है मिस्टर सुरेश, उसमें आपने और रहटू के द्वारा कही.....।"

सुरेश की आंखें चमक उठीं, बोला— "तब तो आपके पास लिखित सबूत भी है इंस्पेक्टर, सचमुच मेरी ही वजह से भइया को आत्महत्या करनी पड़ी।"

"मैं ये चाहूंगा कि इस केस की तहकीकात पूरी होने से पहले आप दिल्ली से बाहर न जाएं, क्योंकि कोई ठोस सबूत मिलने पर आपकी जरूरत पड़ सकती है।"

प्रत्यक्ष में सुरेश खामोश रहा।

मुंह लटकाए पुनः मिक्की की लाश की ओर मुखातिब होकर मन-ही-मन बड़बड़ाया—'ठोस तो क्या, तुम्हें कोई लचीला सबूत भी मिलने वाला नहीं है, बेवकूफ.....तुम तो यह भी नहीं सोच पा रहे हो कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है।'
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रात के करीब ग्यारह बजे।

अपने छोटे-से कमरे में अलका एक ढीली चारपाई पर बिछी गंदी दरी पर लेटी जाने कब से कमरे की छत को निहार रही थी।
ऊपर से देखने पर उस वक्त वह सामान्य नजर आ रही थी।

किन्तु।
ह्रदय बुरी तरह आंदोलित था।

बुरी तरह सूजी हुई आंखें गवाह थीं कि वह लगातार रोती रही है। अब दिल में फंसे आंसू भी शायद सूख चुके थे।

छत पर वीडियो फिल्म के समान वह आज दिन की समस्त घटनाओं को देख रही थी—पोस्टमार्टम के लिए जाती मिक्की की लाश, चीरघर के बाहर का लम्बा और उबाऊ इंतजार, लाश मिलने के बाद उसका दाह-संस्कार।

सबकुछ अलका की आंखों के सामने हुआ था।

मगर फिर भी।
उसे यकीन नहीं आ रहा था कि मिक्की मर चुका है।

जब कोई अपना यूं पलक झपकते ही हमेशा के लिए दुनिया के गायब हो जाए तो यकीन नहीं आता.....अऩ्दर से हूक-सी उठती है।
अलका को उस वक्त ऐसी ही हूकों से लड़ना पड़ रहा था कि अचानक चौंकी।

विचार श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गई। छत पर चलती वीडियो फिल्म गायब।
उसने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा।

दिल में विचार उठा कि कहीं वह उसका भ्रम ही तो न था, मगर नहीं.....अभी वह ठीक से कुछ समझ भी न पाई थी कि दरवाजे पर
पुनः दस्तक उभरी।

अलका चौंककर उठ बैठी।

दरवाजे की तरफ बढ़ी।

एक बार पुनः दस्तक हुई तो ठिठककर उसने दरवाजा खोलने से पहले पूछा—"कौन है?"

"मैं सुरेश हूं अलका, दरवाजा खोलो।"

"स.....सुरेश।" अलका सचमुच उछल पड़ी— "त.....तुम यहां क्यों आए हो?"

बाहर से फुसफुसाकर कहा गया—"प......प्लीज, जल्दी से दरवाजा खोलो.....अगर किसी ने मुझे देख लिया तो.....।"

सुरेश का वाक्य अधूरा रह गया, क्योंकि पूरा होने से पहले ही अलका ने एक झटके से दरवाजा खोल दिया था—स्थिर नजरों से कुछ देर तक वह सुरेश को देखती रही, सुरेश भी लगातार उसे देख रहा था, फिर एकाएक अलका ने रूखे स्वर में पूछा—"क्या बात है?"

"मैं अन्दर आना चाहता हूं, कुछ जरूरी बातें करनी हैं।"

"किस बारे में?"

"मिक्की की मौत के बारे में।"

अलका के चेहरे पर फैली उदासी कुछ और बढ़ गई और बोली— "सारा खेल खत्म हो चुका है सुरेश बाबू—अब उस बेदर्द छाकटे के बारे में कोई बात करने से क्या फायदा?"

"मुझे कुछ अजीब बातें पता लगी हैं।"

"क.....क्या?"

"बातें लम्बी हैं, यहां खड़े-खड़े नहीं बताई जा सकतीं।"

संदिग्ध निगाहों से देखती हुई अलका ने जाने क्या सोचा, फिर बिना कुछ बोले अन्दर का रास्ता दिया—अन्दर कदम रखते हुए सुरेश की आंखों में अजीब चमक थी—अलका न देख पाई, वर्ना समझ जाती कि यह धूर्त व्यक्ति उसे पाना चाहता है।

दरवाजा भिड़ाकर वह घूमी ही थी कि सुरेश ने कहा— "चटकनी चढ़ा लो।"

"क......क्यों?" अलका चौंकी।

"अगर किसी ने मुझे यहां देख लिया तो जाने क्या सोचने लगे।"
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06-13-2020, 01:03 PM,
#20
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"कोई नहीं आएगा।" अलका ने कुछ ऐसे सख्त अंदाज में कहा कि चाहकर भी सुरेश कुछ न बोल सका—हां, अलका को विशिष्ट दृष्टि से उसने देखा जरूर और मर्द की दृष्टि से ही उसके समूचे इरादों को भांप लेने वाले नारी सुलभ गुण के कारण अलका भांप गई कि वह उस पर बुरी नजर रखता है।
अलका के सारे जिस्म में चिंगारियां सुलग उठीं।

मुखड़े पर नफरत के चिन्ह उभर आए, उसकी नजरों से सम्बन्धित कोई बात न करके पूछा—"मिक्की की मौत के बारे में क्या बात थी?"

"भइया के पास आने पर तुम्हें कई बार देखा, महसूस किया और भइया ने बताया भी कि तुम उससे बेइन्तहा प्यार करती थीं—मगर आज से पहले कभी यकीन न कर सका—सोचा करता था कि भइया तुम्हें लेकर भ्रमित हैं, आज तुम्हारा विलाप देखकर मेरा भ्रम टूटा.....तुम सचमुच मिक्की भइया को बहुत प्यार करती थीं।"

"और आप शायद बिल्कुल नहीं।" अलका ने कटाक्ष किया।

"क.....क्या मतलब?" सुरेश बौखला गया।

लगातार उसे घूरती रही अलका बोली— "अंत्येष्टि तक तो आपके चेहरे पर थोड़ा-बहुत दर्द था भी सुरेश बाबू, मगर इस वक्त 'अफसोस' तक नहीं है, इससे लगता है कि दिन में भी आप सिर्फ एक्टिंग कर रहे थे।"

"ऐसा न कहो, अलका।" उसने घबराकर अपना चेहरा दूसरी तरफ घूमा लिया—जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकाला, सोने के लाइटर से सिगरेट सुलगाने के बाद कमरे के वातावरण को दूषित करता हुआ बोला— "मिक्की भइया की मौत का सबसे ज्यादा आघात मुझे लगा है।"

"क्यों?"

"क्योंकि मैं खुद को उनका हत्यारा समझता हूं।"

अलका ने जहरीले स्वर में पूछा—"क्यूं भला?"

"भूल मुझसे हुई, मैंने उनकी बातों पर यकीन न किया—अगर मैं उन्हें दस हजार रुपये दे देता तो ऐसा कभी न होता, अलका।"

"जो आरोप सामने वाला आप पर लगा सकता है।" अलका के होंठों पर कुटिल मुस्कान उभर आई—"उसे पहले ही, अपने मुंह से कहकर 'हल्का' कर देने के हुनर में आप अमीर लोगों को महारत हासिल होती है।"

"ऐसा मत कहो, अलका।"

"आप भी ये बेमानी बातें छोड़िए सुरेश बाबू।" अलका ने रुखाई के साथ कहा— "वे बातें करो जिनके लिए आए थे—मुझे सबकुछ मालूम है, वह भी जो मिक्की ने किया और वह भी जो आपने किया—हालांकि मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है—मिक्की का आप पर कोई पैसा चाहिए नहीं था जो आप उसे देते, मगर रहटू के सोचने का अंदाज दूसरा है, वह आपको मिक्की का हत्यारा मानता है और मुझे पूरा यकीन है कि यदि आप इस तरह उसके सामने अकेले पहुंच गए तो वह अपने दोस्त की मौत का बदला लेकर ही रहेगा—भले ही कानून उसे फांसी पर क्यों न चढ़ा दे।"

सुरेश ने विषय परिवर्तन किया—"मैं तुम्हारे पास एक प्रस्ताव लेकर आया था।"

"प्रस्ताव?"

"हां—मुझे यकीन है कि तुम उस प्रस्ताव को कबूल कर लोगी, क्योंकि मेरे पास वह सबकुछ है जिसकी एक लड़की कल्पना किया करती हैं—बेहिसाब दौलत, कोठी, विदेशी कारें, एक-से-एक कीमती कपड़ा, जेवर, नौकर-चाकर—ऐसी कोई चीज नहीं अलका जो मेरे पास न हो।"

अलका के नेत्र सिकुड़ गए, सबकुछ समझकर भी उसने एकदम से जाहिर न किया, बोली— "कहना क्या चाहते हो सुरेश बाबू?"

"म.....मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।"

अलका का समूचा जिस्म मानो आग की लपटों में घिर गया, जबड़े भींचकर बड़ी मुश्किल से उसने गुस्से पर काबू पाया। फिर भी, मुंह से गुर्राहट निकल ही पड़ी—"आप शादीशुदा होकर भी ऐसी बात कह रहे हैं, सुरेश बाबू, विनीता का क्या होगा?"

"म.....मैं उससे तालाक ले लूंगा।"

"तलाक?"

"हां, इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं आएगी, क्योंकि विनी भी मुझ पसन्द नहीं करती—किसी अन्य को चाहती है वह—किसी एक को नहीं बल्कि अनेक लोगों को, वह आधुनिक और आजाद ख्यालों वाली औरत है—तलाक में दिक्कत तब आती है जब एक पक्ष असहमत हो—मैं जानता हूं कि मेरे से तलाक का प्रस्ताव रखते ही विनी स्वीकार कर लेगी, क्योंकि मेरे साथ बंधकर शायद वह भी कैद महसूस करती है।"

जहर बुझा स्वर—"मुझे आपसे सहानुभूति है सुरेश बाबू मगर.....।"

"मगर— ?"

"आपने कैसे सोच लिया है कि मैं 'कैद' में रहना पसन्द करूंगी?"

"मुझे मालूम है कि तुम उसे 'कैद' ही समझोगी।'' सिगरेट में हल्का-सा कश लगाने के साथ ही वह चहलकदमी करता हुआ बोला— "दरअसल मैं इसी मामले में मिक्की से रश्क करता था, आज उसके लिए तुम्हारा विलाप देखकर यह 'रश्क' चरम सीमा पर पहुंच गया—मुझे तुम जैसी बीवी की, टूट-टूट कर प्यार करने वाली बीवी की जरूरत है। न तो विनी ही मुझे सच्चा प्यार दे सकी, न मैं विनी को—बस.....मेरे पास यही एक कमी है, प्यार करने वाली पत्नी नहीं है मेरे पास—और इस कमी को तुम दूर कर सकती हो।"

अलका बड़े ही अजीब स्वर में कह उठी—"आप मिक्की की बेवा से यह बात कह रहे हैं।"

"ब.....बेवा?"

"जी हां, आपके बड़े भाई की विधवा हूं मैं।"

"म.....मगर।" सुरेश बुरी तरह बौखला गया—"तु.....तुम भला विधवा कैसे हो सकती हो, म......मिक्की भइया से तुम्हारी शादी थोड़ी हुई थी?"

"उससे ज्यादा प्रामाणिक पति कोई नहीं होता जिसे लड़की अपने दिल से पति मान ले।"

आंखों में हैरत का सागर लिए सुरेश उसे देखता रह गया, चाहकर भी वह कुछ बोल न सका—जुबान तालू से जा चिपकी थी, जबकि अलका जख्मी नागिन के समान बल खाकर फुंफकारी—"पैसे वालों से बड़ा मूर्ख मैंने इस दुनिया में नहीं देखा, उसे मूर्ख नहीं तो और क्या कहा जाए सुरेश बाबू जो पैसे को ही सबकुछ समझता हो—अब खुद ही को लीजिए न, आपको पूरा यकीन था कि मैं आपका प्रस्ताव कबूल कर लूंगी क्योंकि आपके पास सबकुछ है।"

सुरेश सिटपिटा गया, मुंह से निकला—"क्या मतलब?"

"आपने शुरू से ही मुझे जिस 'नजर' से घूरना शुरू किया है, उस नजर का मतलब मैं ही नहीं बल्कि हर औरत पल-भर में समझ जाती है—इसके बावजूद मैं नियन्त्रित रही—मगर अब यदि आप एक पल भी यहां ठहरे तो मेरी सहनशक्ति से बाहर हो जाएंगे.....यहां से फौरन चले जाइए, प्लीज—चले जाइए यहां से।"

"म.....मेरी बात तो सुनो, अलका।"

"मुझे कुछ नहीं सुनना।" अलका ने हलक फाड़कर चीखना चाहा—"आप यहां से.....।"

सुरेश ने झपटकर उसके मुंह पर हाथ रख दिया—आगे के शब्द अलका के हलक में घुटकर रह गए—उसे अपनी गिरफ्त में लिए सुरेश दरवाजे की तरफ बढ़ा।

गूं-गूं करती अलका उसके बंधनों से निकलने की पुरजोर कोशिश के बावजूद असफल थी—सुरेश उसे घसीटता हुआ दरवाजे पर पहुंचा, दोनों किवाड़ों के बीच झिर्री पैदा करके बाहर झांका।

गली में सन्नाटा था।

आश्वास्त होने के बाद सुरेश ने दरवाजा बंद करके चटकनी चढ़ाईं, अलका को उसी तरह जकड़े घसीटता हुआ चारपाई तक लाया, बहुत धीमे-से उसके कान में बोला— "मैं सुरेश नहीं मिक्की हूं, बेवकूफ.....मिक्की।"
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