10-12-2020, 01:04 PM,
(This post was last modified: 10-12-2020, 01:34 PM by desiaks.)
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा
(सामाजिक उपन्यास)
Chapter 1
आशा ने एक खोजपूर्ण दृष्टि अपने सामने रखे शीशे पर प्रतिबिम्बित अपने चेहरे पर डाली और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाती हुई अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करने लगी ।
“हाय मैं मर जावां ।”
आशा ने चौंक कर अपने पीछे देखा ।
किचन के द्वार पर सरला खड़ी थी । उसके एक हाथ में चाय के दो कप थे और दूसरे में केतली थी और वह आंखें फाड़ फाड़कर आशा को देख रही थी ।
सरला ने कई बार लगातार अपनी पलकें फड़फड़ाई और फिर अपने निचले होंठ को दांतों के नीचे दबाकर बोली - “हाय मैं मर जावां ।”
“क्या बक रही है, बदमाश !” - आशा झुंझलाये स्वर से बोली - “सवेरे सवेरे क्यों मौत आ रही है तुझे ।”
सरला ने कप मेज पर रख दिये और उनमें चाय उढेंलती हुई बोली - “मुझे क्या, आज तो लगता है बम्बई के सैकड़ों लोगों की होलसेल में मौत आने वाली है । खुद तुम्हारे सिन्हा साहब का अपने बाप की तरह दफ्तर में ही हार्टफेल हो जाने वाला है ।”
सिन्हा साहब फेमससिने बिल्डिंग, महालक्ष्मी में स्थित एक फिल्म डिस्ट्रब्यूशन कम्पनी के मालिक थे और आशा उनकी सेक्रेट्री थी ।
“तू कहना क्या चाहती है ?”
सरला कई क्षण भयानक सी आशा के चांद से चेहरे की घूरती रही और फिर गहरे प्रशंसात्मक स्वर में बोली - “खसमां खानिये, यह लाल साड़ी मत पहना कर ।”
“क्यों ?”
“क्यों ?”- सरला भड़ककर बोली - “पूछती है क्यों ? जैसे तुझे मालूम ही नहीं है क्यों ? मोइये, ऐसे सौ सौ सूरजों की तरह जगमगाती हुई घर से बाहर निकलेगी तो कोई उठाकर ले जायेगा ।”
“उठाकर ले जायेगा !” - आशा मेज के सामने रखी स्टील की कुर्सी पर बैठ गई और चाय का एक कप अपनी ओर सरकाती हुई बोली - “कोई मजाक है ? कोई हाथ तो लगाकर दिखाये । किसकी मां ने सवा सेर सौंठ खाई है जो मुझे...”
“बस कर, बस कर । पहलवान तेरा बाप था, तू नहीं है । साडे अमरतसर में भी एक तेरे ही जैसी लड़की मेरी सहेली थी और वह भी तेरी ही तरह...”
“सरला, प्लीज” - आशा उसकी बात काटकर याचनापूर्ण स्वर से बोली - “सवेरे, सवेरे अगर तुमने मुझे अपने अमृतसर का कोई किस्सा सुना दिया तो सारा दिन मुझे बुरे ख्याल आते रहेंगे ।”
“अच्छा, अमरतसर का किस्सा नहीं सुनाती” - सरला धम्म से आशा के सामने की कुर्मी पर बैठती हुई बोली - “लेकिन मेरी एक बात लिख ले आशा ।”
“क्या ?”
“आज जरूर कुछ होकर रहेगा ?”
“क्या होकर रहेगा ?”
“आज सिन्हा साहब तुम पर हजार जानों से कुर्बान हो जायेंगे ।”
“यह तुम्हारी किसी नई फिल्म डायलाग है ?” - आशा ने मुस्कराकर पूछा ।
“फिल्म की ऐसी की तैसी । मैं हकीकत बयान कर रही हूं ।”
“अच्छी बात है, सिन्हा साहब मुझ पर कुर्बान हो जायेंगे, फिर क्या होगा ?”
“फिर वे मुझे एक बड़ी रंगीन शाम का निमंत्रण दे डालेंगे ।”
“वह तो उन्होंने पहले से ही दिया हुआ है ।”
“अच्छा ! तो यह बात है ।”
“क्या बात है ?”
“इसीलिये आज तू इतना बन ठनकर दफ्तर जा रही है ।”
“मैं तो रोज ही ऐसे जाती हूं ।”
“नहीं ।”- सरला चाय की एक चुस्की लेकर बोली - “आज कुछ खास बात है । रोज तो तू दफ्तर में काम करने जाती है, लेकिन आज तो तू ऐश करने जा रही है ।”
“मैं ऐश करने नहीं जा रही हूं ।” - आशा तनिक गम्भीर स्वर से बोली - “मैं तो एक ड्यूटी भुगताने जा रही हूं ।”
“क्या मतलब ?”
|
|
10-12-2020, 01:04 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“मतलब यह कि सिन्हा साहब रोज मेरे कान खाते थे कि आज पिक्चर देखने चलो, आज फलां होटल में डिनर के लिये चलो, आज फलां क्लब में चलो, आज फलां अभिनेत्री अपने बंगले पर फिल्म इन्डस्ट्री के बड़े बड़े लोगों को पार्टी दे रही है, वहां मेरे साथ चलो, जूहू पर घूमने चलो, यहां चलो, वहां चलो । मैं रोज बहाना बनाकर टाल देती थी लेकिन अब हालत यह हो गई है कि मेरे बहानों का स्टॉक भी खतम हो चुका है और सिन्हा साहब यह समझने लगे हैं कि मैं जान बूझकर उनका निमन्त्रण अस्वीकार करके उनकी तौहीन कर रही हूं । इसलिये दफ्तर की एक लम्बे अरसे से पेंडिंग फाइल निपटाने जैसे अन्दाज से मैं आज सिन्हा साहब के साथ जा रही हूं, ऐश करने नहीं ।”
“क्या प्रोग्राम है ?”
“पहले मैट्रो पर फिल्म देखने जायेंगे, फिर नटराज में डिनर के लिये जायेंगे और उसके बाद सिन्हा साहब अपनी कार पर मुझे वापिस यहां छोड़ जायेंगे ।”
“बीच में कहीं जूहू का प्रोग्राम नहीं है ।”
“नहीं ।” - आशा सहज स्वर में बोली ।
“या फिर सिन्हा साहब के बैडरूम का ?”
“हट बदमाश ।” - आशा एक दम भड़ककर बोली ।
“अच्छा, अच्छा नहीं होगा लेकिन इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि सिन्हा साहब मरते हैं, तुझ पर ।”
“यह कौन सी नई बात कह दी तुमने । सिन्हा साहब क्या अपनी जिन्दगी में सिन्हा साहब का बाप भी मरता था मुझ पर । लाइक फादर, लाइक सन ।”
“क्या मतलब !” - सरला का कप उसके होंठों तक पहुंचता पहुंचता बीच में ही रुक गया - “बाप का क्या किस्सा है ?”
“सिन्हा साहब ने तो दो महीने पहले दफ्तर सम्भाला है, पहले तो इनका आप ही दफ्तर में बैठा करता था ।”
“वह भी मरता था तुम पर ?”
“हां, लेकिन जल्दी ही अपना सारा इश्क भूल गया ।”
“क्या हुआ था ? मुझे सारी बात सुनाओ ।”- सरला उतावले स्वर में बोली ।
“बड़े सिन्हा साहब यह संकेत तो मुझे देते ही रहते थे कि मेरी सूरत का उनके दिल की धड़कन पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ता है लेकिन एक दिन तो उन्होंने हद ही कर दी । दफ्तर बन्द होने से दस मिनट पहले मुझ से बोले कि आज उन्होंने कुछ जरूरी चिट्ठियां डिक्टेट करवानी हैं इसलिये मैं ओवरटाइम के लिये रुक जाऊं । मैं रुक गई । पांच बजे दफ्तर खाली हो गया । उन्होंने मुझे अपने दफ्तर में बुलवा लिया । कुछ देर तो वे सब ही मुझे डिक्टेशन देते रहे और फिर डिक्टेशन बन्द करके लग लहकी बहकी बातें करने ।”
“क्या ?” - सरला और व्यग्र हो उठी । ऐसी बातें सुनने का उसे चस्का था - “क्या बहकी बहकी बातें ।”
“यही कि मैं बहुत खूबसूरत हूं और मेरी खूबसूरती उनका बुरा हाल किये हुये है और अगर मैं उनकी जिन्दगी में रंगीनी लाने से इनकार न करूं तो वे कल ही मुझे जौहरी बाजार या मुम्बा देवी ले चलेंगे और मुझे अपनी पसन्द का हीरों का हार खरीद कर देंगे ।”
“फिर !”
“मैंने बड़ी शिष्टता से उन्हें समझाया कि उन्हें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये लेकिन कौन सुनता था । उन पर तो उस दिन इश्क का भूत सवार था । एकाएक वे उठे और आफिस के द्वार के पास पहुंचे । उन्होंने द्वार को भीतर से ताला लगाया, चाबी अपनी जेब में रखी और वापिस आकर मुझे से जबरदस्ती करने लगे ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? फिर मुझे भी गुस्सा आ गया । मैंने उन्हें गरदन से पकड़ लिया, उनकी तगड़ी मरम्मत की और उनकी जेब से चाबी निकाल ली । मैं उन्हें वही रोता कराहता छोड़कर दरवाजा खोलकर सीधी बाहर निकल गई ।”
“फिर अगले दिन क्या हुआ ?”
“अगले दिन सुबह पहले तो मेरा दफ्तर जाने का फैसला ही नहीं हुआ । मुझे लग रहा था कि अगर मैं दफ्तर गई तो बूढा मुझे बुरी तरह बेइज्जती करके नौकरी से निकालेगा । फिर मैं जी कड़ा करके किसी प्रकार दफ्तर पहुंच ही गई । रोज की तरह चुप चाप अपनी सीट पर जा बैठी और कलेजा थामे बम फटने का इन्तजार करती रही लेकिन कुछ भी नहीं हुआ ।”
“अच्छा !”
“हां बूढे ने हमेशा की तरह मुझे अपने आफिस में बुलाकर डिक्टेशन दी, मैंने चिट्ठियां टाइप करके उसके हस्ताक्षर करवाये । शाम को छुट्टी हुई घर आ गई । अगले दिन फिर यही हुआ । उससे अगले दिन फिर यही हुआ । मुझे नोटिस नहीं दिया गया और बूढे के व्यवहार से यूं लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो ।”
“इतनी तौहीन के बाद भी उसने तुझे नौकरी से क्यों नहीं निकाला, आशा ?” - सरला सोचती हुई बोली ।
“भगवान जाने क्यों नहीं निकाला !”
“शायद उसे अक्ल आ गई हो और अपनी हरकतों पर पछतावा हो रहा हो ।”
“वह ऐसा नेक बूढा नहीं था । सख्त हरामजादा आदमी था वह । मुझे तो नोटिस न मिलने की और ही वजह मालूम होती है ।”
“क्या ?”
“बूढा दूसरी बार पहले से ज्यादा इन्तजाम के साथ मुझ पर हाथ साफ करने की स्कीम बनाये हुये होगा । उसने सोचा होगा कि अगर उसने मुझे नौकरी से निकाल दिया तब तो मैं उसकी पहुंच से एकदम परे हो जाऊंगी । अगर मैं दफ्तर में मौजूद रहूं तो सम्भव है कि कोई ऐसी सूरत निकल आये कि मैं दुबारा उसकी दबोच में आ जाऊं ?”
“अपनी इतनी दुर्गति करवा लेने के बाद भी उसने ऐसा सोचा होगा ?”
“कुछ लोग बड़े प्रबल आशावादी होते हैं ।”
“फिर दुबारा कुछ हुआ ?”
|
|
10-12-2020, 01:04 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“नौबत ही नहीं आई । वैसे मैं भी बड़ी भयभीत थी कि पता नहीं अगली बार बूढा क्या शरारत करे । शायद गुंडों का सहारा ले और मुझे किसी और प्रकार की मुश्किल में डालने की कोशिश करे । उन दिनों मैंने चुपचाप दूसरी नौकरी तालाश करनी आरम्भ कर दी थी । लेकिन तभी भगवान ने सारे बखेड़े का सबसे आसान हल निकाल दिया ।”
“क्या ?”
“बूढे का हार्ट फेल हो गया । वह दफ्तर में ही टें हो गया ।”
“और फिर दफ्तर बेटे के हाथ में आ गया ?”
“हां ।”
“और अब बेटा भी तुझ पर आशिक है ?”
“वह है ।”
“लेकिन तुम नहीं हो ?”
“नहीं ।”
“क्यों ।”
“क्योंकि उसकी लाइन आफ एक्शन भी लगभग वैसी ही है जैसी उसके बाप की थी ।”
“हर्ज क्या है ! बाप तो बूढे होते हैं लेकिन बेटे तो जवान होते हैं ।”
“हर्ज है मुझे हर्ज दिखाई देता है । मुझे गन्दी नीयत वाले मर्द पसन्द नहीं हैं ।”
“नीयत तो दुनिया के हर मर्द के गन्दी होती है लेकिन पैसा किसी किसी के पास होता है ।”
“मुझे पैसे की इतनी चाह नहीं है ।”
सरला कुछ क्षण विचित्र नेत्रों से आशा को घूरती रही और फिर यूं गहरी सांस लेकर बोली, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गई हो - “हाय वे मेरे या रब्बा ।”
“क्या हो गया !” - आशा केतली उठा कर अपने कप में दुबारा चाय उढ़ेलती हुई बोली - “भगवान क्यों याद आने लगा है तुम्हें ?”
“आशा !” - सरला तनिक गम्भीर स्वर से बोली - “सोच रही हूं कि तुम्हारे सिन्हा साहब या उनके बाप जैसे मर्द मुझ से क्यों नहीं टकराते ?”
“तुम्हें उनकी गन्दी हरकतों से कोई ऐतराज नहीं है ?”
“कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते वे अगले दिन मुझे जौहरी बाजार या मुम्बा देवी ले जाकर मेरी मनपसन्द का हीरों का हार खरीद लेने के अपने वादे पर पूरे उतरें ।”
“और अगर वे अपना वादा पूरा न करें ?”
“कोर्ई और तो अपना वादा पूरा करेगा । सारे ही तो बेइमान नहीं होते ।”
“तुम्हें तजुर्बे करते रहने में कोई ऐतराज दिखाई नहीं देता ?”
“नहीं ।” - सरला सहज स्वर में बोली - “आशा, जिंदगी उतनी छोटी नहीं जितनी दार्शनिक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं और जवानी भी मेरे ख्याल से काफी देर टिकती है ।”
“मुझे ऐतराज है ।” - आशा तनिक कठोर स्वर में बोली ।
“क्या ऐतराज है ?”
“मैं कोई ऐक्सपैरिमैन्ट की चीज नहीं जो किसी निजी ध्येय तक पहुंचने की खातिर जिस तिस की गोद में उछाली जाऊं ।”
“क्या हर्ज है अगर जिस तिस की गोद में उछाल मंजिल तक पहुंचने के लिये शार्टकट सिद्ध हो जाये ।”
“मेरी मंजिल इतनी दुर्गम नहीं है कि मैं हर अनुचित परिस्थिति से समझौता करने वाली भावना को मन में पनपने दूं । मैं आसमान पर छलांग नहीं लगाना चाहती ।”
“लेकिन मैं तो आसमान पर छलांग चाहती हूं ।”
“ठीक है लगाओ । कौन रोकता है ? अपनी जिंदगी जीने का हर किसी का अपना अपना तरीका होता है लेकिन एक बात तुम लिख लो ।”
“क्या ?”
“जब कोई इनसान बहुत थोड़ी मेहनत से बहुत बड़ा हासिल करने की कोशिश करता है या वह गलत और भविष्य में दुखदाई साबित होने वाले तरीकों से ऐसी पोजीशन पर पहुंचने की कोशिश करता है, जहां पहुंच कर मजबूती से पांव टिकाये रह पाने की काबलियत उसमें नहीं है तो उसका नतीजा बुरा ही होता है ।”
“तुम बेहद निराशावादी लड़की हो ।” - सरला ने अपना निर्णय सुना दिया ।
“यह बात नहीं है । मैं तो...”
“छोड़ो” - सरला बोर सी होती हुई बोली - “तुम्हारी ये बातें तो मुझे भी निराशावादी बना देंगी और मुझे जो हासिल है, मैं उसी से सन्तुष्ट होकर बैठ जाऊंगी ।”
“और वास्तव में आजकल तुम हो किस फिराक में ?”
“मैं आजकल बहुत ऊंची उड़ाने भरने की कोशिश कर रही हूं और, सच आशा, अगर मेरा दांव लग गया तो मैं वक्त से बहुत आगे निकल जाऊंगी ।”
“किस्सा क्या है ?”
“सच बता दूं ?” - सरला शरारत भरे स्वर से बोली । एक क्षण के लिये जो गम्भीरता उसके स्वर में थी वह एकाएक गायब हो गई थी ।
“और क्या मेरे से झूठ बोलोगी ?”
“आजकल मैं एक बड़े रईस आदमी के पुत्तर को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कर रही हूं ।” - सरला रहस्य पूर्ण स्वर में बोली ।
“आशिक करवाने की कोशिश कर रही हो !” - आशा हैरानी से बोली - “क्या मतलब ?”
“हां और क्या ! आशिक ही करवाना पड़ेगा उसे खुद आशिक होने के लिये तो उसे बम्बई की फिल्म इन्डस्ट्री में हजारों लड़कियां दिखाई दे जायेंगी ।”
“फिर भी वह तुम पर आशिक हो जायेगा ?”
“होगा कैसे नहीं खसमांखाना !” - सरला विश्वासपूर्ण स्वर में बोली - “मैं बहुत मेहनत कर रही हूं उस पर ।”
“लेकिन अभी तुम बम्बई की फिल्म इन्डस्ट्री की हजारों लड़कियों का जिक्र कर रही थी....”
“वे सब मेरे जैसी होशियार नहीं हैं ।” - सरला आत्मविश्वास पूर्ण स्वर में बोली - “मर्द की ओर विशेष रूप से कच्चे चूजों जैसे नये नये नातजुर्बेकार छोकरों को फांसने के जो तरीके मुझे आते हैं, वे उन हजार खसमाखानियों को नहीं आते जो उस छोकरे को फांसने के मामले में मेरी कम्पीटीटर बनी हुई हैं या बन सकती हैं । मैं बहुत चालाक हूं ।”
“तुम तो यूं बात कर रही हो जैसे चालाक होना भी कोई यूनीवर्सिटी की डिग्री हो ।”
“बम्बई में तो डाक्टरेट है । तुम्हारी बी ए की डिग्री के मुकाबले में मेरी यह तजुर्बे की डिग्री ज्यादा लाभदायक है । तुम तो जिन्दगी भर सिन्हा साहब के दफ्तर में या ऐसे ही किसी और साहब के दफ्तर में टाइप राइटर के ही बखिये उधेड़ती रह जाओगी लेकिन मेरी जिन्दगी में कहीं भी पहुंच जाने की अन्तहीन सम्भावनायें हैं ।”
“और बरबाद हो जाने की भी अन्तहीन सम्भावनायें हैं ।”
“आशी” - सरला उसकी बात को अनसुनी करके ऐसे स्वर में बोली जैसे कोई ख्वाब देख रही हो - “शायद किसी दिन तुम्हें सुनाई दे कि तुम्हारी सरला बहुत बड़ी हीरोइन बन गई है या किसी करोड़पति सेठ की बीवी या बहू बन गई है और अब नेपियन सी रोड के महलों जैसे विशाल बंगले में रहती है और...”
“या शायद” - आशा उसकी बात काट कर बोली - “किसी दिन मुझे यह सुनाई दे कि सरला खड़ा पारसा में अपने लगभग मुर्दा शरीर पर धज्जियां लपेटे बिजली के खम्बे से पीठ लगाये फुटपाथ पर बैठी, भीख मांग रही है या वह रात के दो बजे खार की सोलहवीं सड़क पर खड़ी किसी भूले भटके ग्राहक का इन्तजार कर रही है या वह किसी सरकारी हस्पताल के बरामदे में पड़ी किसी बीमारी से दम तोड़ रही है या बरसों के गन्दे समुद्री पानी में एक औरत की लाश के अवशेष पाये गये हैं जो कभी सरला थी या...”
इतनी भयानक बातें सुनकर भी सरला के चेहरे पर शिकन नहीं आई ।
|
|
10-12-2020, 01:04 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“हां” - उसने बड़ी शराफत से स्वीकार किया - “यह भी हो सकता है । लेकिन ये बहुत बाद की बल्कि यूं कहो कि आखिरी हद तक की बातें हैं । फिलहाल मेरे सामने इन बातों का जिक्र मत करो । मेरा सपना मत तोड़ो । मुझे बेपनाह पैसे वाले के संसर्ग, बीस-बीस फुट लम्बी विलायती कारों और मालाबार हिल और जुहू और नेपियन सी रोड और ऐसी ही दूसरी शानदार जगहों के विशाल और खूबसूरत बंगलों के खूब सपने देखने दो ।”
“सपने देखने से क्या होता है ।”
“सपने देखने से बहुत कुछ होता है । सपने देखने से मन में निराशा की भावना नहीं पनपती । सपने देखने से अपने लक्ष्य पर आगे बढने की इच्छा हर समय बनी रहती है । और सब से बड़ी बात यह है कि सपने देखने से अपने आप को धोखा देते रहने में बड़ी सहूलियत रहती है ।”
“तुम अपने आप ही धोखा देती हो ।”
“कौन नहीं देता ?”
“तुम तो फिलासफर होती जा रही हो ।”
“बड़ी बुरी बात है ।”
“बुरी बात क्या है इस में ?”
“फिलासफर होने का मतलब यह है कि मुझ में अकल आती जा रही है । और औरतों को अकल से परहेज रखना चाहिये ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अकल आ जा जाने से बहुत सी बुरी बातें बेहद बुरी लगने लगती हैं । फिल्म उद्योग में तरक्की करने के कई स्वाभाविक रास्ते बेहद गलत लगने लगते हैं । जैसे हीरोइन बनने के लक्ष्य तक पहुंचने का वह रास्ता जो फिल्म निर्माता के बैडरूम से हो कर गुजरता है । इसी प्रकार अकल आ जाने के आप तरकीब का बड़ा ख्याल रखने लगती हैं अर्थात जो काम पहले होना है, वह पहले हो, जो काम बाद में होना है, वह बाद में हो । अक्ल आ जाने पर लड़की यह उलटफेर पसन्द नहीं करती कि हनीमून तो पहले हो जाये और शादी बाद में हो ।”
“बड़ी भयानक बातें करती हो तुम ?”
“बड़ी सच्ची बात करती हूं मैं । जब आप असाधारण नतीजे हासिल करने की कोशिश कर रही हो तो इसके लिये आपको असाधारण काम भी तो करने पड़ेंगे ।”
“इनसान का धर्म इमान भी तो कोई चीज होती है ।”
“कभी होती होगी । अब नहीं होती । अब तो पैसा ही इनसान का धर्म इमान है । आज की जिन्दगी में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही सबसे बड़ा धर्म है ।”
“लेकिन इतनी बड़ी दुनियां में हर कोई तो पैसे वाला नहीं बन सकता ।”
“अगर धन्धा शुरू करने के लिये आपरेटिंग कैपिटल हो, पूंजी हो, तो हर समझदार इनसान पैसे वाला बन सकता है ।”
“तुम्हारे पास तो कोई पूंजी नहीं है फिर तुम...”
“कौन कहता है मेरे पास पूंजी नहीं है ।” - सरला उनकी बात काटकर बोली - “मेरी पूंजी यह है ।”
और उसने बड़े अश्लील ढंग से अपना बायां हाथ अपने शरीर पर घुमा दिया ।
“तुम्हारा शरीर ।”
“हां ।”
“तुम्हें अपने शरीर का सौदा करने में कोई एतराज नहीं है ?”
“अगर माल की अच्छी कीमत मिले तो क्या एतराज हो सकता है ?”
“लेकिन कई बार ऐसा भी तो होता है कि बिजनेस फेल हो जाता है और पल्ले से लगाई हुई पूंजी भी डूब जाती है ।”
“बहुत होता है ।”
“और तुम्हारे साथ भी हो सकता है ?”
“हो सकता है ।”
“फिर तुम क्या करोगी ?”
“फिर मैं वहीं करूंगी जिसका अभी तुमने जिक्र किया था । फिर शायद मैं खड़ा पारसा में अपने मुर्दा शरीर पर धजिज्यां लपेटे भीख मांगा करूंगी या फिर आधी रात के बाद खार की सोहलवीं सड़क पर खड़ी होकर ग्राहकों का इन्तजार किया करूंगी या फिर किसी सरकारी अस्पताल के बरामदे में पड़ी किसी गन्दी बीमारी से दम तोड़ दूंगी और या समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर लूंगी ।”
“लेकिन अपने इरादो से बाज नहीं आओगी ।”
“नहीं ।” - सरला निश्चयात्मक स्वर में बोली - “क्योंकि मुझे अपनी सफलता की बहुत आशायें हैं । मेरी पूंजी मेरे कम्पीटीशन में मौजूद और लोगों के मुकाबले मे ज्यादा बेहतर है और मुझे इस धन्धे की समझ भी और लोगों से ज्यादा है ।”
“अगर वह सेठ का पुत्तर न फंसा तो ?”
“वह नहीं तो कोई और फंसेगा और नहीं तो कोई और फंसेगा । अभी बहुत वक्त है ।”
“वैसे वह तुम्हारे अलावा और भी तो कई लड़कियों पर मरता होगा ।”
|
|
10-12-2020, 01:05 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“आती हैं खूब आती हैं । लेकिन ऐसे लोग भी शीघ्र ही ये जाहिर कर देते हैं कि वास्तव में उनकी नजर भी मेरे शरीर पर ही हैं फिर मुझे उन लोगों पर ताव आ जाता है कि आखिर क्यों उन्हें मेरा अपने बिस्तर की शोभा बढाने से बेहतर कोई इस्तेमाल दिखाई नहीं देता ।”
“औरत का मर्द के बिस्तर की शोभा बनने से बेहतर कोई इस्तेमाल होता भी नहीं है ।”
“मर्द की जिन्दगी में औरत यही इकलौती जरूरत नहीं होती ।”
“लेकिन यही सबसे अहम जरूरत होती है ।”
“अगर यह सच भी है तो मर्द की यह जरूरत पूरी करने का मुझे वह परम्परागत भारतीय तरीका ही पसन्द है जिसमें पूरे समाज के सामने मन्त्रोच्चारण के साथ मर्द पहले अग्नि के इर्द गिर्द औरत के साथ सात फेरे लेता है और फिर शरीरिक आनन्द की बात सोचता है ।”
“बड़े दकियानूसी ख्याल हैं तुम्हारे ।” - सरला नाक चढा कर बोली - “शारीरिक आनन्द की प्राप्ति के लिये पहले किसी के गले में बन्द बन्धना क्यों जरुरी है भला ?”
आशा चुप रही ।
“तुम तो अपनी खूबसूरती और जवानी को कंजूस की दौलत की तरह तिजोरी में बन्द रखकर रखना चाहती हो कि कहीं कोई इसे चुरा न ले, इसका कोई भाग खर्च न हो जाये ।”
आशा फिर भी चुप रही ।
“अच्छा, यह बताओ, तुम शादी करोगी ?” - सरला ने पूछा ।
“क्यों नहीं करूंगी ?” - आशा बोली ।
“किस से ?”
“जो भी मुझे पसन्द होगा और मुझ से शादी करने की इच्छा प्रकट करेगा ।”
“आज तक किसी ने तुमसे शादी करने की इच्छा प्रकट नहीं की ।”
“की है । लेकिन वे सबसे पहले मुझे चखकर देखना चाहते थे । तुम्हारे शब्दों में उस उलट फेर में विश्वास रखते थे । जिसकी वजह से हनीमून पहले हो जाता है और शादी बाद में होती है और कई बार सिर्फ हनीमून ही होता है, शादी होती ही नहीं ।”
“जब तुम्हें अपनी पसन्द का आदमी मिल जायेगा तो तुम उससे शादी कर लोगी ।”
“फौरन लाइक ए शाट ।”
“और अगर ऐसा कोई आदमी न मिला तो ?”
“क्यों नहीं मिलेगा ? इतनी बड़ी दुनिया है, इतने लोग रहते हैं इतनी जिन्दगी पड़ी है । कभी तो मुझे ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे देखकर मुझे यूं लगेगा कि एक लम्बे अरसे से इसी का इन्तजार कर रही थी, इसी के लिये जी रही थी ।”
“कई बार इन्सान इन्तजार ही करता रह जाता है” - सरला धीरे से बोली - “और आने वाला नहीं आता । कई बार दुनिया बहुत छोटी लगने लगती है, इसमें रहने वाला हर आदमी अजनबी मालूम होने लगता है और जिन्दगी कितनी भी लम्बी क्यों न हो कुछ काम ऐसे होते हैं जो जिन्दगी के एक विशिष्ट भाग में ही हो पाते हैं ।”
“अभी कोई खास देर नहीं हुई है ।”
“इसी सिलसिले में मैं तुम्हें अम्बरसर का एक किस्सा सुनाती हूं । हाल बाजार में मेरी एक सहेली थी...”
“न बाबा न ।” - आशा एकदम उठ खड़ी हुई और जल्दी से बोली - “अमृतसर का किस्सा फिर सुनूंगी, मैं चली ।”
“अरे सुनो तो !” - सरला आग्रहपूर्ण स्वर में बोली ।
“और फिर सुनूंगी ।” - आशा मेज पर से अपना पर्स उठाती हुई बोली - “तुम्हारे साथ बातों मे लग जाती हूं तो मुझे वक्त का ख्याल ही नहीं रहता । पहले ही देर हो रही थी अब और देर हो गई । बाबा, तुम अपने वक्त पर ही उठा करो । जल्दी उठ कर तो तुम बखेड़ा कर देती हो ।”
“यह जो मैंने सवेर सवेरे महारानी जी को चाय बनाकर पिलाई है, यह बखेड़ा है ।”
“जितना वक्त तुमने चाय बनाकर बचाया है उससे चौगुना वक्त तुम ने खामखाह की बहस शुरू करके बरबाद कर दिया है । ...मैं पूछना भूल गई आज तुम जल्दी क्यों उठ गई हो ?”
“ग्यारह बजे अंधेरी पहुंचना है । शूटिंग है ।”
“अच्छा, मैं चली ।” - आशा बोली और फ्लैट से बाहर निकल गई ।
***
|
|
10-12-2020, 01:05 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
वह विचारपूर्ण मुद्रा बनाये चुपचाप बैठी रही और सिन्हा साहब के आगमन की प्रतीक्षा करती रही ।
रह रहकर उसके नेत्रों के सामने अमर का घनिष्ट गम्भीर चेहरा घूम जाता था ।
साढे ग्यारह बजे आशा की मेज पर रखे मेन टेलीफोन का बजर बज उठा ।
आशा ने जल्दी से रिसीवर उठाया और सिन्हा साहब केएक्सटैन्शन का बटन दबाती हुई बोली - “यस सर ।”
“प्लीज कम, इन ।” - उसे सिन्हा साहब का व्यस्त स्वर सुनाई दिया और तत्काल ही सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
आशा ने अपनी शार्ट हैंड की कॉपी और पैंसिल सम्भाली और सिन्हा साहब के आफिस का द्वार खोलकर भीतर घुस गई ।
“गुड मार्निंग, सर ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली ।
“मार्निंग !” - सिन्हा बोला और उसने आशा को बैठने का संकेत किया ।
आशा उसकी विशाल मेज के सामने पड़ी कई कुर्सियों में से एक पर बैठ गई । उसने नोट बुक मेज पर रख ली और पेंसिल की नोक को उस पर टिकाये प्रतीक्षा करने लगी ।
सिन्हा एक लगभग तीस साल का साधारण शक्ल सूरत का विलासी सा दिखाई देने वाला आदमी था । अपनी उम्र के लिहाज के उसका शरीर जरूरत से ज्यादा पुष्ट था और इतनी छोटी उम्र में ही उसकी खोपड़ी आधी से अधिक गंजी हो चुकी थी ।
उसकी लालसापूर्ण दृष्टि आशा के झुके हुए चेहरे से फिसलती हुई उसके पुष्ट वक्ष पर जाकर रुक गई ।
कई क्षण उसकी दृष्टि वहीं टिकी रही । फिर उसने एक गहरी सांस ली और अपने सामने रखी कई फाइलों में एक को खोल दिया ।
वह आशा को डिक्टेशन देने लगा ।
“दैट्स आल ।” - लगभग आधे घण्टे बाद वह बोला ।
आशा ने नोट बुक बन्द की और उठ खड़ी हुई ।
“आशा ।” - वह बोला ।
“यस सर ।” - आशा बोली ।
“एक इन्श्योरेंस एजेन्ट को मैंने आज शाम को चार बजे की अपॉइंटमेंट दी है, नोट कर लो ।”
“इंश्योरेंस एजेन्ट को ?”
“हां । वह कई दिनों से मेरे पीछे पड़ा हुआ है । मेरा जीवन बीमा करना चाहता है वह । मैंने उसे आज शाम को चार बजे आने के लिये कहा है । अगर वह चार बजे के एक मिनट भी लेट आये तो उसे मेरे पास मत भेजना और न ही कभी दुबारा उसे दफ्तर में घुसने देना ।”
“ओके सर ।” - आशा बोली और उसने चलने का उपक्रम किया ।
“आज शाम का प्रोग्राम याद है न ?” - सिन्हा मीठे स्वर से बोला ।
“याद है, सर ।” - आशा धीरे से बोली ।
“मैंने टिकट मंगवा लिये हैं ।”
“फाइन सर ।”
“यह क्या सर सर लगा रखी है, बाबा ।” - सिन्हा बनावटी झुंझलाहट का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “मैंने तुम्हें कितनी बार कहां है कि तम मुझे सर न कहा करो ।”
“यस, सर ।”
“फिर सर !”
“आई एम सारी सर ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली और केबिन से बाहर निकल गई ।
***
वह टैरालीन का शानदार सूट पहने हुए था, उसके सूट जैसा ही शानदार उसका व्यक्तित्व था । वह फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत लग रहा था और उम्र में कालेज का छोकरा मालूम होता था । उसके चेहरे पर एक विशेष प्रकार की स्वाधीनता जो आशा को विशेष रूप से पसन्द आई उसके दायें हाथ में एक कीमती ब्रीफकेस था ।
कपड़े और ब्रीफकेस इसे इन्श्योरेंस कम्पनी से मिलते होंगे आशा ने मन ही मन सोचा ।
उसने अपनी कलाई पर बन्धी नन्ही सी घड़ी पर दृष्टि डाली ।
ठीक चार बजे थे ।
“गुड आफ्टर नून टू यू ।” - युवक सिर को तनिक नवा कर मुस्कराता हुआ बोला - “सिन्हा साहब हैं ?”
“हां, हैं ।” - आशा बोली - “और तुम्हारा ही इन्तजार कर रहे हैं । अच्छा हुआ तुम ठीक समय पर आ गये ।”
“अगर देर से आया तो क्या हो जाता, मैडम ?” - युवक ने पूर्ववत मुस्कराते हुए पूछा ।
“तो फिर सिन्हा साहब तुम से नहीं मिलते । उन्होंने मुझे बड़ा कड़ा आदेश दिया था कि अगर तुम ठीक चार बजे न आओ तो मैं तुम्हें उनके पास न भेजूं और भविष्य में भी कभी आफिस में न घुसने दूं ।”
“हे भगवान ।” - युवक के चेहरे पर घबराहट के लक्षण प्रकट हुए - “ऐसी बात थी ? फिर तो अच्छा हुआ, मैं वक्त पर आ गया ।”
“हां । कितने का बीमा कर रहे हैं सिन्हा साहब का ?”
“कितने का बीना कर रहा हूं, सिन्हा साहब का ।” - युवक उलझनपूर्ण स्वर से बोला - “क्या मतलब ?”
“मेरा मतलब कि लाइफ इन्श्योरेन्स की कितनी रकम की पोलिसी प्रपोज कर रहे हो सिन्हा साहब को ?”
“ओह अच्छा वह !” - युवक के चेहरे से उलझन के भाव फौरन गायब हो गये - “बीमे की रकम पूछ रही हैं आप ?”
“हां ।”
“अभी कुछ फैसला नहीं हुआ है । वैसे जितने के लिये भी सिन्हा साहब मान जायें ।” - वैसे आप ने तो बीमा करवाया हुआ है न, मैडम ?”
“ज्यादा सेल्समेन शिप दिखाने की कोशिश मत करो, मिस्टर” - आशा मुस्कराकर बोली - “एक वक्त में दो ग्राहक पटाने की कोशिश करोगे तो दोनों ही ग्राहक हाथ से जाते रहेंगे ।”
“फिर भी...”
“चार बजकर एक मिनट हो गया है । एन्ड नाउ यू आर लेट ।”
“ओह माई गुडनेस !” - युवक हड़बड़ाता हुआ बोला - “बाई योर परमिशन, मैडम ।”
और वह लम्बी डग भरता हुआ सिन्हा साहब के आफिस द्वार के समीप पहुंचा और द्वार खोल कर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
|
|
10-12-2020, 01:05 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा को उसकी हड़बड़ाहट बहुत भली लगी । वह मन ही मन मुस्कराई और फिर एक राईटर के बखिये उधेड़ने लगी ।
लगभग पौने पांच बजे युवक सिन्हा साहब के केबिन से निकला ।
“काम बना ?” - आशा ने मुस्कराकर उससे पूछा ।
“काम !” - युवक एक बार फिर हड़बड़ाया ।
“तुम इतने बौखलाये क्यों रहते हो ? नये नये इन्शयोरेंस एजेन्ट बने हो क्या ?”
“जी हां, जी हां ।”
“क्या जी हां ?”
“मैं नया नया ही इन्श्योरेस एजेन्ट बना हूं ।”
“मैंने पूछा था काम बना ? सिन्हा साहब ने बीमा कर बाया ?”
“नहीं ।”
“छुट्टी ?”
“हां ।”
“ओह !” - आशा सहानुभूति पूर्ण स्वर से बोली ।
“नैवर माइन्ड, मैडम ।” - युवक उत्साहपूर्ण स्वर से बोला - “यहां से मैंने एक जगह और जाना है । वहां काम बनने की ज्यादा सम्भावना है । अगर वहां भी काम नहीं बना तो मैं समझूंगा, मेरी तकदीर ही खराब है और अगर वहां काम बन गया तो इस श्रेय मैं आपको दूंगा ।”
“मुझे !” - आशा हैरानी से बोली ।
“जी हां, मैं बड़ा बहमी आदमी हूं । उस दफ्तर में प्रेवश करते ही एक काना आदमी मेरे माथे लगा था । मुझे तभी मालूम हो गया था कि यहां काम बनने वाला नहीं है । लेकिन दूसरी जगह तो मैं आप की मोहिनी सूरत देखकर जा रहा हूं, काम जरूर बनेगा ।”
“और अगर बाहर निकलते ही फिर काना दिखाई दे गया !”
“जब तक मैं दूसरीं पार्टी के पास पहुंच नहीं जाऊंगा, मेरे नेत्रों के सामने आपके सिवाय कोई दूसरी सूरत आयेगी ही नहीं ।”
“इसी चक्कर में कहीं बस के नीचे मत आ जाना ।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा । ऐवरीथिंग विल भी बी इन माई फेवर नाउ ।”
“बड़े आशावादी हो ?”
“बड़ा बहमी हूं ।”
“ओके । यहां से निकलती बार हमारे एकाउन्टेन्ट के माथे मत लग जाना ।”
“क्यों ?”
“वह काना है ।” - आशा रहस्यपूर्ण स्वर से बोली ।
“वैसे तो अब मेरी तकदीर पर किसी काने का असर होने वाला नहीं है लेकिन फिर भी मैं ख्याल रखूंगा ।”
“ओके ।”- आशा मुस्कराती हुई बोली - “आई विश यू गुड लक ।”
“थैंक्यू ।” - युवक सिर नवा कर बोला - “थैंक्यू वैरी मच अगर मेरा काम बन गया तो मैं आप को फोन करूंगा ।”
“लेकिन अब तो दफ्तर बन्द होने वाला है ।”
“मैं कल फोन करूंगा ।”
“अच्छा ।”
“ओके ।” - युवक द्वार की ओर खिसका और फिर घूम कर बोला - “टैलीफोन करूंगा मैं ? आप का नाम पूछना तो भूल ही गया मैं ।”
“आशा ।” - आशा ने बताया ।
“आशा” - युवक ने दोहराया - “अब तो मुझे और भी आशा हो गई है कि मेरा काम जरूर बनेगा । मेरा नाम अशोक है, आशा जी । एन्ड आई एम वैरी वैरी प्लीज्ड टु मीट विद यू । वट ए नेम । आशा ।”
और वह लम्बे डग भरता हुआ केबिन से बाहर निकल गया ।
आशा को अशोक बहुत भला लगा ।
पांच बजे आफिस खाली हो गया ।
आशा ने भी टाइपराइटर पर कवर चढाया स्टेशनरी सम्भाली और प्रतीक्षा करने लगी ।
उसी क्षण टैलीफोन का बजर बजा ।
“यस सर ।” - आशा ने रिसीवर उठाकर कान से लगाते हुए कहा ।
“आशा मुझे अभी पन्द्रह मिनट और लगेंगे, प्लीज ।” - सिन्हा का स्वर सुनाई दिया ।
“ओ के ।”
“प्लीज डोंट माइंड ।”
“कोई बात नहीं सर । अभी बहुत समय है ।”
“अब तो सर सर कहना बन्द करो बाबा । अब तो दफतर की छुट्टी हो गई ।”
“ओके सिन्हा साहब ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
आशा ने भी रिसीवर को क्रेडिल पर रख दिया ।
उसने घड़ी पर दृष्टि पात किया । सवा पांच बजे थे ।
|
|
10-12-2020, 01:05 PM,
|
|
desiaks
Administrator
|
Posts: 23,155
Threads: 1,138
Joined: Aug 2015
|
|
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
जरा थोड़ी चेहरे की ही मरम्मत कर जाऊं - उसने मर ही मन सोचा । उसने अपना पर्स उठाया और केबिन से निकल कर टायलेट की ओर चल दी ।
दफ्तर खाली हो चुका था लेकिन अमर अभी भी अपनी मेज पर बैठा पैन्सिल हाथ में लिये आंकड़ों में सिर खपाई कर रहा था ।
आशा एक क्षण के लिये ठिठकी और फिर सैंडिल खटखटाती हुई उसकी बगल में से गुजरती हुई टायलेट की ओर बढ गई ।
अमर ने सिर नहीं उठाया । उसकी पेन्सिल मशीन की तरह कागज पर चल रही थी ।
आशा टायलेट में चली गई ।
पांच मिनट बाद वह बाहर निकली ।
अमर का सिर पूर्ववत कागजों पर झुका हुआ था ।
आशा ने जानबूझ कर बड़ी जोर से टायलेट का द्वार बन्द किया ।
अमर ने सिर नहीं उठाया ।
आशा अपने केबिन की ओर बढी ।
अमर की मेज के समीप पहुंचकर वह रुक गई !
“अगर इसी समय बम्बई पर बम गिर जाये तो भी शायद तुम्हें खबर न हो ।” - आशा बोली ।
अमर ने बड़ी मेहनत से कागजों पर से सिर उठाया । उसने एक भरपूर दृष्टि आशा के चमचमाते हुए चेहरे पर नजर डाली और फिर शांत स्वर से बोला - “आपने मुझसे कहा कुछ ?”
“जी नहीं ।” - आशा तनिक व्यंगय पूर्ण स्वर में बोली - “मैं इस दीवार को बता रही थी कि पांच बजे गये हैं, दफ्तर की छुट्टी हो गई है ।”
“जी, मुझे मालूम है लेकिन मुझे आज कोई खास जल्दी नहीं है ।”
“अच्छा ।”
“दरअसल आज में फिल्म देखने जा रहा हूं ।” - अमर यूं बोला जैसे फिल्म देखने जाना कोई किला जीतने जाना जैसा दुर्गम काम हो ।
“अच्छा कौन सी ?”
“अंग्रेजी की फिल्म देखने जा रहा हूं ।”
“अंग्रेजी तुम्हारी समझ में आ जाती है ?”
“कुछ आटा दलिया कर ही लेता हूं । आप जितनी तो नहीं आती ।”
“कौन सी फिल्म देखने जा रहे हो ?”
“अरे बस्क्यू ।”
“मैट्रो पर !” - आशा के मुंह से स्वयं ही निकल गया ।
“हां । फिल्म मैट्रो पर लगी है तो मैट्रो पर ही जाना पड़ेगा । ऐसा तो मुमकिन नहीं है कि फिल्म लगी तो मैट्रो पर हो लेकिन वह मुझे भिन्डी बाजार में भी दिखाई दे जाये ।”
आशा तनिक बौखला गई । यही फिल्म तो वह भी सिन्हा साहब के साथ देखने जा रही थी ।
“लेकिन आपको मैट्रो में मेरी मौजूदगी से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।” - अमर भावहीन स्वर से बोला - “आपकी टिकटें बाक्स की हैं, मेरी मिडल स्टाल की हैं ।”
आशा के मुंह से सिसकारी निकल गई ।
“तुम्हें यह भी मालूम है ?” - वह आंखें फैलाकर बोली ।
“सिन्हा साहब के टिकटें मुझी से मंगवाई थीं ।”
“और मुझ पर जासूसी करने के लिये तुम अपने लिये भी उसी शो की टिकट खरीद लाये ।”
अमर कई क्षण खामोश रहा और फिर शान्त स्वर से बोला - “अपनी टिकट मैं सोमवार को लाया था जबकि सिन्हा साहब की टिकटें मैंने कल बुक कराई हैं । मिडल स्टाल से बाक्स में बैठे लोगों की सूरत तक दिखाई नहीं देती है । मैं जासूसी क्या करूंगा । आप कार में जायेंगी, मैं बस में जाऊंगा । मुझे तो यह भी मालूम नहीं होगा कि आप कब सिनेमा पर तशरीफ लाईं और कब चली गईं लेकिन फिर भी आपके बहम को शत प्रतिशत दूर करने के लिये मैं आज फिल्म देखने नहीं जाऊंगा ।”
और उसने अपने जेब से सिनेमा टिकट निकाला और उसके कई टुकड़े करके उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया ।
आशा उसे रोकती ही रह गई ।
“मेरा यह मतलब नहीं था ।” - आशा धीरे से बोली ।
अमर चुप रहा ।
“बात जोश में मेरे मुंह से निकल गई थी । मुझे मालूम नहीं था कि तुम उसे इतनी गम्भीरता से लोगे ।”
अमर के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कराहट आ गई ।
“इट्स परफैक्टली आल राइट, मैडम ।” - वह धीरे से बोला ।
आशा कुछ क्षण उसके दुबले पतले चेहरे को देखती रही । फिर उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट फैल गई । उसने अपना बैग खोला और चाकलेट का वह पैकेट निकाला जिसका तीन चौथाई भाग वह दिन में खा चुकी थी ।
“लो, चाकलेट खाओ ।” - वह मित्रतापूर्ण स्वर में बोली ।
“थैंक्यू मैडम ।” - अमर चेहरे पर पहले जैसी फीकी मुस्कराहट लिये शिष्ट स्वर में बोला - “मैं चाकलेट नहीं खाता ।”
“क्या !” - आशा विस्मयपूर्ण स्वर से बोली - “तुम खुद चाकलेट नहीं खाते ?”
“जी हां ।”
“फिर तुम चाकलेट खरीदते क्यों हो ?”
“हां” - अमर भावहीन स्वर से बोला - “मैं खुद हैरान हूं । मैं चाकलेट खरीदता क्यों हूं ।”
आशा ने अनिश्चित भाव से चाकलेट का पैकेट दुबारा पर्स में डाल दिया और पर्स बन्द कर दिया ।
अमर ने अपने कागजों को मेज के दराज में डाला और दराज को ताला लगाकर उठ खड़ा हुआ ।
“गुड नाइट मैडम ।” - अमर पूर्ववत मुस्कराता हुआ बोला - “मैं आपके लिये एक मनोरंजन शाम की कामना करता हूं ।”
आशा चुप रही ।
अमर उसकी बगल से गुजरता हुआ आफिस के मुख्य द्वार से बाहर निकल गया ।
आशा उसे जाता देखती रही ।
वह वापिस अपने केबिन की ओर लौट पड़ी ।
उसी क्षण सिन्हा बाहर निकल आया ।
“सॉरी !” - वह बोला - “तुम्हें इन्तजार करना पड़ा ।”
“कोई बात नहीं ।” - आशा ने अपनी नुमायशी मुस्कराहट फिर अपने चेहरे पर लाते हुए कहा ।
|
|
|