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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“मैं सब ठीक कर दूंगा। फिलहाल तो तुम विनीत की छुट्टी करो।"
"पापा!" अर्चना जैसे चीख उठी।
"उससे साफ कह दो।"
"नहीं पापा।" अर्चना का स्वर भर्रा उठा था—"ऐसा नहीं हो सकता....।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं उसके बिना....."
"तभी तो कह रहा हूं कि नासमझी की बात है। विनीत को यहां से जाना ही पड़ेगा। हम अरबिन्द को नाराज करना नहीं चाहते।"
"ओह पापा....।"
"तो फिर मैं कह दूं...?"
"नहीं पापा....।"
"तब फिर मैं क्या करूं?"
"आप....उसे यहीं रहने दें।"
"यह नहीं होगा।" उनकी आवाज में सहसा ही कठोरता आ गयी- मैं इसी बक्त उसे अन्यत्र जाने के लिये कह दूंगा। अरविंद अपने आप संभाल लेगा।"
“प्लीज पापा.....”
बे जैसे झुंझला उठे—“अर्चना, तुम समझने की कोशिश तो करो? उसे अपने यहां रखने पर हमें अरविंद क्या कहेगा?"
"लेकिन पापा....." अर्चना जैसे रो उठी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह उन्हें किस प्रकार समझाये। कैसे कहे कि वह उस खूनी के बिना जिन्दा नहीं रह सकती। उसके बिना उसका जीवन पतझड़ बन जायेगा। वह सूनी-सूनी हो जायेगी। उसने और कुछ नहीं कहा तथा कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आ गयी। सीधी विनीत के कमरे में पहुंची। विनीत वहां न था। मेज के ऊपर एक छोटा-सा पेपर रखा था।
उत्सुकतावश अर्चना ने उस पेपर को उठाकर पढ़ा।
लिखा था
अर्चना, मैं इस बात को जानता था कि सत्यता एक न एक दिन सामने अबश्य आ जाती है। मैं यह भी जानता था कि मेरी वास्तविकता को जानकर सेठजी कभी यह सहन नहीं करेंगे कि एक खूनी उनकी कोठी में रहे। मैंने तुमसे पहले भी कहा था कि मैं बो बदनसीब इन्सान हूं जो किसी को कुछ भी नहीं दे सकता। तुम मुझसे प्यार करती हो....परन्तु मैं....मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता। मुझे भूल जाना अर्चना। हमेशा के लिये भूल जाना। मैं इन गलियों में कभी लौटकर नहीं आऊंगा।
एक बदनसीब
अर्चना ने पत्र को दो-तीन बार पढ़ा। भावावेश में उसकी आंखें छलछला उठीं। अलमारी खोलकर देखा, विनीत के लिये उसने जितने भी सूट बनवाये थे, बे उसी प्रकार रखे थे। वह अपने पुराने कपड़ों को पहनकर गया था। उसी बिस्तर पर गिरकर अर्चना फफककर रो उठी।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अनीता उठ बैठी तथा चारपाई के पास ही रखे गिलास का पानी पीकर उसी प्रकार लेट गयी। पिछले तीन दिनों से उसकी तबियत खराब थी। कुछ खा-पी नहीं सकी थी। इस समय भी बुखार के कारण उसका शरीर तबे की तरह तप रहा था। उसने तनिक दृष्टि उठाकर झोंपड़ी के खुले दरवाजे की ओर देखा। उसकी निराश आंखें और भी धुंधली हो गयीं। दोपहर हो गयी थी, परन्तु सुधा अभी तक नहीं आयी थी। वह सूरज निकलने से पहले ही दूर रेलवे लाइन पर से कोयले चुगने गयी थी। रोज का क्रम था। दोनों वहनें बहुत ही सबेरे झोंपड़ी से निकल पड़तीं, रेलवे लाइन पर कोयला चुगतीं और उन्हें बेचकर वापिस लौटतीं। सवेरे से शाम तक के खाने का खर्च निकल आता था। तीन दिन से वह बुखार से पीड़ित थी, अतः सुधा को अकेले ही जाना पड़ता था। उसके लौटने तक अनीता बड़ी बेचैनी से उसकी राह देखती थी। हर समय एक अनजाना-सा भय उसके मस्तिष्क में समाया रहता था। उसे सुधा पर विश्वास था, परन्तु दुनिया के नीच इन्सानों को कौन कहे....जो एक औरत को औरत नहीं बल्कि खेलने की बस्तु समझते हैं। सुवह उसने कहा भी था-"सुधा, तुझे अकेले भेजने को मन नहीं करता।"
"क्यों दीदी?” सुधा ने अपनी टोकरी उठाते हुए पूछा था।
मुझे ठेकेदार की नीयत अच्छी नहीं लगती। जब भी झोंपड़ी का किराया मांगने आता है, तेरी ओर अजीब-सी नजरों से देखता है। अब तो वह तीसरे-चौथे दिन आ ही जाता है....आते ही तुम्हारे विषय में पूछने लगता है।"
“दीदी, यदि तुम्हारी सुधा ऐसी होती तो उस सेठ का खून न करती। और आज उसी खून के कारण....."
"सी " अनीता ने होठों पर उंगली रखकर उसे चुप रहने का संकेत किया था— ऐसी बात को फिर मुंह से मत निकालना। दीवारों के भी कान होते हैं। वैसे भी बराबर में जुम्मन की झोंपड़ी है। वह भी अच्छा आदमी नहीं है। तू ऐसा कर, मैं तेरे साथ चलती हूं।"
"तुम...."
"हां, तू काम करना और मैं वहीं तेरे पास बैठी रहूंगी। कम-से-कम तू मेरी आंखों के सामने तो रहेगी। मुझे चैन रहेगा।"
"नहीं दीदी।" सुधा ने कहा था-"तुम्हें बुखार है, मैं तुम्हें बाहर नहीं निकलने दूंगी। तुम आराम करो....मैं जल्दी लौटूंगी। तुम्हारे लिए गोलियां भी लानी हैं।"
"सुधा....” स्वर में ममता टपक पड़ी थी।
"हां दीदी....."
"सोचती हूं यदि हम दोनों इतनी अभागिन न होतीं तो हमें आज ये दिन क्यों देखने पड़ते? पता नहीं कैसी है यह दुनिया! कोई जीने की कोशिश करता है तो उसे जीने भी नहीं देते। खैर, सुधा....जो कुछ भाग्य में है, वह तो देखना ही पड़ेगा।"
"ठीक कहती हो दीदी।"
"जल्दी लौटना....।"
"दोपहर से पहले ही आ जाऊंगी।"
"और सुन...यदि तुझे उधर ठेकेदार दिखलाई दे जाये तो तू सीधी यहां आ जाना।"
"क्यों ....?"
“यही समझदारी की बात है।"
सुधा तनिक मुस्करायी थी— दीदी...ठेकेदार के दिन बुरे होंगे तो उधर आयेगा। मैं उसके डर से अपना काम छोड़कर भागने वाली नहीं हूं।" कहकर सुधा चली गयी।
सहसा ही सुधा अपने अतीत में उलझकर रह गई। उसके विचार उसे बहुत दूर ले गये।
गुजरी जिंदगी का एक-एक दिन उसकी आंखों के सामने तैरने लगा। विनीत के जेल जाने के बाद ही वे दोनों बेसहरा हो गयी थीं। किसी प्रकार खाने का खर्च तो चल जाता था, परन्तु दुनिया की भूखी नजरों को देखकर वह सहम उठती थीं। हां, यदि वह जबान और इतनी खूबसूरत न होतीं तो शायद उन्हें उन नजरों को न देखना पड़ता। लोग तरह-तरह से सहानुभूति दर्शाते थे। परन्तु उनमें था क्या, इस बात को वह अच्छी तरह जानती थी। महज इसीलिये उसने अपने पड़ौसी रामचरन को दुत्कार दिया था। रामचरन उनके घर सुवह-शाम कभी भी आ धमकता था। तरह-तरह से यह जाहिर करता था कि वह उनका सबसे बड़ा हमदर्द है। उसने उस दिन कहा भी था—"चाचा जी, आप हमारे लिये इतना परेशान न हुआ करें।"
"क्या करूं अनीता....." रामचरन ने कहा था-"तुम लोगों को देखे बिना मन ही नहीं मानता। और फिर तुम दोनों वहनों का इस दुनिया में है ही कौन? एक विनीत का सहारा था, वह बेचारा भी जेल में चला गया। मुझे तो हर समय तुम्हारा ख्याल बना रहता है। समझ में नहीं आता तुम्हारे लिये क्या करू....।"
“चाचा जी, आपका इतना उपकार ही काफी है कि आप हमारा ध्यान रखते हैं।"
"मैंने तो एक दूसरी बात सोची है।"
"वह क्या?"
"मेरी जानकारी में एक लड़का है। कहो तो मैं उससे तुम्हारी बात पक्की कर दूं! तुम दोनों को सहारा भी मिल जायेगा।"
"चाचा जी....!"
"जमाना खराब है अनीता।" उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की थी— “सुधा तो अभी इस योग्य नहीं, परन्तु तुम तो जवान हो।"
"चाचा जी....आपकी जुबान से ये शब्द अच्छे नहीं लगते।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"सबाल अच्छे-बरे का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि जब बदन से जबानी फूटती है तो उसे सम्भालना बड़ा मुश्किल होता है। उस नत्थू धोबी की लड़की की बात नहीं सुनी? पिछले महीने ही वह किसी लड़के के साथ भाग गयी....।"
"चाचा जी!" वह जैसे झल्ला उठी थी— आइन्दा आप यहां आकर ऐसी बात मत कहना। मैं कोई बच्ची नहीं हूं। अपना अच्छा-बुरा सब समझती हूं। मुझे आपकी हमदर्दी की जरूरत नहीं है। आप जा सकते हैं।"
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"अभी नासमझ हो।"
“कुछ भी समझ लीजिये....."
रामचरन उठकर चले गये।
उस दिन वह अन्दर ही अन्दर कांपकर रह गई थी। वह प्रायः घर से बहुत ही कम निकलती थी। फिर एक महीने बाद ही सेठ ने उनके मकान पर कब्जा कर लिया था। वह और सुधा दोनों अपने दुर्भाग्य पर बुरी तरह रो उठी थीं। उसे सहारे तो कई मिले परन्तु उन सब में भूखी दृष्टि के अलावा और कुछ न था। फिर उन्हें एक छोटा-सा कमरा किराये पर लेकर रहना पड़ा था। प्रश्न था गुजारे का। आय का साधन न हो तो खर्चे का सवाल ही पैदा नहीं होता। धीरे-धीरे घर का सभी सामान बिकना आरम्भ हो गया। दोनों कुर्सियां....मेज....बाबू जी वाला पलंग, सभी कुछ बेच देना पड़ा था। फिर नम्बर आया था बर्तनों का। केबल जरूरी चार-पांच बर्तनों को छोड़कर बाकी सभी बेच देने पड़े थे। और कोई सामान न था। फिर एक दिन.....।
घर में खाने के लिये नमक को छोड़कर और कुछ न था। इसी चिन्ता में सुवह से शाम हो गई थी कि खाने के लिये क्या किया जाये? शायद इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी भूख ही है....वह सब कुछ सहन कर लेता है परन्तु आंतों की छटपटाहट उससे सहन नहीं होती। और यदि वह इस भूख को भी सहन कर लेता है तो उसे मृत्यु की विषम पीड़ा को झेलना पड़ता
सुधा ने बड़े ही भोलेपन से पूछा था— दीदी, खाने के लिये कुछ नहीं है न?"
"हो....।" वह बड़ी मुश्किल से कह पाई थी। सुनकर बारह बर्षीय सुधा खामोश हो गयी। जैसे उसने संतोष की सांस लेकर अपने उदर में उठती भूख की लपटों को दबा लिया। उसका चेहरा पत्थर का हो गया। उसकी आंखों से एक बूंद आंसू भी निकला। "सुधा, तुझे भूख लगी है।" उसने पूछा था।
"नहीं तो....!"
"लगी तो होगी।"
"परन्तु दीदी....जब कुछ है ही नहीं....फिर......"
"पगली....अभी तो हमारे पास बहुत कुछ है।"
“और कुछ....और क्या सामान है?"
"पसीना!" उसने कहा- जो सोने से भी अधिक कीमती होता है। तू बैठ....मैं और कुछ नहीं तो शाम के खाने के लिये तो ले ही आऊंगी।"
"कैसे....?"
"अपना पसीना बेचकर।"
"परन्तु दीदी..."
“तू अभी बच्ची है।" उस शाम उसने एक घर में गेहूं बीनने तथा बर्तन साफ करने का काम किया था। बदले में उसे थोड़ा-सा आटा मिला था। उसी से उदर की ज्वाला को शांत करना पड़ा था। परन्तु अगले दिन..... वह रोजाना उसी घर में पहुंच जाती। सबेरे से शाम तक काम करती। खुद तो वहां खा ही लेती थी, साथ ही सुधा के लिये भी चार-पांच रोटियां ले आती थी। मालकिन दयालु थी। जीवन का यही एक क्रम बन गया था। एक वर्ष इसी तरह मजदूरी करके बीता। परन्तु दुनिया उसके विषय में तरह-तरह की बातें बनाने लगी। वह घर से निकलती, लोग मुंह पर ही कह डालते थे "आबारा है....."
“छुपी हुई बेश्या है।"
“पता नहीं सवेरे से शाम तक कहां रहती है....."
“जाती होगी किसी मोटी मुर्गी के पास।"
"मुहल्ले की लड़कियों पर भी तो गलत असर पड़ेगा।" वह सुनती और बुरी तरह तिलमिलाकर रह जाती। उसकी समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे? कई बार खुदकशी करने की सोची थी। परन्तु सुधा का क्या होगा, यह सोचकर उसने कभी उस ओर कदम नहीं बढ़ाया। सुनते-सुनते जैसे कान पक गये थे। सुधा भी जवान होती जा रही थी। मुहल्ले के आवारा लड़के दरवाजे के सामने चक्कर लगाने लगे थे। सुधा उस छोटे से कमरे में अकेली रहती थी।
एक दिन मकान मालिक ने आकर कहा था- "अनीता....."
“जी...."
“अब तुम कोई दूसरा मकान देख लो...."
“जी....।"
"मुझे इस कमरे की जरूरत है। चाहो तो तुम इन पन्द्रह दिनों का किराया भी मत देना।"
"लेकिन शर्मा जी....!"
"मैं मजबूर हूं अनीता।"
वह कह उठी थी—"शर्मा जी, आप साफ क्यों नहीं कहते कि......"
“जब तुम इतनी समझदार हो तो फिर मुझे कहने की क्या जरूरत है? मेरी पचास बर्ष की उम्र है, परन्तु मुहल्ले वाले तुम्हारे साथ मुझे भी....."
"शर्मा जी...'" वह जैसे चीख उठी थी।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“वह दोपहर को कमरे में ही आ गया था। उसके हाथ में एक चाकू था। उसने कहा था, यदि तू मेरी बात नहीं मानेगी तो मैं इस चाकू को तेरे सीने में उतार दूंगा।"
"ओह....!"
"वह मेरी ओर बढ़ा था, बड़ी मुश्किल से मैं कमरे से बाहर निकल सकी थी।" सुधा ने रोते रोते बताया था— “दीदी, मुझे अकेली मत छोड़ा करो। किसी दिन अनिल......" सुनकर उसने सुधा को सांत्वना दी थी। परन्तु उसे लगा था कि वह स्वयं भी बिबश है....वह कर ही क्या सकती है? वह उसी वक्त उस पेपर को लेकर अनिल की मां के पास पहुंची थी। उसने जाते ही कहा था
—"चाचा जी,अपने अनिल को समझा देना।"
"क्यों....?"
"उसी से पूछ लो तो अच्छा रहेगा। वह रोज छत पर आकर सुधा को तंग करता है।"
"तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि वह ऊपर घूमने जाये ही नहीं? सुनो अनीता, मैंने तुम्हें एक कमरा किराये पर दिया है। तुम्हारा मतलब सिर्फ उस कमरे से है। मैं अपने बेटे को छत पर घूमने से नहीं रोक सकती।"
"परन्तु चाची जी...."
"मैंने अपने अनिल को खूब अच्छी तरह से जानती हैं। यदि फिर मेरे बेटे को बदनाम करने की कोशिश की तो अच्छा न होगा।" वे गुस्से में बिफरती हुई बोलीं।
"परन्तु चाची जी, तुम यह तो सोचो....."
उन्होंने बात काटकर तुरन्त कहा था-"मैं सब समझती हूं....मुझे समझाने की कोई जरूरत नहीं है। अपनी वहन को एक बार भी कुछ नहीं कहा। वह कब से मेरे बेटे पर डोरे डाल रही है....। कई बार मैंने देखकर भी अनदेखा कर दिया।"
उसके मन में आया कि वह अभी उस पेपर को उनके ऊपर फैंक दे। परन्तु कुछ सोच समझकर उसने ऐसा नहीं किया और बेबसी का चूंट पीकर अपने कमरे में आ गयी। मजबूरी ऐसी थी कि वह कुछ कर भी नहीं सकती थी। दिन गुजरने लगे। एक दिन फिर उसी तरह की घटना सामने आई थी। वह दोपहर को ही घर आ गई थी। ऊपर चढ़ी, कमरा खुला था। यह देखकर वह क्रोध में फुकार उठी थी कि अनिल वहीं था और सुधा उसके सामने खड़ी हुई थर-थर कांप रही थी।
“अनिल...." इस आवाज पर अनिल बुरी तरह चौंका था। सुधा तुरन्त उससे लिपट गयी थी। सुधा को अपने से हटाकर वह अनिल के पास आयी थी। "क्या बात है?"
"बात....बात तो कुछ नहीं है....।” वह कांप गया था।
"मैं पूछती हूं....तुमने यहां आने की हिम्मत कैसे की? बताये देती हूं, यदि तुमने फिर कोई हरकत करने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई न होगा......"
अनिल चला गया था। परन्तु अगले दिन उसे उस कमरे को खाली करने का आदेश मिला था। वह समझ गयी कि अनिल ने उल्टी-सीधी लगा दी होगी। मकान के लिये उसे कई गलियों के चक्कर लगाने पड़े थे। परन्तु एक तंग गली में उसे एक कमरा मिल गया था। नये मकान मालिक का व्यवहार विनम्र था। दिन गुजरते चले गये। सुवह और शाम के क्रम में लिपटा हुआ वह निरन्तर आगे की ओर बढ़ता चला जा रहा था।
वहीं पास में उसे एक आया की नौकरी मिल गयी। सुधा को भी उसी घर में काम मिल गया था। उस घर की मालकिन को लकवे की बीमारी थी। उसने सुधा को अपनी सेवा में रख लिया था।
उसकी जवानी तो तिल-तिल करके गल ही रही थी। शायद ही उसने कभी अपने विषय में सोचा हो....अन्यथा कभी उसने यह बात नहीं महसूस की थी कि वह खूबसूरत है....जवान है। उसे भी कुछ चाहिये....किसी की बांहों का मजबूत सहारा चाहिये। रात उलझनों में व्यतीत हो जाती और दिन काम में निकल जाता। अपनी ओर देखने का समय ही कहां था उसके पास....| परन्तु समय तो शायद कुछ और चाहता था। उसे यह मंजूर नहीं था कि एक अभागिन संतोष की सांस ले सके....वह आराम से जी सके। वह उस घर में आया का काम करती थी तथा घर के मालिक देवेन्द्र कुमार जो किसी बड़ी फर्म में मैनेजर थे....उसे बिचित्र-सी दृष्टि से देखते थे। आरम्भ में तो उसे कुछ भी पता न चला, परन्तु एक दिन जब वह कमरे में बैठी मुन्ने को दूध पिला रही थी, कुमार साहब दरवाजे में खड़े उसी को ताक रहे थे। मुन्ने को दूध पिलाने के बाद उसने उसे पालने में लिटा दिया था और एक लोरी गुनगुनाने लगी थी। कुमार साहब का उसे कुछ पता न था।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"मेरा विचार है....तुम्हें बचपन से ही संगीत का शौक रहा होगा?" उसके कानों में कुमार साहब के शब्द पड़े तो वह चौंकी थी। पलटकर उसने उनकी ओर देखा और अपने आंचल को ठीक किया था।
“जी....!"
"स्वर कितना अच्छा है तुम्हारा!"
“जी....आप....।"
"प्रशंसा कर रहा हूं, बुरा नहीं बता रहा।” कुमार साहब अन्दर आ गये थे— "अनीता, यदि मैं तुम से कुछ कहूं तो....?”
“जी...." वह चौंकी।
"मेरा मतलब बुरा तो नहीं मानोगी?"
“जी....बुरा....."
"दरअसल मैं बुरा आदमी नहीं हूं...."
"परन्तु मैंने तो कभी ऐसा नहीं कहा....!"
"नहीं कहा।" वे बोले थे—“परन्तु जो कुछ मैं कहना चाहता हूं, उसे सुनकर हो सकता है, तुम मुझे बुरा समझने लगो।"
"साहब।" उसने साहस संजोया-"छोटे और बड़े में बही तो मुख्य अन्तर होता है। बड़े आदमी कुछ भी कहें, छोटे बुरा मानेंगे तो रहेंगे कहां? मैं आपकी नौकर हूं....मेरे बुरा मानने से होगा भी क्या?"
"बहुत कुछ।" उन्होंने कुछ रुककर कहा-"परन्तु इस विषय में तुम अपने को किसी विवशता में घिरी मत समझो। तुम यहां से पैसा लेती हो तो बदले में इस घर की सेवा भी करती हो। मैं तुम्हें बिवश नहीं करूंगा।"
"आप कुछ कह रहे थे?"
"हां। कभी-कभी तुम्हारे विषय में सोचने लगता हूं। रेखा ने मुझे तुम्हारे विषय में सब कुछ बता दिया है।"
"जी....."
"मुझे यह भी पता चला है कि तुम दोनों वहनों का इस दुनिया में और कोई नहीं है...।" कहकर कुमार साहब ने उसकी ओर देखा था।
“जी....."
"सुनो.....गलत मत समझना। दुनिया की नीयत अच्छी नहीं है। औरत चाहे होटल में जाये या फिर मन्दिर में, पुरुष उसको हमेशा एक ही दृष्टि से देखता है। वह दृष्टि कैसी है....उसमें क्या है, इस विषय में तुम्हें अनुभव भी होगा।"
“जी....।" न जाने क्यों उसने बुरा नहीं माना था।
“सुनो, यहां यदि कोई साध्वी भी रहना चाहे तो रह नहीं पाती। क्योंकि भूखा पुरुष कभी इस बात को नहीं चाहता। जो लोग स्वयं गिर चुके होते हैं, वे दूसरों को भी गिराना चाहते हैं। वे अपनी इस आदत से बाज नहीं आते।"
“जी....."
"तब मेरी मानो अनीता, तुम कोई अच्छा-सा लड़का देखकर अपनी शादी कर लो।"
“जी...?"
"इस काम को मैं करूंगा....बोलो...!"
"कुमार साहब!" जैसे उसके भाव उमड़ पड़े थे—“कभी शादी के विषय में भी सोचा था। इसके साथ बहुत सी कल्पनायें भी मैंने की थीं। परन्तु केवल सोचने तथा कल्पनायें करने का नाम ही तो जीवन नहीं है? वक्त ने मुझे धोखा दिया, मेरा अपना सब कुछ लुट गया। और आज....आज मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं है जो कि मैं अपने विषय में सोच सकूँ...."
"फिर क्या सोचती हो तुम...?"
"दुनिया के विषय में....। सोचती हूं, यहां इन्सान को किस प्रकार से जीना चाहिये अथबा मुझे इस दुनिया में कैसे जीना है।"
"फिर क्या समझ में आया?"
"केबल इतना कि मुझे सब कुछ सहन करने के बाद इस दुनिया में जीना पड़ेगा। अपने लिये नहीं तो अपनी वहन के सुखों के लिये।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"कितने ऊंचे विचार हैं तुम्हारे।" वे बोल उठे।
"नहीं कुमार साहब।" उसने कहा था—गरीबी में पैदा हई. पली तथा फिर विवशता में जवान हुई। दुर्भाग्य हमेशा छाया की तरह पीछे लगा रहा। ऐसे में मैं क्या बन सकती थी! हां, यदि विनीत भैया होते तो....."
“खैर, तो फिर करूं कोशिश....?"
"कोशिश....?"
"हां, तुम पढ़ी-लिखी हो....दुनिया का अनुभव है तुम्हें। एक औरत के पास जो कुछ होना चाहिये, वह सब तुम्हारे पास है ही।"
"नहीं कुमार साहब...."
"क्यों....?"
"क्योंकि मुझे केबल सुधा के विषय में सोचना है। हां, यदि सुधा के योग्य कोई लड़का आपको मिल जाये तो....."
कुमार साहब ने और कुछ नहीं कहा था। उनके प्रति उसका सर श्रद्धा से झुक गया था। अगले दिन फिर समय देखकर वे मुन्ने वाले कमरे में आये थे। "अनीता, मेरी समझ में एक बात और आई है....."
"वह क्या....?"
"इस समय यदि तुम सुधा की शादी करोगी तो तुम्हारी जिन्दगी फिर भी अधूरी रह जायेगी। इससे ऐसा करो कि तुम अपनी शादी कर लो। ऐसा करने से तुम सुधा के जीवन को भी सुधारने में सफल हो जायेगी। बाद में उसकी शादी कर देना।"
-
"परन्तु साहब....!"
“मैंने लड़का देख लिया है।"
"कौन है....?" सहसा उसके मुंह से निकल गया था।
"मैं स्व यं....!"
"क्या मतलब....?" वह बुरी तरह चौंकी थी।
“हां अनीता....मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।"
“कुमार साहब! तो आप भी वही हैं....."
"वही कौन?"
"दूसरे लोगों की तरह....औरत के प्रति केबल एक ही धारणा बनाने वाले! दूसरों की तरह किसी की विवशता से लाभ उठाने वाले। कहिए....वही हैं न....?"
"नहीं, मुझमें और उनमें अन्तर है।"
"अब आप अपने को अच्छा साबित करना चाहते हैं।"
उन्होंने कहा था- "बहुत से लोग औरत को बाजार का खिलौना समझते हैं। खेला और जब वह टूटने लगा अथबा पुराना हो गया तो उसे उठाकर फेंक दिया। उनमें ऐसा कोई भी नहीं होता जो किसी को उम्र भर के लिये अपना सके। वे केवल कुछ रातों का सुख चाहते हैं परन्तु मैं....मैं तुम्हें जीवन की सारी खुशियां देना चाहता हूं....तुम्हारी प्रत्येक रात को हासिल करना चाहता हूं....."
"ओह....!"
"मेरे विषय में भी बैसा मत सोचो।"
"फिर...?"
“मैं तुम्हें जीवनभर के लिये चाहता हूं।"
"परन्तु कुमार साहब....आप तो....।"
"शादीशुदा हैं।" उन्होंने उसकी बात को बीच में काटकर कहा था—“यही बात है न? परन्तु अनीता, जैसा तुम समझती हो वैसा कुछ नहीं है। मैं शादीशुदा हूं, परन्तु मेरी पत्नी....। मैं उससे प्यार नहीं कर सकता। वह लकवे की मरीज है....."
"तो क्या हुआ...हैं तो वे आपकी पत्नी ही। एक पत्नी होते हुये भी आप इस तरह की बातें कर रहे हैं। आपको शोभा नहीं देता....."
"परन्तु अनीता....."
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"आप भी वैसे ही हैं कमार साहब। आप भी मेरी विवशता को समझकर उससे लाभ उठाना चाहते हैं। मेरी गरीबी को देखकर....." ठीक उसी समय कमरे में सामने कुमार साहब की पत्नी रेखा को देखकर वह बुरी तरह चौंक गयी। सुधा ने उनकी कुर्सी को थाम रखा था। कुमार साहब तो अवाक रह गये। जैसे कि उनकी चोरी पकड़ी गयी हो। केवल कुछ ही क्षणों की यह चुप्पी असहाय सी हो गई। कुमार साहब कुछ कहते, इससे पहले ही रेखा क्रोध में फुफकारती हुई बोली-"तो मुझसे छुपकर यह नाटक खेला जा रहा है? मुझे इस तरह छुप-छुपकर धोखा दिया जा रहा है। कहो, क्या बात है....?"
बात....कुछ नहीं बीबी जी....दरअसल....।" अपने स्थान पर सही होते हुये भी सत्यता उसके होठों पर न आ सकी थी।
"मैं सब कुछ जानती हूं। आज अपना हिसाब लेकर यहां से चली जाओ।"
"परन्तु बीबी जी...."
“मैं कुछ और सुनना नहीं चाहती।" कहने के साथ ही रेखा ने सुधा को दूसरे कमरे में कसी ले चलने का संकेत किया। सुधा उनकी कुर्सी को धकेलती हुई दूसरे कमरे में ले गयी थी। वह भी वहीं पहुंच गयी थी।
"क्यों आयी हो?"
"बीबी जी, आप गलत समझ रही हैं....वैसा कुछ भी नहीं है।"
"मुझे वहलाने की कोशिश मत करो। यह उठाओ अपना हिसाब...।" उन्होंने मेज पर रखे पर्स में से कुछ रुपये निकालकर अलग रख दिये।
"तो आप भी मुझे दूसरी औरतों जैसा समझ रही हैं।"
"मैं क्या समझ रही हूं, यह मेरी अपनी बात है। तुम अपना हिसाब लेकर चली जाओ....उठाओ इन्हें....।"
वह समझ गयी थी कि रेखा के मन में कुमार और उसके प्रति एक संदेह पैदा हो गया है। अनुनय-विनय करने से कुछ नहीं होगा। उसने कांपते हाथों से रुपयों को उठा लिया। वह जाने को पलटी।
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तभी सुधा ने कहा था-"ठहर जाओ दीदी....मैं भी चल रही हूं।"
"तुम कहां जा रही हो...?" रेखा ने पूछा था।
“बीबी जी।" सुधा ने कहा- हम दोनों वहनें एक साथ रहकर ही बड़ी हुई हैं। हम दोनों के चरित्र में समानता है....।"
"तो....?"
"आज दीदी के चरित्र पर संदेह किया जा रहा है, कल यही बात मेरे सामने भी आ सकती है। इससे तो यही अच्छा है कि मैं भी यहां से चली जाऊं। दीदी के बिना मैं भी यहां नहीं रह सकती।"
"तो तुम भी जा सकती हो।"
"हां बीबी जी....मेरा कुछ हिसाब निकलता हो तो....." एक क्षण के लिये कुछ सोचने के बाद उन्होंने पर्स में से कुछ रुपये निकालकर सुधा के हाथ में थमा दिये थे। उस दिन शाम को वह जी भरकर रोयी थी। कुछ स्वयं पर....कुछ भाग्य पर। अन्त में उसने यह संतोष कर लिया था कि उसके भाग्य में दुनिया का कोई सुख है ही नहीं। इस पर भी उसने साहस नहीं छोड़ा। अन्दर बैठी कोई औरत बार-बार उसे संघर्ष करने की प्रेरणा दे रही थी....उसे जीना था....सुधा के लिये। उसने फिर कोशिश की थी और फिर उसे आया की नौकरी मिल गयी थी। सुधा को पास ही में बच्चों को स्कूल तक छोड़ने का काम मिल गया था। फिर जीबन का क्रम शुरू हो गया। दिन सुख से और रात चैन से व्यतीत होने लगे थे। परन्तु उस दिन....। मालकिन की तबियत खराब थी, उन्होंने उसे वहीं रोक लिया था। रात में वह मुन्ने को लेकर दूसरे कमरे में सोने चली गयी थी। अचानक रात में हड़बड़ाकर उठ बैठी थी। उसने देखा था सेठजी उसके बिस्तर के पास खड़े थे। शायद दरवाजा खुला रह गया था। उसके मुंह से निकला था— आप....."
सेठ बेतुकी हंसी हंसा था—"कई दिन से मौका देख रहा था।"
“सेठजी.....” वह जैसे चीख उठी थी।
"आज तो मेरे मन की पूरी होकर रहेगी....." और पलटकर उसने दरवाजे को बन्द कर दिया। उसकी समझ में नहीं आया था कि वह क्या करे? बुद्धि चकराकर रह गयी। उसने कहा "मेहरबानी करके आप यहां से चले जाइये....."
"क्यों....?"
“मैं हाथ जोड़ती हूं।"
सेठ हो....हो करके हंसा-"हाथ क्यों जोड़ती है? नोट मांग....बोल....बोल कितनी दौलत चाहिये तुझे, हजार....दो हजार...."
"मैं फिर कहती हूं कि आप इसी बक्त कमरे से निकल जाइए। अन्यथा...."
“अन्यथा क्या होगा?" शैतान ने पूछा था।
“मैं...मैं तुम्हारा...."
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09-17-2020, 01:08 PM,
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desiaks
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"मेरा कुछ नहीं होगा। देख, मेरे पास दूसरा इन्तजाम भी है।" इतना कहकर उसने अपनी जेब से एक लम्बा-सा चाकू निकाला था। देखकर कुछ क्षणों के लिये कांपकर रह गयी वह। शैतान चाकू लेकर उसकी ओर बढ़ा-“देख, चाकू तो मैं सिर्फ दिखाने के लिये ले आया हूं....अन्यथा मैं तो इसे चलाना भी नहीं जानता। बात यह है कि मैं तुझसे प्यार करता हूँ....तुझ पर मर मिटा हूं।"
"अपनी सेठानी पर मिटिए सेठजी....। मैं आपकी बेटी की तरह हूं।"
"अरे, छोड़....." वह ठीक पलंग के पास आ गया था। वह बिस्तर से कूदकर नीचे खड़ी हो गयी। परन्तु उस शैतान की आंखों में तो बासना तैर रही थी। उसने लपककर उसकी कलाई थाम ली। उसने शैतान को धक्का दिया। वह गिरा तो नहीं परन्तु उसके हाथ से चाकू छटकर नीचे गिर पड़ा था। जिसे उसने उठा लिया। वह गरजी, "कमीने! शैतान! यदि एक कदम भी आगे बढ़ाने की कोशिश की....तो मैं तेरा खून कर दूंगी।"
सेठ बेतुकी हंसी हंसा-"अरी चल....तेरे जैसी न जाने कितनी देखी हैं। आज की रात मैं तुझे छोड़ने वाला नहीं हूं....।"
शैतान ने फिर उसकी कलाई पकड़नी चाही। वह फिर पीछे हटी। देर तक यही चलता रहा था। शायद शैतान उसे बिल्कुल भी छोड़ने के पक्ष में नहीं था। वह उस पर टूट पड़ा। उसे बचाव के लिये चाकू का प्रयोग करना पड़ा था। चाकू शैतान के पेट में उत्तर गया। उसके हाथों खून हो चुका था। शैतान कुछ देर तक तड़पकर फिर ठंडा हो गया। अब उसे होश आया था कि उसके हाथों अच्छा नहीं हुआ। फांसी का फंदा और जेल की दीवारें उसकी आंखों के सामने घूमने लगी थीं।
और फिर वह जल्दी से उस कमरे से निकलकर बाहर आ गयी। किसी प्रकार कोठी से निकल सड़क पर आ गयी। और जिस समय वह अपने कमरे के सामने पहुंची, उसका सारा बदन पसीने से तर-बतर हो गया था। दरवाजा अन्दर से बन्द था। उसने सुधा को आवाज लगायी। काफी देर के बाद दरवाजा खुला। सुधा ने उसकी ओर देखकर कहा-"दीदी तुम....।"
“हां सुधा....मुझसे....मुझसे..." वह हकलायी। उसने दरवाजे को बन्द कर दिया।
"क्या हुआ दीदी....?"
"मेरे हाथों उस सेठ का खून हो चुका है सुधा।"
"ओह दीदी....मुझसे भी....एक खून......"
“क्या....?" वह बुरी तरह चौंकी।
"हां दीदी, बिल्कुल अभी आ रही ह। आज मुझे बीबी जी ने रोक लिया था। राजेन्द्र मेरी इज्जत को....मैंने बोतल से उसका सिर फोड़ दिया। किसी को पता नहीं चला। मैं कोठी की दीवार फांदकर भाग आयी।"
"ओह....।"
"अब क्या होगा दीदी?” सुधा भी घबरा गयी- पुलिस आयेगी।"
"पुलिस...." सुधा कांपने लगी थी।
"हां....और हम दोनों को गिरफ्तार करके फांसी पर चढ़ा देगी।"
"नहीं दीदी नहीं।" सुधा की आवाज कांपकर रह गयी— दीदी, हमें यहां से भाग जाना चाहिये....कहीं दूर। हम पुलिस के हाथों से बच जायेंगे।"
प्रत्युत्तर में वह अपना सिर थामकर बहीं बैठ गयी। दोनों की किस्मत एक जैसी होगी, वह ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकती थी। समय ने भी उनके साथ कैसा निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया था। वह जितना भी जीने की कोशिश करती....दुर्भाग्य उसे उतना ही अपनी ओर खींच लेता था। एक खेल ही तो था भाग्य का....।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"दीदी।” सुधा ने उसकी चुप्पी को तोड़ा था—“इस तरह बैठने से क्या होगा? मुझे तो एक नौकर ने दीवार फांदते हुए भी देख लिया था।"
"देख लिया था?" वह तुरन्त उठकर खड़ी हो गयी।
"हां दीदी.....”
"ओह....."
“जल्दी सोचो दीदी....यदि पुलिस आ गयी तो...?" उसने एक बार बन्द दरवाजे की ओर देखा। जैसे कि वास्तव में बाहर पुलिस खड़ी थी। उसका मस्तिष्क चकराकर रह गया। क्या करे? सारी समस्यायें....सारी उलझनें....सारी मुसीबतें इसी प्रश्न में समाकर रह गयी थीं। कुछ भी तो सुझायी न दे रहा था उसे।
"दीदी.....।"
“ो....हां....।" वह जैसे नींद से जागी।
"जल्दी सोचो दीदी।”
"लेकिन सुधा, क्या सोचं....." शब्दों में वेदना के साथ-साथ विवशता भी थी—“यहां से निकलकर हम दोनों जायेंगे भी कहां? कौन है हमारा जो हम दोनों को सहारा देगा? पुलिस किसी न किसी दिन हमें गिरफ्तार कर ही लेगी। बाद में....?"
"परन्तु दीदी....इस समय तो कुछ सोचो।" सुधा ने अपने शब्दों पर जोर दिया-"हमारे पास कुछ पैसे भी हैं। हम दूर किसी बड़े शहर में चले जायेंगे। हो सकता है हम लोग पुलिस की दृष्टि से भी बच ही जायें....।"
"ठीक कहती है तू।"
"चलो फिर...."
"एक काम कर, दोनों के जरूरी कपड़े छोटे बाले ट्रक में भर ले। पैसे ले और चल। जो भी गाड़ी जायेगी, उसी से निकल जायेंगे।"
"ठीक है दीदी।” सुधा फुर्ती से अन्दर चली गयी। वह बाहर दरबाजे के पास बैठी आहट लेती रही थी। कहीं पुलिस उसका पीछा करती हुई न आ जाये। दोनों ने कुछ ही देर बाद उस मकान को छोड़ दिया। सन्दूक उसी के हाथ में था और वे सड़क-सड़क आगे बढ़ रही थीं। मन में भय समाया हुआ था। चेहरों पर घबराहट थी। अवाले चौराहे पर पुलिस के गश्ती सिपाही की आबाज कानों में पड़ी तो दोनों ऊपर से नीचे तक कांपकर रह गयी थीं। "कौन हो....?"
उसने अपने आपको संभाला था— दीखता नहीं है क्या, स्टेशन जा रहे हैं।"
"स्टेशन! इस समय?" कांस्टेबिल के मन में शंका उभरी।
"क्यों, रेलगाड़ियां रात के समय नहीं चलती क्या?"
“चलती तो हैं....परन्तु.....”
"अपना काम देखो....समझे....." उसने अपनी आवाज को कठोर बनाया।
सुनकर वह कांस्टेबिल सकपका गया। उसने कहा _____"रात के समय आने-जाने वालों पर निगाह रखनी ही पड़ती है। आप चली जाइये....आगे टाकीज के पास आप लोगों को रिक्शा भी मिल जायेगी।"
"ठीक है।” दोनों आगे बढ़ गयीं। आगे चलकर सुधा ने कहा था-"दीदी, मैं तो कांप ही गयी थी।"
" डर ने से काम नहीं चलता पगली....."
"और यदि वह सिपाही हमें रोक लेता.....तब?"
"क्यों रोक लेता? यदि मैं डर जाती तो मामला बिगड़ भी जाता। सुन, जो होना था, वह तो हो ही चुका। अब तो उस मामले को सुधारने में ही भलाई है। तुझे घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। मैं सब कुछ ठीक कर लूंगी।"
"पता नहीं क्या होगा दीदी....."
"सब कुछ ठीक हो जायेगा। हां, एक बात का ध्यान रखना....कोई पूछे तो अपना नाम निर्मला बता देना। याद रहेगा?"
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