Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:10 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अब कहां जायेगा? वह पागलों की तरह खड़ा हआ सामने की सड़क पर गाड़ियों का आना-जाना देख रहा था। तभी एक रिक्शा चालक ने उसका ध्यान तोड़ा “कहीं जाओगे बाबू?"

“सोच तो रहा हूं....” उसने एक गहरी सांस ली।

"चलिये फिर....!"

"लेकिन कहां? अभी तो मुझे कुछ भी पता नहीं है।"

"मैं समझ गया बाबू....किसी होटल में?"

"होटल में नहीं। खैर....तुम जाओ.....मैं खुद चला जाऊंगा।" रिक्शा चालक निराश होकर चला गया। वह अपनी मुर्खता पर स्वयं ही मुस्करा दिया। जब उसे इस बात का पता ही नहीं था कि लखनऊ जाकर वह क्या करेगा तो उसे यहां आने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी नजर दो कांस्टेबिलों पर पड़ी जो उसकी ओर ही आ रहे थे। विनीत के सारे विचार एक साथ ही हवा में उड़ गये। वह एक अनजाने भय से कांप उठा। निश्चय ही पुलिस उसका पीछा करती हुई यहां तक आ पहुंची थी। यह सोचकर वह अपने स्थान से हटकर आगे बढ़ने लगा। उसकी धारणा निर्मूल निकली। पुलिस वाले आगे बढ़ गये थे। वह मुख्य सड़क पर आ गया। सहसा उसकी नजर दो लड़कियों पर पड़ी जो सड़क पार करके एक दूकान की ओर बढ़ रही थीं। न जाने क्यों उसके मन ने कहा कि इन्हीं दोनों को सुधा अनीता होना चाहिये। उसने जल्दी से सड़क पार करने की सोची। परन्तु....!

उसे एक जबरदस्त धक्का लगा....मुंह से चीख निकल गई और वह सड़क पर गिर पड़ा। दोनों ओर का ट्रेफिक रुक गया। लोगों की भीड़ लग गयी।
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मजदरों की यह बस्ती शहर से दर थी। कभी कोई इक्का-दका ब्यक्ति ही इस ओर घूमने निकल आता था। अन्यथा ये लोग जैसे दुनिया से भी बिल्कुल अलग-अलग पड़े थे। इनकी बोल-चाल....रस्म-रिवाज सभी कुछ शहर के लोगों से भिन्न थे। सबेरे ये अपने झोपड़ों से निकलकर काम पाने के लिये शहर में चले जाते थे। दिन भर मजदूरी करते और शाम को वापिस लौट आते थे। यही इन लोगों का जीवन था। अनीता पढ़ी-लिखी थी। शुरू में तो नहीं, परन्तु कुछ दिनों बाद लोग अनीता की इज्जत करने लगे थे। अनीता ने भी अपने को एक दूसरे रूप में बदल लिया था। वह दूसरी झोपड़ियों में जाती और उन मजदूर औरतों को रहने का सलीका सिखलाती। धीरे-धीरे उसका प्रभाव बढ़ने लगा। लोग उसे एक नयी दृष्टि से देखने लगे। पूरी बस्ती में केबल मंगल नामक व्यक्ति ही ऐसा था जो अपने को न बदल सका था। उसकी लोलुप दृष्टि हर समय सुधा की ओर लगी रहती थी। अक्सर वह अपने साथियों से कहता-"तुम कितने भी उसके आगे-पीछे चक्कर लगाओ, वह चिड़िया तुम्हारे जाल में फंसने वाली नहीं है। परन्तु हां, यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं उन दोनों को तुम्हारे कदमों में डाल दूंगा।" दो-चार मनचले उसकी बात को सुनते तो अवश्य, परन्तु अपनी ओर से करते कुछ भी न थे। मंगल के दिल में जो आग सुलग रही थी, वह किसी प्रकार से कम न हो सकी। वह तरह तरह की योजना बनाता और उन्हें स्वयं ही मिटा डालता। कोई भी ठीक युक्ति उसकी समझ में नहीं आ रही थी। वह केवल सोच कर ही रह जाता था। अनीता इस विषय में सब कुछ जानती थी। उसने सुधा को कहीं अकेले भेजना भी बंद कर दिया था। दोनों साथ ही रहतीं। एक दिन सुधा कह बैठी— दीदी, लगता है हमें इस बस्ती को छोड़कर भी कहीं जाना पड़ेगा।"

"क्यों ....?"

"तुम तो स्वयं देखती हो....."

"देखती तो हूं।"

"एक दिन तो मैं यह सोच बैठी थी कि जहां एक खून अनजाने में कर डाला, बहीं एक खून और सही....। मंगल की नीचता मुझसे देखी नहीं जाती।"

"वह तो है सुधा।” अनीता बोली-"परन्तु जब आदमी का समय उसके पक्ष में न हो तो उसे हर बुरे काम से बचना चाहिये। एक ही खून करने का तो यह नतीजा है कि हम दोनों इस हालत में आ पहुंची हैं—पता नहीं फिर क्या होगा....।"

एक-न-एक दिन कुछ होना ही है दीदी। पुलिस की निगाह से भी हम हमेशा तक तो बच नहीं सकतीं। कभी न कभी तो....।"

“यह तो मैं भी सोचती हूं।"

"फिर....?"

“मैं भी जानती हूं कि कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं। हम हमेशा तक उसकी पकड़ से दूर नहीं रह सकतीं। परन्तु इससे पहले में कुछ और सोच रही हूं....।"

"वह क्या....?"

"कोई अच्छा-सा लड़का देखकर तेरी शादी कर दूं।"

“दीदी!" सुधा सहसा ही उदास हो गयी—“तुम्हें ऐसा कुछ कहना नहीं चाहिये जिसे सुनकर हमारी किस्मत हम पर और भी नाराज हो जाये। तुम जानती हो....हमारे जीवन में सुख की घड़ी कभी नहीं आयेगी....और जब तक बड़ी वहन अपने संसार को न संवार ले, तब तक छोटी वहन को सुख से जीने का कोई हक नहीं होता।"

“पगली है तू...." सुधा ने बात बदली—“दीदी, हमें यहां से जाने में क्या बुराई है।"

"बुराई....?"

"हां....मेरा मतलब....मेरा तो इस बस्ती में मन नहीं लगता।"

"ओह....!" अनीता कुछ सोचने लगी। सोचते-सोचते ही उसे नींद ने दबोच लिया। सबेरे दोनों जल्दी उठीं और उठकर लाइन पर कोयला चुनने के लिये चली गयीं। कोयले को बेचकर लौटीं तो दोपहर हो गयी। वहां ठेकेदार को अपनी प्रतीक्षा में बैठे हुये पाया। ठेकेदार, जो कभी मजदूर ही था, अब किस्मत ने उसे इस जमीन का मालिक बना दिया था। वह भी अच्छा आदमी नहीं था। जब भी मिलता, इन दोनों वहनों को घूर-घूरकर देखने लगता। अनीता उसकी बुरी निगाह को देखकर भी अनदेखा कर देती थी। वैसे ठेकदार में कभी इतना साहस नहीं हुआ था कि वह सीमा लांघने की सोचता।
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09-17-2020, 01:10 PM,
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"कोई काम था?” अनीता ने उसे बैठे देखकर पूछा।

"काम ही क्या, इधर से गुजर रहा था....सोचा अपने आदमियों से मिलता ही चलूं। तुम सुनाओ....मेरे योग्य कोई काम हो तो....!"

“सब आपकी कृपा है।"

“कृपा तो ऊपर बाले की है कि उसने इतना खूबसूरत जोड़ा इस जंगल में भेज दिया....। वरना यहां क्या था....।" उसकी निगाह अनीता के चेहरे पर फिसलने लगी।

"ठेकेदार साहब, शायद आपकी तबियत ठीक नहीं है। यदि तबियत ठीक होती तो कभी भी ऐसी बात मुंह से न निकालते।"

"तुम तो बुरा मान जाती हो अनीता। तुम्हारे में सबसे बड़ी कमी यही है कि जो तुम्हें समझाना चाहता है, तुम उसी को बुरा समझने लगती हो। तुम पढ़ी-लिखी हो। खूबसूरत हो, तुम्हें तो कोई अच्छी सी नौकरी मिल सकती है।"

"अच्छा !"

"मेरी निगाह में है।"

"क्या है?"
“एक-दो नौकरियां। कहो तो बात पक्की करा दूं...?"

"आपका कमीशन क्या होगा?"

ठेकेदार को अपनी बात बनती सी दिखलायी दी। उसने इधर-उधर देखकर कहा
- "कमीशन....जो भी तुम्हारी इच्छा हो....!"

“मतलब...?"

"पहले तुम शहर चलकर काम तो देख लो।"

“बता दो....बाद में देख लूंगी।"

"मेरे पड़ोस में दो-तीन बच्चे हैं, उन्हें पढ़ा दिया करना। अच्छे खासे पैसे मिलेंगे। पड़ौसी का मकान काफी बड़ा है। रहने की जगह भी मिल जायेगी।"

"मकान मालिक का नाम क्या है?" अनीता ने पूछा।

"रूपचन्द आलूबाला....."

"खैर, मैं किसी दिन जाकर उनसे स्वयं बात कर लूंगी।"

ठेकेदार महाशय चाहते थे कि अनीता उसके साथ ही शहर चले। अकेले में उससे दो चार बातें हो ही जायेंगी। परन्तु अनीता ने उसकी बात ही काट दी थी। ठेकेदार कुछ देर तक तो बैठा रहा, परन्तु जब अनीता ने उससे अधिक बातें न की तो वह उठकर चला गया। अनीता उसके मन में छुपे हुये चोर को समझ गयी थी। लेकिन ठेकेदार की बातों से उसे कुछ मिला था। वह बच्चों के पढ़ाने वाली बात यूं ही तो कह नहीं सकता था। जरूर रूपचन्द आलूवाले से उसने जिक्र किया होगा। यहीं अनीता ने सोच लिया था कि वह रूपचन्द से अवश्य मिलेगी। वह भी इस बस्ती में रहते हुए तथा रोजाना कोयला चुनती हुई ऊब गयी थी। उस केस को हुये दो महीने से ऊपर हो चुके थे। अनीता का विचार था कि पुलिस हार थककर बैठ गयी होगी। सुधा ने भी तो कहा था कि इस बस्ती में उसका मन नहीं लगता। वह अपनी वहन की बात को कैसे टाल सकती थी।

उधर ठेकेदार सीधा मंगल से मिला। मंगल तथा उसमें एक दो बार पहले भी बातें हो चुकी थीं। इस समय मंगल अपनी झोंपड़ी के सामने चटाई बिछाकर दण्ड-बैठक लगा रहा था। मंगल को इस बात से कोई सरोकार न था कि दोपहर है या शाम। उसे दिन में एक बार कसरत अवश्य करनी थी। कुछ दिनों से उसे पहलवानी का शौक लग गया था। ठेकेदार को देखते ही मंगल झोंपड़ी में गया और चारपाई ले आया। आइये ठेकेदार साहब....बैठो।" मंगल ने बीड़ी का बंडल माचिस चारपाई पर डाल दिया और उसे बैठने का संकेत किया।

"तो कसरत हो रही है....." ठेकेदार बैठ गया।

"अजी, कसरत को मुझे कौन सी पहलवानी करनी है।" मंगल ने कहा- दो चार दण्ड बैठक लगा देता हूं तो शरीर में फुर्ती आ जाती है। तुम सुनाओ, चिड़िया मिली?"

"कौन.....?"

"इस जंगल में दो ही पंछी हैं ठेकेदार साहब.... | बस उनके होते हुये ही जंगल में मंगल-सा दिखलायी पड़ता है।"

“वह तो पड़ेगा ही।"

"क्यों ....?"

“अरे तुम मंगल जो हो।" दोनों की सम्मिलित हंसी का स्वर गूंजा। हंसी रुकने पर मंगल ने कहा-"औरतों के बारे में सुना भी बहुत कुछ है और देखने को भी। लेकिन इन दोनों में कमाल है। बात करो तो सीधे मुंह बात भी नहीं करतीं। चक्कर ही समझ में नहीं आया...."

“चक्कर तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा मंगल।”

"क्यों...?" मंगल ने ठेकेदार की ओर देखा। ठेकेदार ने एक बीड़ी सुलगायी और फिर कहा- ये दोनों वहनें शहर की रहने वाली हैं। यदि इनसे शहरी तरीके का प्यार किया जाये तो बन भी सकता है।"

“मतलब...?"

"अरे, क्या तुमने शहर में नहीं देखा? लड़की सड़क पर चलती है। पीछे से लड़का फिल्मी गाना गाता हुआ चलता है, 'रुक जा ओ जाने वाली रुक जा'। लड़की या तो रुक जाती है और यदि नहीं रुकती तो लड़का फिर कहता है तुम रूठो ना हसीना....मेरी जान पे बन जायेगी।' उस लड़की का दिल पिघलकर मोम बन जाता है। एक दिन वह खुद ही प्यार के गीत गाने लगती है। हो गयीन मुहब्बत।"
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09-17-2020, 01:10 PM,
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"बाह, ठेकेदार साहब।” मंगल उछलकर खड़ा हो गया—"तुम तो ऊंचे दरजे के उस्ताद निकले। यदि पहले से यह बात बता देते तो मैं इन दोनों को पिघला कर डालडा घी बना देता। चलो अब सही....।"

ठेकदार खुश हो गया। उसे कोई तो शागिर्द मिला था। उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि इतने पते की बात उसके मुंह से कैसे निकल गयी। उसने फिर उस्तादों बाले लहजे में कहा— लेकिन पहलवान, जरा देख-भालकर काम करना।"

"क्यों "

इस मामले में भी खतरा है।"

"लेकिन इसमें क्या खतरा हो सकता है?" मंगल ने पूछा। उसका ख्याल था कि प्यार करने का इससे आसान तरीका कोई और हो ही नहीं सकता। ठेकेदार के पते की बात सुनकर उसका चेहरा जो खिला था, सहसा ही उदास हो गया। ठेकेदार ने सुनी-सुनायी बात बतायी—"इस मामले में भी खोपड़ी का नम्बर आ जाता है मंगल। इसलिये जरा देखभाल कर काम करना।"

"मैं समझा नहीं।"

“यदि लड़की को लड़का पसन्द न हो तो वह चप्पलों से मरम्मत करनी शुरू कर देती है। दुनिया तमाशा देखती है।"

"तो तुमने मंगल को भी ऐसा ही समझ लिया क्या?"

"देख लो....."

"ठेकेदार साहब, मेरे कसरती शरीर को नहीं देख रहे? रोजाना पचास ग्राम सरसों के तेल की मालिश करके डंड और बैठक लगाता हूं। अगर अनीता या सुधा ने मेरी ओर चप्पल भी उठायी तो साली की हड्डियां तोड़कर रख दूंगा।"

"बैसे तुम्हारे सामने ऐसी बात आयेगी ही नहीं।" ठेकेदार ने हंसते हुए कहा।

"तुम्हारी दुआ चाहिये।” ठेकेदार की कुछ खातिर बगैरह करनी थी। अतः मंगल झोंपड़ी में चाय बनाने के लिये चला गया। ठेकेदार मन-ही-मन मुस्करा उठा।

आज से नहीं, जब से ये दोनों वहनें इस बस्ती में आयी थीं, ठेकेदार की निगाह उन दोनों पर थी। ऐसा होना स्वाभाविक था। यदि रेगिस्तान में कोई फूल खिल जाये तो आसपास की झाड़ियों में उगे कांटे उसकी ओर देखने ही लगते हैं। सुधा और अनीता....ये तो दोनों अकृती जबानियां थीं। किसी भी पुरुष का आकर्षित होना स्वाभाविक था। ठेकेदार अपने मन की बात अनीता से कई बार कह चुका था। सीधे तरीके से तो कहने का सवाल ही नहीं था। हां, घुमा-फिराकर कई दफा कहा था। हर बार उसे रूखा तथा उल्टा ही जवाब मिलता था। मंगल की तरह वह झुलसा नहीं था। उसने केबल यह सोच लिया था कि दोनों वहनें साधारण औरतें नहीं हैं। कुछ भी कहना बेकार है। उसने मंगल से जो कुछ भी बताया था, वह मंगल को बना रहा था। और मंगल इस बात पर खुश था कि उसे एक उस्तादी का दांव मिल गया है। वह दो गिलासों में चाय तैयार करके ले आया। ठेकेदार की ओर उसने एक गिलास बढ़ाकर कहा-"मेरे लायक कोई सेवा बताओ।"

"तुम अपने काम में कामयाब हो जाओ, इतना ही काफी है।" थोड़ी देर के बाद ठेकेदार चला गया। मंगल ने जल्दी से कल के धुले हुये कपड़े पहने, बालों में तेल भी लगाया। सुरती बनाकर मुंह में डाली और झोंपड़ी से बाहर जाने लगा। ठिठककर वह रुक गया। जिस काम के लिये वह जा रहा था, उसके लिये दो फिल्मी गानों का याद होना बहुत जरूरी था। सोचने पर उसे पता चला कि उसको दो चार गाने बिल्कुल उसी तरह के याद हैं जैसे कि ठेकेदार ने सुनाये थे। एक बार दुहराकर भी देखा।

चलकर वह अनीता की झोंपड़ी के सामने आ गया और सामने वाले पेड़ के चबूतरे पर बैठकर इधर-उधर देखने लगा। सुधा और अनीता झोपड़ी से बाहर चारपाई पर बैठी हुई मंगल ने ऊंची आवाज में गाना शुरू किया-"तेरे घर के सामने....एक घर बनाऊंगा।" उसने कई 'बोल 'दोहराये। परन्तु अनीता अथवा सुधा ने उसकी ओर एक बार भी पलटकर नहीं देखा। मंगल सोच रहा था नुक्ते में कोई कमी तो है नहीं, फिर क्या हुआ? तभी वह चौंका। अनीता उठकर उसकी ओर ही आ रही थी। वह कुछ सकपका गया।

अनीता ने उसके बिल्कुल करीब आकर कहा "क्या बात है?"

"बात....बात....।" वह हकलाया।

"हां, खुलकर कहो....इस तरह गाने से क्या लाभ....."

मंगल तनिक हंसा-"अब क्या बताऊं...?"

“जो भी हो...बही बता दो...."

“दरअसल मैं........."

"कह भी डालो...." अनीता ने शांत स्वर में कहा।

"बात यह है कि मैं रात-दिन परेशान-सा रहता हूं।" मंगल ने कहा।

"क्यों....?"

"हर वक्त तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूं।"

"ऐसी क्या बात है?"

"दरअसल मुझे....मुझे तुम दोनों से प्यार हो गया है। समझ में नहीं आता क्या चक्कर है? मुझे तुम्हारे चक्कर में खाना-पीना भी नहीं सूझता।"

"अच्छा ...."

"क्या तुम मुझ पर रहम नहीं खाओगी।"

"क्यों नहीं....." कहने के साथ ही अनीता के दांये हाथ का भरपूर थप्पड़ मंगल के गाल पर पड़ा। तुरन्त वह बोली-“खबरदार! यदि फिर इस तरह की गन्दी हरकत करने की कोशिश की तो....। शर्म नहीं आती?"

“अनीता....।” मंगल जैसे चीख उठा। वह इस बात को कैसे सहन कर सकता था कि कोई लड़की उसे थप्पड़ मार दे।

"मुझे बाजारू औरत मत समझना।"
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09-17-2020, 01:11 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“मैं तुम दोनों को बाजारू बनाकर ही छोडूंगा।” मंगल उठकर गुस्से से पैर पटकता हुआ अपनी झोंपड़ी की ओर चला गया।

अनीता सुधा के पास आ गयी। सुधा ने सब कुछ देख ही लिया था। अनीता के आते ही वह बोली- दीदी, यह अच्छा नहीं हुआ।

"क्या ....?"

"मंगल तो बहुत ही बुरा आदमी है।"

"तो....."

"तुम्हें उससे नहीं उलझना चाहिये था।"

"पगली है तू।" अनीता बोली—“सुन! इस दुनिया में शराफत की कोई कीमत नहीं। यदि मैं मंगल को कुछ न कहती तो वह आगे बढ़ सकता था।"

"परन्तु दीदी...."

"तू चिन्ता मत कर सुधा। मैं तेरी बड़ी वहन हूं ना.....तेरी मां भी मैं ही हूं। मेरे होते कोई तेरी ओर उंगली भी नहीं उठा सकता। मैं अपने को मिटा डालूंगी, लेकिन तुझे कुछ भी न होने दूंगी। सब ठीक हो जायेगा।"

"दीदी...."
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विनीत ने चौंककर अपनी आंखें खोली। उसके मुंह से कराह भरा स्वर निकला—“मैं कहां हूं....?"

"तुम अस्पताल में हो।" सुनकर वह और भी बुरी तरह से चौंका। उठने की कोशिश की परन्तु दर्द के कारण उठन सका। उसे ध्यान आया कि वह सड़क पार करते समय एक कार से टकराकर गिर पड़ा था। वह तुरन्त ही बेहोश हो गया था। अब इतने समय बाद चेतना लौटी थी।

सहसा ही उसका हाथ अपने माथे पर बंधी हुई पट्टी की ओर चला गया। इससे पहले कि वह कुछ पूछता, निकट खड़े डॉक्टर ने कहा-"कुछ नहीं, मामूली सी चोट है....। जल्दी ठीक हो जायेगी। इसके अलावा और कुछ नहीं हुआ।"

“बैंक्यू डॉक्टर।” उसने कहा।

"क्या नाम है तुम्हारा?"

"विनीत ।"

“यहीं रहते हो...?" डॉक्टर उसके विषय में जानना चाहता था।

"नहीं.....” उसने उत्तर दिया।

"फिर....? दरअसल हमें रजिस्टर में तुम्हारा नाम-पता लिखना पड़ेगा। कागजी कार्यबाही भी पूरी करनी जरूरी होती है....."

विनीत खामोश रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि वह डॉक्टर के प्रश्न का क्या उत्तर दे? वह तो एक बेघर -बेसहारा इन्सान था। एक्सीडेन्ट हो गया तो भले लोगों ने उठाकर अस्पताल तक पहुंचा दिया। मर जाता तो श्मशान घाट तक छोड़ने वाले भी मिल ही जाते। लेकिन वह मरा नहीं था, जिन्दा था। अभी दुनिया के बहुत से दुःख उसे उठाने थे।

डॉक्टर ने फिर अपनी बात दुहराई—“कहां रहते हो?"

"डॉक्टर, इतने समय से यही सोच रहा था कि आपके प्रश्न का क्या उत्तर दं? हां, एक बात बताइए....जो लोग नंगी धरती पर खुले आकाश के नीचे रहते हैं, उन्हें आप क्या कहते हो?"

“मतलब....?"
ऐसा भी तो कोई आदमी आपके पास आया होगा?"

“बहुत से आते हैं। परन्तु तुम....?"

“डॉक्टर, मेरा कहीं घर नहीं है। मेरा कहीं ठिकाना नहीं है। मैं एक.....एक बेसहारा इन्सान हूं। मेरा कोई नहीं है।" विनीत एक ही सांस में कह गया। डॉक्टर ने अजीब सी निगाहों से विनीत की ओर देखा। तभी एक लड़की ने उस कमरे में प्रवेश किया। आते ही उसने डॉक्टर से पूछा- क्या हुआ डॉक्टर?"

“होश आ गया है।"

"कुछ अपने विषय में बताया?"

"लगभग कुछ नहीं....शायद तुम पूछ सको।"

लड़की विनीत के पास आ गयी। उसने एक बार उसकी ओर देखा फिर पूछा-"आपका नाम?"

“विनीत ....परन्तु आप....."

मेरा नाम विभा है....आप मेरी गाड़ी से टकरा गये थे। शायद आप बेहद जल्दी में थे इसीलिये आपने ट्रेफिक पर भी ध्यान नहीं दिया था....."
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09-17-2020, 01:11 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“मुझे अफसोस है।" विनीत ने कहा।

"परन्तु मुझे खुशी है कि आप बच गये। अन्यथा आपकी इतनी लम्बी बेहोशी को देखकर मैं तो घबरा ही गयी थी।"

मेरे जैसे इन्सान के कारण आपको घबराना नहीं चाहिये था। यदि मर भी जाता, तब भी आपसे कोई पूछने न आता।" विनीत ने कहा। लड़की खामोश हो गयी। वह डॉक्टर की ओर मुखातिब हुई—"डॉक्टर, क्या मैं इन्हें....?"

डॉक्टर ने उसके आशय को समझकर कहा-“ले जा सकती हैं। सिर के पिछले हिस्से में गुम चोट लगी है। मैं कुछ टेबलेट्स लिखे देता हूं, आप देती रहिएगा। हां, इनकी बेहोशी को देखकर इनके लिये आठ दस दिन आराम करना बहुत ही जरूरी है।" डॉक्टर ने दवाई लिखकर, विनीत की बांह में एक इंजेक्शन और लगाया। उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। बाहर तक चलने में उसे किसी प्रकार की दिक्कत महसूस नहीं हुई। अस्पताल में कम्पाउंड में आकर वह रुक गया। सिर कुछ चकरा रहा था। वह लड़की साथ थी।

उसने विनीत को रुकते देखकर कहा— “गाड़ी सामने खड़ी है....बस दस कदम और।"

"नहीं...."

"क्यों....?"

"अभी मुझे आराम की जरूरत है। मैं कुछ देर घास पर बैलूंगा। तबियत ठीक हो जायेगी। फिर खुद ही चला जाऊंगा....आप जाइए....!"

“लेकिन डॉक्टर ने...!" विनीत ने उसकी बात को रोककर कहा-"आराम के लिए कहा है...और वह भी आठ दस दिन तक। लेकिन मैं आराम नहीं कर सकूँगा....!"

"क्यों...?"

“यदि किस्मत में आराम होता तो आपकी गाड़ी से ही न टकराता....!" कहकर विनीत ने एक लम्बी सांस भरी और फिर कहा-"सभी की किस्मत में आराम करना नहीं होता....."

विभा ने उसके चेहरे पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली। उसे यह युबक रहस्यमय-सा लगा। कपड़े तो बिल्कुल साधारण थे परन्तु चेहरे पर आकर्षण था। "आप लखनऊ में ही रहते हैं?"

नहीं....."

"फिर....?"

"विभाजी, मैं फुटपाथ पर रातें काटने वाला इन्सान है। आप मेरे लिये बिल्कुल भी परेशान न हों। फिलहाल चोट के कारण सिर चकरा रहा है। तबियत ठीक हो जायेगी तो कहीं-न कहीं चला ही जाऊंगा। मैं बिल्कुल ठीक हूं।"

"मिस्टर विनीत, चूंकि मेरी गाड़ी से आपको चोट लगी है, इसलिये आपके प्रति मेरा कुछ फर्ज हो जाता है। मैं आपको ले चलने के लिये इतनी जिद भी न करती यदि डॉक्टर ने आपके सिर की चोट को खतरनाक न बताया होता। आपको मालूम होना चाहिए कि ठीक तीन घंटे बाद आप होश में आये हैं। यह सब सिर की चोट के कारण ही हुआ है।"

“मुझे विश्वास है कि मुझे कुछ नहीं होगा।"

“विश्वास तो आपको उस समय भी था जब आप भागकर सड़क पार कर रहे थे....। लेकिन आपका विश्वास टूट गया और आपको अस्पताल में आना पड़ा।" विनीत निरुत्तर-सा हो गया। विभा ने कहा- आइए...."

“विभा जी...आप....."

"जिद नहीं कर रही....समझदारी की बात कर रही हूं। यदि आपकी तबियत दो चार दिन बाद ही ठीक हो जाये तो आप चले जाना। मैं रोकुंगी नहीं।" उसने एक बार विभा की ओर देखा। न जाने उसकी आंखों में कैसा जादू था कि वह इन्कार न कर सका। विभा के अधर एक बार फिर खुले-"चलिए....." विभा ने उसे सहारा दिया और कार तक ले आयी। वह बिना सहारे भी चल सकता था, परन्तु उसका सहारा पाकर जैसे उसका मुाया चेहरा खिल उठा था। गाड़ी सड़क पर दौड़ रही थी और विनीत अपने विचारों में उलझा हुआ, गुम-सुम बैठा था। जिंदगी उसे कहां-से-कहां ले आयी थी। अभी आगे का भी कुछ पता न था।
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विभा शांत गाड़ी चला रही थी। पता नहीं विभा के चेहरे में ऐसा क्या आकर्षण था कि वह बार-बार कनखियों से उसकी ओर देखने पर विवश हो जाता था। उसने विभा की ओर छुपी दृष्टि से देखा तो विभा ने उसे देख लिया। अपनी इस चोरी पर वह बुरी तरह झेंप गया तथा झेंप मिटाने के लिये खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा। लेकिन आंखों की पुतलियां बार-बार उसी की ओर घूम रही थीं। चाहकर भी वह अपने मन को उस ओर से न हटा सका। लम्बी खामोशी को तोड़ते हुए विभा ने पूछ लिया—क्या काम करते हो?"

सुरीले शब्दों को सुनकर वह चौंका—“जी....?"

"मेरा मतलब, सर्बिस या कॉलेज....?"

"दोनों में से कुछ नहीं।" उसने बताया- बी.ए. करने के बाद ही पढ़ना छोड़ दिया था।"

“तो जनाब लखनऊ में नौकरी की तलाश में घूम रहे थे?"

“जी नहीं।" उसने उदास लहजे में कहा- अभी जिंदगी को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि मैं नौकरी कर सकू। कई दूसरे काम ऐसे हैं जिन्हें पूरा करने के बाद ही अपने जीवन के विषय में सोचा जा सकता है।"

"दूसरे काम....?"

"हां—कुछ ऐसे अभाब जिन्हें पूरा करने के लिये शायद मुझे जिंदगी भर भटकना पड़े। पता नहीं कब तक....।"

विभा तनिक मुस्करायी। वह कुछ और ही समझ बैठी थी, उसने कहा- यह रोग भी आजकल आम हो गया है। इस पर मजेदारी की बात यह है कि हमारे वैज्ञानिक अभी तक इस रोग का निदान नहीं खोज पाये हैं।"

"जी....?"

"इश्क का रोग।" बिभा कहे जा रही थी—“पता नहीं लड़के लड़कियां इस रोक का शिकार ही क्यों हो जाते हैं?"

"आपने गलत समझा।"

"क्या मतलब....?"

“मैं किसी रोग का रोगी नहीं हूं।"

"और...?" विभा ने जिज्ञासा व्यक्त की।
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09-17-2020, 01:11 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"जिंदगी की राह पर चलते-चलते कुछ अपने बहुत आगे बढ़ गये थे। सांसों ने साथ नहीं दिया और उन तक नहीं पहुंच सका। जब उस मंजिल पर पहुंचा तो अपने मुझे छोड़कर कहीं दूर जा चुके थे। आज उन्हीं की तलाश में इधर-उधर भटक रहा हूं।"

“ओ....कौन थे बे....?"

"दो वहनें....सुधा और अनीता।” वह बोला-"परन्तु अब तो उनका नाम ही जुबान पर रह गया है।"

"कहीं पता नहीं चला?"

"नहीं....” वह उदास हो गया। सुधा और अनीता की बात चल निकली थी, उसके लिये उनके विचारों में खो जाना स्वाभाविक था। विभा ने और कुछ नहीं पूछा।

उसके चेहरे की भाव-भंगिमा को देखकर लगता था जैसे वह भी विनीत की बातों को सुनकर दुःखी हो गयी थी। थोड़ी देर बाद ही गाड़ी मुख्य द्वार को पार करने के बाद बंगले के कम्पाउन्ड में रुकी। विभा ने विनीत को सहारा देकर उतारा तथा उसे लेकर दूसरी मंजिल की सीढ़ियां तय करने लगी। चलते-चलते विनीत ने कहा-“छोड़ दीजिये....मैं ठीक हूं।"

"अभी आपको सहारे की जरूरत है।"

“जी.....?"

“गिरने का डर है।"

विनीत के जी में आया कि कह दे, यहां किसने किसको सहारा दिया है। कुछ सहारे तो स्वयं ही टूट जाते हैं और कुछ को दुनिया के रिवाज छीन लेते हैं। विभा के साथ बहू भी सीढ़ियां चढ़ते हुये रुक गया। सामने से एक बृद्ध आ रहे थे। कीमती सूट....रौबीला व्यक्तित्व, हाथ में छड़ी। विनीत के हाथ अभिवादन की मुद्रा में जुड़ गये। उसके अभिवादन का उत्तर देने के बाद वे बोले- अरे बेटी....तू....."

“डैडी, ये हैं मिस्टर विनीत।” विभा ने बताया- मेरी गाड़ी से टकरा गये थे। तीन घंटे बाद होश आया है। डॉक्टर ने इन्हें आराम करने को कह दिया है। इसलिये अपने साथ ले आयी। बेचारे बाहर के रहने वाले हैं।"

"ओह!" बृद्ध ने विनीत के माथे पर बंधी पट्टी की ओर देखकर —“बेटे, मैं अपनी बेटी की ओर से क्षमा मांगता हूं।"

“जी नहीं....आप तो....."

"जा बेटी....अपने बराबर वाला कमरा ठीक करा देना। यदि तबियत अधिक खराब हो तो डॉक्टर को फोन कर देना। मैं एक पार्टी में जा रहा हूं।" बद्ध अपने चश्मे को ठीक करते हये नीचे चले गये।

विभा उसे अपने कमरे में ले आयी। विनीत को सोफे पर बैठाकर उसने घंटी का बटन दबाया। इसके साथ विनीत के सामने बैठती हुई बोली-“अब कैसी तबियत है आपकी।"

“सिर के पिछले हिस्से में दर्द है बस।”

"शायद अधिक चोट लगी है। ठहरिए, मैं पहले डॉक्टर को फोन कर दूं...!" वह उठने को हुई तो विनीत बोल उठा-"नहीं....नहीं, मामूली-सा दर्द है। खुद-ब-खुद ठीक हो जायेगा। आप बैठिये....." विभा ने उसकी ओर देखा। विनीत की दृष्टि उससे उलझकर रह गयी। वह उठी थी परन्तु फिर अपने स्थान पर बैठ गयी। नौकर के आने में कुछ देर हो गयी थी। नौकर कमरे में दखिल हुआ तो बिभा उस पर बरस पड़ी—"घंटी की आवाज सुनाई नहीं दी थी क्या?"

"भूल हो गयी बीबी जी! मांजी के लिये गर्म पानी ले गया था। उनकी दवाई का समय हो रहा था।" नौकर ने कहा।

"और सब कहां मर गये?"

"शंकर बाजार से दवाइयां लेने गया है, गोपाली सब्जी....और मैं....!"

"सुनो, इनके लिये गर्म दूध और मेरे लिये चाय। कुछ बिस्कुट वगैरहा भी ले आना।"

"अभी लाया बीबी जी......" नौकर चला गया। विनीत को यह बात बुरी तरह अखरी थी कि विभा ने उस वृद्ध को डांट दिया। लेकिन गरीब तथा अमीर के फर्क को समझकर उसने इस विषय में कुछ नहीं कहा। हां, दूध के विषय में कहा—“दूध क्यों मंगा रही हैं आप?"

"आपके लिये।"

"मेरे लिये....?"

“जी, मुझे डॉक्टर ने बताया था।"
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09-17-2020, 01:11 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत फिर खामोश हो गया। एक बार फिर उसकी दृष्टि विभा की दृष्टि से उलझकर रह गयी। न जाने क्यों वह बौखला-सा गया। विभा की पंखुड़ियां एक दूसरे से तनिक अलग हुई थीं। जैसे एक साथ ही सैकड़ों कमल खिल उठे हों। थोड़ी देर बाद ही नौकर शीशे की खूबसूरत ट्रे को लेकर कमरे में दाखिल हुआ। ट्रे को मेज पर रखा तथा बिभा का संकेत पाकर बापिस चला गया। विभा ने अपने लिये चाय बनायी। द्ध का गिलास विनीत की ओर बढ़ा दिया। गिलास को खाली करते समय भी उसकी दृष्टि विभा के चेहरे से टकरा ही जाती थी। अपनी इस हरकत पर वह स्वयं ही झुंझला उठा। पता नहीं बिभा उसके विषय में क्या सोचेगी....उसे कोई ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिये जो उसके चरित्र की कमजोरी को जाहिर करे। फिर भी वह अपने आपको न रोक सका। उसने फिर बिभा की ओर देखा....वह जैसे गहरे पानी में गिरा हो, विभा ने उसे देख लिया था। वह बुरी तरह बौखला गया। इस बौखलाहट में दूध का गिलास उसके हाथ से छूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। बिभा खिलखिलाकर हंस पड़ी। विनीत ने बात बनायी- दरअसल....तबियत....!"

"इस रोग में ऐसा हो ही जाता है।"

“जी....."

"कोई बात नहीं...आप बिस्तर पर लेट जाइए।" विभा ने अपने प्याले को रखकर उसकी बांह थामी और उसे बिस्तर तक ले आयी।

शाम का खाना खाने के बाद विनीत बिस्तर पर लेट गया। वह तो यहां से जाना ही चाहता था परन्तु जब स्वयं दीवान साहब ने उससे कहा तो उसे रुकना पड़ा था। काफी रात तक वह सुधा और अनीता के बारे में सोचता रहा। पार्क वाले युवक की घटना को भूल नहीं पाया था। उस युवक ने तो स्वयं आत्महत्या की थी, इसलिये किसी पर खून का इल्जाम लगाने का प्रश्न पैदा नहीं होता था। यही सब सोचते-सोचते उसे नींद ने दबोच लिया। अचानक हड़बड़ाकर वह उठा। कोई उसे जगा रहा था। उसने पलके झपकाते हुए देखा। विभा थी। "ओह...आप....।" वह संभलकर बैठ गया।

"हां, पूछने चली आयी थी, अब कैसी तबियत है आपकी?" कहकर विभा एक कुर्सी खींचकर उसके बिस्तर के पास ही बैठ गयी।

"आपने तो व्यर्थ ही कष्ट किया....मैं बिल्कुल ठीक हूं।" विनीत ने एक बार उसकी ओर देखकर कहा। नाइटी में विभा और भी खूबसूरत लग रही थी। उसकी तबियत का हाल पूछने के बाद भी विभा वहीं बैठी रही। विनीत को बड़ा अजीब-सा लगा। खामोश रात....तन्हाई और एक खूबसूरत लड़की। वह अपने अन्दर एक बेचैनी-सी अनुभव करने लगा। उसने देखा, उस समय विभा की दृष्टि उसके चेहरे पर ही टिकी हुई थी। न जाने क्यों अपनी ग्रीवा को नहीं उठा सका वह। गहरी चुप्पी को विभा के स्वर ने तोड़ा
- "क्या सोच रहे हैं आप....?"

"जी, मैं! कुछ भी नहीं....।" वह हकलाया।

"झूठ! आप मेरे विषय में सोच रहे हैं।"

“जी....?"

“सोच रहे हैं कि कैसी लड़की है जो रात के अकेलेपन में चली आयी।"

"ज...जी....."

"न जाने क्यों मैं आपके विषय में जानना चाहती हूं।"

विनीत ने इस बात के उत्तर में अपनी ग्रीवा को उठाया और पलकें झपकाते हुए बिभा की ओर देखा। कोई उत्तर न दे सका वह। सोचने लगा, विभा उसके विषय में और क्या जानना चाहती है? परन्तु वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। बिभा ने फिर कहा-"आप कुछ बतायेंगे?"

"मेरी जिन्दगी में ऐसा कुछ नहीं बीता, जिसे सुनकर आपका मन वहल सके। मैं अपनी जिन्दगी को एक कहानी भी नहीं समझ सकता। क्योंकि प्रत्येक कहानी, चाहे वह सैकड़ों मोड़ों से गुजरी हो, कभी-न-कभी अपनी मंजिल पर जाकर पहुंचती है। और मेरी । जिन्दगी....अनगिनत राहों से गुजरने के बाद भी एक ही दायरे में घूम रही है। समझ नहीं सका, आखिर यह दायरा कब टूटेगा....।” विनीत ने कहा।

"बड़ी अजीब बात है।"

अजीब क्यों?"

"आपके इन शब्दों को सुनकर तो कुछ और भी अनुमान लगाया जा सकता है। मेरे विचार से आपने किसी से....."

विनीत ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही कहा-"प्यार किया था। मैं चाहता तो उसकी मंजिल तक पहुंच भी सकता था। परन्तु जान-बूझकर मैंने उसे ठुकरा दिया। इसलिये कि गैरों को अपना बनाने से पहले, मुझे अपनों की तलाश करनी थी।"

“यानि दोनों वहनें....?"

"हां....।"

"वे दोनों....."

"कह तो नहीं सकता परन्तु सुना है कि उन दोनों को लखनऊ में ही होना चाहिये। केबल अनुमान ही है। अनुमान गलत भी हो सकते हैं। एक बात मानेंगी?"

“कहिए....।" विभा ने कहा।

"मुझे, सबेरे यहां से चला जाने दीजिये।"

"क्यों....?"

“आपको मैं इस विषय में बता ही चुका हूं।"

"अब तो आपको डैडी से ही पूछना पड़ेगा। इस विषय में मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकती। सबेरे डैडी से कह देना।” विभा मुस्कुरायी।

“इसका मतलब आप मुझे उलझा रही हैं।"

"मुक्त ही कब हैं आप....."

“जी....." विनीत ने विभा की ओर देखा। वह समझ नहीं सका कि विभा के शब्दों का क्या आशय था। उसका चौंकना भी स्वाभाविक ही था। विनीत के चौंकने पर बिभा मुस्करायी, बोली-“मिस्टर विनीत , हम बो हैं जो लिफाफा देखकर मजमून भांप लेते हैं।"
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09-17-2020, 01:11 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“जी......” विनीत का मस्तिष्क चकराया।

"क्या वास्तव में मैं इतनी ही खूबसूरत हूं?"

"विभा जी....आप....यह सब क्या कह रही हैं? मैंने तो आपसे....मेरा मतलब मुझसे कोई भूल हुई है क्या?"

“जी, एक जबरदस्त भूल।"

"मैं समझा नहीं।" विनीत ने पागलों की तरह उसके चेहरे की ओर देखा। समझ नहीं सका कि विभा क्या कह रही है।

"मैं बताती हूं....।" विभा ने केबल इतना कहा और फिर खामोश हो गयी। विनीत को उसकी यह चुप्पी बुरी तरह खली। विभा की दृष्टि उसके चेहरे पर जमी हुई थी। न जाने क्यों वह उससे निगाह न मिला सका। विभा ने फिर कहा-"एक बात बताइए, आपने कितनी बार कनखियों से मेरी ओर देखा है? जरा याद करके बताना....."

“जी....दरअसल....मैं.....।" वह उत्तर न दे सका। बास्तव में वह अन्दर-ही-अन्दर घबरा भी उठा था। विभा ने उसे गलत समझा था।

“मैं बताती हूं...बीसों बार।"

"मैं क्षमा चाहता हूं। मैंने काफी कोशिश की थी कि आपकी ओर न देखू, लेकिन मन नहीं माना। मुझे क्षमा कर दीजिये।"

“मैं केबल यह जानना चाहती हूं कि आप मेरी ओर क्यों तथा किसलिये देख रहे थे? आप कह डालिये....मैं बुरा नहीं मानूंगी।"

“विभा जी।” विनीत ने साहस संजोकर कहा-"कहीं खूबसूरत फूल खिला हो तो राह से गुजरने वाले की निगाह उस पर जा ही पड़ती है....| आप तो...."

विभा हौले से मुस्करा दी—“यानि आपने मुझे फूल समझा? गुलाब का या सूरजमुखी का?"

"आप तो मुझे शर्मिन्दा कर रही हैं। आप कहें तो मैं आपसे फिर माफी मांग लूंगा। आज तक छोटे आदमियों में रहा हूं न, इसलिये बड़ों के मिजाज को नहीं समझ पाया। यदि मुझे पता होता तो मैं कदापि ऐसा न करता।"

"लेकिन मैंने तो बुरा नहीं माना।"

"जी....."

“दूसरी भूल आप अब कर रहे हैं।”

“जी...?" उसने बिभा की ओर देखा।

"आपको सोचना चाहिये कि शीत का मौसम है। आप लिहाफ में बैठे हैं और मैं केवल एक नाइटी पहने आपके पास बैठी हूं....।"

"ओह....आप लिहाफ ले लीजिये....." विनीत लिहाफ हटाने लगा तो बिभा ने उसका हाथ थाम लिया। बिभा के हाथ के गर्म स्पर्श से उसके लहु में खलबली सी बच गयी। उसकी सांसों की गति सहसा ही तेज हो गयी। विभा ने उसी स्थिति में कहा- "इतनी हमदर्दी....."

“ज....जी....।" उसने किसी प्रकार कहा।

"मिस्टर विनीत, प्यार को यदि प्यार कह दिया जाये तो इसमें बुरा क्या है? मौन रहने से तो बेचैनी और भी बढ़ती है।"

"जी....?"

"क्या तुम्हें मुझसे प्यार नहीं है?" विभा ने मादक स्वर में पूछा।
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09-17-2020, 01:12 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत की समझ में नहीं आ रहा था कि वह विभा की बात का क्या उत्तर दे? वास्तव में वह इस स्थिति में रहा ही नहीं था कि कुछ कह पाता। उसके मस्तिष्क का संतुलन तो बराबर बिगड़ने पर ही था। विभा ने फिर पूछा-"तुम्हें मुझसे प्यार नहीं है विनीत ....?"

“बिभा!” उसने किसी प्रकार अपने को संभाला—“तुम....तुम अपने कमरे में चली जाओ तो....तो अच्छा रहेगा।"

“कायर हो....?" विभा पर जैसे एक नशा-सा छाता जा रहा था।

"न....नहीं....."

"फिर डरते क्यों हो?" बिभा बोली-"क्या प्यार करना पाप है....क्या दो दिलों को एक कर देना भी पाप है? बोलो....।"

"विभा...."

उत्तर में विभा कुर्सी से उठकर बिस्तर पर बैठ गयी। विनीत छिटककर उससे दूर हो गया। जैसे कि सैकड़ों बिच्छू उसकी ओर बढ़ रहे हों। विभा ने उसके दोनों हाथ थाम लिये। वह बुदबुदायी
"विनीत ....."

"तुम....तुम चली जाओ विभा। मेरी तबियत ठीक नहीं है, यदि कुछ और देर तक यही स्थिति बनी रही....तो मैं पागल हो जाऊंगा....मैं बेहोश हो जाऊंगा।"

"प्यार तो मुर्दो में भी जान डाल देता है बिनीता"

“मगर..मगर यह प्यार नहीं है।"

"और....?"

“बासना....यह बासना है बिभा।"

"प्रेम बासना के ऊपर ही आधारित होता है बिनीता” विभा ने कहा—“पुरुष तथा नारी में वासना की लहर न हो तो प्रेम हो ही नहीं सकता...."

"तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है परन्तु बासना....वह बाद की बात है। प्लीज विभा....मुझे इस ओर मत ले चलो....।"

“विनीत , तुम पत्थर हो क्या?"

"शायद....।"

और एक झटके से अपने हाथों को छुड़ाकर विनीत बिस्तर से उतरकर नीचे खड़ा हो गया। विभा ने उसकी ओर असहाय सी दृष्टि से देखा। उसकी सांसें उखड़ रही थीं। देर तक यही चुप्पी बनी रही। अन्त में पता नहीं विभा के मन में क्या आया कि वह बिस्तर से उतरी तथा दरवाजे को खोलकर कमरे से बाहर चली गयी। विनीत उसे जाते हुए देखता रहा।

सो नहीं सका विनीत । बिचारों में डूबते-उतराते सुवह हो गयी। वह अभी तक बिभा के विषय में सोच रहा था जो प्रेम के पीछे उसके साथ वासना का नाटक खेलना चाहती थी। यह देखकर उसके हृदय में घृणा भर आयी। उसने अपने माथे पर बंधी पट्टी को छुआ, चोट में बिल्कुल भी दर्द न था। वह बिस्तर से उठकर दरवाजे के पास आ गया। विभा का कमरा बंद था। शायद वह अभी तक सो रही थी। उसके मन में आया कि चल दे। आखिर उसे किसी के सोने अथवा जागने से क्या लेना। उसे कल ही उसके साथ नहीं आना चाहिये था। तभी विभा का कमरा खुलने की आबाज उसके कानों में पड़ी। अनायास ही उसकी दृष्टि उस ओर को उठ गयी। विभा को देखकर उसने अपने चेहरे को घुमा लिया। वह जानता था कि विभा उससे क्षमा मांगेगी। इससे पहले ही उसके कदम आगे बढ़ गये। तभी विभा की आवाज सुनकर उसे रुकना पड़ा। विभा ने निकट आकर पूछा-"कहीं जा रहे हैं?"

"हां।" विनीत ने उसकी ओर देखे बिना ही उत्तर दिया_

"उन्हीं बीरानियों में जहां से तम मुझे उठाकर लायी थीं। जाना तो था ही, परन्तु मुझे दुःख है कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में
अच्छे विचार नहीं हैं। हां, यदि मुझसे ही कोई भूल हो गई हो तो मैं उसके लिये क्षमा चाहता हूं।"

"मझे अफसोस है।”

विभा दबे स्वर में बोली- "आपको न पहचानकर मैं एक गलत कदम उठा बैठी थी। आप मुझे क्षमा नहीं करेंगे?"
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09-17-2020, 01:12 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“मैं समझता हूं तुम्हें मुझसे क्षमा मांगने की कोई जरूरत नहीं है। पहली बात तो यह है कि एक बड़े घर की लड़की एक भिखारी से क्षमा मांगे, कुछ अच्छा नहीं लगता। दूसरी बात यह है कि मैं आपका कोई नहीं होता। मेरे सामने आपको कभी शर्मिन्दा होने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि मैं फिर आपसे कभी नहीं मिलूंगा।"

"ओह....."

"आपने मेरे लिये कुछ किया, मैं आपको धन्यवाद देता हूं।"

"परन्तु डैडी पूछेगे तो....?"

"कह देना, नाली में रेंगने वाला कीड़ा खूबसूरत गलीचे पर अच्छा नहीं लगता। वह स्वयं ही चला गया....." बिभा और कुछ कहती, इससे पहले ही विनीत जीने की सीढ़ियां तय करता हुआ नीचे आ गया। बाहर सड़क पर आकर वह एक बार फिर चिन्ता में डूब गया। कहां जाये....उन दोनों को कहां खोजे? इस तरह के प्रश्न उसके मस्तिष्क में अभी तक बने हुये थे। अभी तक किसी प्रश्न का उत्तर उसके पास न था। सड़क पर आगे बढ़ते हुए भी उसके दिमाग में सैकड़ों प्रकार के बिचार चक्कर काट रहे थे। विचारों में उलझा हुआ वह बुरी तरह चौंका। उसने देखा, पुलिस की एक जीप ठीक उसी के पास आकर रुकी थी। देखकर उसका चेहरा सफेद पड़ गया। तुरन्त ही उसके सामने पार्क में आत्महत्या करने वाले युवक की घटना घूम गयी। मन में एक बिचार तेजी से कौंधा-कहीं पुलिस खून के अपराध में उसी को गिरफ्तार करने तो नहीं आयी। तभी जीप से उतरते हुये एस.पी. साहब को उसने पहचान लिया। बे उसके निकट आकर बोले-"जानते हो, मैं तुम्हें कल से खोज रहा हूं।"

“जी....?"

"आओ....जीप में बैठो।"

“मगर एस.पी. साहब.....।” वह कुछ कहना चाहता था। उन्होंने उसकी बात को रोककर कहा- "मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत है। सुधा और अनीता इसी शहर में मौजूद हैं....."

“तब फिर इस मामले में मैं क्या कर सकता हूं?”

"पहले जीप में बैठो–उसके बाद सब कुछ बता दूंगा।" वह यदि इन्कार भी करता तो भी बेकार था। वह खामोश जीप में आकर बैठ गया। जीप कोतवाली पहुंचकर रुकी। एस.पी. साहब उसे अकेले कमरे में ले गये। बैठते ही बोले- क्या तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता नहीं हुई कि तुम्हारी दोनों वहनें इसी शहर में हैं?"

"बिल्कुल नहीं।"

"आश्चर्य है।"

एस.पी. साहब, यदि दोनों वहनें मुझे मिल भी जायें तो क्या? केबल उनकी सूरत देखने से ही मेरी आशायें पूरी नहीं हो जायेंगी। मैं इस समय ऐसी स्थिति में हूं कि उनके लिये कुछ कर भी तो नहीं सकता। कानून का हाथ दोनों की ओर बढ़ रहा है। मैं उन्हें कैसे बचा सकता

"ठीक कहते हो।" बे बोले—"परन्तु सुनो....तुम अपनी वहनों को मिलने वाली सजा को कम करा सकते हो।"

“जी....?" वह उनके आशय को न समझ सका।

“यदि तुम उन दोनों को गिरफ्तार कराने में सहायता करो....."

"परन्तु साहब।" वह बोला—"जब आप स्वयं इस बात को जानते हैं कि वे दोनों यहीं मौजूद हैं, तब आप स्वयं ही उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेते? क्या आप चाहते हैं कि एक भाई अपनी वहनों के हाथों में हथकड़ी लगा दे....?"

"मैं नहीं....कानून चाहता है।"

"और आप कानून के रक्षक हैं?"

"हां।"

"एस.पी. साहब, मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता।" उसने कहा। उसके स्वर में निश्चय था।

"तो तुम अपनी वहनों से मिलना भी नहीं चाहते?"

"नहीं, मैं जाना चाहता हूं।" एस.पी.साहब देर तक कुछ सोचते रहे और फिर बोले– “समस्या यह है कि पलिस के पास उन दोनों का कोई भी चित्र नहीं है। यदि ऐसा होता तो पुलिस उन्हें कभी का गिरफ्तार कर चुकी होती। गोमती किनारे मजदूरों की बस्ती में सुधा तथा अनीता नाम की दो लड़कियां हैं। मैं कल मृतक सेठजी के नौकरों को लेकर वहां पहुंचा था परन्तु नौकर ने साफ कहा कि ये दोनों वे नहीं हैं। स्वयं उन दोनों ने भी अपने को एक दूसरे स्थान का बताया है। इस प्रकार पुलिस के सामने एक समस्या खड़ी हो गयी है।"

“जी....!"

“यदि तम उस बस्ती में मेरे साथ चलो तो हमारी यह समस्या बड़ी आसानी से हल हो जायेगी। निश्चय ही, यदि बे तुम्हारे वहनें हैं तो तुम्हें अवश्य पहचान लेंगी।"

"एस.पी. साहब, बे....बे नहीं होंगी।" उसने कह दिया। हालांकि उसका हृदय कह रहा था कि वे ही सुधा, अनीता होंगी।

"इस बात का निर्णय बहीं हो जायेगा।"

"परन्तु साहब....मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगा।"

"क्यों ....?

"कह नहीं सकता क्यों!"

“इसका मतलब है तुम पुलिस के साथ वहां नहीं जाओगे?"

“जी, मैं अभी अपने शहर वापिस जा रहा हूं। आप मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।" विनीत ने खड़े होकर कहा।
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