Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
12-07-2020, 12:18 PM,
#71
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#66

प्रज्ञा के साथ वो खास पल जीना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी , बीते कुछ महीने जबसे वो मेरे जीवन में आई थी , जिन्दगी क्या होती थी मैं जान गया था, बाकि बची तमाम रात वो मेरी बाँहों में थी, मेरे आगोश में थी . सुबह हुई, हम तैयार थे देवगढ़ जाने को, मैंने गाड़ी स्टार्ट की ,

प्रज्ञा- मैं चलाती हु .

मैं साइड में हो गया. मैंने भरपूर नजर उसके चेहरे पर डाली, रात की चुदाई के बाद बड़ी खुशगवार लग रही थी वो .

“ऐसे क्या देख रहे हो ” बोली वो

मैं- बस तुम्हे देख रहा हूँ , जी चाहता है की तुम सामने ऐसे ही बैठी रहो मैं तुम्हे देखा करू .

प्रज्ञा- तुम भी न

मैं- झूठ नहीं कहूँगा, मेरे दिल में एक जगह तुम्हारी भी है , तुम जब जब मेरे साथ होती हो लगता है जिन्दा हूँ मैं , मेरे आस पास का मौसम ख़ुशी से भर जाता है जब मैं इस चेहरे को मुस्कुराते देखता हूँ

प्रज्ञा- छोड़ो न इन बातो को मेरे दिल के तार झनझना जाते है

मैं- काश तुम मेरी होती

प्रज्ञा- एक तरह से तुम्हारी ही तो हूँ मैं

मैं- हो भी नहीं भी

प्रज्ञा- अब तुम्हारी किस्मत में जितना है उतना मिल ही गया तुमको

मैंने गाड़ी का शीशा चढ़ाया और प्रज्ञा के काँधे पर अपना सर रख दिया

मैं- काश ऐसा होता की तुम हमेशा मेरे पास रहती मेरे साथ रहती,

प्रज्ञा- इस जन्म में तो राणाजी ले गए मौका किसी और जन्म में देखना अब तुम

मैं- ये बात तो है

ऐसे ही आपस में हंशी मजाक करते हुए हम देव गढ़ की तरफ बढ़ रहे थे, जल्दी ही आबादी खत्म हो गयी , सुनसान इलाका शुरू हो गया . रस्ते पर पत्ते पड़े थे, छोटे मोटी टहनिया पड़ी थी

“ऐसा लगता है जैसे काफी समय से इस तरफ कोई नहीं आया है ” मैंने कहा

प्रज्ञा- हाँ , मैंने भी ज्यादा कुछ सुना नहीं इधर के बारे में ,

मैं- पर हुकुम सिंह का कामिनी से सम्बन्ध था , तो देवगढ़ का तुम्हे मालूम होना चाहिए

प्रज्ञा- मेरे परिवार में कामिनी की कोई खास इज्जत नही है कबीर, एक तरफ से वो अय्याश टाइप औरत थी , हमेशा से अलग रही थी परिवार से .

मैं- पर हुकुम सिंह के बेहद करीब रही होगी,

प्रज्ञा- मुझे भी ऐसा ही लगता है .

कुछ देर बाद हम देवगढ़ में दाखिल हो गए. मकान पुराने थे , जर्जर हालत में , ऐसा लग रहा था की मैं किसी और ज़माने म पहुँच गया हूँ

प्रज्ञा ने एक जगह गाड़ी रोकी, जैसे ही मैं गाड़ी से उतरा मेरे सर में अचानक से दर्द हो गया .

“क्या हुआ कबीर, ठीक तो हो न ” बोली वो

मैं- हाँ ठीक हु, एकदम से सरदर्द हो गया .

प्रज्ञा- पर यहाँ कोई है नहीं किस से पूछे राणा हुकुम सिंह के बारे में

प्रज्ञा न जाने क्या कह रही थी मैं उसकी बात सुन नहीं पा रहा था, सर में बहुत तेज दर्द हो रहा था, आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था , काली पेली आक्रतिया आ रही थी, जैसे फोटो का नेगेटिव होता हैं न वैसे ही कुछ .

मैंने गाड़ी के बोनट को पकड़ लिया और अपने आपको संभालने की कोशिश करने लगा. नाक से नकसीर बहने लगी थी .

“कबीर , कबीर ये क्या हो रहा है ठीक तो हो न ”

मैं- हाँ ठीक हु, शायद गर्मी की वजह से नक्सेर आ गयी

मैंने रुमाल से खून साफ़ करते हुए कहा

प्रज्ञा- पर मौसम ठण्ड का है कबीर,

मैं- हो जाता है कभी कभी .

मैंने प्रज्ञा को टालते हुए कहा पर अन्दर से मैं घबरा गया था ,क्योंकि मेरे साथ पहले भी कुछ दुखद घटनाये हो चुकी थी इसलिए मैं थोडा सावधान हो रहा था . मेरी आँखे कुछ ऐसी छाया देख रही थी जो अजीब थी , हम थोडा आगे बढे, वो खाली पड़े मकान, वो सुनसान राहे, .

मैं देख रहा था , एक अपनापन महसूस कर रहा था जैसे इस जगह को जानता था ,

“इधर आओ, ये बाजार होता था प्रज्ञा , यहाँ की जलेबी बहुत प्रसिद्ध होती थी ” मैंने कहा

प्रज्ञा- पर तुम्हे कैसे मालूम

मैं- नहीं मालूम बस मेरे मुह से अपने आप निकल गया .

हम थोडा सा आगे बढे, एक बड़ा सा कमरा था , जिस पर एक जर्जर बोर्ड लगा था डाक खाना, देवगढ़ . कुछ आगे और बढे हम लोग. मुझे लगा की कोई छाया जैसे मेरे पास से भाग कर गयी, ये मेरा भ्रम नहीं था , मेरी स्मृति खेल रही थी मेरे साथ, मैं कुछ ऐसी यादो को महसूस कर रहा था जो मेरी नहीं थी, बहुत घुमने के बाद हम आखिरकार एक ऐसे घर के पास पहुंचे जिसने जैसे मेरी आँखों को जकड़ ही लिया हो.

वो बड़ा सा दरवाजा, जिसकी लकड़ी अब काली पड़ गयी थी , जगह जगह से दीमक खा गयी थी . पर लोहे के जर खाए कुंडे अभी भी लटके थे, कभी कभी जब हवा जोर से बहती तो आवाज करके बता देते थे की अभी भी पहरेदारी कर रहे है वो .

मैं आगे बढ़ा और उस दरवाजे को खोल दिया. ढेर सारी धुल ने मेरा स्वागत किया. ये बहुत बड़ा घर था , आँगन में एक चोपड़ा था जहाँ कभी तुलसी लगी होगी, एक जीप रही होगी किसी जमाने में अब केवल कबाड़ था. पर कुछ तो था इस घर में जिसने मेरे कदमो की आहट को महसूस कर लिया था .

पास में ही एक हैंडपंप था . मैंने न जाने क्यों उसे चलाया थोड़ी साँस लेने के बाद पानी फूट पड़ा उसमे , मैंने मुह धोया, एक बेहद अलग सा सकूं मिला मुझे, ये पानी ठीक वैसा ही मीठा था जैसा मुझे मजार के पास और उस तम्बू में मिला था .

मैंने पास वाले कमरे को खोला , शायद ये रसोई थी , जिसमे अब कुछ नहीं बचा था . निचे एक और बड़ा सा कमरा था जो शायद बैठक रही होगी, ऊपर जाती सीढिया थी, मैंने नजर डाली दो चोबारे थे, मैंने प्रज्ञा का हाथ पकड़ा और सीढिया चढ़ने लगा. सर का दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया था . दिल जोरो से धडकने लगा था .

दाई तरफ वाले चोबारे का दरवाजा जैसे ही मैंने खोला , मैं और प्रज्ञा दोनों एक पल के लिए घबरा से गए.
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12-07-2020, 12:18 PM,
#72
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#67

दाई तरफ वाले चोबारे का दरवाजा जैसे ही मैंने खोला , मैं और प्रज्ञा दोनों एक पल के लिए घबरा से गए.

“असंभव , ये नहीं हो सकता ” मैंने कहा

मेरी निगाह जैसे सामने दिवार पर जम सी गयी थी , बेह्सक उस तस्वीर पर धुल थी पर फिर भी मैं लाखो में उसे पहचान सकता था , वो तस्वीर मेरी थी , क्या कहा मैंने मेरी तस्वीर हाँ ये मेरी ही तस्वीर थी . या मेरे जैसी थी

“कबीर ये क्या है , तुम्हारी तस्वीर यहाँ कैसे ” प्रज्ञा ने सवाल किया

मैं- मेरी नहीं है ,

मैंने तस्वीर दिवार से उतारी और शर्ट की बाहं से धुल साफ़ की , वो आधी तस्वीर थी , शायद बाकि के हिस्से को किसी ने फाड़ कर फेक दियाथा

“आधा हिसा कहा गया इसका ” बोली प्रज्ञा

मैं- मुझे क्या मालूम दिवार पर दो तीन तस्वीरे और थी पर पहचानने लायाक बस वो एक ही थी , मैं पास रखी कुर्सी पर बैठ गया और गौर से तस्वीर को देखने लगा. सर का दर्द और बढ़ गया था .

मैं- प्रज्ञा क्या मेरा कोई नाता है इस जगह से.

प्रज्ञा- नहीं जानती पर नियति अगर हमें यहाँ लायी है तो कोई बात होगी ही .

मैंने चोबारे की खिड़की खोली. ठंडी हवा ने मुझे ऐसे छुआ की मेरा बदन कांप गया

“बारिश ,” मेरे मुह से ये शब्द निकला

“कहाँ है बारिश ” प्रज्ञा ने पूछा

मैं उसे देता तो क्या जवाब देता . पास ही एक मेज थी, एक टूटा लैंप रखा था , पास के आलीये में एक स्पीकर, डेक, . मैंने अलमारी खोली, एक खाना किताबो का भरा था , मैंने उन्हें बाहर निकाल का फेका, फिर कपडे , एक बड़ा बक्सा जिसमे ढेरो ऑडियो कसेट , एक पैकेट जिसमे एक लाल चुन्नी थी . और ताज्जुब जिस हिफाजत के साथ साथ इसे रखा था नयी सी लगती थी ये.

मैंने वो किताबे देखि, एक छोटी सी डायरी मिली

“इस बारिश में जब तुम्हे छज्जे पर नाचते हुए देखा ,बस देखते ही रह गया , वो चुन्नी जो कल आ लिपटी थी मुझसे गलियारे में चुरा लाया था तुम्हारी छत से उसे, ये बारिश जो तुम्हारे गालो को चूम रही है, महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी सांसो को इस खिड़की से देखते हुए . जानता हु हर शाम छज्जे पर खड़ी रहती हो ताकि खेत जाते मुझे देख सको. तुम्हारा वो मेरी पीठ पीछे शर्माना सीने में हलचल मचा देता है , मेरी गली से जब तुम साइकिल पर घंटी बजाते निकलती हो कसम से सब छोड़ कर दरवाजे की तरफ भाग आता हूँ मैं . ”

मैं पढ़ ही रहा था की एक छोटा सा कागज़ जो पीला हो गया था डायरी से गिर गया .

“हमें कुछ पता नहीं है हम क्यों बहक रहे है राते सुलग रही है दिन भी दहक रहे है जबसे है तुमको देखा बस इतना जानते है तुम भी महक रहे हो हम भी महक रहे है ”

मैंने प्रज्ञा को दिया वो कागज़ उस शेर को पढ़ कर उसके होंठो पर हंसी आ गयी .

“इजहार है ये किसी का ” बोली वो

मैं- तुम्हे कैसे पता

प्रज्ञा- बस जानती हु

मैंने उस कमरे की हर एक चीज़ को देखा , कुछ भी नहीं था फिर भी सब अपना लग रहा था , दिल पर जैसे किसी ने वजन रख दिया हो

प्रज्ञा- तबियत ठीक नहीं लग रही तो चले यहाँ से

मैं- नहीं , दुसरे कमरे को खोलते है

दुसरे कमरे पर कोई ताला नहीं था बस कुण्डी लगी थी, प्रज्ञा ने कुण्डी खोली और हम अन्दर आये. सामने दो अलमारिया थी , मैंने पहले वाली खोली, बहुत कपडे थे, श्रृंगार का सामान था . , ऐसे ही दूसरी अलमारी थी , पर एक चीज़ जो मुझे खटक गयी थी वो था बिस्तर , बिस्तर ऐसा था जैसे की सुबह ही किसी ने बिछाया हो. साफ सुथरा,

मेरे कहने से पहले ही प्रज्ञा शायद समझ गयी थी उस बात को ,”बिस्तर ” बोल पड़ी वो

मैं- जिंदगी क्या कहना चाहती है प्रज्ञा मुझसे

प्रज्ञा- एक मिनट कबीर , ये छोटा बक्सा दिखाना मुझे

मैं - ये सिंगारदान

प्रज्ञा- हाँ

प्रज्ञा ने उसे खोला और उसकी आँखे चमक उठी

“जिसका भी ये है उसकी पसंद बहुत उच्च कोटि की थी ” बोली वो

मैं- औरतो के सामान की परख तुम ही कर सकती हो .पर हमारे यहाँ आने का मकसद कुछ और हैं न प्रज्ञा

प्रज्ञा- हाँ कबीर, मुझे लगता है इस पुरे घर को अच्छे से खंगालने की जरुरत है क्योंकि ये जो तस्वीर मिली है ये एक सुराग है , और मुझे लगता है ऐसे सुराग और मिलेंगे यहाँ

सीढियों से उतरते हुए मुझे एक कमरा और दिखा जिस पर पहले शायद हमारी नजर नहीं गयी थी , उसे भी खोला हमने और यहाँ आकर लगा की प्रज्ञा का कहना बिलकुल सही था. वहां हमें बहुत सी तस्वीर मिली एक बहुत बड़ी तस्वीर थी जिसमे मैं था , हुकुम सिंह था , एक लड़का और था एक औरत हुकुम सिंह के साथ खड़ी थी .

“लगता है परिवार के साथ वाली तस्वीर है ” प्रज्ञा ने कहा

मैं- पर मेरा हुकुम सिंह से क्या सम्बन्ध

प्रज्ञा- मालूम हो ही जायेगा.

पास में ही एक तस्वीर और थी उसी लड़के की पर आधी थी जैसे ऊपर मेरी थी .

मैं- किसी ने आधा हिस्सा फाड़ा हुआ है

प्रज्ञा- शायद कोई नहीं चाहता की किसी को मालूम हो , जरा इधर देखना ये तस्वीर

प्रज्ञा ने पास वाली दिवार की तरफ ऊँगली की , ये और तस्वीरो से बड़ी थी, चेहरे वाले हिस्से पर शायद पानी गिरने से ख़राब हुआ था पर बाकि हिस्से से बड़ी आभा लगती थी .

मैं- हु ब हु कपडे हमने ऊपर देखे थे न

प्रज्ञा- हाँ

मैं- आओ मेरे साथ .

मैं प्रज्ञा को ऊपर ले आया

वो- क्या हुआ

मैं- देखो ये वही कपडे है न

प्रज्ञा- हाँ बाबा हाँ

मैंने एक नजर बाहर बदलते मौसम पर डाली और बोला- मेरी एक छोटी सी गुजारिश है

प्रज्ञा- क्या

मैं- तुम्हे इस रूप में देखना चाहता हूँ मैं

मैंने वो कपडे प्रज्ञा के हाथ में रख दिए.

प्रज्ञा- तुम भी न मैं कैसे

मैं- मेरे लिए , मैं तुम्हे आज किसी और नजर से देखना चाहता हु
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12-07-2020, 12:18 PM,
#73
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#68

“उसी नजर से डर लगता है मुझे, ये जो ख्वाब दिखा रहे हो तुम , शीशे का महल है किसी ने मारा पत्थर बिखर जायेगा ” प्रज्ञा ने कहा

मैं- अपनी धडकनों से कहो फिर की मेरे दिल से झूठ बोलना छोड़ दे ,

प्रज्ञा मुस्कुराई, -

“थोड़ी देर बाहर जाओ, अब यार की हसरत तो पूरी करनी होगी ही, मैं तैयार होती हु ”

मैंने उसके गाल चूमे और वापिस पहले चोबारे में आ गया. मैं वापिस से खिड़की के पार देखने लगा . बेशक प्रज्ञा मेरे साथ थी पर दिल के किसी कोने से आवाज आई की मेघा अगर मेरे साथ होती तो मैं उसे बाँहों में भर लेता, वो समा जाती मुझमे, अपने प्रेम से रंग देती मुझे,

हताशा में मैंने टेबल पर हाथ मारा, एक किताब निचे गिर गयी मैं झुका उसे उठाने को की तभी मेरी नजर टेबल की निचली दराज पर गयी. उत्सुकता वश मैंने उसे खोल कर देखा . दराज में कुछ ऑडियो कैसेट थी और एक तस्वीर थी .

मैंने उसे हाथ में लिया, और वो हाथ में ही रह गयी .आज का दिन मुझ पर बहुत भारी था मैंने क्या देख लिया था क्या देखना बाकि था, पर इतना जरुर था की मुझे अब अंदाजा हो गया था की मेरी नियति क्या थी . बड़े गौर से मैंने तस्वीर देखि, उसके पीछे कुछ लिखा था .

“इतने करीब आके सदा दे गया मुझे , मैं बुझ रही थी आके हवा दे गया मुझे “

कहने को तो बस ये दो लाइन और एक तस्वीर भर थी पर इसकी हकीकत जो थी वो मेरे आने वाले कल की एक नयी इबारत लिखने वाली थी

“कबीर, आओ ” मेरे कानो में प्रज्ञा की आवाज आई

“हाँ अभी आया ” कांपती आवाज में मैंने जवाब दिया

उस तस्वीर को मैंने जेब में रखा मैंने और प्रज्ञा के पास गया . जिस नजर मैंने उसे उस रूप में देखा बस देखता ही रह गया, मेरे दिल को या तो उसने उस दिन धड्काया था जब वो काली साडी में थी या आज .

चाँद की चांदनी, आसमान की परी , सूरज की लाली या किसी दोपहर में पेड़ की छाया मैं क्या लिखू उसके बारे में , क्या कहूँ , क्या बताऊ बस इतना था की वो जो सुनना चाहती थी , मैं जो कहना चाहता था, वो बात उसके लाल हुए गालो ने कह दी थी .

“अब यूँ न देखो मुझे ,मैं पिघल जाउंगी ”

मैं- काबू नहीं मेरा खुद पर , मेरा बस चलता तो समय को यही रोक देता , अगर कुछ होता तो बस मैं और तुम

मैं आगे बढ़ा, प्रज्ञा की कमर में हाथ डाल कर मैंने उसे अपनी तरफ खींच लिया किसी कटी पतंग सी वो मेरी डोर में उलझती गयी . मेरे सीने से लगी उसने आहिस्ता से अपना चेहरा मेरी तरफ उठाया. बेहद सुर्ख लिपस्टिक से सजे उसके होंठ जो हल्का सा खुले कसम से लाख बोतल भी उतना नशा नहीं दे सकती थी मुझे.

कमर से होते हुए मेरे हाथ उसके नितम्बो पर पहुँच गए मैंने नितम्बो को सहलाया प्रज्ञा ने गर्दन थोड़ी सु ऊँची हुई, महकती सांसे, मेरी गरम सांसो से जो टकराई, हमारे होंठ आपस में जुड़ गए. प्रज्ञा ने अपनी बाँहों में मुझे थोडा जोर से कस लिया . सकूं से मेरी आँखे बंद हो गयी. प्रज्ञा ने दांतों से मेरे होंठ को हलके से काटा, पर इसमें मजा था .

ऐसा नहीं था की हमारे जिस्म प्यासे थे पर उस से मेरा नाता ही कुछ ऐसा जुड़ा था . जब वो चुम्बन टुटा तो मैंने उसे घुमा कर आईने के सामने खड़ा कर दिया .

प्रज्ञा- क्या

मैं- मैं देखो खुद को .

प्रज्ञा- रोज देखती हूँ

मैं- मेरी नजर से देखो,

मैंने प्रज्ञा के मुलायम पेट को सहलाया. उसने एक आह भरी , मेरी उंगलिया उसके ब्लाउज के निचले बोर्डर तक पहुच गयी थी .मैंने उसके सर की क्लिप को खुल दिया, जुल्फे आजाद हो गयी . ब्लाउज के ऊपर से मैं हौले हौले प्रज्ञा के उभारो को दबाने लगा. और वो कबूतर भी फद्फदाने को मचलने लगे. उसकी नितम्बो की थिरकन मैंने अपने अंग से गुजरते महसूस किया .

“क्या इरादा है ” पूछा उसने

मैं- बस तुम्हे देखने का

“पर हरकते तो कुछ और कह रही है ” उसने अपना हाथ मेरे लिंग पर रखते हुए कहा

मैं- ये वक्त फिर न आएगा , इस दो पल ठहरे वक्त में मैं रुकना चाहता हूँ जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ, इन बाँहों की पनाहों में मैं अपने लिए थोडा सकून चाहता हूँ ,

मैं कुर्सी पर बैठ गया , प्रज्ञा मेरी गोद में आ गयी, मेरे सर के बालो को सहलाते हुए बोली- इतनी संजीदगी क्यों

मैं- मालूम नहीं,

प्रज्ञा ने मेरे माथे को चूमा और बोली- मैं हर कदम साथ चलूंगी ,मैं वो उम्मीद की डोर बनूँगी,

मैंने उसके ब्लाउज की डोर खोल दी. बड़े आहिस्ता से उसने उसे उतार कर पास में रख दिया. प्रज्ञा ने ब्रा नहीं पहनी थी .

“मदहोश हो जाता हूँ इस रूप को देखते हुए मैं ”

वो- रहने दो, अब वो कशिश बची नहीं मुझमे

मैं- सूरज को कम लगती है तपन अपनी, तपत उस से पूछो जो झुलसा है

मैंने उसे उठाया और लहंगे को उतार दिया. मेरी रानी पूरी नंगी मेरे सामने खड़ी थी , मैंने भी अपने कपडे उतार फेंके, बेशक ये ऐसी जगह नहीं थी जब हम ये खास पल बिता सके पर अब खुद पर काबू रखना कहाँ आसान था .

रात भर हम दोनों एक दुसरे में समाये रहे खोये रहे, जब तक बदन में उर्जा के कतरे बचे हम अपने जिस्मो की प्यास बुझाते रहे, न जाने कब फिर नींद आई पर किसे मालुम था की आने वाला वक्त हमारे नसीब में क्या लेकर आएगा. इसका अहसास सुबह हुआ जब मेरे कानो में वो आवाज पड़ी जिसे मैं भुला न सका था

“तो ये चल रहा है यहाँ पर , ”
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12-07-2020, 12:18 PM,
#74
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#69

रात भर हम दोनों एक दुसरे में समाये रहे खोये रहे, जब तक बदन में उर्जा के कतरे बचे हम अपने जिस्मो की प्यास बुझाते रहे, न जाने कब फिर नींद आई पर किसे मालुम था की आने वाला वक्त हमारे नसीब में क्या लेकर आएगा. इसका अहसास सुबह हुआ जब मेरे कानो में वो आवाज पड़ी जिसे मैं भुला न सका था

“तो ये चल रहा है यहाँ पर ,

मेरी आँख झट से खुल गयी , इस आवाज को मैं लाखो में सुन सकता था पहचान सकता था .मैं झटके से बिस्तर से उठ खड़ा हुआ , मेरे हडबडाने से प्रज्ञा भी जाग गयी, हमारे बदन से चादर उतर गयी और उसकी आँखे और जल गई.

मेरे लिए ये सुबह कयामत से कम नहीं थी ,

“मेरी बात सुनो मेघा, मेरी बात सुनो तुम गलत समझ गयी हो .”

“मेरे प्यार को इस बिस्तर पर रौंद कर मुझसे ही कहते हो, मैं तुमसे थोडा क्या दूर हुई बेवफाई पर उतर आये तुम तो. और तुम, छि, घिन्न आ रही है मुझे तुम्हे देख कर ” मेघा एक सांस में बोल गयी

“मेरी पीठ पीछे मेरे प्यार की ये रुसवाई, मेरे अपनों के हाथो वाह ” मेघा ने कहा

प्रज्ञा ने तब तक अपने कपडे पहन लिए थे .

प्रज्ञा- मेघा, मेरी बात सुनो,

प्रज्ञा ने जैसे ही मेघा का नाम लिया मैं जान गया ये जानती है आपस में

“क्या सुनु मैं, तुमको मुह मारने के लिए मेरा यार ही मिला था माँ ” आँखों में आंसू लिए मेघा ने कहा

जैसे ही उसने माँ कहा मेरे कदमो तले जमीं सरक गयी.

प्रज्ञा की आँखों से आंसू गिरने लगे.

मैं- मेघा , प्रज्ञा की कोई गलती नहीं है , ये सब दोष मेरा है .

प्रज्ञा ने उपहास से ताली बजाई- हम्म, तो ऐसा क्या मिल गया मेरी माँ में जो मैं तुम्हे न दे सकी , मोहब्बत की बड़ी बड़ी बाते यूँ भुला दी , अरे थोडा दूर क्या हुई, हमें तो रुसवा कर दिया तुमने कबीर, एक हम थे जो दिन रात तड़प रहे थे तुम्हारे लिए, जानते हो कितना खुश थी मैं, जब तुम संग फेरे लिए थे मैंने , ये लॉकेट तुम्हारा मंगलसूत्र समझ कर पहना था मैंने ,

और मेरा सबकुछ मेरे अपने ही लूट गए, जिस्म की भूख थी मुझसे कहा तो होता कबीर तुमने मैं सलवार खोल देती . और माँ तुम माना की हमारे बीच हजार फासले थी , एक घर तो डाकिन भी छोड़ देती है तुमने तो बेटी का घर ही खा लिया

प्रज्ञा- मेघा , मैं सब समझाती हूँ सुनो मेरी बात , मैं तुम्हे सब बताती हूँ

मेघा- नहीं सुनना मुझे कुछ ,अब क्या बाकी रहा कहने और सुनने को . तनहा मैं पहले भी थी , आगे भी रह लुंगी,

मेघा की आँखों से आंसू गिरने लगे, मैं आगे बढ़ा उसे सँभालने को पर उसने मुझे रोक दिया.

“कोई जरुरत नहीं कबीर, सब ख़तम हो गया. ”

मेघा ने वो लॉकेट अपने गले से उतारा और मेरे चेहरे पर फेक दिया. मुड़ी वो और चल दी, मैं उसके पीछे भागा ,

“तुम ऐसे नहीं जा सकती , तुम्हे सुनना होगा, तुम्हे समझना होगा , बात सिर्फ तुम्हारी जिन्दगी की नहीं है हमारी जिन्दगी की है मेघा ” मैंने कहा

मेघा- हमारी जिन्दगी, हमारी जिदंगी को तो तुमने मेरी माँ के साथ बिस्तर में रौंद दिया है कबीर, धोखा किया है तुमने मेरे प्रेम से , मैं बस आ ही गयी थी तुमसे मिलने को , तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ जीने को पर अब कहाँ जिन्दगी है . रास्ता छोड़ो मेरा ,आज से अभी से , इसी वक्त से हमारी राहे जुदा होती है .

मैं उसके आगे खड़ा हो गया .

“जाने नहीं दूंगा तुम्हे ”

मेघा- मैंने कहा न हाथ छोड़ो मेरा

मैं- नहीं

मेघा ने मुझे धक्का दिया , ये धक्का इतनी जोर का था की मैं प्रज्ञा की कार से जा टकराया , इतनी शक्ति से फेका था उसने मुझे की पसलिया कड़क गयी, जब तक मैंने संभाला खुद को मेघा जा चुकी थी . मुझे प्रज्ञा को संभालना था मैं ऊपर गया वो अपना माथा पकडे बैठी थी, आँखे सुजा ली थी उसने,

मैं- गयी वो

प्रज्ञा कुछ न बोली

मैं- प्रज्ञा,

प्रज्ञा- तुमने मुझे बताया क्यों नहीं मेघा के साथ रिश्ता है तुम्हारा काश मुझे मालूम होता तो ये सब नहीं करती मैं

मैं- मुझे कहाँ मालूम था वो तुम्हारी बेटी है , झूठ बोल कर मिली थी वो मुझे .

प्रज्ञा- अनर्थ हो गया कबीर, अपनी बेटी की नजरो से गिर गयी मैं .

मैं- कुछ नहीं हुआ है ऐसा, और कौन सा गुनाह किया है तुमने , अभी वो गुस्सा है जब शांत हो गी समझेगी वो .

प्रज्ञा- वो क्या कह रही थी , तुम दोनों ने शादी कर ली

मैं- प्रज्ञा मैं तुम्हे सब कुछ बताता हूँ पर तुम रोना बंद करो , मैंने पानी की बोतल दी उसे, उसने कुछ घूँट भरे .

मैंने उसे बताना शुरू किया हर वो बात जो मेरे और मेघा के बीच हुई थी, कैसे वो मुझे मिली, हमारी जान पहचान हुई कैसे हम करीब आये, कैसे उसने अपना परिचय छुपाया, हर के बात मैंने प्रज्ञा के सामने खोल दी.

मैंने वो लॉकेट फर्श से उठाया और अपने गले में पहन लिया.

प्रज्ञा- कबीर, मुझे भूलना होगा तुम्हे, मुझसे दूर होना होना होगा, हम दोनों के लिए सही रहेगा ये,

मैं- क्या कह रही हो तुम, तुमसे दूर हो जाऊ

प्र्य्गा- तुमने ठीक सुना, मैं अपनी बेटी का हक़ नही मार सकती, मुझे ख़ुशी है की उसने एक बहुत नेक इन्सान का हाथ पकड़ा है पर उसकी ख़ुशी के लिए, तुम्हारी आने वाली जिन्दगी के लिए तुम्हे भूलना होगा मुझे

मैं- तुम्हे भूल जाऊ ये हो नहीं सकता, तुमने ही तो थामा है मुझे बेशक मेरी मोहब्बत है मेघा पर प्यार तो तुमसे भी है न , मैं बात करूँगा उस से समझाऊंगा उसे, तुम मेरी दोस्त हो. साथी हो. मेरे हर दुःख दर्द को समझा है तुमने मैं कैसे दूर हो पाउँगा तुमसे, तुमसे जुदा होना पड़ा न मुझे तो फिर जीना नहीं है मुझे जान दे दूंगा मैं

प्रज्ञा- समझते क्यों नहीं तुम कबीर, मैं अपनी ख़ुशी के लिए बेटी के दामन को दुखो से नहीं भर सकती,

मैं- तुम कहती थी न जब कभी ऐसा दिन आयेगा तो तुम मेरे आगे खड़ी हो जाओगी प्रज्ञा वो दिन आ गया है , आ गया है वो दिन

प्रज्ञा मेरे सीने से लग गयी और फूट फूट कर रोने लगी.
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12-07-2020, 12:18 PM,
#75
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#70

मैं प्रज्ञा को दिलासा तो दे रहा था पर जानता था की डोर हाथ से फिसल गयी है , मेघा बहुत ज्यादा गुस्से में थी और आने वाला समय प्रज्ञा के लिए आसान नहीं होने वाला था , उसे हर पल अपनी बेटी की सवाल पूछती निगाहों का सामना करना पड़ेगा. उसे अपनी बेटी द्वारा तिरस्कार सहना पड़ेगा. प्रज्ञा की ग्रहस्थी दांव पर लग गयी थी और क्या होगा जब ये हकीकत राणाजी को मालुम होगी.

प्रज्ञा ने बहुत साथ दिया था ,एक वो ही तो थी जिसने हर एक कदम पर थामा था मुझे, एक वो ही तो थी जो मेरी हमराह थी, जिसके बूते मैं आज तक यहाँ पहुंचा था .एक वो ही तो थी जो मेरी थी . और इस हालात में मैं उसे अकेला छोड़ दूँ ये मेरी खुदगर्जी ही होगी.

“सब ठीक हो जायेगा, मैं संभाल लूँगा ” मैंने उस से कहा

प्रज्ञा- क्या संभाल लोगे तुम, बात हाथ से निकल गयी है कबीर, ऐसी आग लगी है कबीर जिसमे अब झुलसना ही है , अभी तो केवल धुआ उठा है जब लपटे उठेंगी तो सब जलेंगे.

मैं- अगर जलना पड़ा तो भी तुम्हारे साथ ही जलूँगा , बेशक मेघा जान है मेरी पर तुम भी तो आन हो मेरी, मान हो मेरा तुम , और तुम्हारी इज्जत पर जरा भी आंच आये ऐसा मैं होने नहीं दूंगा .

मैंने उसे अपनी बाँहों में भींच लिया. पर मैं जानता था की आने वाला समय मुश्किलें बढ़ा देगा मेरी.

नसीब ने भी क्या खूब खेल खेला था मेरे साथ, जिन्दगी में आई भी तो दो माँ बेटी, अब मैं सफाई भी अगर दू तो क्या दूँ मेघा को . जिस हालत में उसने हमें देखा था कहने को कुछ रह भी तो नहीं गया था . मैंने प्रज्ञा को वापिस जाने को कहा , मैं वहीँ रुक गया . मैं देव गढ़ को और जानना चाहता था .

प्रज्ञा के जाने के बाद एक गहरी ख़ामोशी छा गयी इस घर में . जिस बिस्तर पर एक खूबसूरत रात हमने बितायी थी उसी पर बैठे मैं सोचता रहा , मेरा सबसे पहला सवाल ये ही था की मेघा आखिर यहाँ क्या कर रही थी , क्या उसे मालूम था यहाँ के बारे में, न जाने मुझसे क्या क्या छुपाया हुआ था उसने .

दूसरा वो तस्वीर जो मुझे दराज से मिली थी , मैं उसके बारे में बात करना चाहता था क्योंकि बात ही ऐसी थी पर ये रायता फ़ैल गया था जिसे समेटना बेहद जरुरी था. जितना मैं मेरे सर पर जोर डालता मेरा सर उतना दुखता, कुछ परछाई मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रही थी.

मैंने वो तस्वीर फिर देखि, हु ब हु मेरे जैसी पर क्या मैं था , और अगर था भी तो कैसे, आस पास के पुरे इलाके को छान मारा मैंने ये गलिया, ये रस्ते, गाँव में अगर आबादी होती तो कोई न कोई मिल जाता जो मुझे कुछ बता सके.

सोचते सोचते न जाने कब आँख लग गयी, होश आया तो मैं अँधेरे कमरे में पड़ा था , बाहर आके देखा आसमान में तारे खिले थे, चाँद मेरी तरह तनहा सा था . सामने एक खाट बिछी थी , जिस पर कुछ बर्तन रखे थे , मैंने हटा कर देखा, खाना था , एक दम गर्मागर्म, खुसबू सूंघते ही मुझे अहसास हुआ की किस कद्र भूखा था मैं ,पर कौन रख गया ये खाना .

मैं खाना खाने बैठ गया , दो चार निवाले तोड़े थे की मुझे वही पायल की आवाज सुनाई दी, सीढियों से कोई आ रहा था ,इ क पल लगा मेघा है पर नहीं ये वो रुबाब वाली थी .

“पानी,” उसने लोटा मेरे पास रखा और मुंडेर पर बैठ गयी.

मैं- आप का घर है ये,

वो- कह सकते है

मैं- मुझे जगा दिया होता

वो- कोई बात नहीं, पहले तुम खाना खा लो, फिर बात करेंगे.

मैंने जल्दी से खाना खत्म किया.

वो- तो आखिर तुम आ ही गए, देर से ही सही लौट तो आये

मैं- समझा नहीं

वो- अक्सर सीधी बाते कम समझ आया करती है

मैं- तो आप ही समझा दो, बहुत उलझा हु मैं

वो- उलझन तो कोई नहीं है बस एक फ़साना है , एक अधूरी कहानी है , एक वादा है शुरू तुमसे हुई थी अंजाम तुम्हारा है .

मैं- पर मुझे नहीं मालूम कुछ

वो- घर आ गए हो, वो वक्त भी आ जायेगा. तुम्हारा यहाँ रहना सुरक्षित है , हर जरुरत की चीज़ मिल जाएगी तुम्हे, ये तुम्हारा घर है

मैं- पर कैसे मैं तो अर्जुन्गढ़ का हूँ न

वो- नहीं कुंवर, अर्जुन्गढ़ बस इसलिए है की देवगढ़ है , तुम हो

मैं- और रतनगढ़

वो- कुछ नहीं , अर्जुन्गढ़ का एक हिस्सा भर है वो, एक ज़माने में अर्जुन गढ़ ही था वो बाद में गाँव के दो हिस्से हो गए.

मैं- तो देवगढ़ का क्या रिश्ता है अर्जुन्गढ़ से

वो- प्रीत का , प्रीत का रिश्ता है , एक कहानी लिखी गयी थी जिसके किरदार कहीं खो गए.

मैं- आप तो सब जानती है न मुझे बताती क्यों नहीं फिर

वो- बता दूंगी, सब बता दूंगी . फिलहाल तो मैं ये कहूँगी की तुम जोगन से दूर रहो,

मैं- किस जोगन से

वो- जान जाओगे, जानते हो कुंवर, इस दुनिया में सबसे मुश्किल क्या है

मैं क्या

वो- प्रेम, प्रेम करना और उसे निभाना सबसे मुश्किल होता है प्रेम अपने साथ कभी खुशिया नहीं लाता, वो तुम्हे देता है असीम दुःख, और अनगिनत परीक्षा , तुम्हारे मन को देखा है मैंने ये जो प्रेम है न मुझे इसमें दुविधा है , खैर, जाने दो, हम फिर कभी बात करेंगे इस बारे में. तुम आराम करो

उसने बर्तन समेटे और जाने लगी.

मैं- कहाँ जा रही है आप

वो- जहाँ नसीब ले जाए
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12-07-2020, 12:18 PM,
#76
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#71

मैं- तो मुझे भी साथ ले चलो , क्या पता वहां मेरा नसीब भी हो

उसने मुझे देखा और बोली - आज नहीं फिर कभी ,

मैं वही छत पर बैठ गया , अकेले तनहा, जिन्दगी बस तीन औरतो के बीच घूम रही थी , मेघा, प्रज्ञा और ये रुबाब वाली, और अब लगता था की तीनो से ही मेरा गहरा नाता था . पर कैसे ये कोई नहीं बता रहा था, उसने कहा था ये मेरा घर है , और घर किसी भी आदमी का गढ़ होता है तो यहाँ कुछ न कुछ ऐसा जरुर होना चाहिए था जो मुझे मेरे जवाब दे सके,

मैंने निर्णय लिया की सुबह होते ही एक बार फिर से तलाशी लूँगा. अगर मेरा घर है तो मुझे पहचान लेगा. मुझे बताएगा मेरी मोजुदगी को, मेरे हर नक्श को, मेरे अक्स को दिखायेगा मुझे . ये घर ही मिलाएगा मुझे मेरे अतीत से , और आने वाले कल से.

सोचते सोचते सुबह हो गयी, बरसो बाद मैंने सुबह देखि थी और ये बहुत शानदार सुबह थी , थोड़ी दूर मोर बोल रहे थे, सूरज की लाली में ठण्ड थी . अंगड़ाई लेते हुए मैं उठा , हाथ मुह धोये, एक बार फिर मेरी निगाहे उस तस्वीर पर आकर ठहर गयी जिसका चेहरा धुंधला गया था . मुझे मालूम करना था ये कौन है .

बहुत देर तक मैंने उसे देखा , फिर मैं बैठक में आया. मैंने दीवारों को टटोला, फर्श को अच्छे से देखा और देखिये मुझे एक चोर दरवाजा मिला. थोड़ी मशक्कत के बाद मैंने उसे खोल दिया. निचे जाने को कुछ सीढिया थी जल्दी ही मैं एक तहखाने में पहुँच गया .

रौशनी के लिए टोर्च जलाई, तो पाया की एक छुपा कमरा था , एक तरफ शराब की धुल खायी बोतले थी, एक बड़ा सा पलंग था . थोडा बहुत सामान और दिवार पर सजी चार बड़ी सी तस्वीरे. आदमकद तस्वीरे, शीशे की फ्रेम में जड़ी हुई, मैंने एक कपडे से उनकी धुल साफ़ की , दो तस्वीरो को मैं तुरंत पहचान गया, हुकुम सिंह और कामिनी की तस्वीरे.

दो तस्वीरे और थी एक जोड़ा और था , वो आदमी मुझे बहुत देखा देखा लग रहा था , मैंने दिमाग पर और जोर दिया .

और मैं समझ गया मैंने उसे कहा देखा था वो ठाकुर अर्जुन सिंह थे, अर्जुन सिंह जिनके नाम पर अर्जुन गढ़ बसाया था, मेरे सर में भयंकर दर्द होने लगा था , जैसे की ये फट जायेगा. एक असहनीय दर्द, मुझे बहुत सी छाया दिखनी शुरू हो गयी, मैं किसी औरत के पीछे भाग रहा हूँ , वो मुझसे अठखेली कर रही थी , मैंने ऊँट देखे , एक छप्पर देखा , चूल्हे पर रोटी बनाती देखा किसी को मैं उसके पास बैठा था.

छाया बदली मैंने खुद को देखा, किसी से लड़ते , शोर गूँज रहा था चारो तरफ मैंने कुछ ऐसा देखा जिस से मेरा कोई लेना देना नहीं था .

मेरे कानो में फ़ोन बजने की आवाज आई तो मैं जैसे धरती पर आ गिरा. एक अनजान नम्बर से फ़ोन था पर जो दूसरी तरफ से कहा गया सुन कर मैं खुश हो गया. मैं तुरंत वहां से निकला , मुझे शहर जाना था . जितना जल्दी हो सके.

कुछ घंटे बाद मेरे हाथ में कामिनी की डायरी थी , मैंने वहीँ बैठ कर उसे पढना शुरू किया, दो दोस्तों की कहानी, जैसे मैं खो गया पर जल्दी ही मुझे झटका लगा जब मैंने उनकी दुश्मनी के बारे में भी पढ़ा, मैंने पद्मिनी को जाना, मैंने कामिनी को जाना मैंने जाना अर्जुंग सिंह और हुकुम सिंह को .

उस डायरी में सब कुछ था उनके बारे में उनके सुख के दिनों के बारे में, उनके ऊपर आये दुखो का वर्णन , बस कुछ नहीं था तो वो कड़ी जो मुझे जोड़ दे उनसे, पर एक चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा था वो था लाल मंदिर .

अर्जुन और हुकुम सिंह की लड़ाई की जगह , जहाँ हुकुम सिंह ने एक प्रतिज्ञा ली थी .

मैंने जाना कैसे हुकुम सिंह ने दुनिया से अपनी मोहब्बत को छुपाया, मुझे वो एक फट्टू लगा जो इतना दबंग होते हुए भी अपनी प्रेमिका का हाथ ज़माने के सामने न थाम पाया. मैंने जाना की लाल मंदिर की मिटटी में कुछ था जिसको पद्मिनी ने बांध दिया था ताकि हुकुम सिंह उसका उपयोग न कर पाए.

मैंने जाना उनके टूटते रिश्ते की उलझनों को , मैंने जाना खारी बावड़ी के बारे में और मैं सबसे पहले उस जगह को पहचान गया , मैंने एक नक्षा बनाया और अगर वो खारी बावड़ी थी तो मुझे लाल मंदिर का पता भी मिल गया था .

तारा माँ का मंदिर ही लाल मंदिर था , वहीँ पर दोनों दोस्तों की दोस्ती की डोर टूटी थी , ये प्रीत की डोर उनकी दोस्ती की डोर थी , और खुद रुबाब वाली ने कहा भी तो था की रतनगढ़ अर्जुन गढ़ का हिस्सा ही हैं . वो दिया जो मुझे विरासत में मिला था वो अर्जुन सिंह का था जो पीढ़ी दर पीढ़ी घूम रहा था जब तक की वो सही हाथो में न पहुँच जाए, और वो वारिस मैं था .

मैं तुरंत चल दिया रतनगढ़ के लिए , मेरी मंजिल था लाल मंदिर , इतिहास को खींच कर आज के कदमो में डालने का समय आ गया था . वहां पहुँचते पहुँचते शाम सी हो गयी थी . चूँकि मंदिर का दुबारा से निर्माण कार्य चल रहा था तो लोग थे वहां पर , पर मुझे किसी की घंटा परवाह थी . मुझे देखते ही लोगो में खुसर पुसर शुरू हो गयी . मैं चलते हुए तालाब की तरफ जाने लगा.

“रुक जा कबीर, इतना सब होने के बाद भी तू यहाँ आ गया ”

मैंने देखा ये वही टोली थी सुमेर सिंह के दोस्तों वाली, बस उनके साथ गाँव के भी कुछ लोग थे

मैं- किसी के बाप की जगह नहीं है ये, और ना तुम लोगो की औकात की मुझे रोक सको

“रतनगढ़ में अभी भी मर्द है ” टोली में से कोई बोला

मैं- पर मुझे शौक नहीं है तुम्हारी मर्दानगी देखने का , अपने काम करो मुझे मेरा करने दो

“हमारा काम यही है की दुश्मन का इलाज कर दिया जाए ”

मैं समझ गया था की ये चूतिये ऐसे नहीं मानने वाले

मैं- ठीक है फिर, कौन आएगा तुम में से पहले मरने को , जिसकी इच्छा है आगे आ जाये, चलो करते है शुरू

“इनसे क्या जोर आजमाइश , मजा तो जब आयगा जब दर्द भी अपना और दुश्मन भी अपना ” दूर से आती आवाज ने मेरा ध्यान खींच लिया
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12-07-2020, 12:18 PM,
#77
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#72

मैंने मुड कर देखा राणाजी चले आ रहे थे ,

“तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था , जो दर्द तुमने इस गाँव को दिया है मैं अगर खाल भी खींच लू तो कम रहेगा ” राणा बोला

मैं- न पहले कोई हुआ जो मुझे रोक पाया, न आगे कोई पैदा होगा जो मेरे कदमो को रोक सके, रही बात इस गाँव की तो जब दिलो में नफरते भरी होंगी तो क्या मिलेगा सिवाय दर्द के .

राणा- ये किताबी बाते.

मैं- किताबी बाते तो ये हैं राणा की यहाँ तू ये रोना रो रहा है और पीछे मेरे बाप के साथ मिलकर कोई घोटाला कर रहा है . देख जरा तेरे लोगो की आंखो में, तू कोई उम्मीद नहीं दे पाया इनको, इस गाँव की आन बाण के लिए अगर तू जीता न, तो मैं कभी भी तेरी पहुँच से दूर नहीं था , तूने कोशिश ही नहीं की और अब समय बीत गया है,

राणा- गुस्ताख, तू जनता नहीं तू किस से बात कर रहा है ,

मैं- मुझे ये झूठी हेकड़ी मत दिखा राणा, तेरा जोर इन मजलूमों पर चलता होगा मुझ पर नहीं

राणा- जिन्दा नहीं जायेगा तू यहाँ से आज

मैं- कौन रोकेगा मुझे, ये मंदिर मेरा है , मैं इसका कोई कोशिश तो करे

राणा- कोशिश क्या करनी तेरी जान हमारी मुट्ठी में है , तुझे तो भान भी नहीं मौत कितने करीब है तेरे

मैं- ठीक है फिर , तू भी यही है और मैं भी यहीं हूँ , तेरा सारा गाँव आज तमाशा देखेगा तेरी पगड़ी यही गिरेगी मेरी ठोकर में, ये जो मूंछे पैनाये हुए हैं न तु, आज के बाद इनको मरोड़ नहीं पायेगा तू , आजा मैं भी देखू जोर तेरी बाजुओ का .

“रतनगढ़ अभी इतना कमजोर भी नहीं हुआ है की तुम्हारे लिए राणाजी को हथियार उठाने पड़े, अभी जिन्दा हैं राणाजी की पगड़ी को सँभालने वाले ”

ये आवाज, इस आवाज पर ही तो मर मिटा था मैं, मदमस्त हाथी सी चली आ रही थी मेघा, उसे देखते ही जैसे मैं तमाम जहाँ को भूल गया था , कोई और लम्हा होता तो बाँहों में भर लेता उसे, पर आज नसीब देखो हमारी ही मोहब्बत हमें रुसवा करने आई थी . जिन आँखों में अपने लिए झील की ठंडक देखि थी , वो आँखे आज नफरत से जल रही थी,

माना की मेरी गलती थी , पर बात इतनी भी नहीं थी की , पर अब क्या कहे , फिलहाल तो यूँ थे की कुछ कर नहीं सकते थे .

“तुम्हारे लिए मैं ही काफी हूँ ” मेघा बोली

मैं- सही कहा , जानता हूँ मैं इस बात को

मेघा- बढ़िया, तो चुन लो अपने हथियार , जितने चाहिए उठा लो, कहीं फिर अफ़सोस न हो तुम्हे .

मैं- तुम जानती हो , तुम्हारे आगे ये सब फिजूल है .

मेघा- क्या हुआ निकल गयी हेकड़ी, ये रतनगढ़ की मिटटी है अच्छे अच्छे घुटने टेक गए यहाँ पर , क्या कहा था तुमने राणाजी की पगड़ी तुम्हारे कदमो में होगी, सोच भी कैसे लिया तुमने , ये मान है मेरा, और मेरे मान को कोई छू भी दे उस से पहले वो हाथ जिस्म से जुदा कर दूंगी मैं .

किसी जहरीली नागिन सी फुफकार रही थी मेघा, मैं जानता था की नाराज है वो मुझसे

मैं- तेरी नाराजगी समझता हूँ , एक मौका दे मैं सब समझाता हु तुम्हे

मेघा- मौका दूंगी, मेरे बाप के पैर पकड़ ले, नाक रगड कर माफ़ी मांग ले तो मौका दूंगी,

बड़ी जोर से चुभी थी ये बात कलेजे को कोई और होता उसकी जगह से तो सर धड से अलग कर देता पर सामने मेघा थी अब उस से कहता तो क्या कहता .

मैं- तू भी जानती है इस मंदिर से मेरा नाता, मैं आऊंगा यहाँ आज आया हूँ बार बार आऊंगा

मेघा- क्योंकि तब मैं चाहती थी , अब नहीं चाहती

मैं- तू समझती क्यों नहीं हैं मेरी बात को

मेघा- दुश्मनों की बात को क्या समझना , ये बहाने मत बना कबीर, तू भी जानता है तू कायर है , मर्द होता तो मेरी चुनोती स्वीकार कर लेता अब तक .

मैं- क्या है तेरी चुनोती, तू अपनी भड़ास उतरना चाहती है मुझ पर, तू साबित करना चाहती है की तू सही हैं मैं गलत हूँ . पर क्रोध ने तेरी आँखों पर वो पट्टी बांध दी है जो खुलना मुश्किल है , अगर तेरी मर्जी यही हैं तो ठीक है आ तू भी कर ले अपनी चाह पूरी,

जब कभी लिखा जायेगा तो ये दिन भी लिखा जाएगा की कैसे तेरे हठ ने सब झुलसा दिया , अगर तेरी आग ऐसे बुझती है तो कर ले कोशिश , वादा है तुझे निराश नहीं करूँगा.

आँखों से आंसू गिरने को बेताब थे पर अब मेरा भी हठ था, गिरने नहीं दिया उनको पी गया उनको, जब मोहब्बत ने ही सोच लिया था की ज़माने के आगे रुसवा होना है तो ठीक है न तमाशा फिर बड़ा होना चाहिए, जब आग में दिल के अरमान जलने वाले हो तो धुआ फिर गहरा होना चाहिए की नहीं .

मेघा ने पहला वार किया, उसकी तलवार मेरी बाह को चीर गयी, मैंने रोकने की कोशिश नहीं की, जिस बाह के घेरे में सोया करती थी उसी को घायल कर गयी थी वो .

मैं- मजा नहीं आया मेरी जाना

मेरी मुस्कराहट ने उसे और गुस्सा दिला दिया , पर इस बार मैंने वार बचा लिया.

“कौशल कम है तुम्हारा ”

मेघा- जितना है बहुत है

उसने मेरी जांघ पर वार किया, मैं तिलमिलाया और न चाहते हुए भी मैंने अपनी तलवार की मूठ उसकी पीठ पर दे मारी, अब जख्म उसे दू भी तो लगना मेरे कलेजे पर ही था .

शाम रात में बदलने लगी थी , तलवारे खून से सनी थी , कुछ जखम मेरे थे और उसके जख्म भी मेरे ही थे, पूरा रतनगढ़ ही जैसे जमा हो गया था .

मैं- कर क्यों नहीं देती ख़तम ये तमाशा, ले मार दे मुझे, अपने हाथो से विधवा हो जा तू ,

मेघा- कुछ नहीं लगता तू मेरा .

इस बार उसकी तलवार पसली में घुस गयी, चीखा मैं

मेघा- मैं जानती हूँ तू बस मेरा मन रखने को कर रहा है ये सब , मेरी नहीं तो उन लम्हों का मान रख ले, कब तक कायरो का नकाब ओढ़े रखेगा

मैं- तेरे पास मौका है कर दे ख़तम बुझा ले आपनी नफरत की आग .

मेघा कुछ नहीं बोली, बस उसकी त्रीवता और बढ़ गयी . उसकी शक्ति पल पल बढती जा रही थी , जितना उसका गुस्सा बढ़ रहा था उतना वो पागल हो रही थी, इस बार जो हमारी तलवारे आपस में भिड़ी मेरी वाली दो टुकडो में बिखर गयी , उसने मेरी छाती में मारा और मैं सामने एक पिल्लर से जा टकराया.
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12-07-2020, 12:19 PM,
#78
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#73

मैं इतनी जोर से पिल्लर से टकराया था की अन्दर से टूटती पेशियों की आह को मैंने बहुत जोर से महसूस किया. आँखों के आगे अँधेरा छा गया. इस से पहले की मैं संभल पाता मेघा ने बहुत गहरा जख्म दे दिया. मेरे मुह से खून की उलटी गिर गयी. जिस तरह से उसके प्रहारों की त्रीवता बढती जा रही थी मुझ को भी क्रोध आने लगा था .

और इसी गुस्से में मुझसे वो हो गया जो नहीं होना था , मैंने गुस्से में उसे उठा कर सीढियों पर दे मारा उसके हाथो से तलवार छूट गयी, जिसे मैंने उसके पेट में घोंप दिया. बेशक ये क्रोध का छोटा सा लम्हा था पर इसी में सब हो गया था .

मुझे उसी पल अहसास हो गया था की अनर्थ हो गया है , मेघा दर्द से बिलबिलाते हुए सीढियों पर पड़ी थी , मैंने उसे भर लिया अपने आगोश में, उसकी आँखे खुली थी .मैंने तलवार पेट से बाहर निकाली , खून का दरिया जैसे बह चला, पर बात अगर यही तक ठीक थी तो कोई बात नहीं असली मुसीबत का पता मुझे थोड़ी देर बाद चला जब मेरे जिस्म में दर्द की एक लहर उठी.

ज़ख्म मेघा का था पर दर्द, मेरा था जितना खून उसके बदन से बह रहा था उतना दर्द मुझे हो रहा था , मेरा जिस्म ऐंठने लगा. नसे जोर मारने लगी, मैं पागलो की तरह चीख रहा था , चिल्ला रहा था पर सब मेघा को संभालने में लगे थे,

“”क्या किया तूने मेघा क्या किया “ मैंने सवाल किया उस से

पर वो बस आँखे मूंदे पड़ी थी , होंठ हिल रहे थे उसके हौले हौले. क्या मेघा ने तंत्र का कोई प्रयोग कर दिया मुझ पर . आँखे जैसे दर्द के मारे बाहर आने को हुई पड़ी थी , ये दर्द ऐसा था की जैसे कोई नोंच रहा हो, काट रहा हो मेरे बदन को , इस दर्द को मैंने पहले भी महसूस किया था जब टूटे चबूतरे पर जानवरों ने हमला किया था मुझ पर .

“ये तूने क्या किया मेघा, बताती क्यों नहीं मुझे ” मैंने चीखते हुए कहा पर उसके होंठो पर बस एक मुस्कान थी , वो मुस्कान जो कभी इस दिल में उतर जाती थी .

मेघा लड़खड़ाते हुए उठी, मेरे पास आई.

मेघा- ये साथ यही तक था, सोचा तो था की सुहागन बन कर तेरे साथ ये जीवन जीना है , पर अब ये ही सही .

वो मुड़ी और पीठ मोड़ कर चल पड़ी, मैं बस उसे जाते हुए देखते रहा , उसे रोकना चाहता था पर रोक नहीं पाया. जिस्म को जैसे अंगारों पर रख दिया हो किसी ने , आग लगी थी पर जल नहीं पा रहा था मैं , मैंने देखा मेरे बदन से बहता खून काला पड़ने लगा था . कोयले सा काला. घुटने धरती पर टिक गए थे, सब कुछ अँधेरा अँधेरा लगने लगा था .

न जाने कब बेहोशी ने अपने आगोश में समा लिया मुझे कोई होश नहीं , कोई खबर नहीं.

इन सब बातो से अनजान प्रज्ञा आरती के लिए दिया जला रही थी की मंदिर में रखते ही दिया बुझ गया, उसकी २२ साल की गृहस्थी में ऐसा कभी नहीं हुआ था, अनजाने भय से उसकी आत्मा कांप गयी, एक तो वो मेघा को लेकर बहुत परेशान थी . वो उस से नजरे नहीं मिला पा रही थी .

मेघा ने दिए को दुबारा जलाने के लिए दियासलाई जलाई ही थी की बाहर से आते शोर ने उसका ध्यान भटका दिया. नंगे पैर ही दौड़ी वो बाहर की तरफ और जब उसने देखा मेघा को चक्कर ही आ गए उसे, खून से लथपथ मेघा लड़खड़ाते कदमो से हवेली में आ रही थी . प्रज्ञा उसे देखते ही चीख पड़ी, माँ जो थी औलाद के लिए कलेजा फटना ही था .

“मेघा, मेरी बच्ची क्या हुआ तुम्हे ” प्रज्ञा भागी मेघा की तरफ

पर मेघा ने हाथ के इशारे से प्रज्ञा को रोक दिया.

“तुम्हे चिंता करने की जरुरत नहीं है मेरी , ये दिखावा बंद करो ” मेघा ने हौले से प्रज्ञा को कहा और अन्दर चली गयी.

प्रज्ञा को बहुत दुःख हुआ आँखों में पानी आ गया. उसने मूक निगाहों से राणा से सवाल किया की क्या हुआ . राणा ने उसे अपने साथ आने को कहा. धडकते दिल को बड़ी मुश्किल से संभाले प्रज्ञा राणा के साथ चल पड़ी.

राणा ने पूरी बात बताई उसे, प्रज्ञा के लिए अपने जज्बातों पर काबू रखना बहुत कठिन था , एक तरफ दोस्त के अनिष्ट की खबर और सामने पति खड़ा , धर्मसंकट में फंसी प्रज्ञा चाह कर भी कुछ न कर सकी. बस नसीब को कोस कर रह गयी.

अपने ज़ख्मो को सीती मेघा के चेहरे पर कोई भाव नहीं था , पर दिल में तूफ़ान आया हुआ था , आँखों के सामने तमाम वो पल आ रहे थे जो उसने कबीर के साथ बिताये थे, पर साथ ही एक याद ऐसी भी थी जिसने उसके मन को नफरत से भर दिया था.

“बस तुमसे अब मैं थोड़ी ही दूर हूँ, एक बार तुम्हे पा लू ” उसने अपने ख्यालो से कहा

अपने कमरे में चहलकदमी करते हुए राणा गहरी सोच में डूबा था , उसने प्रज्ञा का ऐसा रूप नहीं देखा था , वो हैरान था की औलाद ने क्या क्या छुपा रखा था उस से, और मेघा और कबीर के रिश्ते की हकीकत ने तो उसे हिला कर रख दिया था . राणा को अपनी बेटी पर बहुत गुमान था पर वही बेटी दुश्मन से इश्क में थी.

राणा जैसे लोग जिनके लिए जान से ज्यादा अपनी मूंछ की कीमत रही हो. वो ऐसी बातो को कैसे पचा पाते, और वो भी तब जब बात उसकी बेटी की हो.

उसने नौकर को भेजा मेघा को बुलाने के लिए. वो अपनी बेटी को टटोलना चाहता था उसके मन का भेद लेना चाहता था .

“देखो, बेटी मैं नहीं जानता की उस लड़के और तुम्हारे बीच क्या है क्या नहीं है , पर एक बाप होने के नाते मेरा इतना तो हक़ है की तुमसे पूछ सकू ” राणा ने पासा फेका

मेघा- कुछ नहीं है मेरा उस से, सिवाय इसके की वो हमारा दुश्मन है

राणा- हाँ पर बीते समय में हालात ऐसे नहीं थे न

मेघा- जो बीत गया उसका क्या जिक्र करना

राणा- तुम्हारा बाप हूँ , इस घर का मुखिया हूँ , मुझे मालूम होना चाहिए

मेघा- तो फिर करिए मालूम किसने रोका है , अभी मैं थोड़ी देर अकेले रहना चाहती हूँ सुबह वैसे भी मुझे शहर के लिए निकलना है

जिस तरह से मेघा ने राणा को जवाब दिया था एक पल को वो हैरान रह गया की क्या ये उसकी ही बेटी है .
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12-07-2020, 12:19 PM,
#79
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#74

नफरतो ने ऐसा तंदूर सुलगा दिया था की मोहबत धुआ बन कर जल गयी थी , तीन लोग एक डोर से बंधे थे , डोर थी की ऐसी उलझी थी कोई राह दिख नहीं रही थी , दिल टूटे थे दर्द था पर आह नहीं थी और कहे भी तो किस से हाल अपने दिल का , दिल अपना था प्रीत पराई हो गयी थी .

डूबती आँखों और कांपती उंगलियों से मैंने प्रज्ञा का फ़ोन मिलाया.

“कबीर, क्या हुआ है तुम्हारे और मेघा के बीच , ” एक ही सांस में बोल गयी वो

मैं- मेघा कैसी है

प्रज्ञा- खुद को कमरे में बंद किये हुए है .तुम ठीक तो हो न

मैं- हाँ , ठीक हु न कोई फ़िक्र नहीं

प्रज्ञा- क्या फ़िक्र नहीं , जिस तरह वो आई थी मेरा दिल बैठा जा रहा है , मैंने चंपा को भेज दिया है जल्दी ही तुम तक पहुँच जाएगी वो ,

मैं- मेघा का ख्याल रखो, उसे जरुरत है तुम्हारी

प्रज्ञा- तुम दोनों की जरूरत है मुझे, मैं जिस्म हूँ मेरी जान हो तुम , औरत मुझे तुम दोनों साथ चाहिए, राणाजी है तो ज्यादा बात नहीं हो पायेगी, मैंने चंपा को सब समझा दिया है

किसी जन्म में कुछ तो अच्छा किया होगा जो प्रज्ञा का साथ मिला था मुझे , मैंने फोन को अपने सीने से लगा लिया जैसे प्रज्ञा सुन रही हो मेरी धडकने, कुछ देर बाद चंपा आ गयी. उसने मुझे उठाया और गाड़ी में पटक दिया.

वो मुझे देवगढ़ ले आई थी ,

“मालकिन ने कहा की यहाँ से सुरक्षित कुछ नहीं ”

मैं- हम्म,

मैंने कपडे उतारे और अपने जख्म देखने लगा. ये अजीब से थे, तलवार इतनी गहरी उतरी थी पर फिर भी बस चीरे से ही थे, मैंने चंपा से बॉक्स लिया उअर मरहम पट्टी करने लगा.

मैं- तुम चाहो तो जा सकती हो.

चंपा- मालकिन ने साथ रहने को कहा है .

मैं थोड़ी देर लेट गया . आँख ऐसी लगी की फिर सीधा अगली दोपहर को ही आँख खुली . चंपा ने चाय नाश्ता करवाया, एक बार फिर मैंने कामिनी की डायरी निकाली और पढने लगा. मैंने बैग से वो तस्वीर निकाली वो पुराणी तस्वीर , जो कहने को अतीत थी पर मेरे आज को हिला देने वाली शक्ति रखती थी. कुछ सोच कर मैंने वो तस्वीर प्रज्ञा को दिखने का निर्णय लिया.

पर उस से पहले मैं रुबाब वाली से मिलना चाहता था मैं जैसे भी करके उस से सवाल जवाब करना चाहता था . उसने हर बार मुझे आगाह किया था की मैं मेघा से दूर रहूँ और पिछले कुछ समय में जब जब मेघा मुझे मिली थी कुछ न कुछ अनिष्ट हुआ ही था . उसका स्नेह उसका वो अपनापन खो गया था , बेशक दोष मेरा भी था मैं उसके दिल को भी समझ रहा था कोई भी औरत ऐसा ही करेगी और हमारे मामले में तो उसकी माँ उसके यार के साथ थी .

पर अब ये जैसे बीती बाते थी मुझे हर हाल में मालूम करना था की मेघा के मन में क्या चल रहा था और दोनों ठाकुर मिल कर क्या करने वाले थे . इसलिए रुबाब वाली का मिलना बहुत जरुरी था . दो तीन दिन ऐसे ही गुजर गए.

मैंने एक बार अर्जुन गढ़ जाने का सोचा , मेरे बाप पर नजर रखने के लिए मुझे सविता की मदद चाहिए थी , देर शाम मैं सविता के घर पहुंचा , हलके से मैंने दरवाजा खोला घर में सन्नाटा था, मैं सविता के कमरे की तरफ बढ़ा और मैंने जो देखा , यकीं नहीं आया, सविता मेरे बाप से चुद रही थी . दोनों लगे हुए थे एक दुसरे से. मैं ओट में हो गया. कुछ देर बाद चुदाई खत्म हो गयी और वो बाते करने लगे.

“उस काम का क्या हुआ ” पिताजी ने पूछा

सविता- चारा डाल दिया है , तुम जानते हो कितना मानता है वो मुझे पर समस्या ये है की वो मिल नहीं रहा मुझे, खेत पर भी रोज दो चक्कर लगाती हूँ पर वो रहता ही नहीं है , और तुम उसके नए ठिकाने के बारे में मालूम कर नहीं पाए हो

पिताजी- तेज बहुत है वो, रतनगढ़ के राणा की लड़की को फसा लिया है उसने ज्यादातर उसके साथ ही रहता है पर कहाँ मिलता है कब मिलता है मेरे आदमी भी मालूम नहीं कर पा रहे है . पर तुम से मिलने जरुर आएगा वो .

सविता- मैं खोद लुंगी बाते उस से , चूत में बहुत दम होता है

पिताजी- हाँ जानता हूँ, चल मैं निकलता हूँ मास्टर आने ही वाला होगा .

सविता ने भी अपने कपडे पहन लिए. मैं पिछले दरवाजे की तरफ चल दिया. सविता भी चुतिया बना रही थी , जिन्दगी में साला जो भी मिल रहा था सब धोखेबाज , साले सब चोर, इस रांड के लिए मैंने सब कुछ त्याग दिया और ये मेरे बाप के लिए काम कर रही थी .

मेरे चारो तरफ एक जाल बुना गया था जिसमे मैं फंस गया था पर किसलिए ये कौन बताएगा. जी तो किया की अभी सविता की गर्दन पकड़ लू पर खुद को रोक लिया. मैंने मास्टर को उठाने का सोचा, अब वही बताएगा जो बताये .

थोडा समय लगा पर मैं उसे जंगल में ले आया.

मास्टर- कबीर, बेटा ये क्या है , कैसी हरकत है ये

मैं- मास्टर, मेरे पास समय नहीं है और न तेरे पास मैं बस तुमसे कुछ सवाल करूँगा, तुम्हे जवाब देने है ,

मास्टर- ये हरकत महंगी पड़ेगी तुम्हे, मैं हुकुम से शिकायत करूँगा

मैं- मास्टर, गांड में डाल अपनी धमकी को, तेरे पास दो रस्ते है ये तो मुझे जवाब दे या फिर मैं तुझे मार दू मर्जी तेरी है

मास्टर कुछ सोचता उस से पहले ही मैंने उसके कंधे में चाकू घुसेड दिया.

चिलाने लगा वो मैंने आधा इंच चाकू और सरका दिया

मैं- जितनी देर तू लगाएगा मैं उतनी ही जल्दी करूँगा

मास्टर- क्या पूछना है तुम्हे

मैं- मेरा बाप क्या खुराफात कर रहा है

मास्टर- नहीं मालूम

मैं- तुझे नहीं मालूम तो किसको मालूम, ठीक है मत बता

मैंने उसकी पेंट खोली और उसके लिंग की खाल को थोडा सा काट दिया. दर्द से बिलबिला गया वो

मैं- बता इतना सोना किसलिए ख़रीदा है , रतनगढ़ के ठाकुर से क्या डील हुई है.

मैंने लिंग की खाल को और काटा, खून बहने लगा.
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12-07-2020, 12:19 PM,
#80
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#

“देख मास्टर, मेरे पास वक्त की कमी है तो मामले को जल्दी एडजस्ट कर , कहीं ऐसा न हो की फिर जिन्दगी रहे न रहे ” मैंने मास्टर की छाती पर चाकू से निशान बनाते हुए कहा

मास्टर- मुझे नहीं मालूम

मैं- देख मास्टर, तू भी जानता है की तू एक ऐसे आदमी के लिए अपनी जान को दांव पर लगा रहा है जो समय आने पर तेरी गांड पर भी लात मार देगा. तेरी वफ़ादारी क्या काम आएगी फिर, और मैं तो केवल एक बात पूछ रहा हूँ की उस सोने का क्या करने वाले है वो लोग , अब इतनी सी बात के लिए जान देना चाहता है तो तेरी मर्जी, वैसे भी तू रहे न रहे किसी को क्या फर्क पड़ता है , सविता तो चुद ही रही है मेरे बाप से

मास्टर ने आँखे फाड़ कर देखा मुझे और बोला- तुझे कैसे पता ये

मैं- मेरी छोड़, तू अपनी सोच कैसे चुतिया के जैसे जिन्दगी गुजार रहा है तू, मेरी बात मान

मास्टर- ठीक है , सुनो, दोनों गाँव बहुत जल्दी एक हो जायेंगे, रूठा हुआ परिवार एक हो जायेगा , रतनगढ़ अर्जुन्गढ़ का ही हिस्सा है बहुत समय पहले बंटवारे में भाई अलग हो गए थे , ठाकुर जगन सिंह की औलाद ने रतनगढ़ को बसाया था ,

मैं- कौन जगन सिंह

मास्टर- पुराणी बात है पर अब सब एक हो रहा है ,

मैं- तो हम , मेरा मतलब ये सब एक खून है ,

मास्टर- हाँ,

मेरे दिमाग के पुर्जे हिल गए थे क्योंकि मेघा और मेरा रिश्ता उलझ जाने वाला था अगर सब एक ही वंश बेल के हिस्से है तो .

मैं- पर ये अलग क्यों हुए थे .

मास्टर- ज़माने पहले देवगढ़ के ठाकुर कुंदन ने अर्जुन्गढ़ की आयत से प्रेम किया था , विवाह किया था , ऐसा कहते है की फिर कुंदन ने देवगढ़ छोड़ दिया और अर्जुन्गढ़ में बस गया. चूँकि आयत के मायके वालो से कुंदन की दुश्मनी थी और आयत वारिस थी , तुम तो जानते हो की ठाकुरों का इतिहास जमीन और जोरू के मामले में ठीक नहीं रहा कभी

वैसे भी आयत अर्जुन्गढ़ में नहीं बसना चाहती थी पर कुंदन आ गया तो फिर घटनाये कुछ ऐसी हुई की जगनसिंह के परिवार को अर्जुन गढ़ चोदना पड़ा और उन्होंने रतनगढ़ गाँव बसा लिया . तबसे ही दोनों गाँवो में खून खराबा होने लगा.

मैं- और देव गढ़

मास्टर- क्या

मैं- देव गढ़ का क्या हुआ

मास्टर- पता नहीं, लोग कहते है की अचानक ही सब खत्म हो गया एक रात गाँव वाले गाँव छोड़ गए .

मैं- हम्म, पर इसमें दोनों ठाकुर कहाँ फिट होते है

मास्टर- मैंने कहा न खून एक हो गया है , दोनों ठाकुर मिल कर एक महा अनुष्ठान करने जा रहे है

मैं- किसलिए

मास्टर- ये नहीं मालूम मुझे पर शायद कोई गड़े धन का चक्कर है . मैंने सुना था की ठाकुर कुंदन के पास कुछ ऐसा था जिसने उसके यश को चोगुना कर दिया था, कुंदन का बहुत नाम था उन दिनों, कहते है की खुद शिव ने माँ तारा के माध्यम से कुंदन को वरदान दिया था .

मैं- और उसी वरदान के लिए दोनों ठाकुर अब इतिहास दोहराने की कोशिश कर रहे है , हैं न

मास्टर- हाँ और साथ ही एक खजाने के लिए भी,

मैं- कैसा खजाना

मास्टर- अब तुम इतने नादान भी नहीं हो कबीर, जानते हो तुम

मैं- मंदिर के तालाब वाला

मास्टर- हाँ

मैं- पर उसे छूना असंभव है ,नहारविरो की आन है उस पर

मास्टर- जल्दी ही आन टूटेगी ,पीर साहब की मजार खुल गयी, आन का पहला सुरक्षा चक्र टुटा , दूसरा चक्र टुटा मंदिर खंडित होने से , रही बात नाह्र्विरो की तो , पहले भी उन्हें साधा गया है और जो काम एक बार हुआ वो फिर भी हो सकता है

मैं- फिर करेगा कौन

मास्टर- जिसके भाग में खजाना है पीर साहब की मजार को बहुत पहले छुपा दिया गया था क्योंकि वो एक पाक जगह थी, एक कहानी शुरू हुई थी वहां से , एक दास्ताँ जिस पर समय ने कलम चलाई थी .

मैं- और क्या थी वो दास्ताँ

पर इस से पहले की मास्टर कुछ जवाब देता, उसे उलटी आई, खून की उलटी और कुछ देर में ही उसके प्राण साथ छोड़ गए. न जाने क्यों दुःख नहीं हुआ मुझे.

मैं वहां से चल पड़ा, अपने खेत पर आया तो देखा सारा सामान बिखरा हुआ था , किसी ने तलाशी ली थी वहां पर , एक बात तो थी की अब इस इलाके में मैं सुरक्षित नहीं था मुझे देव गढ़ जाना चाहिए था ,पैदल आना जाना थोडा मुश्किल था तो मैंने चंपा से एक गाड़ी के लिए कहा,

आँखों में जरा भी नींद नहीं थी, मैं सोच रहा था की आखिर क्या करने जा रहे है , किस प्रकार का अनुष्ठान करेंगे और ठाकुर कुंदन को क्या वरदान मिला था . दिल में एक रोमांच सा चढ़ गया था , मैं सोचने लगा क्या जिन्दगी रही होगी उन लोगो की , क्या कहानी होगी कुंदन और आयत की , कैसे जिए होंगे उन्होंने वो प्रेम के लम्हे ,कुंदन का ये घर न जाने क्यों मुझे महकता सा लग रहा था .

फिर मेरा ध्यान मास्टर की मौत पर गया, अचानक से उलटी हुई और मर गया वो. कैसे, किसी ने तांत्रिक वार किया होगा उस पर , अब मुझे खुद पर कोफ़्त हुई, मुझे तभी उसके शरीर की जांच करनी चाहिए थी , इतनी बड़ी बेवकूफी कैसे कर दी मैंने, और एक महत्वपूर्ण बात और मेर्रे बाप और सविता के अवैध संबंधो की बात सुन कर भी मास्टर विचलित नहीं हुआ था .

कुछ सोच कर मैंने कल सविता से मिलने का सोचा , इस से पहले मास्टर की मौत का सबको मालूम हो मैं सविता से मिल लेना चाहता था .

अपने ख्यालो में गुम था की एक आवाज ने मेरा ध्यान भंग कर दिया

“सोये नहीं तुम अभी तक ”

मैंने देखा दरवाजे पर रुबाब वाली खड़ी थी .

मैं- कब आई

वो- जब तुम सोच रहे थे

मैं- हाँ वो मैं ठाकुर कुंदन और आयत की कहानी के बारे में सोच रहा था .

वो- हम्म, क्या सोचा

मैं- यही की कैसे रहे होंगे वो लोग, कैसे जिए होंगे उन्होंने वो लम्हे कैसी होगी वो प्रेम कहानी जिसकी सब बात करते है

वो- पर वो कहानी कुंदन और आयत की थी ही नहीं .
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