Raj Sharma Stories जलती चट्टान
08-13-2020, 01:08 PM,
#51
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
पाँच
ज्यों ही रामू ने चमड़े का बैग लिए ड्यौढ़ी में प्रवेश किया, उसके पाँव किसी की आवाज सुनकर रुक गए-वह राजन था, जो उसे धीमे-से पुकार रहा था। राजन अपना स्थान छोड़ रामू के समीप आ गया।

‘बाबा की तबियत कैसी है?’ राजन ने धीरे से पूछा।

‘कुछ समझ में नहीं आता-हालत दिन-पे-दिन बिगड़ती जा रही है। डॉक्टर ने अपना बैग लाने को कहा था, जरा जल्दी।’

‘अच्छा!’

रामू जब अंदर गया तो राजन भी उस कमरे की खिड़की तक पहुँच जिसमें बाबा बीमार पड़े थे। चारों ओर अंधेरा छा रहा था। खिड़की बंद थी, बत्ती का प्रकाश, शीशों को लाँघ बरामदे में आ रहा था। राजन ने एड़ियाँ उठा, एक कोने में खड़े हो छुपकर अंदर की ओर देखा-पार्वती बाबा के समीप खड़ी थी। उसकी आँखों में आँसू थे। डॉक्टर ‘इंजेक्शन’ की तैयारी कर रहा था। मैनेजर हरीश व माधो एक कोने में खड़े थे। डॉक्टर ने धीरे से पार्वती को कुछ कहा और वह शीघ्रता से बाहर आ गई। राजन अंधेरे में दीवार के साथ लगकर खड़ा हो गया और पार्वती को देखने लगा, जो रसोईघर के किसी बर्तन में जल ले जा रही थी। राजन ने चाहा कि उसे बुलाये, परंतु साहस न कर सका।

इंजेक्शन के पश्चात जब डॉक्टर और दूसरे लोग बाहर जाने लगे तो राजन तुरंत ही बाहर चला गया ताकि उसे कोई देख न ले।

बरामदे में जब पार्वती डॉक्टर के हाथ धुला रही थी, तो हरीश ने पूछा-‘डॉक्टर साहब! कैसी तबियत है?’

‘दिल पर कोई गहरा आघात हुआ है।’ डॉक्टर ने तौलिए से हाथ सुखाते हुए उत्तर दिया। पार्वती से कहने लगा-
‘क्यों बेटा, क्या कोई...’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई-ना जाने दो दिन से बार-बार पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते।’

‘घबराने की कोई बात नहीं, अच्छा मैनेजर।’

‘अच्छा रामू जरा बैग उठा लाना।’

हरीश और डॉक्टर दोनों बाहर की ओर चले गए-रामू भी बैग लिए उसके पीछे हो लिया। पार्वती हाथ में जल का लोटा लिए चुपचाप उनकी ओर देखती रही। थोड़ी ही देर बाद हरीश लौट आया और पार्वती को धीरज देने लगा, फिर बाबा के कमरे में गया-बाबा एकटक हरीश की ओर देखने लगे। माधो बाबा के पास बैठा चम्मच से बाबा के मुँह में चाय डाल रहा था। हरीश ने बाबा से जाने की आज्ञा ली और माधो को उनके पास थोड़ी देर ठहरने के लिए कहता गया।

हरीश के जाने के बाद पार्वती रसोईघर में भोजन तैयार करने चली गई और माधो बाबा के समीप बैठा उनके मुँह की ओर देखने लगा। बाबा भी चुपचाप उसकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद उन्होंने द्वार बंद करने का संकेत किया और उसे अपने पास आ बैठने को कहा।

‘पार्वती कहाँ है माधो?’ उखड़े स्वर में बाबा ने पूछा।

‘रसोईघर में शायद भोजन बना रही है।’

‘रामू से कह दिया होता।’

‘वह डॉक्टर साहब को छोड़ने गया है।’

‘बहुत जल्दबाज है, भला डॉक्टर को बुलाने की क्या आवश्यकता थी। हरीश भी क्या सोचता होगा?’

‘आप उनकी चिंता न करें, वह भी आपका बेटा है, बल्कि वह तो पार्वती से नाराज हो रहा था, कि पहले मुझे सूचना क्यों नहीं दी गई।’

‘बेटा बुढ़ापे का भी कोई इलाज है-अब तो दिन पूरे हो चुके।’

‘ऐसा न कहिए ठाकुर साहब! पार्वती के होते आपको ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिए।’

पार्वती का नाम सुनते ही बाबा फिर गहरे विचार में खो गए। माधो ने रुकते-रुकते पूछा-‘ठाकुर साहब एक बात पूछूं?’

बाबा ने दृष्टि ऊपर उठाई और माधो की ओर देखा-संकेत से ही उसे पूछने को कहा।

‘ऐसी क्या बात है, जो आप इतने परेशान हैं?’

‘परेशान, नहीं तो।’

‘आप मुझसे छुपा रहे हैं। क्या आप मुझे अपना नहीं समझते?’
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08-13-2020, 01:08 PM,
#52
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‘ऐसी तो कोई बात नहीं माधो, परंतु कभी-कभी सोचता हूँ कि मेरे बाद पार्वती का क्या होगा, उसका सहारा?’

‘पहले तो आपने कभी ऐसी बातें न सोची थीं।’

‘परंतु जीवन का क्या भरोसा, फिर अब वह सयानी भी तो हो गई है।’

‘उसके हाथ पीले कर दीजिए, एक दिन तो उसे परायी होना ही है। यह काम आप अपने ही हाथों...’

‘यही तो मैं सोचता हूँ माधो!’

‘तो शुभ काम में देरी कैसी?’

‘अभी वर की खोज करनी होगी।’

‘यह बात तो है ही-हाँ, आपका हरीश के बारे में क्या विचार है?’

बाबा हरीश का नाम सुनते ही आश्चर्य से माधो की ओर देखने लगे और फिर बोले, ‘हरीश, कैसी बात कर रहे हो माधो?’

‘क्यों? मैंने कोई अपराध किया है क्या?’

‘कहाँ हरीश माधो! कहाँ मेरी पार्वती।’

‘ओह तो क्या आप हरीश को पार्वती के योग्य नहीं समझते।’

‘कौन नहीं चाहता कि उसकी बेटी ऊँचे कुल की बहू बने, फिर पार्वती जैसी बेटी-आज पार्वती का पिता जीवित होता, तो दूर-दूर से लोग न्यौता लेकर आते।’

‘तो अब क्या कमी है-आपका खानदान, शान तथा मान तो वही है।’

सुनकर बाबा की आँखों में एक प्रकार की चमक आई और मिट गई। फिर बोले, ‘परंतु माधो आजकल खानदान तथा मान को कौन देखता है। सबकी निगाह लगी रहती है धन की ओर।’

‘परंतु हरीश बाबू तो ऐसे नहीं हैं।’

‘किसी के हृदय को तुम क्या जानो?’

‘सच ठाकुर साहब-आपकी पार्वती वह बहुमूल्य रत्न है, जिसे संसार-भर के खजाने भी मोल नहीं ले सकते।’

‘तो क्या हरीश मान जाएगा?’

‘यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए। पार्वती जैसे बेटी आपकी, वैसी मेरी।’

इतने में कमरे का किवाड़ खुला और पार्वती ने मंदिर के पुजारी के साथ भीतर प्रवेश किया। माधो बाबा से आज्ञा ले सबको नमस्कार कर बाहर चला गया।

माधो सीधा वहाँ से हरीश के घर पहुँचा और सारा समाचार हरीश से कहा। हरीश की प्रसन्नता का ठिकाना न था। रात बहुत बीत चुकी थी, माधो तो सूचना देकर घर चला गया, परंतु हरीश विचारों की दुनिया में खो गया। उसके सामने निरंतर पार्वती की सूरत घूम रही थी। प्रसन्नता से पागल हो रहा था वह।

दूसरी साँझ हरीश जब माधो को साथ ले बाबा के घर पहुँचा, तो यह जान उसे अत्यंत दुःख हुआ कि बाबा की तबियत गिरती जा रही है। पार्वती ने उन्हें बताया कि वह पुजारी से बहुत समय तक बातें करते रहे। बातें करते-करते ही उन्हें दौरा पड़ा और मूर्छित हो गए। दवा देने से तुरंत होश में आ गए। वह और पुजारी सारी रात उनके पास बैठे रहे। पुजारी अब भी उनके पास है।

मैनेजर हरीश व माधो शीघ्रता से बाबा के कमरे में गए और पार्वती बरामदे में खम्भे का सहारा ले बाबा के कमरे की ओर देखने लगी। बाबा की बीमारी का कारण वही है, यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू भर-भर आते थे। बाबा को कितना चाहती है, यह उसी का हृदय जानता था, परंतु मुँह से कुछ न कह पाती थी। उसके जी में आता कि बाबा से लिपट जाए और कहे-बाबा मुझे गलत न समझो। आपकी हर बात के लिए प्राण भी दे सकती हूँ, परंतु यह सब कुछ किससे कहे। बाबा के समीप जाते ही घबराती थी। किसी के बाहर से आने की आहट हुई। उसने झट से आँसू पोंछ डाले। सामने खड़ा पुजारी उसे देख रहा था।
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08-13-2020, 01:08 PM,
#53
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‘पार्वती बिटिया, मन इतना छोटा क्यों कर रही हो?’

‘कुछ समझ में नहीं आता केशव काका! बाबा को क्या हो गया है?’

‘घबराओ नहीं बुढ़ापा है, दो-चार रोज में ठीक हो जाएँगे।’

सुनकर पार्वती फूट-फूटकर रोने लगी। केशव ने धीरज बँधाते हुए कहा-‘हिम्मत न हारो, तुम्हीं तो उनका जीवन हो।’

‘काका! तुम नहीं जानते कि यह सब मेरे ही कारण हुआ है।’

‘मैं सब जानता हूँ-उन्होंने कल रात मुझसे सब कुछ कह दिया।’

‘तो बाबा से जाकर कह दो-तुम्हारी पार्वती को बिना तुम्हारे संसार में कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बाबा की प्रसन्नता के लिए संसार के सब सुखों को भी ठुकरा सकती है।’

अभी यह शब्द उसकी जुबान पर ही थे कि माधो शीघ्रता से बाहर निकला। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसे यूँ देख दोनों घबरा गए।

‘क्यों माधो, ठाकुर साहब?’ केशव के हाँफते होठों से निकला।

‘जरा तबियत अधिक खराब है।’

पार्वती शीघ्र ही रसोईघर की ओर भागी और केशव बाबा के कमरे की ओर। बाबा का हाथ हरीश के हाथों में था और वे आँख बंद किए मूर्छित पड़े थे। केशव और हरीश चुपचाप एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों के चेहरों पर निराशा झलक रही थी।

थोड़ी ही देर में माधो डॉक्टर को लिए आ पहुँचा। डॉक्टर के ‘इंजेक्शन’ से उन्हें कुछ होश आया। डॉक्टर ने केशव को चाय के लिए संकेत किया। केशव ने दो-चार घूंट चाय उनके मुँह में डाली।

बाबा ने एक नजर सबकी ओर दौड़ाई। सब चुपचाप उनकी ओर देख रहे थे। बाबा ने केशव से धीमे स्वर में पूछा, ‘पार्वती कहाँ है?’

पार्वती दरवाजे की ओट में खड़ी आँसू बहा रही थी। बाबा के मुँह से अपना नाम सुनते ही चौंक उठी। साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछ, धीरे-धीरे बाबा की ओर बढ़ी। बाबा पार्वती को देख होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान ले आए, प्यार से अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। वह उनके पास जा बैठी और अपने पल्ले से उनके माथे पर आए पसीने को पोंछने लगी। बाबा ने उसका हाथ रोका और प्यार से अपने होंठों पर रख चूम लिया। पार्वती ने बहुत धीरज बाँधा, परंतु वह आँसुओं को न रोक पाई। ‘पगली कहीं की! अभी तो तुम्हारे विदा होने में बहुत दिन हैं। अभी तो बारात आएगी। शहनाइयाँ बजेंगी-तू दुल्हन बनेगी। जब डोली में बैठेगी तो जी भरकर रो लेना।’ बाबा ने रुकते-रुकते कहा।

‘बाबा!’ कहते-कहते पार्वती बाबा की छाती से लिपट गई और बोली-‘बाबा मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो मेरा बाबा चाहिए। मैं संसार की सब इच्छाएं अपने बाबा पर न्यौछावर कर सकती हूँ। मुझे गलत मत समझो बाबा। मेरा इस संसार में सिवाय आपके और भगवान के कोई नहीं।’

बाबा ने स्नेह भरा हाथ पार्वती के सिर पर फेरा और सामने खड़े लोगों से बोले-‘तुम सब मेरे मुँह को क्यों देख रहे हो! तुममें से मेरी पार्वती के आँसू पोंछने वाला कोई नहीं? बेचारी रो-रोकर बेहाल हो रही है।’

केशव आगे बढ़ा और पार्वती को वहाँ से उठाकर चुप कराने लगा-फिर धीरे से उसके कानों में बोला-
‘पार्वती, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए-बाबा की तबियत वैसे ही ठीक नहीं।’

पार्वती चुप हो गई, आँसू पोंछ डाले, फिर बाबा की ओर देख मुस्कुराईं। उसे प्रसन्न देख बाबा के होंठों पर मुस्कान की स्पष्ट रेखाएं खिंचकर मिट गईं। पल भर के लिए सब बाबा को देखने लगे। कमरे में नीरवता होने से बाहर की तेज वायु का साँय-साँय शब्द सुनाई दे रहा था। बाबा ने संकेत से हरीश को अपने पास बुलाया। हरीश बाबा के एक ओर बैठ गया।

बाबा बोले-‘आज यह अंधेरा कैसा रामू?’

‘ओह! साँझ हो गई।’ रामू ने उत्तर देते हुए बत्ती का बटन दबाया-कमरे में प्रकाश हो गया।

‘खिड़कियाँ भी बंद कर रखी हैं।’ बाबा बोले।

‘बाहर कुछ आँधी का जोर है और जाड़ा भी अधिक हैं।’

‘खोल दो रामू! कभी-कभी यह आँधी और तूफान भी कितने भले मालूम होते हैं।’

रामू ने डॉक्टर की ओर देखा-डॉक्टर ने खोलने का संकेत किया तो रामू ने तुरंत ही बाहर वाली खिड़की खोल दी। तूफान का जोर बढ़ रहा था। हवा की तेजी के कारण खिड़की के किवाड़ आपस में टकराने लगे। बाबा की दृष्टि उन किवाड़ों पर और फिर सामने खड़े लोगों पर पड़ी। सबने देखा-बाबा के मुख पर एक अजीब-सी स्थिरता-सी छा गई। जिसे देखते ही सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। पार्वती धीरे से बाबा के पास बैठ गई-केशव और रामू भी बाबा के समीप हो गए। डॉक्टर जरा हटकर इंजेक्शन की तैयारी करने लगा।

‘पार्वती बेटी, केशव काका जादूगर हैं-देखा, तुझे रोती को झट से चुप करा दिया।’ बाबा के शब्द बहुत धीमे स्वर में निकल रहे थे।

‘हाँ बाबा।’
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08-13-2020, 01:08 PM,
#54
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‘जहाँ मैंने इसे पाल-पोसकर बड़ा किया, वहाँ केशव ने इसे गुणों से सजाया है। मेरे बाद केशव काका को अपने बाबा से कम न समझना।’

‘बाबा! आप यह क्या कह रहे हैं?’

‘बेटा मेरे कहने अथवा न कहने से क्या... देखो तूफान का जोर बढ़ रहा है। भला मैं या तुम इसे क्या रोक सकते हैं?’

रामू ने खिड़की बंद करनी चाही, परंतु बाबा ने संकेत से उसे रोक दिया। उनके मुख की आक्टति थोड़ी-थोड़ी देर में बदलने लगी। डॉक्टर ने देखा, उनका श्वास रुक गया था। मुख से टूटे-फूटे शब्द ही निकल रहे थे।

वह ‘इंजेक्शन’ की सूई लेकर आगे बढ़ा, परंतु बाबा ने हाथ रोक दिया और काँपते हुए बोले-
‘रहने दो डॉक्टर... अब इन सबका क्या होगा-दूर जा रहा हूँ।’

फिर बाबा चुप हो गए-उनकी बदलती हुई आँखें सबको देख रही थीं। बाबा ने पार्वती का हाथ पकड़कर हरीश के हाथों में दे दिया और बोले-
‘हरीश अब पार्वती तुम्हारी अमानत है। मैं तो जा रहा हूँ देखो इसके आँसू न बहे।’

बाबा का स्वर वहीं रुक गया, खिड़की के किवाड़ एक-बारगी ही जोर से बजे। पार्वती चिल्लाई और बाबा से लिपट कर जोर-जोर से रोने लगी। सबकी आँखों से आँसू बह निकले। केशव ने पार्वती को बाबा से अलग किया और चद्दर से उनका मुँह ढक दिया। पार्वती एक ओर सहम कर खड़ी हो गई। उसके बहते आँसू गालों पर जमकर रह गए।

दूसरे दिन जब राजन को बाबा के चल बसने की सूचना मिली तो उसे बहुत दुःख हुआ। सबसे अधिक रंज उसको इस बात का था कि अंतिम समय उनके दर्शन भी न कर सका।

वह तुरंत बाबा के घर पहुँचा-केशव, माधो, हरीश और कंपनी के कुछ लोग भी वहाँ मौजूद थे। राजन भी चुपचाप एक ओर जाकर बैठ गया, सामने पार्वती मूर्ति सी बनी बैठी थी। उसने एक बार राजन को देखा-आँखें मिलते ही मुँह नीचा कर लिया।

कंपनी का अलार्म बजते ही सबने केशव से आज्ञा ली और जाने लगे, परंतु राजन बैठा रहा। हरीश ड्यूटी जाते समय राजन से बोला-
‘काम पर जाते समय पहले मेरे दफ्तर में मिल लेना।’

‘बहुत अच्छा।’ राजन ने उत्तर दिया।

हरीश के चले जाने पर राजन चिंता में पड़ गया कि ऐसी क्या बात थी, जिसके लिए उसे बुलाया गया है और वह विचारता हुआ सामने बैठी पार्वती को देखने लगा, जो अब तक मूर्ति के समान बैठी थी।

‘पार्वती स्नान कर लो।’ केशव ने पार्वती से कहा।

‘आप पहले कर लें, क्योंकि आपको मंदिर जाना होगा।’

‘मैं तो नदी पर...’

‘नदी पर क्या जाना है, पूजा का समय हो चुका है।’

‘अच्छा तो।’

यह कहते हुए उठकर केशव स्नान के लिए चला गया। राजन तथा पार्वती एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे थे। राजन कुछ कहना चाहता था, परंतु शब्द उसकी जिह्वा तक ही आकर रुक जाते। थोड़ी देर बाद वह बोला-‘पार्वती, यह सब कैसे हुआ?’

‘भगवान के किए में मनुष्य का क्या वश है।’

‘मुझे साँझ को सूचित कर दिया होता, आखिर मैं भी तो कुछ था।’

‘यहाँ अपना ही होश किसे था, जो किसी को सूचित करती।’

‘अंतिम बार बाबा के दर्शन तो हो जाते।’

पार्वती चुप हो गई। राजन ने भी कुछ न कहा, चुपके से उठकर चल दिया।

‘जा रहे हो?’

‘हाँ पार्वती! काम पर देरी हो रही है। क्या तुम अब यहाँ अकेली रहोगी?’

‘नहीं तो, केशव काका जो पास हैं।’

‘पार्वती! मैं कुछ कहने योग्य तो नहीं, परंतु मेरे लायक कोई सेवा हो तो भूल न जाना।’

यह कहते हुए राजन ड्यौढ़ी की ओर बढ़ा। पार्वती अब भी उसी की ओर देख रही थी।
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08-13-2020, 01:12 PM,
#55
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राजन जब मैनेजर के कमरे में पहुँचा तो माधो भी वहीं मौजूद था। राजन को देखते ही हरीश बोला-
‘राजन! मैंने तुम्हें एक आवश्यक काम से यहाँ बुलाया है।’

‘कहिए।’

‘दो-चार दिन के लिए तुम्हें सीतलपुर स्टेशन जाना होगा।’

‘क्या किसी काम से?’

‘वहाँ कुछ मशीनें आई हैं, उन्हें मालगाड़ी से लदवाकर यहाँ लाना है। यूँ तो माधो भी चला जाता, परंतु उसके जाने से इधर का काम रुक जाता है।’

‘कितने दिन का काम है।’

‘यूँ तो पंद्रह दिन का काम है, परंतु स्टेशन मास्टर से कहकर शीघ्र ही करवा दिया जाएगा।’

‘क्या कोई और...।’

‘क्यों?’ हरीश ने माथे पर बल चढ़ाते हुए पूछा।

‘यूँ ही... कुछ नहीं, मेरा विचार था, खैर चला जाऊँगा, जब आप आज्ञा देंगे मैं चला जाऊँगा।’

हरीश के माथे पर पड़े बल मिट गए और राजन आज्ञा लेकर बाहर चला गया। वह किसी भी दशा में पार्वती से दूर जाना न चाहता था, परंतु मन की बात किससे कहे और उसकी सुनने वाला था भी कौन?

राजन प्रतिदिन काम समाप्त होने पर पार्वती के पास जाता। मैनेजर, माधो आदि भी वहाँ मौजूद होते। उनके होते वह भी बुत-सा बना चटाई पर बैठ जाता और पार्वती से अकेले में न मिल पाता, जब वह पार्वती के उदास चेहरे को देखता तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते। फिर मन-ही-मन सोचता, अच्छा हो यह सब लोग यहाँ से चले जाएं और मैं दो घड़ी अकेले में बैठ पार्वती से एक-दो बातें कर लूँ, परंतु कोई घड़ी भी ऐसी न होती जब दो-चार लोग वहाँ मौजूद न हों।

इसी प्रकार चार दिन बीत गए। राजन न ही पार्वती को कुछ कह सका और न ही कुछ सुन सका। कितना बेबस था वह। हरीश, माधो, केशव उसे घूर-घूरकर देखते, परंतु वह उधर ध्यान न देता। जब वह पार्वती की उदासी को देखता तो व्याकुल हो उठता, सोचता कहीं नई परिस्थिति में वह बदल न जाए। ऐसे विचार उसे भयभीत कर देते, परंतु उसका हृदय न मानता।

उधर पार्वती अपनी नई परिस्थिति को देखकर चुप थी। चारों ओर तूफान था परंतु वह शांत थी। उसे किसी का कोई भय न था। हरीश, माधो, केशव और न जाने कितने ही लोग प्रतिदिन आते और चले जाते, परंतु पार्वती को किसी की जरा भी याद न थी। यहाँ तक कि राजन की उपस्थिति भी उसके विचारों को भंग न कर सकी। अब वह चलती-फिरती मूर्ति के समान थी, जिसके विचारों में हर समय एक ज्योति-सी जगमगाती हो। उसमें उसे अपने बाबा की तस्वीर दिखाई देती और वही उसे मानो खींचते-खींचते कहीं दूर ले जाती, जहाँ वह अपने देवता को प्रणाम करती और मन-ही-मन मुस्करा देती।

एक रात सोने से पहले जब वह अपने बिस्तर पर इन्हीं विचारों में खोई पड़ी थी तो किसी ने उसको थपथपाया-यह केशव था, जो मुस्कुराते हुए उसके समीप जा बैठा और कुछ फल देता हुआ बोला-
‘यह तुम्हारे लिए लाया हूँ।’

‘ओह केशव दादा! मंदिर से लौट आए?’

‘हाँ, भोजन कर चुकीं क्या?’

‘मुझे भूख नहीं दादा।’

‘देखो पार्वती-कहो तो मैं सुबह के बदले साँझ को भोजन कर लिया करूँ! दो बार तो खा नहीं सकता और तुम अकेली होने से कभी बनाती हो तथा कभी भूख न लगने का बहाना कर चूल्हा तक नहीं जलातीं।’

‘नहीं दादा, सच कहती हूँ, भूख नहीं।’

‘पार्वती! तुम तो अपनी सुध भी खो बैठी हो, लो कुछ खा लो।’

पार्वती ने केशव के हाथों से फल लिए और खाने लगी, केशव उसे स्नेह भरी दृष्टि से देखने लगा।
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08-13-2020, 01:12 PM,
#56
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘पार्वती आज फिर माधो आया था।’

‘सुनो दादा! अब मैं इन सबसे दूर रहना चाहती हूँ।’

‘संसार में रहकर संसार वालों से दूर नहीं रहा जा सकता बेटी।’

‘परंतु मैं संसार में रहते हुए भी सबसे दूर रहूँगी।’

‘कैसे? और फिर बाबा को दिया हुआ वचन कैसे पूरा होगा?’

‘भगवान से लगन लगाकर। बाबा की यही इच्छा थी न दादा।’

‘हाँ तो स्त्री का भगवान उसका पति ही होता है।’

‘तो मैं अपने देवता से ब्याह करूँगी-उसके चरणों में रहकर उसके गुण गा-गाकर सबको सुनाऊँगी।’

‘पर जानती हो भगवान कभी प्रसन्न न होंगे।’

‘सो क्यों?’

‘इसलिए कि मनुष्य को सदा संसार में मनुष्य की तरह ही रहना चाहिए। मनुष्य वही है जिसके हृदय में दूसरों के लिए ममता हो।’

‘तो आप सब मुझे मनुष्यों से दूर करना चाहते हैं।’

‘ऐसा हम क्यों करने लगे?’

यह सुनते ही केशव काका चुप हो गए और पार्वती की ओर देखते रहे। पार्वती के मुख पर अजीब शांति थी, परंतु हृदय में तूफान-सा उठ खड़ा हुआ। केशव काका संभालते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोले-
‘पार्वती यह भी संसार की एक रीत है, जिसके अंतर्गत राजन एक मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं। रस्मों और समाज के नियमों के सामने मनुष्य को झुकना ही पड़ता है।’

‘यह नियम बनाया किसने?’

‘भगवान ने बेटी! एक-दूसरे के तुम योग्य भी नहीं हो। वह एक मजदूर और तुम एक अफसर की लड़की-वह एक अछूत और तुम ब्राह्मण-वह एक नास्तिक और तुम देवता की पुजारिन-नहीं तो बाबा ही क्यों रोकते।’

‘तो क्या मुझे अपना बलिदान देना होगा?’

‘हाँ पार्वती! इस शरीर का, जो संसार में बनाया हुआ एक भगवान का खिलौना है-वही इसे ले जा सकता है जो इसके योग्य समझा जाए।’

‘तो हृदय की लगन एक ढोंग हुई और यह सच्चे प्रेम की कहानी एक कोरा स्वप्न?’

‘दिल को वही जीत सकता है जिसकी सच्ची लगन हो और लगन केवल देवता से ही हो सकती है, मनुष्य से नहीं।’

‘वह क्यों?’

‘क्योंकि मनुष्य के हृदय में प्रेम के साथ-साथ झूठ, धोखा, प्रपंच और स्वार्थ भी बसा है।’

‘परंतु राजन ऐसा नहीं काका! वह अपने प्राण दे देगा! मेरी दी हुई आशाओं के सहारे वह जी रहा है।’

‘चकोर चाँद तक पहुँचने के लिए भले ही किरणों का सहारा ले, परंतु वह किरणें कभी उसे चाँद तक नहीं पहुँचा सकतीं।’

‘तो उसे उस चकोर की भांति फड़फड़ाते हुए प्राण देने होंगे।’

‘संसार में सदा ऐसा होता आया है। जब विवशताओं में फंस जाए तो भगवान का सहारा ले उसे हर तूफान का सामना करना पड़ता है।’

‘तो मनुष्य दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपने अरमानों का खून कर दे?’

‘हाँ पार्वती! अपने लिए तो हर कोई जीता है, परंतु किसी दूसरे के लिए जीना ही जीवन है।’

पार्वती चुप हो गई। न जाने कितनी ही देर बैठी जीवन की उलझनों को मानो सुलझाती रही। उधर केशव दादा सोने के लिए गए। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इस सन्नाटे में मानो आज भय के स्थान पर शांति छिपी हुई थी। बाबा के जाने के बाद वह पहली रात्रि थी, जो पार्वती को न भा रही थी। वह अपने बिस्तर से उठ, खिड़की के समीप जा खड़ी हुई और उसे खोल लिया।
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08-13-2020, 01:12 PM,
#57
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
पार्वती चुप हो गई। न जाने कितनी ही देर बैठी जीवन की उलझनों को मानो सुलझाती रही। उधर केशव दादा सोने के लिए गए। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इस सन्नाटे में मानो आज भय के स्थान पर शांति छिपी हुई थी। बाबा के जाने के बाद वह पहली रात्रि थी, जो पार्वती को न भा रही थी। वह अपने बिस्तर से उठ, खिड़की के समीप जा खड़ी हुई और उसे खोल लिया।

बाहर अंधेरा छाया हुआ था। धुनकी हुई रुई के समान बर्फ गिरती दिखाई दे रही थी। पहाड़ी की ऊँचाई पर लगी ‘सर्चलाइट’ का प्रकाश घूम-घूमकर बर्फ ढकी ‘वादी’ को जगमगा रहा था। घूमता हुआ प्रकाश जब खिड़की से होते हुए पार्वती के चेहरे पर पड़ता तो उसकी आँखें मूंद जातीं। फिर आँख खुलते ही उसकी दृष्टि जाते हुए प्रकाश के साथ-साथ ऊँची सफेद चोटियों पर जा रुकती और उसे ऐसा अनुभव होता मानो वह ऊँचाई की ओर उड़ती जा रही हो और रह-रहकर वे शब्द उसके कानों में गूँजते-‘अपने लिए तो हर कोई जीता है दूसरों के लिए जीना जीवन है।’

उसने खिड़की बंद करने को हाथ बढ़ाया, पर न जाने क्या सोच उसे खुला छोड़ दिया और अपने बिस्तर पर जा लेटी।

उसकी आँखों में नींद न थी। वह टकटकी बाँधे खिड़की से गिरती बर्फ को देखे जा रही थी।

उसे भी अपने बाबा का वचन पूरा करना था। उसे इस संसार में एक मनुष्य की तरह जीना है और देवता की लगन उसका सच्चा जीवन। वही उसे शांति तथा सुख का रास्ता दिखाता है।

दूर कहीं कोई उस अंधेरी और बर्फीली रात्रि में बाँसुरी की तान छेड़ रहा था। पार्वती उस धुन में खो सी गई।
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छः

दूसरी साँझ ठीक पूजा के समय मंदिर की सीढ़ियों पर फिर से पाजेब की झंकार सुनाई दी। आज एक अर्से के बाद पार्वती अपने देवता के लिए जा रही थी। सीढ़ियों पर आज उसके पग धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वह हृदय कड़ा कर मन में देवता का ध्यान धर ऊपर जाने लगी। पूजा के फूलों में से एक लाल रंग का गुलाब नीचे गिरा। पार्वती के उठते हुए कदम अपने आप रुक गए। वह घबरा-सी गई, नीचे झुक फूल उठाने लगी, परंतु उसका हाथ पड़ने से पहले ही वह फूल किसी राही के पाँव तले आकर मसला गया। पार्वती ने कड़ी दृष्टि से उस राहगीर को देखा-जो एक साधु था और फिर कदम बढ़ाती सीढ़ियाँ चढ़ गई।

सर्दी के कारण मंदिर में भीड़ बहुत कम थी। अंदर प्रवेश करते ही पार्वती ने एक बार चारों ओर देखा। दीवारों पर लगी तस्वीरें तथा देवमूर्ति सब उदास लगते थे... मानो उनकी पुजारिन के बिना उनकी दुनिया सुनसान थी। धीरे-धीरे वह देवमूर्ति की ओर बढ़ी। केशव काका उसको देखते ही मुस्कराए और प्रसाद की थाली एक बुढ़िया के हाथ में देते हुए बोले-
‘आओ पार्वती-पूजा की थाली लाना भूल गयीं क्या?’

‘हाँ काका-फूल जो लाई हूँ।’ फिर पास खड़ी बुढ़िया को देखने लगी, जो टकटकी बाँध उसके चेहरे को देख रही थी। केशव यूँ अनजान नजरों से दोनों को एक-दूसरे को देखते हुए पाकर बुढ़िया से बोला-
‘मेरी बेटी पार्वती आज बहुत दिनों के बाद पूजा को चली आई।’

‘ओह चिरंजीव रहो बेटी!’ लड़खड़ाते शब्दों में बुढ़िया ने उसे आशीर्वाद दिया और बाहर चली गई। पार्वती ने एक बार उसे देखा, फिर देवता की तरफ मुड़ी।

‘जानती हो कौन थी?’ केशव ने थाली में रखे दीये में जोत डालते हुए पूछा।

‘नहीं तो।’ पार्वती ने फूल देवता के चरणों में अर्पित किए और जिज्ञासु की भांति उसकी ओर देखने लगी।

केशव ने थाली बढ़ाई। पार्वती ने दीये की जोत जला दी। सामग्री का धुंआ पार्वती के चेहरे पर लाते हुए वह बोला-
‘राजन की माँ।’

‘माँ!’ पार्वती के मुँह से निकला और वह आश्चर्यचकित केशव की ओर देखने लगी।

केशव थाली नीचे रखता हुआ बोला-‘क्यों क्या हुआ?’

‘मुझे... कुछ भी तो नहीं... परंतु यह यहाँ?’

‘थोड़े ही दिन हुए आई है। प्रतिदिन पूजा को आती है। कह रही थी-शायद राजन बाहर जा रहा है।’

यह सुनकर पार्वती के हृदय को ठेस-सी लगी। वह पूछना चाहती थी-कहाँ जा रहा है वह... पर शब्द मुँह में ही रह गए।

ज्यों ही राजन की माँ को धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते देखा वह उस ओर लपकी, परंतु उसके पैर अचानक रुक गए और वह मुंडेर की ओट में छिप गई। सीढ़ियों पर मुँह मोड़ राजन खड़ा था। पार्वती अपने को रोक न सकी। चोरी-चोरी उसने नीचे झाँका। माँ अपने बेटे की आरती उतार रही थी। राजन ने अपनी माँ के पैर छुए और सीढ़ियों पर मसले फूल को उठा लिया। पहले फूल की ओर और फिर मंदिर की ओर देखने लगा, पार्वती फिर से ओट में हो गई। न जाने किन-किन बातों को याद कर उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
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08-13-2020, 01:13 PM,
#58
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
थोड़ी देर बाद जब उसने नीचे देखा तो राजन दूर जा रहा था। वह मुंडेर से बाहर आ गई और उसे देखने लगी। दूर कंपनी का ट्रक खड़ा था। शायद कहीं बाहर जा रहा था। किसी के आने की आहट पर उसने आँसू पोंछ डाले। केशव समीप आते हुए बोला-
‘क्यों पार्वती, क्या देख रही हो?’

‘दूर बर्फ से ढकी चट्टानों को।’

‘ओह! आज ‘वादी’ की काली पहाड़ियां सफेद हो गयीं।’

‘हाँ काका, तुम कहते थे राजन अछूत है और नास्तिक भी।’

‘हाँ तो।’

‘तो उसकी माँ प्रतिदिन पूजा करने क्यों आती है?’

‘उसका अपना विश्वास है। फिर भगवान का द्वार तो हर मनुष्य के लिए खुला है और मंदिर के पट तो तुम्हारे बाबा ने ही अछूतों के लिए खोले थे।’

‘हाँ काका, यदि उन्हें अछूतों से घृणा होती तो वह राजन को अपने घर रखते ही क्यों?’

‘हाँ!’ काका कुछ दबे स्वर में बोले।

‘वास्तव में हमें दूर करने के लिए भगवान नहीं बल्कि इंसान है, यह समाज है और उसके बनाए हुए नियम।’

‘पार्वती! संसार को चलाने के लिए इन सामाजिक रीति-रिवाजों का होना आवश्यक है, हमें इनको मानना पड़ेगा।’

‘परंतु मनुष्य इन्हें तोड़ भी तो नहीं सकता।’

‘हाँ, यदि तोड़ने से उसकी भलाई हो तो...।’

‘मेरी तथा राजन की भलाई तो इसी में है-हमें औरों से क्या?’

‘तुम भूल रही हो-हम इस संसार में अकेले नहीं जी सकते-न ही दूसरों का सहारा लिए बिना आगे बढ़ सकते हैं।’

‘हमें किसी का सहारा नहीं चाहिए।’

‘तो जानती हो इसका परिणाम?’

‘क्या?’

‘राजन का अंत।’

‘नहीं काका।’ पार्वती चीख उठी।

‘यह कंपनी से निकाल दिया जाएगा। हरीश उसे घृणा की दृष्टि से देखेगा। पढ़ा-लिखा तो है नहीं, दर-दर की ठोकरें खाता फिरेगा और बूढ़ी माँ के लिए किसी दिन संसार से चल बसेगा।’

‘ऐसा न कहो काका।’

‘कहने या न कहने से क्या होता है? एक निर्धन का जीवन तो एक छोटा-सा बुलबुला है, जो जरा से थपेड़े से भी टूट सकता है। वह सब कुछ तुम्हें अपने लिए नहीं, बल्कि राजन तथा उसकी बूढ़ी माँ के लिए करना है। इस बलिदान का नाम ही सच्ची लगन है।’

‘तो काका मैं अपना दिल पत्थर के समान कर लूँगी। मैं उसे नष्ट होते नहीं देख सकती। मैं उसके जीवन में एक काली छाया नहीं बनना चाहती।’

‘पार्वती, दूसरे के लिए जीना ही तो जीवन है। वही प्रेम सच्चा है जो निःस्वार्थ हो, जैसे पतंगे का दीप शिखा के प्रति, चकोर का चाँदनी तथा भक्त का भगवान के प्रति।’

पार्वती चुप हो गई। केशव ने स्नेह से भरा अपना हाथ कंधे पर रखा और उसे देख मुस्कराया। फिर बोला-
‘जाड़ा अधिक होता जा रहा है, अब तुम चलो-आज मैं शीघ्र आ जाऊँगा।’

पार्वती ने दुशाला अच्छी प्रकार से ओढ़ते हुए उत्तर में ठोड़ी हिला दी और सीढ़ियाँ उतर गई।

वह सीढ़ियाँ उतरती नीचे की ओर जा रही थी और उसे लग रहा था जैसे विगत जीवन की एक-एक बात चलचित्र की भाँति उसके सामने आकर मिटती जा रही थी।

उसे लगा-जैसे उसके दिल में कहीं कुछ छिप गया है, धीरे-धीरे कुछ साल रहा है। उसका गला रुँध गया है। जिन सीढ़ियों पर कभी वह हँसी बिखेरती आती थी और दिल में लाती थी राजन से मिलने की उमंगें! अरमान!... उन्हीं सीढ़ियों पर झर रहे थे उसकी आँखों से तप्त तरल आँसू! और दिल में भरी थी दारुण व्यथा! ऐसी टीस, जिसे वह किसी प्रकार सह नहीं पा रही थी।

वह बार-बार आंचल से आँसू पोंछती, धीरे-धीरे पग उठाती सीढ़ियाँ उतरती घर की ओर जा रही थी।
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08-13-2020, 01:13 PM,
#59
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
सात
‘चार वैगन तो लोड हो गए।’

राजन ने सीतलपुर के स्टेशन मास्टर की मेज़ पर लापरवाही से कुछ कागज रखते हुए कहा और पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। स्टेशन मास्टर ने कोई उत्तर न दिया। वह तार की टिकटिक में संलग्न था। राजन चुपचाप बैठा उसके चेहरे को देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद स्टेशन मास्टर ने अपना सिर उठाया और अपनी ऐनक कान पर लगाते हुए बोला-
‘जरा तार दे रहा था, अच्छा तो चार ‘लोड हो गए।’

‘जी, परंतु और कितने हैं?’

‘केवल दो-इतनी भी क्या जल्दी। अभी तो दस ही दिन हुए हैं।’

‘तो इतने कम हैं क्या? घर में माँ अकेली है और...’

‘और घरवाली भी।’

‘अभी स्वयं अकेला हूँ।’

‘तो तुम अभी अविवाहित हो? अच्छा किया जो अब तक विवाह नहीं किया, नहीं तो परदेस में इन जाड़ों की रातों में रहना दूभर हो जाता है।’

‘वह तो अब भी हो रहा है। सोचता हूँ, काम अधूरा छोड़ भाग जाऊँ, परंतु नौकरी का विचार आते ही चुप हो जाता हूँ।’

‘हाँ भैया, नौकरी का ध्यान न हो तो हम इस जाड़े में यूँ बैठे रात-दिन क्यों जुटे रहें-देखो, शादी तो तुम्हारे मैनेजर की है और मुसीबत हमारी।’

‘शादी हमारे मैनेजर की! आप क्या कह रहे हैं?’ राजन ने अचम्भे से पूछा-मानो उसके कानों ने कोई अनहोनी बात सुन ली हो।

‘हाँ-हाँ तुम्हारे मैनेजर की।’

‘हरीश की?’

‘हाँ... तो क्या तुम्हें मालूम नहीं, आज प्रातः से बधाई की तारे देते-देते तो कमर दोहरी हो गई है।’

‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। इतना अंधेर...।’

‘यह क्या कह रहे हो राजन। शादी और अंधेर?’

अभी स्टेशन मास्टर के मुँह से यह शब्द निकले ही थे कि फायरमैन कमरे में आया और बोला-‘डॉन मैसेन्जर आ गया।’

स्टेशन मास्टर ने तुरंत ही मेज पर पड़ी झंडियाँ उठाईं और बाहर चला गया। राजन वहीं बुत बना खड़ा रहा। कहीं उसके साथ छल तो नहीं हुआ-यह सोच वह काँप उठा, फिर धीरे-धीरे पग बढ़ाता बाहर ‘प्लेटफार्म’ पर आ गया। चारों ओर धुंध ऊपर उठने लगी। प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी के डिब्बे साफ दिखाई देने लगे। इंजन की सीटी बजते ही गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। ज्यों-ज्यों गाड़ी की रफ्तार बढ़ती गई, राजन के दिल की धड़कन भी तेज होती गई। वह चुपके से स्टेशन मास्टर के पास आ खड़ा हुआ, जो गाड़ी को ‘लाइन क्लीयर’ दे रहा था। जब गाड़ी का अंतिम डिब्बा निकल गया तो राजन बोला-‘बाबूजी, मैं ‘वादी’ जा रहा हूँ।’

‘इस समय? तुम्हारे होश ठिकाने हैं।’

‘मुझे अवश्य जाना है... मैं आपको कैसे समझाएं।’ वह बेचैनी से बोला।
‘सड़क बर्फ से ढकी पड़ी है। रिक्शा जा नहीं सकता और कोई रास्ता नहीं। जाओगे कैसे?’

‘चलकर।’

‘पागल तो नहीं हो गए हो, इस अंधेरी रात में जाओगे? अपनी न सही अपनी बूढ़ी माँ की तो चिंता करो-वह किसके आसरे जिएंगे?’

स्टेशन बाबू की बात सुन उसने नाक सिकोड़ी और चुप हो गया। स्टेशन बाबू उसके पागलपन पर दबी हँसी हँसते-हँसते दफ्तर की ओर बढ़ गया। राजन विवशता के धुएँ में घुटता-सा पटरी पार कर माल डिब्बों के पास जा पहुँचा और थोड़ी दूर चलती आग के पास जाकर ठहरा। फिर चिल्लाया-
‘शम्भू... शम्भू!’

सामने डिब्बे में से एक अधेड़ उम्र का मनुष्य हाथ में हुक्का लिए बाहर निकला और राजन को देखने लगा। राजन के मुख पर जलती आग अपनी लाल-पीली छाया डाल रही थी। उसकी आँखों से मानो शोले निकल रहे थे। राजन को इस प्रकार देख पहले तो वह घबराया परंतु हिम्मत करके पास पहुँचा।

‘शम्भू!’ क्रोध से राजन चिल्लाया।

‘जी’ शम्भू के काँपते हाथों से हुक्का नीचे धरती पर आ गिरा।

‘हरीश की शादी हो रही है।’

‘मैनेजर साहब की-किससे?’

‘मैं क्या जानूँ... मैं भी तो आप ही के साथ आया हूँ।’

‘मुझे अभी वापस लौटना है।’

‘अभी! न रिक्शा, न गाड़ी। इस अंधेरी रात में जाओगे कैसे?’

‘जैसे भी हो मुझे अवश्य जाना है।’

क्रोध के कारण राजन उस जाड़े में पसीने से तर हो रहा था और बेचैनी के कारण अपनी उंगलियों को तोड़-मरोड़ रहा था। पास बहती नदी का शब्द सायंकाल की नीरसता को भंग कर रहा था। उसके कारण उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अचानक वह चिल्लाया-
‘शम्भू सुनते हो नदी का शोर।’

‘हाँ राजन बाबू, नदी में बाढ़ आ रही है।’

‘बाढ़ नहीं पगले, यह तूफान मेरे दिल के उठते तूफान को रोकने आया है।’

‘मैं समझा नहीं, कैसा तूफान?’

‘यह पानी में उठती तेज लहरें मुझे शीघ्र ही ‘सीतलवादी’ तक पहुँचा देंगी।’

‘नदी के रास्ते जाना चाहते हो इस तूफान में? सीतलवादी पहुँचो अथवा न पहुँचो, स्वर्ग अवश्य पहुँच जाओगे।’

‘शम्भू!’ राजन आवेश में चिल्लाया। शम्भू चुप हो गया। राजन फिर बोला, धीरे से-

‘किनारे एक नाव खड़ी है, उसे ले जाऊँगा।’

‘राजन बाबू! मैं तुम्हें कभी नहीं जाने दूँगा।’

‘तुम मुझे रोक सकते हो शम्भू, परंतु मेरे अंदर उठते तूफान को कौन रोकेगा।’ यह कहकर राजन ने गहरी साँस ली और नदी की ओर चल दिया। शम्भू खड़ा देखता रहा। उसने चारों ओर घूमकर देखा-वहाँ कोई न था, जिसे वह मदद के लिए पुकारे, चारों ओर अंधकार छा रहा था। उसकी दृष्टि जब घूमकर राजन का पीछा करने लगी तो वह नजरों से ओझल हो चुका था। शम्भू राजन को पुकारते हुए उसके पीछे दौड़ने लगा।
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08-13-2020, 01:13 PM,
#60
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘तुम मुझे रोक सकते हो शम्भू, परंतु मेरे अंदर उठते तूफान को कौन रोकेगा।’ यह कहकर राजन ने गहरी साँस ली और नदी की ओर चल दिया। शम्भू खड़ा देखता रहा। उसने चारों ओर घूमकर देखा-वहाँ कोई न था, जिसे वह मदद के लिए पुकारे, चारों ओर अंधकार छा रहा था। उसकी दृष्टि जब घूमकर राजन का पीछा करने लगी तो वह नजरों से ओझल हो चुका था। शम्भू राजन को पुकारते हुए उसके पीछे दौड़ने लगा।

राजन सीधा नदी के किनारे जा रुका। दूर-दूर तक जल दिखाई दे रहा था और पत्थरों से टकराते जल का भयानक शोर हो रहा था, मानो आज पत्थर भी इस तूफान की चपेट में आकर कराह रहे हों। परंतु एक तूफान था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। ज्यों ही राजन ने किनारे रखी एक छोटी-सी नाव का रस्सा खोला, शम्भू ने पीछे से आकर उसकी कमर में हाथ डाल दिए और रोकते हुए बोला, ‘राजन बाबू! काल के मुँह में जाओगे। तुम आत्महत्या करने जा रहे हो, जो कि भारी पाप है। तुम मान जाओ! प्रातः तड़के ही...।’

राजन ने एक जोर का झटका दिया-शम्भू दूर जा गिरा।

राजन ने उसके निराश चेहरे पर एक दया भरी दृष्टि डाली और बोला-
‘शम्भू! तू मुझे काल के मुँह से बचाना चाहता है, परंतु तू क्या जाने कि मेरा वहाँ न जाना मृत्यु से भी बढ़कर है। चिता के समान भयानक और जीते जी जलने वाला काल! अच्छा शम्भू! जीवित रहा तो फिर मिलूँगा।’

राजन ने नाव जल में धकेल दी और उसमें बैठ गया। शम्भू उठा, किनारे जा खड़ा हो उसे देखने लगा। नाव लहरों के थपेड़ों से हिलती-डुलती दौड़ती जा रही थी। तूफान का जोर बढ़ रहा था। शम्भू की आँखों से आँसू बह निकले।

थोड़ी ही देर में नदी की लहरों ने नाव को कहीं-का-कहीं पहुँचा दिया। राजन नाव को किनारे-किनारे चलाने का प्रयत्न करता, परंतु पानी का बहाव बार-बार उसे मझधार की ओर ले जाता। बहाव उधर होने के कारण नाव की गति तेज हो गई और धीरे-धीरे राजन के काबू से बाहर होने लगी। राजन ने जोर से नाव का किनारा पकड़ लिया और सिर घुटनों में दबा नाव को भगवान के भरोसे छोड़ दिया। न जाने कितनी बार नाव भँवर में डगमगाई और पानी उछल-उछलकर उसके सिर से टकराया, परंतु वह नीचा सिर किए बैठा रहा।

राजन ने धीरे से जब अपना सिर उठाया तो दूर ‘वादी’ के झरोखे से प्रकाश दिखाई दे रहा था। पानी का जोर पहले से कुछ धीमा हो चुका था, परंतु नाव अब भी पूरी तरह से न संभल पाई थी। कटे हुए पेड़, जानवरों के शरीर आदि वस्तुएं नाव के दोनों ओर बहे जा रहे थे।

ज्यों-ज्यों नाव प्रकाश के समीप आने लगी, राजन के दिल की धड़कन तेज होने लगी। जब दूर आकाश में उसने आतिशबाजी फटते देखी तो उसका दिल फटने लगा। वह आहत सा उन बिखरते हुए रंगीन सितारों को देखने लगा, जो हरीश की शादी का संदेश ‘वादी’ की ऊँची चोटियों को सुना रहे थे।

अचानक नाव एक लकड़ी के तने से टकराई और उलट गई, राजन ने उछलकर तने को पकड़ लिया और तैरकर जल से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। थोड़े ही प्रयास के बाद वह तने पर जा बैठा, जो जल में सीधा पड़ा था। राजन ने देखा कि वह तना एक किनारे के पेड़ का था, जो तूफान के जोर से गिरकर जल की लहरों में स्नान कर रहा था। राजन ने साहस से काम लिया। धीरे-धीरे उस पर चलकर किनारे पर पहुँच गया।

उसने भीगे वस्त्र निचोड़े और वादी की ओर चल दिया। रास्ता अभी तक बर्फ से ढँका हुआ था। जब वह मंदिर के पास पहुँचा तो वहाँ कोई भी न था। मंदिर के किवाड़ बंद थे। प्रकाश केवल झरोखों से बाहर आ रहा था। राजन ने एक बार हरीश के घर को देखा, जो प्रकाश से जगमगा रहा था, फिर अपने घर की ओर चल दिया।

घर का द्वार खोला तो माँ राजन को देख चौंक उठी। उसके विचारों को भाँप गई। फिर टूटे शब्दों में बोली-
‘राजी-तू... आ... गया... यह... कपड़े?’

‘माँ मेरे कपड़े निकालो, मुझे पार्वती की शादी में जाना है। यह तो भीग गए हैं।’

‘अभी तो आया है, विश्राम तो कर, अपनी जान...।’

‘नहीं माँ, मुझे जाना है। तू क्या जाने मैं किस तूफान का सामना करता आया यहाँ पहुँचा हूँ।’

‘वह तो मैं देख रही हूँ, जरा आग के पास आ जा, मैं तेरे कपड़े लाती हूँ, अभी तो शादी में देर है।’

‘जल्दी करो माँ-मुझे एक-एक पल दूभर हो रहा है’ यह कहते हुए वह जलती अंगीठी के पास जा खड़ा हुआ। माँ भय से काँपती हुई दरवाजे से बाहर आ गई और बरामदे में रखे संदूक से राजन के वस्त्रों का एक जोड़ा निकाले दबे पाँव द्वार की ओर बढ़ी। वह बार-बार मुड़कर खुले द्वार को देखती कि कहीं राजन बाहर न आ जाए। उसने शीघ्रता से बाहर का द्वार बंद कर दिया।

कुंडा लगाते ही उसके कानों में शहनाई का शब्द सुनाई पड़ा। उस शब्द के साथ ही राजन चिल्लाया-‘माँ!’

‘आई बेटा!’

उसने आँचल से हाथ बाहर निकाला और कुंडे में ताला डाल दिया। फिर शीघ्रता से पग बढ़ाती कमरे में पहुँची। राजन अपने स्थान पर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। दोनों की आँखें मिलीं, दोनों ही चुपचाप शहनाई की आवाज सुनने लगे, राजन ने कानों में उंगलियाँ देते हुए कहा-
‘सुन रही हो माँ! यह आज मेरी मृत्यु को पुकार रही है।’

‘पागल कहीं का! कुछ सोच-समझकर मुँह से शब्द निकाला कर, पहले कपडे़ बदल।’

माँ ने मुँह बनाते हुए कहा, परंतु साथ ही भय से काँप रही थी। राजन ने वस्त्र ले लिए और लटकते हुए कम्बल की ओट में बदलने लगा। माँ एक बर्तन में थोड़ा जल ले आग पर रखने लगी।
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