Raj Sharma Stories जलती चट्टान
08-13-2020, 01:13 PM,
#61
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘यह किसलिए’-राजन बाहर आते ही बोला। उसके कान अब तक शहनाई की ओर लगे हुए थे।

‘तुम्हारे लिए थोड़ी चाय।’ अभी वह कह भी नहीं पाई थी कि राजन बाहर निकल गया। माँ बर्तन को वहीं छोड़ शीघ्रता से राजन के पीछे आँगन में आ गई। राजन को दरवाजे की ओर बढ़ते देख बोली-
‘राजन!’

आवाज सुनकर वह रुक गया और घूमकर माँ की ओर देखा।

‘राजन! मैं जानती हूँ तू इतनी रात गए इस तूफान में क्यों आया है। परंतु बेटा तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए।’

‘भला क्यों?’

‘इसी में तुम दोनों की भलाई है।’

‘भलाई-यह तो निर्धन की कमजोरियाँ हैं, जिनका वह शिकार हो जाता है। नहीं तो आज किसी की हिम्मत थी, जो मेरे प्रेम को इस प्रकार पैरों तले रौंद देता?’

‘मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि सब कुछ देखते हुए विष का घूँट पी ले।’

‘किसी के घर में आग लगी है और तुम कहती हो कि चुपचाप खड़ा देखता रहे?’

‘आग लगी नहीं-लग चुकी है। सब कुछ जलने के पश्चात् खबर नहीं तो और क्या कर सकोगे।’

‘मैं आग लगाने वाले से बदला लूँगा।’

‘तो तुम्हारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं, एक भूख है-जो तुम्हें पिशाच बनने के लिए विवश कर रही है। सच्चा प्रेम आत्मा से होता है, इस नश्वर शरीर से नहीं।’

‘मेरी यह जलन, तड़प, बेचैनी और आँसू-क्या यह सब धोखा है माँ?’

‘हाँ-सब धोखा है। तेरे प्रेम को किसी ने नीलाम नहीं किया, बल्कि तू स्वयं अपने प्रेम को भरी सभा में नीलाम करने जा रहा है। यह प्रेम की नहीं बल्कि तेरी मनुष्यता और उस माँ की नीलामी होगी, जिसकी कोख में तूने जन्म लिया है।’

‘माँ!’ राजन क्रोध से चिल्लाया। उसके नेत्रों से शोले बरस रहे थे। राजन ने दाँत पीसते हुए एक बार उधर देखा और फिर आकाश की ओर देखने लगा, जहाँ आतिशबाजी के रंगीन सितारे टूट रहे थे। बेचैनी से बोला-
‘माँ! देख उधर आकाश में बिखरते मेरे दिल के टुकड़ों को-देख, मैं आज नहीं रुकूँगा। शम्भू ने भी मुझे रोकना चाहा था, परंतु कुछ न कर सका। भगवान ने राह में कई संकट ला खड़े किए, परंतु वे भी मेरा कुछ न कर सके। आज मुझे कोई भी न रोक सकेगा-न किसी के आँसू और न किसी की ममता।’

‘परंतु शायद तू नहीं जानता कि माँ के आँसुओं में भगवान से अधिक बल है।’

‘तो फिर इस शरीर में भगवान का नहीं, बल्कि राजन का दिल है।’

यह कहते ही वह दरवाजे के करीब पहुँचा और कुंडे में ताला लगा देख रुक गया। एक कड़ी दृष्टि माँ पर फेंकी, फिर हथौड़ा लेकर कुंडे पर दे मारा। कुंडा ताला सहित नीचे आ गिरा। वह विक्षिप्त सा एक विकट हँसी हँसते हुए बाहर निकल गया। माँ खड़ी देखती रह गई।

राजन शीघ्रता से हरीश के घर की ओर बढ़ा जा रहा था। लंबा रास्ता छोड़ वह बर्फ के ढेरों के ऊपर से जाने लगा। उसके कानों में माँ की पुकारें आ रही थीं, जो शायद उसका पीछा कर रही थी और ‘राजी-राजी’ चिल्ला रही थी। उसका शरीर काँप रहा था, पाँव लड़खड़ा रहे थे। बर्फ पर फिसलते ही वह संभल जाता और पाँव जमाने का प्रयत्न करता। शहनाइयों और आतिशबाजियों का शोर बढ़े जा रहा था। जब आतिशबाजी आकाश पर फटती तो धमाके के साथ राजन के दिल पर चोट-सी लगती। ऐसा लगता जैसे उसके दिल पर कोई हथौड़े से वार कर रहा हो।

अचानक उसे माँ की आवाज सुनाई दी और फिर नीरवता छा गई। दो-चार कदम चलकर राजन के पाँव रुक गए और उसके कान माँ की आवाज पर लग गए।
‘माँ लौट गई क्या?’

उसका दिल न माना और वह घूमकर अंधेरे में माँ को खोजने लगा। बर्फ की सफेदी दूर-दूर तक दिखाई दे रही थी, परंतु माँ का कोई चिह्र न था। दो-चार कदम वापस चलकर उसने ध्यानपूर्वक देखा तो आने वाली राह पर एक स्थान पर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े गिरकर ढेर सा बना रहे थे। वह भय से चीख पड़ा और उस ओर लपका।
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08-13-2020, 01:13 PM,
#62
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
उसके हाथ तेजी से बर्फ उठाकर किनारे पर फेंक रहे थे। जब बर्फ हटाकर उसने माँ को बाहर निकाला तो उनका शरीर बर्फ के समान ठण्डा हो रहा था। उसने माँ को हाथों से उठा लिया और उन्हीं कदमों से वापस अपने घर लौट आया। आग अब तक जल रही थी। उसने शरीर को गर्मी पहुँचाने के लिए माँ को आग के समीप लिटा दिया और उसके हाथ अपने हाथों से मलने लगा। उसने एक-दो बार माँ को पुकारा भी, परंतु वह खामोश थी। जब काफी देर तक शरीर में गर्मी न आई तो वह डरा और एकटक माँ की आँखों में देखने लगा-वे पथरा चुकी थीं। फिर अपने कान उसके दिल के समीप ले गया और ‘माँ-माँ’ पुकार उठा।

माँ तो सदा के लिए जा चुकी थी, उसकी साँस सदा के लिए बंद हो चुकी थी। कमरे की दीवारों से टकराकर यह शब्द गूँज रहे थे।

‘तुम्हारा प्रेम एक धोखा है, एक भूख है, जो तुम्हें जानवर बनने को विवश कर रहा है। लगन आत्मा से होती है, इस नश्वर शरीर से नहीं।’

वह माँ के मृत शरीर से लिपटकर रोने लगा।

**

जब रात्रि के अंधियारे में वह बर्फ के सफेद फर्श पर अपनी माँ की चिता लगा रहा था-तब सारी ‘वादी’ रंगरलियों में मग्न थी। बारात के बाजे बज रहे थे और नीले आकाश पर उसके दिल के टुकड़े रंगीन सितारों के रूप में बिखर रहे थे। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। आज भी उसके हर संकट में दुःख बटाने वाला कुंदन उसका हाथ बटा रहा था। वह कभी राजन को और कभी उस जगमगाते घर की ओर देखता-जहाँ पार्वती की शादी हो रही थी।

दूसरी साँझ जब हरीश के घर के सामने पार्वती की डोली रुकी तो मजदूरों का एक जत्था नाचता-गाता पीछे आ रहा था। माधो थैली से पैसे निकाल उस समूह पर न्यौछावर करता और जब वह उन पैसों को उठाने दौड़ते तो वह फूला न समाता। प्रसन्न भी क्यों न होता-सफलता का सेहरा भी उसी के सिर पर था।

डोली का पर्दा उठा तो पार्वती बाहर आई। कुछ स्त्रियाँ, जो शायद हरीश के घर से आई हुई थीं, दुल्हन के समीप आ गईं और उसे अंदर की ओर ले जाने लगीं। माधो ने थैलियों से कुछ पैसे निकाले-कहारों की ओर हाथ बढ़ाया तो चौंक उठा-उसके मुँह से निकला-‘राजन’ और हाथ वापस लौटा लिए। डोली के सारे कहारों में राजन भी एक था, जिसके मुख पर उदासी के बादल छाए हुए थे। राजन का नाम सुनते ही हरीश मुड़ा-जाती हुई दुल्हन के कदम भी पल भर के लिए रुक गए। सबके मुख पर हवाइयाँ सी उड़ने लगीं। हरीश संभलते हुए बोला-‘आओ राजन! तुम कब आये?’

‘मैनेजर साहब-आप चाहे मुझे अपनी शादी में न बुलाते, परंतु पार्वती की शादी में मुझे आना ही था-डोली में कंधा कौन देता।’

‘हाँ, क्यों नहीं तुम्हारा अपना घर है, जब जी चाहे आओ ना। इस बस्ती में और है ही कौन, जिससे दो घड़ी बैठ अपना मन बहलाओगे।’

‘इसीलिए तो काम अधूरा छोड़कर चला गया। कहीं काका यह न कहें कि पार्वती का अपना भाई नहीं, डोली उठाने राजन भी न आया।’

भाई का नाम सुनते ही हरीश घबराकर माधो की ओर देखने लगा। माधो लज्जित-सा हो दूसरी ओर देखता हुआ बाकी कहारों को एक ओर ले जा पैसे देने लगा। ज्यों ही दुल्हन के पाँव अंदर की ओर बढ़े-हरीश राजन से बोला-‘भैया अंदर चलो।’

फिर दोनों चुपचाप दुल्हन के पीछे जाने लगे। नई दुल्हन को ऊपर वाले कमरे में ले जाया गया और हरीश राजन को साथ ले नीचे गोल कमरे में जा बैठा। उसने एक नौकर से राजन के लिए खाना लाने को कहा, परंतु राजन ने इंकार कर दिया।

‘क्यों राजन, मुँह भी मीठा नहीं करोगे?’

‘आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं मैनेजर साहब! भला मैं इस घर का कैसे खा सकता हूँ?’

‘यह तो पुराने विचार हैं, आज के जमाने में अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है।’

‘पुराने विचारों पर विश्वास तो मुझे भी न था, परंतु अब तो अपने आप पर भी न रहा।’

‘राजन, संसार में मनुष्य कई बाजियाँ हारकर ही जीतता है।’

‘मन को बहलाना है मैनेजर साहब-किसी तरह बहलाया जाए-वरना किसकी हार और किसकी जीत।’

इतने में माधो भी आ पहुँचा और एक तीखी दृष्टि राजन पर डालते हुए हरीश के पास जा बैठा। राजन थोड़ी देर चुप रहने के बाद उठा और हरीश से जाने की आज्ञा माँगी, परंतु वह रोकते हुए बोला-‘क्या पार्वती से नहीं मिलोगे?’

राजन ने कोई उत्तर न दिया... परंतु उसकी आँखों में छिपे आँसुओं से हरीश भाँप गया और सीढ़ियों पर खड़ी एक स्त्री को संकेत किया। राजन आश्चर्यपूर्वक हरीश को देखने लगा और फिर धीरे-धीरे पग उठाता ऊपर की ओर जाने लगा।

जब उसने दुल्हन के सुसज्जित कमरे में प्रवेश किया तो सामने सुंदर कपड़ों में पार्वती को देख उसकी आँखों में छिपे मोती छलक पड़े, जिन्हें वह पी गया और चुपचाप पार्वती को देखने लगा, जो लाज से अपना मुख घूँघट में छिपाए दूसरी ओर किए बैठी थी। वह अपने विचारों में आज इतनी डूबी बैठी थी कि उसे किसी के आने की आहट सुनाई न दी।
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08-13-2020, 01:13 PM,
#63
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
राजन ने धीरे से झिझकते हुए पुकारा-‘पार्वती!’

पार्वती काँप-सी गई और मुँह पर घूँघट की ओट से राजन को एक तिरछी नजर से देखा। उसे अकेला देख उसने घूँघट चेहरे से हटाया और चुपचाप उसे देखने लगी। पार्वती दुल्हन के रूप में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान लग रही थी। उसकी भोली और उदासी से भरी सूरत को देख राजन का दिल डूब
गया... फिर संभलते हुए बोला-
‘पार्वती तुम्हें देखने चला आया... कुछ देर से पहुँचा।’

‘देर से... कब आए?’ वह धीरे से बोली।

‘कल रात।’

‘रात को... किसी ने कहा तो नहीं।’

‘रात पहुँचा तो सही... परंतु तुम्हारे यहाँ न पहुँच सका।’

‘बाबा तो थे ही नहीं... फिर तुम्हें भी न देखा... जानते हो सारी रात फूलों के बिछौने मेरे आँसुओं ने सजाए।’

‘बजती शहनाइयाँ तो मैंने भी सुनीं और आकाश पर फटते रंगीन सितारे देख मैं तो प्रसन्नता से पागल हुआ जा रहा था... पर यह सब मैंने दूर से देखा... मुझे भी तो किसी की चिता जलानी थी।’

‘राजन!’ पार्वती के दिल में एक हूक-सी उठी।

‘हाँ... पार्वती! माँ की चिता! वह मुझे छोड़कर सदा के लिए इस संसार से चली गई है।’

‘यह सब कैसे हुआ?’

‘कई बार सोचा... एक बार तुम्हें देख लूँ... परंतु भाग्य को स्वीकार न था।’

‘मैं उनसे मिली थी राजन।’

‘कब?’

‘जिस साँझ उन्होंने तुम्हारी आरती उतारी थी।’

‘पार्वती! रात को जब मैं जलती चिता के किनारे खड़ा आकाश पर जलते सितारे देख रहा था तो मुझे वही महात्मा दिखाई पड़े... जो कहते थे... तुम्हारे प्रेम में सिवाय ‘जलन’ और ‘तड़प’ के कुछ नहीं और मैं मुस्करा दिया था।’

‘राजन! अब इन सब बातों को भूलना होगा।’

‘इसीलिए तो आज मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ।’

‘क्या?’

‘तुम्हारी इन आँखों में मान और स्नेह-जिसमें प्रेम की झलक हो... जलते हुए अंगारों को अब केवल जल की आवश्यकता है।’

‘तुम्हें भी एक वचन देना होगा।’

‘कहो।’

‘आज से इन आँखों में आँसुओं के स्थान पर मुस्कुराहट दिखाई दे।’

अभी वह बात पूरी कर भी न पाई थी कि हरीश ने अंदर प्रवेश किया... पार्वती ने झट से घूँघट ओढ़ अपना मुँह घूँघट में छिपा लिया... हरीश मुस्कराते हुए बोला-‘कहो राजन... क्या बात चल रही है? तुम्हें घर पसंद आया कि नहीं?’

‘देवता का गृह तो स्वर्ग होता है... स्वर्ग भी किसी को पसंद न हो? हाँ मैनेजर साहब... आपको इस स्वर्ग में एक बात का ध्यान रखना होगा।’

‘क्या?’

‘पार्वती उदास न होने पाए।’

यह शब्द राजन के मुँह से इस भोलेपन से निकले कि हरीश अपनी हँसी रोक न सका... राजन हाथ बाँधता बाहर को जाने लगा।

जाते-जाते बोला-‘मैनेजर साहब... हम अछूत सही... परंतु नीच नहीं... निर्धन अवश्य हैं... परंतु दिल इतना तंग नहीं रखते... जहाँ तूफान की तरह जूझना जानते हैं... वहाँ झरनों की तरह बह भी पड़ते हैं, फिर भी मनुष्य हैं और मनुष्यों से गलती होना संभव है।’

दोनों बाहर चले गए... पार्वती ने छिपी-छिपी आँखों से उस दरवाजे को

देखा... जहाँ थोड़ी देर पहले राजन खड़ा उससे बातें कर रहा था।

कंचन सामने खड़ी भाभी को देख मुस्करा रही थी। वह हरीश की छोटी बहन थी।

‘आओ कंचन!’ पार्वती ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया।

‘मैंने सोचा सब अच्छी प्रकार से देख लें तो मैं भाभी के पास जाऊँ।’

‘तो इसलिए इतनी देर से वहीं बैठी हो।’

‘हाँ भाभी... मैं तो आनंदपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी और सोच रही थीं, कुछ नहीं।’

‘क्या सोच रही थी-अपनी भाभी से भी न कहोगी?’

‘मैं सोच रही थी भाभी! कल जब मेरी शादी होगी तो क्या मेरी ससुराल वाले भी यूँ ही प्रशंसा करेंगे?’

‘क्यों नहीं... और जरा मौका आने दो-तुम्हारे भैया से कह तुम्हारी शादी शीघ्र ही करवा दूँगी।’

‘भाभी, अभी से भैया का रौब देने लगी हो।’ और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। पार्वती लजा-सी गई। कंचन उसका मुँह ऊपर उठाती हुई बोली-‘हाँ भाभी अब भैया पर तुम्हारा ही अधिकार है-हम तो सब सेवक हैं-कहो क्या आज्ञा है?’
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08-13-2020, 01:13 PM,
#64
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
इतने में मौसी की भारी-सी आवाज ने कंचन को पुकारा। वह जाने को उठी-पार्वती ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-‘हमारी आज्ञा न सुनोगी?’

‘कहो भाभी।’

‘तुम मत जाओ-आज हम दोनों इकट्ठी सोएंगी।’

‘क्यों?’

‘अकेले में भय लगता है।’

‘इस अंधेरी रात से या भइया से।’

फिर वह मुँह में उंगलियाँ दबा के शरारत भरी हँसी हँसने लगी। पार्वती लजा सी गई-मौसी की पुकार फिर सुनाई दी और कंचन भागती नीचे उतर गई।

सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई-पार्वती ने अपने आपको समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पैर की आहट समीप होती गई, वह अपने शरीर को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई, उसके साथ ही कोने की मेज़ पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान-में-जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदें बह पड़ीं।
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08-13-2020, 01:24 PM,
#65
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई-पार्वती ने अपने आपको समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पैर की आहट समीप होती गई, वह अपने शरीर को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई, उसके साथ ही कोने की मेज़ पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान-में-जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदें बह पड़ीं।

‘शायद तुम डर गईं?’ हरीश का स्वर था।

थोड़ी देर रुकने के बाद वह बोला-
‘सोचा सामने की बत्ती जला दूँ, कहीं घूँघट में अंधेरा न हो।’

वह फिर भी चुपचाप रही-हरीश समीप आकर बोला-
‘क्या हमसे रूठ गई हो?’ और धीरे से पार्वती का घूँघट उठा दिया।

‘जानती हो दुल्हन जब नये घर में प्रवेश करे तो उसका नया जीवन आरंभ होता है और उसे देवता की हर बात माननी होती है।’

‘परंतु मैं आज अपने देवता के बिना पूछे ही किसी को कुछ दे बैठी।’

‘किसे?’

‘राजन को।’ वह काँपते स्वर में बोली।
‘क्या?’

‘स्नेह और मान जो सदा के लिए मेरी आँखों में होगा।’

‘तो तुमने ठीक किया-मनुष्य वही है जो डूबते को सहारा दे।’

‘तो समझूँ, आपको मुझ पर पूरा विश्वास है।’

‘विश्वास! पार्वती मन ही तो है, इसे किसी ओर न ले जाना, तुम ही नहीं, बल्कि आज मेरे दिल में भी राजन के लिए स्नेह और मान है। कभी सोचता हूँ कि मैं उसे कितना गलत समझता था।’

‘परंतु जलन में वह आनंद का अनुभव करता है-कहता था... सुख और चैन मनुष्य को निकम्मा बना देता है, ‘जलन’ और ‘तड़प’ मनुष्य को ऊँचा उठने का अवसर देते हैं।’

‘पार्वती! मैं भी आज तुम्हें वचन देता हूँ कि उसे उठाना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्त्तव्य होगा।’
पार्वती ने स्नेह भरी दृष्टि से हरीश की ओर देखा-हरीश के मुख पर अजीब आभा थी। उसे लगा कि निविड़ अंधकार में प्रकाश की रेखा फूट पड़ी थी।
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आठ
राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़ता ऊपर वाले कमरे में जा पहुँचा। भीतर जाते ही तुरंत ही रुक गया-पार्वती सामने खड़ी मेज पर चाय के बर्तन सजा रही थी। राजन को देखते ही मुस्कुराईं और बोली-
‘आओ राजन!’

‘मैनेजर साहब कहाँ हैं?’ राजन ने पसीना पोंछते हुए पूछा।

‘आओ बैठो हम भी तो हैं, जब भी देखो मैनेजर साहब को ही पूछा जाता है।’

‘परंतु...।’

‘वह भी यहाँ हैं, क्या बहुत जल्दी है?’

‘जी वास्तव में बात यह है कि’ वह कहते-कहते चुप हो गया।

अभी वह जी भर देख न पाया था कि साथ वाले दरवाजे से हरीश ने अंदर प्रवेश किया। राजन कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ।
‘कहो राजन, सब कुशल है न?’

‘जी, परंतु वह जो कलुआ की बहू है न।’

उसी समय पार्वती सामने दरवाजे से ट्रे उठाए भीतर आई।

‘तो क्या हुआ कलुआ की बहू को!’

‘बच्चा’, और यह कहते-कहते उसने शरमाते हुए आँखें नीचे झुका लीं।

‘बच्चा? वह तो अभी चार नम्बर में कमा रही थी।’

‘जी-काम करते-करते।’

‘तो इसलिए बार-बार तुम शरमा रहे थे। मैंने सोचा न जाने क्या बात है?’ पार्वती ने हाथ बढ़ाया और चाय का प्याला हरीश के समीप ले गई। हरीश बोला, ‘पहले राजन।’

‘उसका तो यह अधिक खांड वाला है।’ और मुस्कुराते हुए दूसरा प्याला राजन की ओर बढ़ाया-राजन हिचकिचाया।

‘केवल सादी चाय, तुम्हें भाती है-फिर तुम्हें अभी बहुत काम करना है-कलुआ की बहू को अस्पताल भी पहुँचाना है।’
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08-13-2020, 01:24 PM,
#66
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
सब हँस पड़े-राजन ने काँपते हाथों से प्याला पकड़ लिया और जल्दी-जल्दी चाय पीने लगा।

**

आज उसे नए घर में आए तीन मास हो चुके थे-इस बीच में वह कितनी ही पहेलियाँ, चुटकुले और पुस्तकें अपने पति से सुन चुकी थी। कुछ यहाँ की और कुछ पहाड़ों के दूसरी ओर बसी हुई दुनिया की।

यह सोच पार्वती के होठों पर मुस्कान फिर नाच उठी।

अचानक वह दरवाजे पर माधो को खड़ा देख काँप गई और झट से ओढ़नी सिर पर सरकाई, वह यह जान भी नहीं पाई कि माधो कब से खड़ा उसे देख रहा था।

‘कुशल तो है पार्वती!’ वह एक अनोखी आवाज में बोला।
‘माधो काका, आओ, जरा आराम करने को बैठी थी।’

‘जरा मैनेजर साहब से मिलना था।’

‘वह तो अभी कंपनी गए हैं। राजन आया था, कलुआ की बहू की तबियत खराब हो गई थी।’

‘राजन ने मुझे कह दिया होता-उन्हें क्यों बेकार में कष्ट दिया।’

‘तो क्या हुआ-उनका भी तो कुछ कर्त्तव्य है।’

‘पार्वती बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’

‘क्या बात है?’ पार्वती सतर्क हो गई।

‘राजन का इस घर में अधिक आना ठीक नहीं-फिरनीच जाति का भी है।’

‘काका!’ वह चिल्लाई और क्रोध में बोली-‘काका जो कहना है उसे पहले सोच लिया करो।’

‘मैंने तो सोच-समझकर ही कहा है और कुछ अपना कर्त्तव्य समझकर-क्या करूँ, दिन-रात लोगों की बातें सुन-सुनकर पागल हुआ जाता हूँ। कहने की हद होती है-तुम्हें भी न कहूँ तो किसे कहूँ।’

‘मैनेजर साहब से, उनके होते हुए मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं।’

‘उनकी मर्यादा भी तो तुम ही हो। जब लोग तुम्हारी चर्चा करें तो उनका मान कैसा? लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मैनेजर साहब दहेज में अपनी पत्नी के दिल बहलावे को भी साथ लाए हैं। और तो और, यहाँ तक भी कहते सुना है कि तुम अपने पति की आँखों में धूल झोंक रही हो।’

‘काका!’ पार्वती चिल्लाई।

पार्वती कुछ देर मौन रही, फिर माधो के समीप होते हुए बोली-
‘तो काका, सब लोग यही चर्चा कर रहे हैं?’

‘मुझ पर विश्वास न हो तो केशव दादा से पूछ लो, और फिर राजन का तुमसे नाता क्या है?’

‘मनुष्यता का।’

‘परंतु समाज नहीं मानता और किसी के मन में क्या छिपा है, क्या जाने?’

‘मुझसे अधिक उनके बारे में कोई क्या जानेगा?’

‘परंतु धोखा वही लोग खाते हैं, जो आवश्यकता से अधिक विश्वास रखते हैं।’ यह कहते हुए माधो चल दिया।

वह इन्हीं विचारों में डूबी साँझ तक यूँ ही बैठी रही। उधर हरीश लौटा तो उसे यूँ उदास देख असमंजस में पड़ गया, पूछने पर पार्वती ने अकेलेपन का बहाना बता बात टाल दी और मुस्कराते हुए हरीश को कोट उतारने में सहायता देने लगी।

‘तो कलुआ की घरवाली की गोद भरी है!’ वह जीभ होठों में दबाते हुए बोली।

‘हाँ, पुत्र हुआ है और आश्चर्य है कि ऐसी दशा में भी काम पर जाती है।’

‘तो आप उसे आने क्यों देते हैं?’

‘हम तो नहीं, बल्कि उसका पेट उसे ले आता है।’

‘कहीं तबियत बिगड़...।’

‘बिलकुल नहीं-वह तो यूँ लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’

‘तो अभी तक आप अस्पताल में थे?’

‘नहीं तो, वहाँ से मैं और राजन दूर पहाड़ों की ओर चले गए थे।’
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08-13-2020, 01:24 PM,
#67
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘पहाड़ों में? यह शौक कब से हुआ?’

‘पार्वती वास्तव में हम किसी खोज में हैं। इन पहाड़ों में कहीं-न-कहीं तेल है। इसका पता मिल जाए तो मानों जीवन ही सफल हो जाए और सच पूछो तो इसमें अधिक हाथ राजन का है।’

‘वह क्या जाने इन बातों को?’

‘मेरे साथ रहते भी तो उसे आज तीन मास हो गए हैं। पत्थरों की पहचान तो उसे ऐसी हो गई है कि घंटों पहाड़ों में खोज करता रहता है, और हाँ, कल दोपहर वह मुझे ऐसे स्थान पर ले जा रहा है, जहाँ पत्थर शायद हमारा भाग्य खोल दें।’

‘कौन-सा स्थान है वह?’

‘उस स्थान का तो मुझे अभी तक पता नहीं। राजन ने ही देखा है। वही कल मुझे ले जा रहा है।’

‘तो हमारे जाने के पश्चात् यहाँ कोई भूत आते हैं।’

‘हाँ तो’ और पार्वती हरीश के पास सरक गई।

‘तो अब कौन आया था?’

‘माधो काका।’

माधो का नाम सुन हरीश हँस पड़ा और बोला-‘वह भी तो किसी भूत से कम नहीं-क्या कहता था?’

‘आपको पूछ रहा था, शायद कोई काम हो।’

हरीश ने अपना बायाँ हाथ पार्वती की कमर में डाला और दायें हाथ से उसकी ठोड़ी अपनी ओर करते हुए बोला-
‘वह तो होते ही रहते हैं-छोड़ो इन बातों को।’ फिर दोनों बाहर आ जंगले पर खड़े हो गए।

मंदिर में पूजा के घंटे बजने लगे। पार्वती के दिल में भी उथल-पुथल मची हुई थी। जब हरीश की आवाज उसने सुनी तो चौंक उठी।

‘तुम्हें तो बीते दिनों की याद आ रही होगी?’

‘जी’-उसने कुछ मदहोशी में उत्तर दिया।

‘तुम भी तो कभी हर साँझ देवता की पूजा को जाती थी।’

‘वह तो मेरा एक नियम था।’

‘तो उसे तोड़ा क्यों?’

‘आपसे किसने कहा-मैं तो अब भी पूजा करती हूँ।’

‘कब?’

‘हर समय, हर घड़ी-मेरे देवता तो मेरे सामने खड़े हैं।’

‘तो तुम मेरी पूजा करती हो-न फूल, न जोत, न घंटियाँ।’

‘जब दिल किसी की पूजा कर रहा हो तो ये फूल, यह जोत, यह घंटियाँ सब बेकार हैं।’

‘पार्वती आज मैं वापिस आ रहा था तो राजन के हाथ में एक बड़ा सुंदर फूल देखा-तुम्हारे लिए लाने को मन चाहा।’

‘लाल रंग का गुलाब होगा।’

‘तुमने कैसे जाना?’

‘उसे यह फूल बहुत अच्छा लगता है।’

‘परंतु जब मैंने उससे माँगा तो उसने अपने हाथों से मसल डाला।’

‘वह क्यों?’

‘कहने लगा यह फूल सुंदर है-इसमें सुगंध नहीं।’

हरीश ने देखा कि पार्वती सुनते ही उदास-सी हो गई है और किन्हीं गहरे विचारों में डूब गई है। उसने अपनी बांहों का सहारा दिया और बोला-
‘चलो पार्वती, साँझ हो गई, घर में अंधेरा है।’

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08-13-2020, 01:25 PM,
#68
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दूसरे दिन हरीश जब दफ्तर गया तो न जाने क्यों पार्वती का दिल भय से धड़कने लगा। आज प्रातःकाल से ही उसका दिल बैठा जा रहा था। उसे लगता था जैसे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना होने वाली हो। वह माधो से, काका से और सब बस्ती वालों से डरने-सी लगी। आज तो वह राजन से भयभीत हो रही थी।

परंतु राजन इन तूफानों और संदेह भरी दुनिया से दूर मुस्कराता हुआ हरीश के साथ-साथ पहाड़ी पगडंडियों पर जा रहा था। आज दोनों अत्यंत प्रसन्न थे-मानो उन्हें अपनी मंजिल मिल गई हो। वह इसी धुन में मुस्कराते बढ़े जा रहे थे।

जब वह पहाड़ी के दूसरी ओर पहुँचे तो रस्से के पुल के समीप जा रुके। राजन ने दूसरी ओर वाली पहाड़ी की ओर हाथ से संकेत किया, जहाँ वे पत्थर मिले थे।

राजन मुस्कराता हुआ पुल को पार कर दूसरी ओर जा रुका और हरीश को देखने लगा। हरीश रस्से का सहारा लिए धीरे-धीरे पुल से जा रहा था। अचानक हरीश का पाँव फिसला और दूसरे ही क्षण वह नीचे जा गिरा। राजन घबरा गया और किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा नीचे देखने लगा।

‘यह क्या?’

अभी तक उसके कानों में हरीश की वह भयानक चीख गूँज रही थी, जो गिरते समय मुँह से निकली थी। वह चिल्लाया और शीघ्रता से नीचे उतर गया। हरीश का सिर फट चुका था। काले पत्थर रक्त से लाल हो रहे थे। शरीर इस बुरी दशा में घायल हो चुका था कि पत्थरों का दिल भी देखकर विवर्ण हो गया।
**

राजन एक पुतले की भांति चुपचाप ‘वादी’ की ओर बढ़ा जा रहा था, मानो कोई जीवित लाश जा रही हो। उसके मस्तिष्क में लाखों हथौडे़ एक साथ चोट लगा रहे थे। उसके वस्त्र लहू से लथपथ हो रहे थे। आकाश पर उड़ी चीलें चारों ओर मंडराती-सी दिखाई दे रही थीं।

पार्वती ने जब आकाश पर चीलों के झुण्ड को मंडराते देखा तो भय से काँपने लगी और भागकर जंगले के पास जा खड़ी हुई। सामने चौबेजी के आँगन में माधो उनसे बातें कर रहा था-समीप ही केशव बैठा था। पार्वती को देखते ही बाहर आ गया और नीचे से ही बोला, ‘तुम्हें ही देखने आ रहा था।’

‘अच्छा हुआ तुम आ गए। अकेले में न जाने क्यों आज कुछ भयभीत-सी होने लगी हूँ।’

‘शायद आकाश पर कालिमा छाने से कहीं आँधी का जोर है।’

‘न जाने आज इतनी चीलें आकाश में क्यों मंडरा रही हैं।’

‘कहीं कोई जानवर मर गया होगा...।’ अभी वह कह भी न पाया था कि कंपनी की ओर से शोर-सा सुनाई दिया। चौबे और माधो भी आ गए और सब उस ओर देखने लगे।

शोर बढ़ता जा रहा था।

जत्था समीप आ गया। वह जत्था मजदूरों का था, जो राजन के पीछे-पीछे चला आ रहा था। उनके शोर में एक भयानक तूफान था, जो सारी ‘वादी’ में छा रहा था। सबने राजन को आश्चर्य-भरी दृष्टि से देखा और सब कुछ समझ गए, परंतु यह कोई न पूछ सका कि यह कैसे हुआ! सबने पथराई दृष्टि से उस शव को देखा, जिसे राजन ने मकान से बाहर वाले सीमेंट के चबूतरे पर रख दिया था।

पार्वती का साँस रुकने लगी, शरीर ठंडा हो गया। उसने अपने पति के शव को देखा और चिल्ला उठी। फिर तुरंत ही पति के मृत शरीर से लिपट गई। केशव और चौबेजी अभी तक अचम्भे में पड़े थे, परंतु माधो क्रोध व घृणा-भरी दृष्टि से राजन की ओर बढ़ा।

माधो सामने एक दीवार की ओर आ खड़ा हुआ। राजन ने ज्यों-ही अपना मुख ऊपर किया, माधो ने जोर से एक थप्पड़ उसके मुँह पर दे मारा। अभी वह संभल भी न पाया था कि माधो ने दो-चार थप्पड़ जमा दिए और साथ ही मुक्कों और धक्कों की बौछार आरंभ कर दी। राजन बेबस लड़खड़ाता हुआ धरती पर जा गिरा। जत्थे से किसी की आवाज ने माधो के हाथ रोक दिए। सब लोगों की दृष्टि उसकी ओर गई। यह कुंदन था जो दाँत पीसता हुआ क्रोध में माधो की ओर देख रहा था और कह रहा था।

‘मनुष्यता का दावा करने वालों इस ‘गरीब’ से इतना तो पूछा होता कि यह सब कैसे हुआ? कोयले की खानों में काम करते-करते शायद तुम सब लोगों के दिल भी पत्थर और काले हो गए हैं, जिनमें रक्त के स्थान पर कालिख बसने लगी है।’
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08-13-2020, 01:28 PM,
#69
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
पल-भर के लिए नीरवता छा गई। कोई भी मुँह नहीं खोल सका-जैसे सब उसके कहे पर अमल कर रहे हों। घर पहुँचते ही कुंदन ने राजन को बिस्तर पर लिटा दिया। फिर गर्म अंगीठी से कपड़ा गर्म कर उसके जख्मों को सेंकने लगा-राजन की आँखों में आँसू भर आए, वह बोला-
‘कुंदन शायद यह भी मेरे प्रेम की कोई परीक्षा है।’

‘तुम तो पागल हो गए हो। मेरी मानो तो यहाँ से कहीं दूर चले जाओ। जो जीवन बचा है, उसे यूँ क्यों समाप्त किए देते हो।’

‘कुंदन तू समझता है मैं शायद इन पहाड़ी बटेरों से डर गया हूँ और यह मुझे चैन से न जीने देंगे-परंतु मुझे किसी का भी डर नहीं। यह लोग मुझे चाहे जितना बुरा क्यों न समझें, परंतु पार्वती तो मुझे कभी गलत न समझेगी।’

‘राजन तुम भूल कर रहे हो-बुरा समय पड़ने पर छाया भी तो साथ नहीं देती।’

‘कुंदन, अभी तूने इस दिल को परखा नहीं। तू क्या जाने जब माधो मुझ पर बरस रहा था तो पार्वती के दिल पर क्या बीत रही थी, परंतु बेचारी समाज के ठेकेदारों के सम्मुख कुछ बोल न सकी।’

‘राजन अब तुम इस संसार को छोड़ दूसरे संसार में जा पहुँचे हो, जिसे पागलों की दुनिया कहते हैं, परंतु पागल होने से पहले थोड़ा विश्राम कर लो तो अच्छा ही होगा।’

यह कहते हुए उसने राजन पर कम्बल ओढ़ा दिया और बाहर जाने लगा। राजन उसे देखकर मुस्कराया और बोला-
‘कुंदन यदि मैं पागल हूँ तो भी बुरा नहीं।’

कुंदन ने दरवाजे के दोनों किवाड़ बंद करने को खींचे और बाहर जाने से पहले बोला-
‘भाई! मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि धरती पर रहने वाला जब पक्षियों को देख आकाश पर उड़ने का प्रयत्न करता है तो लड़खड़ाकर ऐसा गिरता है कि उसका रहना भी दूभर हो जाता है।’

उसके जाने के बाद राजन देर तक बंद दरवाजे को देखता रहा। उसके सामने बार-बार एक सूरत आती, जिसके चेहरे पर यह प्रश्न लिखा था कि अब उसका क्या होगा? फिर वह सोचने लगता कि कहीं वह भी तो मुझे गलत नहीं समझती, फिर वह पागल-सा हो उठता।

आखिर वह दोपहर को उठा और धीरे-धीरे मकान से बाहर आ हरीश के घर की ओर जाने लगा। ‘वादी’ में सिवाय बच्चों के कोई दिखाई नहीं देता था। सब अपने-अपने काम पर गए हुए थे।

जब वह पार्वती के घर पहुँचा तो घर में वह अकेली थी। उसे देखते ही वह झट से अंदर चली गई। जब वह सीढ़ियाँ चढ़ दरवाजे के समीप पहुँचा तो पार्वती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और बेचैन हो दरवाजे का सहारा ले खड़ी हो गई।

राजन बंद दरवाजे के समीप जाकर धीरे-से बोला-
‘पार्वती! सबके सामने मैंने आना ठीक न समझा, दुर्घटना पर मुझको बहुत दुःख है।’

पार्वती चुप रही। राजन दबी आवाज में फिर बोला-
‘शायद तुम मुझसे नाराज हो-किसी ने मौका भी तो नहीं दिया कि सब कुछ तुमसे कह सकूँ।’

‘मुझे कुछ नहीं सुनना। तुम यहाँ से चले जाओ।’

यह शब्द राजन के दिल में काँटों की तरह चुभे। उसे लगा जैसे किसी ने उसके माथे पर हथौड़ा मारा हो। वह फिर बोला, ‘पार्वती! तुम भी तो कहीं दूसरों की बातों में नहीं आ गईं।’

दरवाजा खोल पार्वती आँखों में आँसू लिए खामोश-सी राजन को देखने लगी। ‘अब क्या रखा है यहाँ।’ वह टूटे हुए शब्दों में बोली-‘तुम्हारी अग्नि अभी बुझी नहीं, परंतु यहाँ तो सब राख हो चुका है।’

‘यह तुम क्या कह रही हो पार्वती?’
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08-13-2020, 01:28 PM,
#70
RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘तुम्हें यदि अपने प्रेम पर इतना नाज था तो शादी की रात डोली को कंधा देने की बजाय मेरा गला घोंट दिया होता, किसी दूसरे के घर तो आग न लगती।’ वह रोते हुए बोली।
‘तो तुम्हें विश्वास हो गया कि मेरा प्रेम केवल एक धोखा था।’

‘अब इन बातों को कुरेदने से क्या लाभ? अब मुझे अधिक न सताओ, मुझे किसी से कोई लगन नहीं-यहाँ से चले जाओ।’

राजन पर मानो बिजली-सी गिर पड़ी। उसने दरवाजे को जोर से धक्का दिया, दरवाजा खुल गया। पार्वती चौंककर एक ओर देखने लगी-राजन उसकी ओर बढ़ा। पार्वती ने काँपते हुए कदम पीछे हटाए।

‘जानती हो संसार में सबसे बड़ा धोखा विश्वास है, जिसका दूसरा नाम है औरत।’

‘परंतु यह... तुम मुझे इस प्रकार क्यों देख रहे हो?’

‘औरत को पढ़ने का यतन कर रहा हूँ। तुम संसार को धोखा दे सकती हो, पति को धोखे में रख सकती हो, परंतु उस दिल को नहीं, जिसने सदा तुम्हें चाहा है।’ ‘यह तुम-यह तुम...।’

‘इस दिल की कह रहा हूँ जिसके तार तुम्हारे दिल के तार से जुड़े हैं-और कोई भी तोड़ नहीं सकता।’ पार्वती भयभीत हो पीछे हटने लगी, परंतु राजन लपक कर बोला, ‘इन आँखों से बनावटी आँसू पोंछ डालो, यह तुम्हारे नहीं इस समाज के आँसू हैं। आओ इस समाज से कहीं दूर भाग चलें।’

‘राजन! होश में तो हो।’ वह संभालते हुए बोली। परंतु उसके शब्दों में भय काँप रहा था।

‘हाँ-डरो नहीं। सच्चे प्रेमी समाज से दूर ही रह सकते हैं।’

‘प्रेम-कैसा प्रेम, मुझे किसी से कोई प्रेम नहीं।’

‘यह तुम्हारा दिल नहीं बोल रहा है, तुम्हारे दिल की धड़कन अब भी मेरा नाम ले रही है। देखो तुम्हारी आँखों में मेरी ही तस्वीर है।’

यह कहते ही वह आगे बढ़ा और उसका हाथ खींचा-पार्वती ने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और बोली-
‘शायद तुम पागल हो गए हो, इतना तो सोचो कि मैं तुम्हारे मालिक की अमानत हूँ। एक विधवा हूँ।’

‘तुम्हें यह बातें शोभा नहीं देतीं-यह सब अंधविश्वास की बातें हैं, दिल की दुनिया इसे नहीं मानती।’

पार्वती भय के मारे दीवार से जा लगी।

राजन फिर उसकी ओर लपका। पार्वती क्रोध से चिल्लाई-
‘राजन मालिक से नहीं तो भगवान से डरो। यदि भगवान का भी कोई भय नहीं तो उस मासूम से डरो-जिसकी मैं माँ बनने वाली हूँ, आखिर तुम्हारी भी तो कोई माँ थी।’ माँ का नाम सुनते ही राजन खड़ा हो गया। उसने अपनी दृष्टि धरती में गड़ा दी। पार्वती अपने को संभालते हुए एक कोने में चली गई।

राजन अब पार्वती की ओर न देख सका। उसे अब उससे भय-सा लगने लगा। वह चुपचाप धीरे-धीरे पग उठाता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। अंतिम सीढ़ी पर रुककर एक बार मन-ही-मन पार्वती को प्रणाम किया और दबी आवाज़ में बोला-
‘धन्य हो देवी! क्षमा करो! तुम्हें मैं समझ न सका।’
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