raj sharma story कामलीला
07-17-2020, 11:57 AM,
#21
RE: raj sharma story कामलीला
मैं आज्ञाकारी बच्चे की तरह औंधा लेट गया।
उसने तेल लेकर मेरी पूरी पीठ गर्दन पर फैला दिया और पहले अपने नरम नरम हाथों से मेरी पीठ रगड़ती रही फिर मेरी गर्दन चूमते हुए… मेरे पेट के दोनों तरफ फैले अपने घुटनों पर भार रखते हुए, मेरी पीठ पर इस तरह झुक गई कि उसके मम्मे पीठ से रगड़ने लगे।
अब वह अपने तेल से चिकनाए वक्षों को सख्ती से मेरी पूरी पीठ पर रगड़ने लगी।
यह नरम नरम छुअन मेरे लिंग को कड़ा करने लगी।
वह अपने वक्षों को रगड़ती नीचे जाती, ऊपर आती, दाएं जाती, बाएं जाती और ऐसी ही अवस्था में नीचे खिसकते हुए मेरे घुटनों तक पहुँच गई और अपने वक्षों से ही मेरे कूल्हों को रगड़ने मसलने लगी।
फिर दोनों हाथों से मुट्ठियों में मेरे चूतड़ों को मसलती रगड़ती मेरे जुड़े हुए पैरों पर घुटनों के पीछे अपने पेट के निचले सिरे, यानि उस हिस्से को जहाँ उसकी गीली होकर बह रही योनि थी और तेल से नहाया गुदाद्वार था, रगड़ने लगी।
वहाँ से उठती भाप जैसे मैं अपने पैरों पर महसूस कर सकता था।
दोनों कूल्हों को मसलती कहीं वह उन्हें एक दूसरे से मिला देती तो कहीं एकदूसरे के समानांतर फैला देती और यूँ मेरे गुदाद्वार को अपने सामने नुमाया कर लेती।
फिर उसने वहाँ भी तेल टपकाया और मेरे छेद को उंगली से सहलाने लगी।
मेरे दिमाग पर नशा सा छा रहा था।
भले मैं ‘गे’ नहीं था लेकिन यह ऐसी संवेदनशील जगह थी जहाँ इस तरह की छुअन आपको उत्तेजित ही कर देती है, भले करने वाला पुरुष हो या औरत।
और जैसा कि मैं उम्मीद कर रहा था उसने सहलाते सहलाते अपनी उंगली अंदर उतार दी।
मुझे भी वैसा ही मज़ा आया जैसा उसने महसूस किया होगा और मेरी भी ‘आह’ छूट गई जिसे सुन कर वह हंसने लगी- क्या तुम्हें भी मज़ा आता है यहाँ?
उसने शरारत भरे अंदाज़ में पूछा।
‘किसे नहीं आता? मगर मर्द के दिमाग में बचपन से यह बात पारम्परिक मान्यता की तरह ठूंस दी जाती है कि यह गलत है और मर्द होकर मर्द से करना तो बिल्कुल गलत है इसलिए सामान्य मर्द इस हिस्से के मज़े से बेहिस बने रहते हैं, जो इस वर्जना को तोड़ देते हैं वह भले मज़ा हासिल करने में कामयाब रहते हो लेकिन ‘गे’ के रूप में समाज में अपमानित भी होते हैं।’
फिर वह बड़ी लगन और दिलचस्पी से उंगली अंदर बाहर करने में लग गई और मैं आँखें बंद करके उस मज़े पर कन्सन्ट्रेट करने लगा जो मुझे अपने जिस्म के उस हिस्से से मिल रहा था जो मेरे संस्कारों के हिसाब से इस क्रिया के लिये वर्जित था।
फिर उसने उंगली हटा ली और मेरे कूल्हों को छोड़ कर परे हटी और मुझे पलट कर सीधा कर लिया।
अब वह अपनी दोनों टांगें मेरे इधर उधर रखे मेरे पेट पर बैठ गई… उसकी गर्म, रस और भाप छोड़ती योनि और तेल से चिकना हुआ गुदाद्वार मेरे पेट से रगड़ता उसे गीला करने लगा और वह मेरे कन्धों और सीने की मालिश करने लगी।
इस घड़ी उसके चेहरे पर शरारत थी और आँखों में मस्ती…
मसाज करते करते वह पीछे खिसकी और वहाँ पहुँच गई जहाँ लकड़ी की तरह तना मेरा लिंग मौजूद था जो अब उसकी दरार की गर्माहट को अपने ऊपर महसूस कर रहा था।
फिर गौसिया मेरे सीने पे ऐसे झुकी कि उसके दूध मेरे पेट के ऊपरी हिस्से से रगड़ खाने लगे और उसने जीभ निकाल कर मेरे छोटे से निप्पल को चाटा, मेरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई।
वह हंस पड़ी।
‘मतलब आदमी को भी वही संवेदनाएं होती हैं।’
‘कुछ हद तक… वैसी सहरंगेज नहीं पर होती हैं।’
फिर वह अपनी ज़ुबान से मेरे दोनों तरफ के निप्पल छेड़ने चुभलाने लगी।
नीचे उसकी गीली दरार मेरे पप्पू को बुरी तरह भड़का रही थी।
फिर उसने खुद से अपने चूतड़ों को इस तरह सेट किया कि मेरे लिंग की नोक उसके पीछे वाले छेद से सट गई और अपना एक हाथ पीछे ले जा कर वह लिंग को पकड़ कर अंदर घुसाने की कोशिश करने लगी।
अगर यह कोशिश शुरू में की होती तो अंदर होने में थोड़ी मुश्किल आती भी लेकिन अब तक तो हम कामोत्तेजना से ऐसे तप चुके थे कि मेरा लिंग लकड़ी बन चुका था और उसका छेद खुद से गीला होकर ढीला हो गया था।
थोड़ी कसाकसी के साथ वह गर्म गड्ढे में उतर गया।
एक आह सी उसके मुंह से ख़ारिज हुई और उसने मेरे निप्पल से मुंह हटा लिया और कुछ ऊपर होकर मेरी आँखों में देखते हुए मुस्कराने लगी।
‘इस तरह आगे पीछे होना तो ध्यान रखना कहीं आगे ही न घुस जाए।’
‘नहीं घुसने दूँगी और घुस भी गया तो देखा जायेगा।’
हम दोनों के शरीर तेल से चिकने हुए पड़े थे… वह मेरे पेट से सीने तक अपने दूध रगड़ते आगे हुई तो लिंग धीरे धीरे सरकता हुआ बाहर हो गया।
फिर उसी तरह वह वापस नीचे खिसकी और यह चाहा कि लिंग खुद छेद में घुस जाए लेकिन इस तरह योनि में तो घुस सकता है मगर गुदा में नहीं।
उसे फिर हाथ की मदद लेनी पड़ी।
वह बार बार ऐसे ही मेरे फ्रंट से अपना फ्रंट रगड़ती आगे पीछे होती लिंग को बाहर और हाथ के सपोर्ट से अंदर करती रही, इस तरह उसकी योनि का ऊपरी सिरा भी मेरे पेट के निचले सिरे से घर्षण का मज़ा पा रहा था और उसके आनन्द को दोगुना कर रहा था।
लेकिन यह स्थिति बहुत सुविधाजनक नहीं थी और जब लगा कि अब कुछ चेंज होना चाहिए तो सीधे होकर मेरे ऊपर इस तरह बैठ गई कि लिंग उसके छेद के अंदर ही रहा और अपने हाथ मेरे सीने से टिका कर अपने कूल्हों या कहो कि कमर को इस तरह राउंड घुमाने लगी जैसे बैले डांस में घुमाते हैं।
लिंग चरों तरफ मूव करते उसके छेद के साथ अंदर बाहर सरक रहा था और दोनों की उत्तेजना को अपने शिखर की तरफ ले जा रहा था।
‘मार्वलस! तुम तो सीख गई… ग़ज़ब हो यार!’ आज बड़बड़ाने की बारी मेरी थी।
कुछ झटकों के बाद वह रुक जाती और एक ही पोजीशन में बैठे बैठे ऐसे हिलती जैसे ऊँट की सवारी कर रही हो।
इस तरह लिंग तो अंदर बाहर न होता जिससे मुझे आराम था लेकिन उसकी योनि मेरे लिंग के ऊपर के तीन दिन के बालों से जो रगड़ खाती वह उसे ज़रूर मस्त कर देती।
फिर मेरे आराम के पल पूरे हुए और उसने थकन के आसार दिखाये लेकिन उठी फिर भी नहीं, बस लिंग के ऊपर बैठे बैठे इस तरह घूम गई कि लिंग एक ही पोजीशन में रहा और उस पर चढ़ा छल्ला घूम गया।
उसके सीने के बजाय अब उसकी पीठ मेरी तरफ हो गई और उसने थोड़ा पीछे होते हुए मेरे सीने पर अपने पंजे टिकाये और अपने चूतड़ों को इतना ऊपर उठा लिया कि नीचे से मैं धक्के लगा सकूँ।
उसकी मनोस्थिति मैं समझ सकता था… मैंने सहारे के लिए उसके दोनों कूल्हों के नीचे अपनी हथेलियाँ लगा लीं और फिर अपनी कमर के जोर से धीरे धीरे धक्के लगाने लगा।
उसकी कामुक सीत्कारें कमरे में गूंजती तेज़ होने लगीं।
बीच में कभी इस हाथ से कभी उस हाथ से वह अपनी क्लिटरिस भी सहलाने लगती जिससे उसे चरम पर पहुँचने में देर नहीं लगी।
‘जोर जोर से करो… हार्डर हार्डर…’ वह तेज़ होती साँसों के बीच बड़बड़ाई।
मैंने धक्कों की स्पीड तेज़ कर दी और जितनी मुझमें क्षमता थी मैं तेज़ और जोर से धक्के लगाने लगा।
कमरे में ‘थप-थप’ की संगीतमय आवाज़ गूंजने लगी।
और जब वह स्खलन के जोर में अकड़ी तभी मेरे लिंग ने भी लावा छोड़ दिया और वह एकदम मेरे सीने पर फैल गई और एक हाथ से चादर तो दूसरे हाथ से मेरी बांह दबोच ली…
जबकि मैंने स्खलन के क्षणों में दोनों हाथों से उसके पेट को दबोच लिया था।
तूफ़ान गुज़र गया… दिमाग की सनसनाहट काबू में आई तो हम अलग हुए और थोड़ी देर में हम बिस्तर के सरहाने टिके साँसें नियंत्रित कर रहे थे।
‘हर दिन एक नया मज़ा… शायद यही तो चाहती थी मेरे अंदर की मिस हाइड!’ उसने खुद से एक सिगरेट सुलगा ली और कश लेकर धुआं छोड़ती हुई बोली- लेकिन एक बात कहूँ… यह ठीक है कि मैं हर रोज़ बेशर्म होती जा रही हूँ लेकिन एक डर भी दिल में समां रहा है कि कभी ये बातें लीक हो गईं तो… किसी को पता चल गया तो?’
‘कैसे?’
‘पता नहीं… मैं तो बताने से रही। शायद तुमसे… मुझसे वादा करो कि कभी तुम यह सब किसी को बताओगे नहीं।’
‘नहीं… मैं यह वादा नहीं कर सकता कि बताऊँगा नहीं, पर यह वादा कर सकता हूँ कि तुम्हारी आइडेंटिटी डिस्क्लोज नहीं करूँगा।’
‘और बताओगे किसे?’
‘कह नहीं सकता। हो सकता है न ही बताऊँ पर वादा करने की हालत में नहीं क्योंकि मैं खुद को जानता हूँ। खैर छोड़ो- अगर तुम्हारी एम एम ऍफ़ की ख्वाहिश हो तो कहो वह भी पूरी कर दूँ।’
‘मतलब?’
‘मतलब दो लड़के और एक लड़की… मतलब कोई और लड़का भी हमारे साथ?’
‘नहीं, अब मेरे अंदर की मिस हाइड इतनी बेलगाम भी नहीं हुई और वैसे भी उसका मज़ा तब आएगा जब एक आगे करे एक पीछे और यहाँ आगे कुछ होना नहीं। ऐसे नाज़ुक वक़्त में सँभलने की उम्मीद मैं तुमसे कर सकती हूँ किसी और से नहीं, चलो पैग बनाओ।’
बोतल में अब इतनी ही बची थी कि एक बड़ा पैग बन सकता।
मैंने पैग तो बनाया पर पिया अलग ढंग से… मैं घूँट लेता, थोड़ी अपने गले में उतारता और थोड़ी उसके मुंह से मुंह जोड़ कर उसमें उगल देता जिसे वह गटक जाती और दूसरा घूँट वह लेती और उसी तरह मुझे पिलाती।
साथ ही मोबाइल भी हाथ में ले लिया और कुछ मज़ेदार पोर्न देखने लगे।
थोड़ी देर बाद जब फिर गर्म हुए तो फिर तेलियाए हुए जिस्मों के साथ शुरू हो गए, खेलने वाला एक लम्बा सिलसिला फिर चला और अंत वही हुआ जो ऐसी हालत में होता है।
आज दो बार में ही उसका दम भी निकल गया और फिर मुझे वहाँ से रुखसत होना पड़ा।
अगले दिन शुक्रवार था और आज भी उसकी क्लास थी जिससे वह साढ़े बारह बजे फारिग हुई। मैंने उसे यूनिवर्सिटी से पिक किया और पहले ही साहू के पीछे जाकर पेट पूजा कर ली।
उसके बाद नरही की तरफ चले आये और बाकी का दिन चिड़ियाघर में घूमते फिरते, बकैती करते, मस्ती करते गुज़ारा और छः बजे मैंने उसे यूनिवर्सिटी के पास ही छोड़ दिया जहाँ से वह अपने रास्ते चली गई और मैं अपने रास्ते।
रात को मुझे फिर ड्रिंक और स्मोकिंग के इंतज़ाम के साथ पहुंचना पड़ा।
‘आज कुछ नया फीचर बचा हो तो वह भी अपलोड कर दो मिस हाइड की हार्ड डिस्क में।’ वह आँखें चमकाती हुई बोली।
‘आज हम बाथरूम सेक्स करेंगे, साथ में नहाते हुए!’
‘वॉव।’ उसने खुश होकर मुट्ठियां भींची।
पहले हमने स्मोकिंग और ड्रिंक का मज़ा लिया फिर कपड़े उतार कर वो पोर्न मसाला देखने बैठ गए जो बाथरूम सेक्स से जुड़ा था। इसके बाद जब जिस्म में हरारत पैदा होने लगी तो एक दूसरे को बिस्तर पर ही रगड़ना शुरू कर दिया और अच्छे खासे मस्त हो चुके तो बाथरूम में घुसे।
बाथरूम में लगे शीशे को हमने ऐसे एडजस्ट कर लिया कि हम खुद को अपनी हरकतों के दौरान देखते रह सकें और शावर चला दिया। आज यह तय हुआ था कि वह पीछे से सेक्स कराते कराते स्क्वर्टिंग करेगी।
फिर हमने वैसा ही किया।
जी भर के पानी में भीगते हुए मैंने उसकी योनि ही नहीं, गुदा के छेद को भी चूसा चाटा, खूब खींच खींच कर दूध पिये और खड़े बैठे ही नहीं लेटे वाले आसन में भी जी भर से उसे पीछे से फक किया।
उसने भी हर आसन को खूब एन्जॉय किया, अच्छे से लिंग चूषण किया और खूब स्क्वर्टिंग भी की… तीन बार तो मैंने छोटी छोटी फुहारें अपने मुंह में झेलीं।
साथ ही हम खुद को शीशे में देखते उत्तेजित होते रहे थे।
मुझे इस बीच टाइम का एक्सटेंशन इसलिए मिल गया था कि बार बार पानी में भीगने के कारण लिंग की गर्माहट कम हो जाती थी और मुझे यह डर नहीं रहता था कि मैं जल्दी डिस्चार्ज हो जाऊंगा।
आज उसने एक बाधा और पार की… वह भी इसलिए कि हम पानी में थे। जिस वक़्त उसका पानी निकला, मैं स्खलित होने से बच गया था और जब मैं स्खलित होने को हुआ तो उस वक़्त हम बाथरूम के टाइल पर लोट रहे थे…
मैंने मौके का फायदा उठाते हुए, झड़ने से पहले लिंग हाथ में पकड़ा और उसके चेहरे के सामने ले आया। करीब था कि मेरी मंशा समझ कर वह इंकार करके चेहरा घुमा लेती कि मेरी बेचारगी और इच्छा देख कर उम्मीद के खिलाफ उसने मुंह खोल दिया।
मन में यह ज़रूर रहा होगा कि शावर से गिरती पानी की फुहार उसके मुंह को फ़ौरन धो देगी।
वीर्य की जो पिचकारी छूटी उसमें थोड़ी उसकी नाक, आँख और गाल पे गई मगर ज्यादातर उसके खुले मुंह में गई।
मैं आखिरी वाली छोटी पिचकारी के निकल जाने के बाद दीवार से टिक कर पड़ गया और वह मुंह बंद करके उस चीज़ के ज़ायके को महसूस करने लगी जो उसके मुंह में था।
फिर उसने ‘पुच’ करके उसे उगल दिया और फुहार के नीचे मुंह करके पानी से अंदर का मुंह धोने लगी।
मुंह साफ़ हो गया तो उसने शावर बंद कर दिया।
थोड़ी देर बाद सामान्य हुए तो नए सिरे से तैयार होने के लिए बाहर आ गए।
‘अजीब सा टेस्ट लगा, न अच्छा न बुरा!’
‘चार छः बार मुंह में ले लो, न अच्छा लगने लगे तो कहना।’
‘चलो ठीक है, तुम्हारी यह ख्वाहिश भी पूरी कर देती हूँ। अब से परसों तक जितनी बार भी निकालना मेरे मुंह में ही निकालना। मिस हाइड उस घिन से लड़ने और जीतने की कोशिश करेगी जो कल तक सोचने से भी आती थी।’
फिर एक बार स्मोकिंग, ड्रिंक और पोर्न का दौर चला और फिर जब हम गर्म हुए तो बाथरूम चले आये और शावर खोल कर उसके नीचे वासना का नंगा नाच नाचने लगे।
अब चूँकि मेरे दिमाग में यह था कि उसके मुंह में निकालना है तो उससे मेरा ध्यान बंट गया और आधे घंटे की धींगामुश्ती के बाद जब वह स्खलित हो कर मेरे लिंग के सामने अपना मुंह खोल कर बैठी भी तो मेरा वीर्य फ़ौरन नहीं निकला बल्कि उसे हाथ से घर्षण करते हुए निकालना पड़ा।
इस बार भी थोड़ा गाल पर तो बाकी मुंह में गया, जिसे थोड़ी देर मुंह में रख के उसने उगल दिया और पानी से मुंह साफ़ करने लगी।
अब शायद टंकी में पानी कम हो गया था जिससे टोंटी खोखियाने लगी थी और रात के इस वक़्त तो मोटर चलाई नहीं जा सकती थी जबकि सुबह फजिर में उठने पर दादा दादी को पानी चाहिए होगा।
यह सोच कर हमने अपने प्रोग्राम को वही ख़त्म किया और बाहर आ गए।
इसके बाद थोड़ी देर बिस्तर पर रगड़ घिस करते हुए चादर की मां बहन एक की और फिर वहां से निकल कर अपनी राह ली।
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07-17-2020, 11:57 AM,
#22
RE: raj sharma story कामलीला
अगला दिन इस हिसाब से अंतिम दिन था कि कल रविवार था और वह यूनिवर्सिटी का बहाना नहीं कर सकती थी तो आज ही आखिरी दिन था जो हम साथ घूम सकते थे।
आज वह यूनिवर्सिटी नहीं गई बल्कि ग्यारह बजे ही मुझ तक पहुँच गई।
पहली सुरक्षित जगह पाते ही नक़ाब से छुटकारा पाया और आज हमने जितना वक़्त मिला सिर्फ सैर सपाटा किया। पूरे लखनऊ की सड़कें नापीं… मड़ियांव से लेकर सदर तक, और दुबग्गा से लेकर चिनहट तक।
दोपहर के खाने के रूप में टेढ़ी पुलिया पर मुरादाबादी बिरयानी खाई और शाम को अकबरी गेट पर टुंडे के कबाब। कोई फिल्म, माल, पार्क का रुख किये बगैर सिर्फ राइडिंग करते शाम हो गई तो वापसी की राह ली।
आज रात नए रोमांच के रूप में उसने खुद को दुल्हन के रूप में सजाया और ऐसे खुद को पेश किया जैसे आज हमारी सुहागरात हो।
उसे यह अहसास अब बुरी तरह साल रहा था कि हमारे सफर का अब अंत हो चला है। वह कुछ ग़मगीन थी और ऐसे मौके पर खुद को मेरी दुल्हन के रूप में जी लेना चाहती थी।
एक आभासी दूल्हे के रूप में मुझे दूध भी पीने को मिला और मिठाई भी खाने को मिली।
आज हमने रोशनी बंद कर दी थी- उसकी इच्छा के मुताबिक।
बस ऐसे ही बातें करते, एक दूसरे को छूते सहलाते उत्तेजित होते रहे और जब दिमाग पर सेक्स हावी हो गया तो मैंने उसके कपड़े उतार दिए।
आज वह उस तरह सहयोग नहीं कर रही थी बल्कि खुद को एक शर्मीली दुल्हन के रूप में तसव्वुर कर रही थी जो पहली बार ऐसे हालात का सामना कर रही हो।
मैंने बची हुई मिठाई उसके पूरे जिस्म पर मल दी थी और खुद कुत्ते की तरह उसे चाटने लगा था।
उसके जिस्म का कोई ऐसा हिस्सा नहीं बचा था जिसे मिठाई और मेरी जीभ के स्पर्श से वंचित रहना पड़ा हो… और जो बची भी तो उसे मैं अपने लिंग पर मल कर उसके होंठों के पास ले आया।
थोड़ी शर्माहट, नखरे और हिचकिचाहट के बाद उसने मेरे लिंग को स्वीकार किया और उसे अपने मुंह में लेकर सारी मिठाई साफ़ कर दी।
इसके बाद मैंने उसे चित लिटाए हुए ही उसकी योनि से छेड़छाड़ शुरू की और जब वह कामोत्तेजना से तपने लगी तो उसकी टांगों के बीच और कूल्हों के पास बैठते हुए मैंने बड़े आराम से पीछे के रास्ते प्रवेश पा लिया और ऐन सुहागरात के स्टाइल में उसके ऊपर लद कर उसके बूब्स मसलते, चूसते हल्के हल्के धक्के लगाने लगा।
मूल सुहागरात और इस सुहागरात में फर्क यह था कि यहाँ वेजाइनल सेक्स के बजाय एनल सेक्स हो रहा था।
धीरे धीरे दोनों चरम पर पहुँच गए तो उसने तो मुझे दबोचते हुए अपने स्खलन को अंजाम दे दिया लेकिन मैं उसके मुंह के लालच में रुका रहा और निकालने से ऐन पहले एकदम लिंग बाहर निकाल कर उसे हाथ से पकड़े गौसिया के मुंह के पास ले आया।
हालांकि स्थिति को समझते हुए उसने फ़ौरन मुंह खोल दिया था लेकिन मैं लगभग छूट चुका था इसलिए पहली फुहार गाल को छूती बिस्तर पर गई, दूसरी गाल पर और तीसरी चौथी बची खुची उसके मुंह में जा सकी।
कुछ देर उसे मुंह में रखने के बाद उसने पास रखे अपने एक कॉटन के दुपट्टे पर उगल कर उसी से अपना मुंह पोंछ लिया, दुपट्टे से ही गाल और तकिए पर गिर वीर्य भी साफ़ कर दिया।
इसके बाद फिर हम थोड़ी देर लेटे कल के विषय में बाते करते रहे और जब बुखार वापस चढ़ा तो इस बार कल की बची हुई शराब थोड़ी अपने मुंह में लेकर उसे पिलाई और बाकी उसके जिस्म पर डाल कर एक बार फिर कुत्ते की तरह चाट चाट कर साफ़ कर दी।
इस चटाई से उत्तेजित होना स्वाभाविक था और फिर मैंने उंगली से योनिभेदन करते हुए उसे फिर लगभग चरम पर पहुंचा दिया, जब वह स्खलन के करीब पहुँच गई तब उसे घोड़ी बना के पीछे से घुसा दिया और सम्भोग करने लगा।
करीब पांच मिनट के बाद वह भी स्खलित हो गई और मेरा भी निकलने वाला हो गया तो मैंने इस बार ज्यादा नियंत्रण के साथ वक़्त से पहले उसे गौसिया के मुंह तक पहुंचा दिया और इस बार बाहर कुछ नहीं गिरा।
एक तो कम माल था दूसरे फ़ोर्स भी कम था जिससे वेस्टेज नहीं हुई और कुछ देर मुंह में रखने के बाद फिर उसने मुंह साफ़ कर लिया।
आखिरी रात ऐसे ही गुज़री लेकिन उसने मुझे जाने नहीं दिया और वही रोके रखा- यह कह कर कि मैं अभी गया तो कल दिन के उजाले में आ नहीं पाऊँगा और घरवाले तो शादी, जनानी चौथी, मर्दानी चौथी सब निपटा कर कहीं रात तक पहुंचेंगे। उनके पहुँचने से पहले अँधेरा होते ही निकल लेना।
यानि मैं शनिवार रात का उसके घर घुस रविवार रात उनके घर से निकला, वहीं सोया, खाया पिया, वहीं हगा, मूता।
सुबह वह दादा दादी का नाश्ता बनाने नीचे चली गई और अपने लिए इतना ऊपर ले आई कि मेरा भी हो गया।
ऐसे ही उसने दोपहर के खाने और शाम के नाश्ते के वक़्त भी किया। साथ ही पूरे कमरे की सफाई करके उसे रूम फ्रेशनर से महका दिया और हर अवांछित चीज़ पैक करके रख दी कि जाते समय मैं लेता जाऊं।
इस बीच हमने कई बार सेक्स किया जिसे अगर हम डिस्चार्ज के हिसाब से देखें तो आठ बार वह स्खलित हुई थी और पांच बार मैं। पांच बार में मेरी हालत ऐसी हो गई थी कि कदम लड़खड़ाने लगे थे।
अब कोई जवान लौंडा तो था नहीं।
सबसे आखिरी बार में उसने मेरी वह इच्छा पूरी की थी जो इससे पहले कभी नहीं पूरी हुई थी और बकौल उसके यह मेरी सेवाओं का इनाम था जो उसने मुझे दिया था।
उसने मुंह से मुझे स्खलित कराया था और इस हालत में जो वीर्य निकला था वह बिना किसी झिझक उसने अपने गले में उतार लिया था और ऐसा करते वक़्त उसने मुझे जिन निगाहों से देखा था वह मुझे आने वाली पूरी ज़िन्दगी याद रहेंगी।

और रात के आठ बजे मैंने उसका घर छोड़ दिया था, उसने अपनी तड़प अपने गले में घोंट ली थी, बरसती आँखों को मुझसे छुपाने के लिए चेहरा घुमा लिया था और आखिरी वक़्त में इतनी ताक़त भी न जुटा पाई थी कि मेरे अलविदा का जवाब दे पाती।
जिस दिन मैंने यह कहानी लिखनी शुरू की थी उससे अलग हुए तीन दिन हुए थे और आज लिखते लिखते दस दिन हो गए थे।
इस बीच उसका आते जाते कई बार मेरा आमना सामना हुआ था और मैंने एक तड़प, एक कसक उसकी आँखों में देखी थी।
मैं जानता था कि यूँ किसी से अलग होना उसकी उम्र की लड़की के लिए बेहद मुश्किल था।
मेरा क्या था, मेरे लिए यह खेल था।
ऐसा नहीं था कि मुझे तकलीफ नहीं हुई थी लेकिन उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं थी।
मैंने वैसा ही किया था जैसा उसने कहा था, उसका नंबर, कॉल और व्हाट्सप्प पर ब्लॉक कर दिया था।
वह सामने पड़ती तो मैं चेहरा घुमा लेता कि कहीं कुछ बोल न दे और दूर होती तो रास्ता बदल लेता।
यह ठीक था कि मुझे ऐसा करते अच्छा नहीं लगता था मगर उसके लिए यही ठीक था।
इन दस दिनों में मैंने उस दूसरी लड़की से अच्छी खासी दोस्ती कर ली थी जिसका ज़िक्र मैंने कहानी के शुरू में किया था और उसके बारे में काफी कुछ जान लिया था।
जो पहले बंद गठरी थी अब धीरे धीरे खुलने लगी थी
गौसिया से अलग होने की तकलीफ मैंने उसमें दिलचस्पी लेकर ही कम की थी।
पहले आते जाते हाय हैलो होती थी और फिर एक दिन मोहल्ले से निकल कर फैज़ाबाद रोड पर बस पकड़ने के लिए खड़ी थी कि मैं आ टकराया था और उसका नम्बर ले लिया था जिससे थोड़ी बहुत बात फोन पर भी हो जाती थी।
उसने पूछा था मुझसे- क्यों दिलचस्पी है मुझमें?
और मैंने कहा था- क्योंकि तुम मेरे जैसी एक आम लड़की हो, एकदम आर्डिनरी… कोई खास चीज़ नहीं। न शक्ल सूरत, न फिगर और न ही वह उत्साह उमंगों से भरी उम्र। बस यही कारण है मेरे तुममें दिलचस्पी लेने का!
दो टूक सच किसे नहीं चुभता… उसके चेहरे पर भी नागवारी के भाव आकर चले गए थे।
पर वो कम उम्र की कोई नवयौवना नहीं थी बल्कि तीस पर की एक युवती थी जिसे अब तक सच का सामना करने की आदत पड़ चुकी होनी चाहिए थी।
उसने दो दिन बात नहीं की और तीसरे दिन शाम की छुट्टी के बाद मेरे साथ बजाय घर के कहीं चलने की इच्छा प्रकट की।
मैं पूरी शराफत से उसे उसी ओर के एक पार्क में ले आया जिधर उसका मोहल्ला था।
यहाँ उसके मोहल्ले का मैं कोई ज़िक्र नहीं करूँगा क्योंकि उसकी जो कहानी है वो उसकी आइडेंटिटी स्पष्ट कर देगी जो मुझे स्वीकार नहीं।
बस यूँ समझिये कि वह सिटी बस से निशातगंज आती जाती थी।
बहरहाल अकेले में पहुंचे तो उसने यही कहा- खुद को समझते क्या हो?
‘वही जो तुम हो… भीड़ में शामिल एक आम सा इंसान, जिसकी कोई खास पहचान नहीं। जो ऐसा हैंडसम नहीं कि उस पर लड़कियां मर मिटें और इतना सक्षम भी नहीं कि फिज़िकली हर लड़की या औरत को संतुष्ट कर सके।’
‘खुद से मेरी तुलना किस आधार पर की… सेहत में अच्छे हो, शक्ल में कोई हीरो जैसे न सही लेकिन बुरे भी नहीं और उम्र कुछ भी हो लगते तो तीस के नीचे ही हो।’
‘तो?’
‘तो मैं क्या हूँ… यह सांवला रंग, यह मोटी सी नाक और मोठे होंठ वाला बुरा सा चेहरा… ये पेट वाली बत्तीस इंच की कमर और ये चार फुट से थोड़ी ज्यादा लंबाई। मैं तुम्हारी तरह आम नहीं एक बुरी सी लड़की हूँ।’
‘तुम्हें लगता होगा पर शायद मेरी नज़र में तुम बुरी सी नहीं, आम सी ही लड़की हो।’
‘और कुंवारा आदमी चालीस का हो तो तीस का लगता है लेकिन मेरे जैसी कोई लड़की कुंवारी हो तो तीस की होने पर भी पैंतीस की लगती है।’
‘शायद ऐसा हो, पर कहना क्या चाहती हो?’
‘यही कि एक बुरी सी लड़की में जो शक्ल या जिस्म से अच्छी नहीं, जिसकी खेलने की उम्र निकल चुकी हो उसमें दिलचस्पी क्यों? इश्क़ तो होगा नहीं।’
‘नहीं… मैं उम्र के उस दौर को बहुत पीछे छोड़ चुका हूँ जहाँ इश्क़ हुआ करता है।’
‘फिर… सेक्स करना चाहते हो?’
‘नहीं… वैसे मैं ऑप्शन लेस बंदा नहीं कि इस वजह से तुमसे दोस्ती करूँ।’
‘फिर- आखिर मैं समझ नहीं पा रही कि दुनिया भर की खूबसूरत लड़कियां पड़ी हैं लखनऊ में लेकिन तुम्हें मुझमें ऐसा क्या नज़र आया जो मुझ पर अपना वक़्त खपा रहे हो। चलो मुझसे पूछो कि मेरी दिलचस्पी क्या है जो मैंने तुम्हें लिफ्ट दी।’
‘चलो बताओ- क्यों दी लिफ्ट?’
‘क्योंकि मैं कुंठित हूँ… फ्रस्टेट हूँ… मैं शक्ल सूरत से अच्छी नहीं कि कोई मुझसे प्यार करे और न रूपये पैसे से मज़बूत कि कोई मुझे ब्याहे और न कम उम्र की कोई जवान और सेक्सी लड़की कि मुझसे सेक्स करने के इच्छुक लोगों की लाइन लगी हो।’
मैं सरापा सवाल बना उसे देखता रहा।
‘पर मेरे शरीर में भी इच्छाएं पैदा होती हैं। मुझे भी रातों को नींद नहीं आती और बिस्तर पर सुलगते हुए रात गुज़रती है। मेरे पास क्या विकल्प है?’
‘तुम्हारे हिसाब से वो विकल्प तुम्हें मुझमें दिखा?’
कुछ बोलने के बजाय वह ख़ामोशी से मुझे देखती रही।
‘नहीं… मैं ज़िन्दगी का दर्शन तुमसे कहीं बेहतर समझता हूँ। तुम एक ऐसी ज़िंदगी गुज़ार रही हो जो तुम्हें मंज़ूर नहीं लेकिन विकल्पहीनता की वजह से इसे अपनाये हुए हो।
तुम्हारी उम्र हो गई और तुम एक स्वीकार्य सेक्स पार्टनर न पा सकी, यह तुम्हारे अंदर कुंठा की मुख्य वजह है। ज़ाहिर है कि अगर कोई समाज को स्वीकार्य सेक्स पार्टनर तुम्हारे पास होता तो तुम ऐसी न होती। पर इसके लिए तुमने मुझे लिफ्ट नहीं दी।’
‘फिर?’
‘क्योंकि जो ज़िन्दगी तुम गुज़र रही हो वो तुम्हारी पसंद नहीं मज़बूरी है। तुम्हारे अंदर भी सारी तकलीफें सारी परेशानियां किसी से कह देने की ख्वाहिश होती है पर शायद कोई है नहीं और मैं शायद तुम्हें इस रूप में फिट दिखा होऊँ।’
‘ओके, चलो मैं स्वीकार करती हूँ कि वाकई ऐसा है और मैं अपना पहला सच स्वीकार करती हूँ कि मैं एक रंडी हूँ।’ कहते वक़्त उसकी आँखें मुझ पर ऐसे टिकी थीं जैसे मेरे रिएक्शन को गौर से पढ़ना चाहती हो।
मैं हंस पड़ा- ऐसा होता तो तुम इतने गौर से मेरे एक्सप्रेशन को पढ़ने की कोशिश न करती कि तुम्हारी बात ने मुझ पर क्या असर डाला बल्कि कहते वक़्त आवाज़ में अपराधबोध की भावना होती।
इस बार वह मुस्कराई और मैंने साफ़ महसूस किया कि उसकी आँखें भीग गई थीं।
मैं बस चुपचाप उसे देखता रहा, उन निगाहों से जैसे कह रहा होऊँ कि तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।
इस बार वह बड़ी देर बाद बोली- शायद बहुत तजुर्बेकार हो, मैंने जो खुद में छुपाया हुआ है उसे मेरी आँखों और हावभाव से पढ़ लेते हो। मेरे साथ सोना चाहते हो?’
‘शायद ही किसी पल मुझमें ये ख्वाहिश पैदा हुई हो। मेरी नज़र में सेक्स लिंग और योनि के घर्षण से इतर भी कोई चीज़ है। मैं वह मज़ा चूमकर, छूकर, सहलाते हुए और यहाँ तक बात करते हुए भी महसूस कर सकता हूँ।
तुम मेरी इच्छा की फ़िक्र मत करो… मैं तुम्हारे अंदर की उस लड़की को बाहर निकालना चाहता हूँ जो अंदर ही अंदर घुट रही है।
शायद इससे मुझे कुछ न हासिल हो मगर तुम अपने को बेहद हल्का महसूस करोगी।’
‘तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर इस हद तक भरोसा कर पाऊँगी?’
‘कोशिश करो… अच्छा चलो अपने बचपन के बारे में कुछ बताओ।’
वह फिर काफी देर तक मुझे गौर से देखती समझने की कोशिश करती रही लेकिन अंततः उसे बोलना पड़ा।
अपने बचपन से जुडी कई बातें उसने बताईं और मैं बड़ी तवज्जो से उन्हें सुनता रहा। किसी मोड़ पर उसे ये अहसास नहीं होने दिया कि मेरी दिलचस्पी उसकी बातों में नहीं।
ऐसे ही एक घंटा गुज़र गया और वह वहाँ से चली गई।
फिर फोन पे ऐसे ही मैं उसे छेड़ कर कुरेदता रहा और वह कुछ न कुछ बताती रही… बीच में तीन बार शाम में छुट्टी के बाद वह मेरे साथ घंटे भर के लिए घूमी भी और मैं उसे बोलने पर मजबूर करता रहा।
मैं अपनी बातें बहुत कम ही कहता था मगर उसकी हर बात बड़ी गौर से सुनता था और रियेक्ट भी करता रहता था जिससे उसे लगे कि मैं उसकी बातों में वाकई इंटरेस्टेड हूँ।
और फिर उससे दोस्ती के एक महीने बाद उसने मेरे लिये छुट्टी की।
वह अपने अंदर का सारा उद्गार निकाल फेंकना चाहती थी इसलिए किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहाँ हम सुबह से शाम तक रह सकें।
मैं उसे टीले वाली मस्जिद के साथ वाली रोड से होता कुड़िया घाट ले आया जहाँ हम जैसे एकाकी पसंद लोगों के लिए काफी स्पेस उपलब्ध था।
हम दिन भर यहीं रहे… दोपहर में भूख लगी तो वहाँ से निकल के खदरे पहुंचे और थोड़ा खा पीकर वापस वहीं पहुंच गए और शाम तक वहीं रहे।
इस बीच उसने अपनी हज़ारों बातें बताई।
कहीं कुछ छूटा नहीं… एक-एक छोटी बड़ी बात, बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर अब तक!
कभी किसी बात को बताते बच्चों की तरह खुश हो जाती, तो कभी आंखें भीग जातीं, कहीं एकदम गुस्से में आ कर मुट्ठियां भींचने लगती तो कहीं एकदम उत्तेजित हो जाती।
मैं उसकी हर बात उतनी ही गौर से सुनता रहा जितना वो अपेक्षा कर रही थी।
और अंत में उसके अंदर का सारा लावा निकल चुका तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी आइडेंडिटी हाइड कर दी जाए तो उसकी कहानी ऐसी थी जो इस मंच पर आप लोगों से साझा की जा सकती है।
मैंने वही कोशिश की है… कहानी में रोमांच पैदा करने के लिए मैंने रचनात्मक छूट अवश्य ली है लेकिन कहानी के सार-सत्व से कोई छेड़छाड़ नहीं की।
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07-17-2020, 11:57 AM,
#23
RE: raj sharma story कामलीला
मूलतः मैं उसके बचपन या जवानी में नहीं जाऊँगा बल्कि उसकी कहानी वहाँ से शुरू करूंगा जहाँ से उसका नैतिक पतन हुआ।
नैतिक पतन मेरे हिसाब से एक बेहूदा और अव्यवहारिक शब्द है जो किसी के चरित्र को डिफाइन नहीं करता, पर चूंकि सामाजिक परिपेक्ष्य में प्रचलन में है तो इसी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
वह इस वक़्त बत्तीस की वय की थी और ये नैतिक पतन अब से दो साल पहले हुआ था जब उसने सारे संस्कार, सामाजिक मूल्य और नैतिकता के ओढ़ने बिछौने उठा कर ताक पर रख दिए थे और अपनी शारीरिक इच्छाओं के आगे समर्पण कर दिया था।
वह लखनऊ के एक पुराने मोहल्ले में पुश्तों से आबाद थी जिसके कारण एक बड़ा सा घर विरासत में मिला हुआ था।
बाप अमीनाबाद की एक कपड़ों की दुकान पर मुनीम थे और जब तक जिन्दा थे, घर के हालात ठीक ही थे।
उसकी मां को गुज़रे पांच साल हो चुके थे… घर में उसके सिवा पिताजी, एक मानसिक विकलांग चाचा, उसकी छोटी बहनें रानो, आकृति और एक छोटा भाई बबलू था।
दो साल पहले बाबा एक हादसे का शिकार होकर चल बसे थे और अब वे भाई बहन ही एक दूसरे का सहारा थे।
पीढ़ियों से वहीं रहते आये थे इसलिए सबसे जान-पहचान भी थी और वक़्त ज़रूरत सभी साथ और सहारे के लिये उपलब्ध भी थे लेकिन कोई माँ बाप की जगह की पूर्ति कर सकता है क्या?
वह रंग में सांवली थी, शरीर में भी कम लंबाई और थोड़े भरे शरीर की थी, पढ़ाई भी सिर्फ बारहवीं तक की थी… ऐसे ही उससे पांच साल छोटी रानो भी साधारण शक्ल-सूरत, और हल्की रंगत की बेहद दुबली पतली लड़की थी।
लाख कोशिश करके भी पहले उसके माँ-बाप और बाद में उसके बाबा उन दोनों बहनों की शादी न करा पाए थे तो मोहल्ले वाले इस सिलसिले में भला क्या कर पाते।
पर जिसकी शादी नहीं होती, उसमें क्या उमंगें नहीं होतीं, जवानी के तूफ़ान उन्हें बिना छुए गुज़र जाते हैं, उनके शरीर में वह ऊर्जा नहीं पैदा होती जो एक सम्भोग की डिमांड करती है… और ऐसे में सिवा घुटने के, कुढ़ने के उनके पास विकल्प ही क्या होते हैं।
मर्यादा, सामाजिक मूल्य, संस्कार और परिवार का सम्मान… ये वो वेदियां हैं जिनपे किसी ऐसी विकल्पहीन स्त्री की शारीरिक इच्छाओं की बलि ली जाती है।
यह बलि वह भी देती आ रही थी।
शरीर में सहवास से शांत हो सकने वाली ऊर्जा तो सोलहवें सावन से ही शुरू हो गई थी लेकिन इन्हीं मूल्यों को ढोते-ढोते वह चौदह और साल गुज़ार लाई थी और अब तो उसमें इन मर्यादाओं के विरुद्ध लड़ जाने की इच्छा भी बलवती होने लगी थी।
रानो से तीन साल छोटा बबलू और उससे दो साल छोटी आकृति उन दोनों बहनों से अलग गोरे चिट्टे और खूबसूरत थे।
उसने बहुत पहले कई बार माँ-बाबा को किसी ऐसी बात पे कलह करते देखा था जिससे उसने अंदाज़ा लगाया था कि दोनों शायद उसकी माँ के बच्चे तो थे लेकिन उनका पिता कोई और था।
सच्चाई कुछ भी हो पर उनके लिये तो वह माँ-जाया भाई बहन ही थे।
रानो भले उससे पांच साल छोटी थी लेकिन वही उसकी सबसे करीबी सहेली थी।
आखिर दोनों एक ही कश्ती की सवार थी।
दोनों की पीड़ा साझा थी… तो ऐसी हालात में उनका एकदूसरे के दुखदर्द का साथी बन जाना कौन सा बड़ी बात थी।
बबलू बीबीए के अंतिम सेमेस्टर में था और आकृति बीटेक कर रही थी।
उन दोनों की शादी के लिए जो धन संचित करके रखा गया था, अब ऐसी कोई उम्मीद न देख दोनों बड़ी बहनों ने वह धन दोनों छोटे भाई बहन की पढाई के लिए लगाने का फैसला किया था।
हालांकि रोज़ की गुज़र बसर के लिए बाबा के मरने के बाद से ही शीला ने एक दुकान पर नौकरी कर ली थी, रानो रंजना के घर बाकायदा ट्यूशन क्लास चलाती थी जहाँ कई छोटे बच्चे रानो और रंजना से पढ़ते थे।
रंजना उन चौधरी साहब की एक पैर से विकलांग बेटी थी जिनके घर से उन लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध थे और बाबा के गुजरने के बाद अब कभी ऐसी गार्जियन की ज़रूरत होती थी तो यह भूमिका वही चाचा-चाची निभाते थे।
उनके परिवार में रानो की हमउम्र विकलांग बेटी के सिवा उससे सात साल छोटा बेटा सोनू था जो बीए की पढ़ाई कर रहा था।
रंजना भी उसी कश्ती की सवार थी जिस पे रानो और शीला थीं।
उम्र हो गई थी लेकिन विकलांग और खूबसूरत न होने की वजह से उसका भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था और वह भी उन दोनों बहनों की ही तरह अपनी ही आग में झुलस रही थी।
रानो की ही तरह बबलू भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मोहल्ले की एक कोचिंग में पढ़ाने जाता था।
दो बजे कॉलेज से आकर चार बजे जाता था और रात को आठ बजे आता था।
उनकी सबसे छोटी बहन आकृति ऐसा कोई कमाई वाला काम नहीं करती थी, बल्कि वह तो कॉलेज से आकर कोचिंग पढ़ने जाती थी और बारी बारी से कोई न कोई घर में रहता था।
घर में मानसिक रूप से अपंग चाचा एक ऐसी ज़िम्मेदारी था जो उन्हें उसके मरने तक उठानी थी।
वह उनके पिता से काफी छोटा था और शीला से आठ साल बड़ा था। दिमाग सिर्फ खाने, उलटे सीधे ढंग से कपड़े पहन लेने, हग-मूत लेने तक ही सीमित था।
दिमाग के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी में भी ऐसी समस्या थी कि बहुत ज्यादा देर न खड़ा रह सकता था न चल फिर सकता था। बस कमरे तक ही सीमित रहता था।
एक तरह से जिन्दा लाश ही था, जिसके लिए वह लोग मनाते थे कि मर ही जाए तो उसे मुक्ति मिले और उन्हें भी…
लेकिन किसी के चाहने से कोई मरता है क्या।
सेक्स असल में शरीर में पैदा होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा है जिसे वक़्त-वक़्त पर निकालना ज़रूरी होता है, न निकालें तो यह आपको ही खाने लगती है।
इस यौनकुंठा के शिकार सिर्फ वही दोनों बहनें नहीं थीं उस घर में, बल्कि वह चाचा भी था जिसका दिमाग भले कुछ सोचने समझने लायक न हो लेकिन उसके पास एक यौनांग था और उसके शरीर में भी वह ऊर्जा वैसे ही पैदा होती थी जैसे किसी सामान्य इंसान के शरीर में।
बल्कि शायद दिमाग की लिमिटेशन के कारण किसी सामान्य इंसान से ज्यादा ही पैदा होती थी।
कभी किसी वक़्त में प्राकृतिक रूप से या किसी इत्तेफ़ाक़ से उसे हाथ के घर्षण के वीर्यपात करने के तरीके का पता चल गया होगा और अब वह रोज़ वही करता था।
उसे न समझ थी न ज्ञान… कई बार तो वह भतीजियों की मौजूदगी में ही हस्तमैथुन करने लगता था और उन्हीं लोगों को हटना पड़ता था।

हमेशा से ऐसे हर हस्तमैथुन के बाद उसने बाबा को ही उसकी सफाई धुलाई करते देखा था और जब से बाबा गुज़रे थे, यह ज़िम्मेदारी उस पर आन पड़ी थी।
लड़की होकर यह सब करना उसे वितृष्णापूर्ण और अजीब लगता था लेकिन विकल्पहीनता के कारण करना उसे ही था। वही घर की बड़ी थी और किसी बड़े की सारी ज़िम्मेदारियां उसे ही निभानी थी।
न उनके घर में कोई स्मार्टफोन था, न कंप्यूटर, लैपटॉप और न ही ऐसी किसी जगह से उसका कोई लेना देना था जो वह कभी पोर्न देखती या सेक्स ज्ञान हासिल करती और न ही उसकी कोई ऐसी सखी सहेली थी जो उसे यह ज्ञान देती।
सेक्स की ज़रूरत भर जानकारी तो कुदरत खुद आपको दे देती है लेकिन व्यावहारिक ज्ञान तो आपको खुद दुनिया से हासिल करना होता है जिसमें वह नाकाम थी।
उसे पहला और अब तक का अकेला परिपक्व लिंग देखने का मौका तो काफी पहले ही मिल गया था, जब एक दिन चाचा ने उसकी मौजूदगी में ही उसे निकाल कर हाथ से रगड़ना शुरू कर दिया था।
तब वह घबरा कर भागी थी।
लेकिन अब भाग नहीं सकती थी।
अब तो उसे जब तब देखना पड़ता था और जब भी चाचा हस्तमैथुन करता था तो घर पे वह होती थी तो वह साफ़ करती थी या रानो हुई तो वह साफ करती थी।
वैसे ज्यादातर चाचा को रात में सोने से पहले ही हस्तमैथुन की इच्छा होती थी और इस वजह से ये ज़िम्मेदारी दस में से नौ बार उसे ही उठानी पड़ती थी।
चाचा को जब भी खाने पीने या किसी भी किस्म की हाजत होती थी तो वह बड़ी होने के नाते उसे ही बुलाता था। उसका नाम भी ठीक से नहीं ले पाता था तो ‘ईया’ कहता था।
जब वह हस्तमैथुन करके अपने कपडे ख़राब कर चुकता था तो ‘ईया’ की पुकार लगाता था और उसे पहुंच कर चाचे को साफ़ करना होता था।
पहले उसने कभी चाचा का लिंग देखा था तो इतना ध्यान नहीं दिया था पर अब देती थी। उसका सिकुड़ा रूप, उसका उत्तेजित रूप… सब वह बड़े गौर से देखती थी।
और ये देखना उसके अवचेतन में इस कदर घुस गया था कि सोने से पहले उसके मानस पटल पर नाचा करता था और सो जाती थी तो सपने में भी पीछा नहीं छोड़ता था।
उसे साफ़ करते वक़्त जब छूती थी, पकड़ती थी तो उसकी धड़कनें तेज़ हो जाया करती थीं, सांसों में बेतरतीबी आ जाती थी और एक अजीब से सनसनाहट उसके पूरे शरीर में दौड़ जाती थी।
उसने कोई और परिपक्व लिंग नहीं देखा था और जो देख रही थी उसकी नज़र में शायद सबके जैसा ही था।
वह जब मुरझाया हुआ होता था तब भी सात इंच तक होता था और जब उत्तेजित होता था तो दस इंच से भी कुछ ज्यादा ही होता था और मोटाई ढाई इंच तक हो जाती थी।
उसकी रंगत ऊपर शिश्नमुंड की तरफ ढाई-तीन इंच तक साफ़ थी और नीचे जड़ तक गेहुंआ था, जिसपे मोटी-मोटी नसें चमका करती थीं।
तब उसे भारतीय पुरुषों के आकार का कोई अंदाज़ा नहीं था और वो इकलौता देखा लिंग उसे सामान्य लिंग लगता था, उसे लगता था सबके ऐसे ही होते होंगे।
सेक्स के बारे में उसे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। बस इतना पता था कि यह भूख शरीर में खुद से पैदा होती है और इस पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता।
एक तरह की एनर्जी होती है जिसे शरीर से निकालना ज़रूरी होता है और इसे निकालने के तीन तरीके होते हैं। पहला सम्भोग, दूसरा हस्तमैथुन और तीसरा स्वप्नदोष।
पहले दो तरीकों से आपको खुद ये ऊर्जा बाहर निकालनी है और खुद से नहीं निकाली तो स्वप्नदोष के ज़रिये आपका शरीर खुद ये ऊर्जा बाहर निकाल देगा।
उसके लिये तीसरा तरीका ही जाना पहचाना था। सम्भोग का कोई जुगाड़ नहीं था, हस्तमैथुन के तरीकों से अनजान भी थी और डरती भी थी। बस स्वप्नदोष के सहारे ही जो सुख मिल पता था, उसे ही जानती थी।
इन सपनों ने उसे अट्ठारह से अट्ठाइस तक बहुत परेशान किया था जब अक्सर बिना चेहरे वाले लोग (जिनके चेहरे याद नहीं रहते थे) उसके साथ सहवास करते थे और वह स्खलित हो जाती थी।
चूंकि उसने एक साइज़ का ही लिंग देखा था जो उसके अवचेतन में सुरक्षित हो गया था और उसी लिंग को वो योनिभेदन करते देखती थी… समझना मुश्किल था कि कैसे इतनी छोटी जगह में इतनी मोटी और बड़ी चीज़ घुस पाती थी।
लेकिन सपने में तो घुसती थी और उसे दर्द भी नहीं होता था बल्कि अकूत आनन्द की प्राप्ति होती थी।
पर सपनों पर किसका वश चला है… वह रोज़ ऐसे रंगीन सपने देखना चाहती थी पर वह दो तीन महीने में आते थे और बाकी रातें वैसे ही तड़पते, सुलगते गुज़रती थीं।
रानो भले ही शीला की सखी जैसी बहन थी लेकिन चाचा का हस्तमैथुन और इसके बाद उसके लिंग और जहां-तहां फैले उसके वीर्य को साफ़ करना एक ऐसा विषय था जिसपे दोनों चाह कर भी बात नही कर पाती थीं।
पर हर गुज़रते दिन के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
जितना वह चाचा के लिंग को छूती, पकड़ती, साफ़ करती, उतनी ही उसकी दिलचस्पी उसमें बढ़ती जा रही थी और उसके पकड़ने छूने में एक अलग भावना पैदा होने लगी थी।
उस दिन वह घर पहुंची थी तो उसका खून खौल रहा था, दिमाग रह रह कर कह रहा था कि या तो वह चंदू का खून कर दे या खुद ही आग लगा ले।
चंदू समाज का कोढ़ था, पूरे मोहल्ले के लिये नासूर था। वह उसे आज से नहीं जानती थी बल्कि तब से जानती थी जब बचपन में वह उसकी फ्रॉक ऊपर करके चड्डी उतार कर भाग जाया करता था और वह रोते हुए घर आती थी।
वह उससे भी दस साल बड़ा एक मवाली, मोहल्ले का छंटा हुआ बदमाश था। बचपन से ही लड़ाई झगड़े करता आया था और अब हिस्ट्री शीटर बन चुका था।
उस पर मर्डर, मर्डर अटैम्प्ट, रेप और एक्सटॉर्शन जैसे कई केस चल रहे थे… अक्सर पकड़ा जाता मगर पहुंच ऐसी बना रखी थी कि कुछ दिन में ही छूट जाता था और अब तो स्थानीय विधायक ने अपनी सरपरस्ती में ले लिया था।
वह पूरे मोहल्ले में आतंक फैलाये रहता था, अपने चमचों के साथ मोहल्ले में ही इधर उधर डेरा जमाये रहता था। जुआ, शराब, रंडीबाज़ी कोई शौक बाकी नहीं था और मोहल्ले की लड़कियों से छेड़छाड़ तो उसे खास पसंद थी।
और दिखने में पूरा राक्षस था। साढ़े छह फुट से ऊपर तो लंबाई थी और उसी अनुपात में चौड़ाई। हराम की खा-खा के ऐसा सांड हुआ पड़ा था कि लोगों को देखे खौफ होता था, उसके खिलाफ कोई कुछ बोलता क्या!
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07-17-2020, 11:57 AM,
#24
RE: raj sharma story कामलीला
एक बार एक परिवार ने उसके खिलाफ छेड़खानी की शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन अंजाम यह हुआ था कि पुलिस तो उसका क्या कुछ बिगाड़ती, चंदू ने उस लड़की सुनयना के घर घुस के उसके साथ गलत कर दिया था और कोई कुछ नहीं कर पाया था।
उसकी दहशत ऐसी थी कि उसके खिलाफ बोलने के लिये कोई नहीं खड़ा होता था… हर किसी को सिर्फ बर्दाश्त ही करना होता था।
आज वह पहली बार उसकी फब्ती का शिकार नहीं हुई थी, पहले भी कई बार हो चुकी थी पर आज उसने हद ही कर दी थी।
आज जब अपनी गली में घुसी थी तो जाने कहां से वह भूत की तरह पीछे आ गया था और एकदम उसके नितम्बों के बीच सीधे उंगली घुसाते हुए बोला था- और गुठली, अभी तक चूत वैसी ही सीलपैक्ड रखे है या चुदवाना शुरू कर दिया है?

वह बचपन से ही ‘गुठली’ कहता था, क्यों कहता था उसे पता नहीं… उसकी मोटी उंगली उसने अपने गुदाद्वार में घुसती महसूस की थी और उसके शब्दों ने जैसे उसकी कानों की लवों को सुलगा दिया था।
उसे इतना तेज़ गुस्सा आया कि जी किया, बस उस पर पिल पड़े… पर जानती थी कि यह संभव नहीं था, साथ ही ज़िल्लत और घबराहट से उसका पसीना छूट गया था।
उसने खुद को एकदम आगे उचकाते हुए चंदू की उंगली से बचाया और दौड़ने के अंदाज़ में घर की तरफ चली। उसे लगा था चंदू पीछे आएगा पर वह पीछे नहीं आया।
हां उसकी आवाज़ ज़रूर आई- अभी हम जिन्दा हैं, कोई जुगाड़ न बना हो तो बताना।
वह घर पहुंची थी तो उसका मूड बहुत ख़राब था।
ऐसी हरकतें कई बार उसने रानो के साथ भी की थी और आकृति के साथ तो कई बार ब्रेस्ट पंचिंग की थी, जिसके बाद वह हमेशा रोते हुए घर लौटी थी।
पर न चंदू के खिलाफ वह पहले कुछ कर पाए थे और न अब हो पाने वाला था… सिवा उससे नफरत करने और कोसने के।
रानो के पूछने पर उसने जनानी गालियां देते हुए बात बताई और दोनों ही उसे कोसने लगीं।
तब रानो ने उसे एक और मनहूस खबर सुनाई कि आज चाचे को शायद ठंड सता रही होगी कि किचन में तापने पहुंच गया और सीधा हाथ जला बैठा था।
यह वाकई उनके लिए बुरी खबर थी क्योंकि उसका बायां हाथ बेहद कमज़ोर था और अपने सारे काम वह दाएं हाथ से ही करता था और वह भी अब कुछ दिन के लिए बेकार हो गया था।
रानो ने बताया कि अभी उसे अपने हाथों से खाना खिलाया है।
लैट्रीन की दिक्कत नहीं थी क्योंकि उसके लिए अटैच्ड बाथरूम था, जहां सेल्फ सर्विस वाला कमोड था, पर खिलाना, कपड़े उतारना पहनाना अब उन्हें करना पड़ेगा।
हालांकि यह उनके लिए बड़ी चिंता का विषय था लेकिन फ़िलहाल आज का काम हो गया था तो सबके खाने के बाद रानो भी ऊपर ही चली गई थी।
टीवी उन्ही लोगों के कमरे में था जहां पहले वे बहनें सोती थीं।
घर करीब चार हज़ार स्क़्वायर फिट में बना था लेकिन गलियारे के एंट्रेंस के बाद एक साइड किचन, उलटे हाथ की तरफ दो कमरे, उनके आगे बरामदा और उसके बाद बड़ा सा दलान।
जिसके अंत में एक और बरामदा जिसमें कभी जब घर में बाबा ने गाय पाल रखी थी तो उसे बांधते थे, उसी साइड सबके लिए कॉमन लैट्रीन बाथरूम और उसी की छत पर दो कमरे बने थे जिसकी सीढियां आँगन से गई थीं।
एक कमरे में बबलू अकेला रहता था और दूसरे में वे तीनों बहनें… नीचे एक अटैच्ड बाथरूम वाला कमरा चाचा के लिये रिज़र्व था और दूसरे में पहले माँ-बाबा और बाद में बाबा और बाबा के जाने के बाद वह रहती थी।
वहां चाचा की ही वजह से किसी को रहने की ज़रूरत हमेशा रहती थी। अब चूंकि वही सब ज़िम्मेदारियों को ओढ़े थी तो उसे ही वहां रहना था।
सबसे अंत में रानो के जाने के बाद उसने कपड़े बदले और लेट गई।
चंदू की उंगलियों की सख्त चुभन उसे अब भी अपने नितंबों की दरार में महसूस हो रही थी और चंदू से शदीद नफरत के बावजूद भी ये चुभन उसे टीस रही थी।
जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसके नितंबों के बीच मौजूद वह छेद, जहां तक चंदू की उंगली पहुंची थी, उस स्पर्श को फिर से मांग रहा हो।
जैसे उस पर खुद उसका अख्तियार न हो, जैसे वह खुद उससे अलग कोई वजूद हो। शरीर में पैदा होती ऊर्जा कभी गुस्से में ढल जाती तो कभी बेचैनी में।
तभी चाचा की कराह ने उसकी तन्द्रा तोड़ दी।
उसे लगा जैसे चाचा किसी तकलीफ में हो… उसने ध्यान देकर सुना तो चाचा की एक कराह और सुनाई दी।
उसकी बेचैनी बढ़ गई।
वह बिस्तर से उठ गई, कमरे की लाइट जलाने की ज़रूरत नहीं महसूस की और ऐसे ही निकल कर पड़ोस के चाचा वाले कमरे में पहुँच गई।
चाचा के कमरे में हमेशा एक नाईट बल्ब जला करता था ताकि वह अंधेरे में कहीं डर न जाए या गिर गिरा न पड़े।
दरवाज़ा खुला ही रहता था।
और रोशनी में वह देख सकती थी कि चाचा ने पजामा घुटनों तक खिसकाया हुआ था और अपने बड़े से लिंग को पकड़े हुए था जो पूरी तरह उत्तेजित अवस्था में था।
उसका हाथ जला हुआ था और इस अवस्था में नहीं था कि वह उससे हस्तमैथुन कर सके पर शारीरिक इच्छा के आगे कमज़ोर पड़ के वही कर रहा था और यही उसकी तकलीफ का कारण था।
तभी चाचा के मुंह से एक कराह और निकली और वह असमंजस में पड़ गई कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे।
उसने जल्दी से चाचा के पास पहुंच कर उसका हाथ लिंग से हटाया और कंधे तक ऊपर कर दिया। उसके हाथ में लगी क्रीम उसके लिंग में पुंछ गई थी। शीला ने उसके सरहाने रखी क्रीम फिर उठाई और उसके हाथ में लगा दी।
फिर उसके लिंग की तरफ ध्यान दिया तो पाया कि अब चाचा अपने उलटे हाथ से उसे रगड़ रहा था।
पर उस हाथ में इतनी जान ही नहीं थी… जल्द ही थक कर झूल गया और वह बेबसी से शीला को देखने लगा।
शीला ने उसकी आँखों में देखा तो लगा जैसे उनमें पानी आ गया हो और वह एकदम झुरझुरी लेकर रह गई… क्या करे वह अब?
उसे झिझकते देख चाचा ने फिर अपना हाथ नीचे ले जाना चाहा तो शीला ने उसे पकड़ लिया।
चाचा उसे छुड़ाने के लिए मचलने लगा।
अंततः उसे यही समझ में आया कि चाचा कोई सामान्य इंसान तो था नहीं जो स्थिति को समझ सकता। अगर उसे हस्तमैथुन की इच्छा थी तो बिना किए शायद न रह पाये और करने की हालत में खुद था नहीं।
एक ही विकल्प था कि उसके लिए अब शीला इस कार्य को अंजाम दे।
हलाकि यह उसके लिए अब तक गन्दा, घिनौना और ऐसा काम था जो उसके स्त्रीसुलभ आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाला था लेकिन इधर जब से उसने चाचा के लिंग को खुद साफ़ करना शुरू किया था उसकी मनोदशा बदलने लगी थी।
अब शायद उसमें ऐसे किसी भी कार्य के लिये विरोध की भावना बेहद क्षीण पड़ चुकी थी। उसने कुछ पल खुद को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार किया और फिर कांपते झिझकते हाथ से उसे थाम लिया।
बेहद गर्म लिंग… उसके कल्पना ने एक तपते हुए लोहे की गर्म रॉड से उसकी तुलना की।
लिंग पर उभरी मोटी-मोटी नसों में अजीब सा गुदगुदापन था।
वह अपना हाथ इतना ऊपर ले गई जहां लिंग के अग्रभाग को छू सके।
एक रबर के टमाटर जैसा महसूस हुआ।
जब वह उसके मुरझाये हुए लिंग को स्खलन के पश्चात् साफ़ करती थी तब ऐसा नहीं होता था पर अभी था और गर्म भी तब नहीं होता था जैसे अभी था।
फिर इतना नीचे ले गई कि हथेली लिंग की जड़ में लटकते बड़े से अंडकोषों से स्पर्श हुई… वे भी जैसे फूल पिचक रहे थे।
पर उसके हाथ ने बेहद धीमे अंदाज़ में क्रिया की थी जिससे चाचा को वह घर्षण नहीं मिला जो चाहिए था और उसने खुद कमर उचका उचका कर लिंग खुद से ही ऊपर नीचे किया तो शीला समझ सकी कि उसे कैसे करना था।
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07-17-2020, 11:57 AM,
#25
RE: raj sharma story कामलीला
वह थोड़ी तेज़ गति से हाथ ऊपर-नीचे करने लगी तो चाचा ने कमर चलानी बन्द कर दी।
अब शीला के हाथ की हरारत चाचा को जो भी फीलिंग दे रही हो लेकिन उसके लिंग की हरारत शीला के जिस्म में ऐसी सनसनाहट पैदा कर रही थी कि उसकी योनि में अजीब सी हलचल होने लगी थी।
शायद उसका दिमाग इस बारे में कुछ भी नही सोच रहा था लेकिन पुरुष संसर्ग को तरसा उसका शरीर खुद अपनी तरफ से प्रतिक्रिया दे रहा था।
ऐसी हालत में उसे शर्म भी आ रही थी और डर भी लग रहा था कि दरवाज़ा खुला था, कहीं कोई भाई बहन नीचे न आ जाएं और उसे यह करते देख लें।
उसके अवचेतन में कहीं नैतिकता के कांटे भी सुरक्षित थे जो उसके दिमाग के एक हिस्से को कचोट रहे थे कि वह उसका सगा चाचा था और यह अनुचित था… अनैतिक था।
पर विकल्प क्या था?
शर्म, डर, झिझक के अहसास और नैतिक-अनैतिक की दिमाग में चलती बहस के बीच उसका हाथ तेज़ी से हरकत करता रहा और उसने महसूस किया कि चाचा के मुंह से अब जो आहें निकल रही थीं वे आनन्द भरी थीं।
फिर जब उसका तेज़ी से चलता हाथ थकने की कगार पर पहुंच गया तो उसने महसूस किया कि चाचा की कमर फिर चलने लगी है और वह जैसे शीला के हाथ के बने छल्ले को योनि समझ कर भेदन करने लगा हो।
और फिर वह अकड़ गया।
एकदम ज़ोर से उसका लिंग फूला था और उसके छेद से सफ़ेद धातु की बड़ी सी पिचकारी ऐसी छूटी थी कि सीधे शीला के कपड़ों पे आई थी।
उसने हड़बड़ा कर लिंग छोड़ दिया था।
पर उसी पल झटके से चाचा ने सीधे हाथ से उसे पकड़ लिया था और उसे ऊपर नीचे करने लगा… वीर्य की कुछ और पिचकारियां छूटी थीं जो इधर उधर गिरीं थी।
और यह ऐसी तेज़ी से हुआ था कि वह चाह कर भी उसके हाथ को रोक नहीं पाई थी और चाचा ने अंत में सख्ती से हाथ से दबोच लिया था और अब वह उसकी मुट्ठी में कैद ठुनक रहा था।
फिर मुट्ठी ढीली पड़ी तो उसने चाचे का हाथ लिंग से दूर किया और गौर से लिंग को देखने लगी जिसकी तनी और चमकती त्वचा अब ढीली पड़ने लगी थी।
उसके देखते देखते वह सिकुड़ कर उतना छोटा हो गया जितना साफ़ करने में वह देखती थी।
फिर उठी, चाचा की सफाई के लिये रिज़र्व रखा कपड़ा बाथरूम से गीला किया, पहले खुद पर आये वीर्य को साफ़ किया और फिर चाचा को साफ़ करने लगी।
चाचा अब आँखें बन्द किये ऐसे पड़ा था जैसे सो गया हो।
हाथ की पुंछ गई क्रीम उसने एक बार और लगाई।
अच्छे से साफ़ कर चुकने के बाद शीला ने उसका पजामा ऊपर खिसकाया और उसे सोता छोड़ कर अपने कमरे में आकर लेट गई।
अब जल्दी नींद नहीं आनी थी, जो हुआ था पहली बार था लेकिन लिंग और हाथ के घर्षण ने उसकी सुप्त पड़ी इच्छाओं में ऐसी हलचल मचाई थी कि शरीर का एक एक हिस्सा जैसे टीस रहा था, कसक रहा था।
उसने अपनी योनि को छूकर देखा, वह भी चिपचिपी हुई पड़ी थी जैसे बही हो, जबकि उसके बहने का उसे अहसास भी नहीं हुआ था।
शरीर अपनी ज़रूरत खुद समझता है और उसके हिसाब से स्वतः ही प्रतिक्रिया देता है, चाहे आप दिमाग से उसकी तरफ ध्यान दें, न दें।
उस रात बड़ी मुश्किल से उसे नींद आई।
अगले दिन रोज़ जैसी दिनचर्या रही और कोई ऐसी बात नही हुई जो काबिले ज़िक्र हो। उस रोज़ चाचा जल्दी ही सो गया था इसलिये कोई अतिरिक्त परेशानी सामने न आई।
वह रानो को यह बात बताना चाहती थी मगर कोशिश करके भी हिम्मत ना जुटा पाई।
बहरहाल उसके अगला दिन भी वैसे ही गुज़र गया जैसे आमतौर पर उनके गुज़रते थे लेकिन उसके अगली रात चाचा को फिर वही हाजत महसूस हुई।
और इस बार उसने खुद से करना नहीं शुरू किया बल्कि ‘ईया-ईया’ की पुकार लगा कर उसे बुलाया था।
पहले उसे लगा शायद कोई ज़रूरत हो लेकिन जब उसके पास पहुंची तो वह पजामा खिसकाए, लिंग निकाले पड़ा था।
इस बार उसने हाथ नहीं लगाया था और उसे ऐसी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा था जैसे कह रहा हो कि तुम करो, जैसे किया था।
उसकी मानसिक अवस्था किसी अबोध बच्चे जैसी थी, जिसे कोई चीज़ या क्रिया अच्छी लगी तो वह चाहता है कि वह बार बार वैसी ही हो।
पहले उसके जले हाथ की वजह से मज़बूरी में शीला ने जो किया था, आज वही वह चाहता था कि शीला ही करे। अब यह तो जगज़ाहिर बात है कि अपने हाथ के हस्तमैथुन से ज्यादा मज़ा दूसरे के हाथ से आता है और इतना फर्क तो अविकसित दिमाग के बावजूद उसे समझ में आता था।
वह उलझन में पड़ गई कि उसने अनजाने में चाचा को एक नया रास्ता दिखा कर सही किया था या गलत? क्या अब वह इसी चीज़ की इच्छा बार-बार नहीं करेगा कि हर बार उसका हस्तमैथुन शीला ही करे।
चाचा ने उसे फिर पुकारा तो उसने कदम बढ़ाये।
डर आज भी इस बात का था कि कोई देख न ले। उसने एहतियातन दरवाज़े को बंद करके सिटकनी लगा दी।
कमरे में वेंटिलेशन के लिए एक बड़ा सा रोशनदान था और एक बिना पल्ले वाली खिड़की थी जो आँगन में खुलती थी। उसपे पर्दा पड़ा रहता था मगर आवाज़ें तो बाहर जाती ही थीं।
दिमाग में फिर नैतिक-अनैतिक की अंतहीन सी बहस शुरू हो गई पर लड़खड़ाते कदम चाचा के बिस्तर तक जाकर ही रुके।
वह चाचा को देखते शर्माई, झिझकी लेकिन चाचा को न उसकी मनोदशा का अहसास था और न ही समझ। वह बस कल जैसा सुख चाहता था।
शीला ने कपकपाते हाथ से उसके लिंग को पकड़ ही लिया और चाचे की आँख बन्द हो गई।
अभी उसमें इतना तनाव नहीं आया था जितना उसने कल देखा था लेकिन जब उसने उसे ऊपर नीचे सहलाना शुरू किया तो वह वैसे ही कठोर होता गया जैसे कल था।
सहलाते सहलाते उसके दिमाग में चलती सही-गलत, नैतिक-अनैतिक की बहस कमज़ोर पड़ती गई और उसका ध्यान अपने जिस्म में पैदा होती सनसनाहट और लहरों की ओर जाने लगा।
वह रात में ब्रा नहीं पहनती थी, नीचे पैंटी होती थी और ऊपर से नीचे तक लंबी नाइटी।
स्वतःस्फूर्त तौर पर सीधे हाथ को चाचे के लिंग पर चलाते उसका बायां हाथ अपने वक्ष-स्थल पर चला गया और उसके मुंह से ‘सी’ निकल गई।
ऐसा पहली बार नहीं था… उसने पहले भी अपने वक्षों को अकेली रातों में जागते-सुलगते दबाया था, सहलाया था पर शायद उसे वह फील नहीं मिला था जो आज हाथ लगाने पर मिला।
ऐसा क्यों?
जो हो रहा है, वह तो गलत है न… उसका दिमाग जानता है कि यह गलत है, फिर उसका शरीर इसे क्यों नहीं महसूस कर रहा?
क्यों नहीं इसका प्रतिकार कर रहा?
क्यों एक गलत और अनैतिक कार्य पर ऐसा रिस्पॉन्स दे रहा जो विपरीतलिंगी शरीरों के घर्षण पर तब देना चाहिए जब घर्षण जायज़ हो, नैतिक हो, सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो।
ज़ाहिर है यह नैतिक अनैतिक के नियम इंसानों ने बनाये थे शरीरों ने नहीं, वे तो वैसी ही प्रतिक्रिया देते हैं जैसी उन्हें ऐसी किसी भी स्थिति में देनी चाहिये।
उसे चाचा के लिंग पर हाथ चलाते अपने स्तनों का मर्दन मज़ा दे रहा था तो क्या उसे नहीं लेना चाहिये, उसे खुद को रोक लेना चाहिये।
बचपन के संस्कारों का असर था कि नैतिकता के पैरोकार दिमाग ने उसे अपेक्षित रूप से रुकने की सलाह दी… फिर एक चोर रास्ता भी सुझाया कि अभी रुक जाना, थोड़ी देर में रुक जाना, क्या हो जायेगा इतनी देर में।
पर यह थोड़ी देर का वक्त ख़त्म होने को न हुआ।
फिर सहज रूप से, बेखयाली में ही, अपनी मुट्ठी में दबे चाचे के लिंग को अपने पूरे शरीर में महसूस करते उसका बायां हाथ वक्ष से उतर कर नीचे पहुंच गया और अपनी योनि को दबाने-भींचने लगा।
और इस स्पर्श ने उसमे जो आग पैदा की तो ये सही, नैतिक, समाज में स्वीकार्य टाइप जो पिलर उसने दिमाग में खड़े कर रखे थे… सब धड़धड़ा कर धराशाई हो गये।
नाइटी उसे बाधा लगी तो उसने नाइटी को समेट कर ऊपर खींचा और पैंटी के ऊपर से ही अपनी योनि को मसलने लगी।
अजीब सा नशा दिमाग पर हावी होता गया।
उसे अच्छा… बेहद अच्छा लग रहा था और वह बस ऐसे ही इसे महसूस करते रहना चाहती थी। इसके सिवा बाकी बातें उसके दिमाग से निकल गईं।
उसकी सोचों का घोड़ा वहां रुका जहां चाचा ने स्खलन की दशा में ज़ोर की ‘आह’ भरते हुए कमर ऊपर उठा दी थी और वीर्य की पहली पिचकारी फिर उसी के ऊपर आई।
लेकिन कल के अनुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था… वह तब तक हाथ चलाती रही जब तक वीर्य निकलना बन्द नहीं हो गया।
फिर उसने लिंग को आज़ाद कर दिया… वह कुछ कुछ देर में ऐसे ठुनक रहा था जैसे कोई दम तोड़ता सांप, या जीव मद्धम होते क्रम में झटके लेता है।
इस वीर्यपात ने उसका ध्यान भटका दिया था जिससे उसकी अपनी उत्तेजना का पारा चरम तक पहुंचते पहुंचते रह गया था।
तीव्र अनिच्छा के बावजूद उसने उठ कर चाचा को साफ़ किया और उसे निश्चल पड़ा छोड़ कर अपने कमरे में चली आई।
आज जो अनुभव मिला था वह नया था, अप्रतिम था मगर उस अनुभव ने उसमे ऐसी बेचैनी पैदा कर दी थी जिसने उसे लगभग पूरी रात न सोने दिया।
अगले दो दिन सामान्य गुज़रे… चाचा कोई नार्मल तो था नहीं कि जो चीज़ अच्छी लगती है वह सिर्फ अच्छा लगने के लिए रोज़ करे, बल्कि तभी करता था जब उसका शरीर इसकी ज़रूरत समझता था।
बस इस बीच वह सोचती रही थी कि क्या सही था क्या गलत… क्या नैतिक था और क्या अनैतिक और जो सही और नैतिक था तो क्यों था और गलत और अनैतिक था तो क्यों था।
हर गुज़रते दिन के साथ उसके अंदर एक दूसरी शीला का अस्तित्व पैदा होता जा रहा था जो बाग़ी थी, जो स्थापित मान्यताओं, परम्पराओं और मर्यादाओं से लड़ जाना चाहती थी, उन्हें तोड़ देना चाहती थी।
आखिर क्या दिया था इन सबने उसे… क्या सिर्फ इसलिए उसे अपने शरीर का सुख प्राप्त करने से रोका जा सकता था कि वह लोगों द्वारा अपेक्षित एक योग्य वधू के मानदंडों पर पूरी नहीं उतरती?
तो वह या उस जैसी हज़ारों लाखों ऐसी औरतें जो ऐसा अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर हैं, उन्हें अपनी इच्छाओं की तिलांजलि दे देनी चाहिये?
पर दिमाग के सोचे को क्या शरीर भी समझता है? समझता है तो क्यों ऐसी प्रतिक्रियाएं देता है जो सामाजिक नियमों के हिसाब से वर्जित हैं?
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07-17-2020, 11:57 AM,
#26
RE: raj sharma story कामलीला
चौथे दिन सोने से पहले चाचा ने उसे पुकारा था।
और यह पुकार उसे ऐसी लगी थी जैसे उसके कान अस्वाभाविक तौर पर उसी की प्रतीक्षा कर रहे हों और इस पुकार के सुनते ही उसके बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई हो।
उसके दिमाग का एक हिस्सा फिर ‘गलत-गलत’ की रट लगाने बैठ गया था पर उसने खुद को अपने शरीर की ज़रूरतों के हवाले कर दिया और जो अंग जैसी प्रतिक्रिया देता रहा वह स्वीकारती रही।
उसने बेअख़्तियारी की हालत में अपनी नाइटी उठा कर अपनी पैंटी भी उतार दी और अपने कमरे से निकल कर चाचे के कमरे में पहुंच गई।
चाचा का हाथ अब ठीक था और चाहता तो वह खुद ही अपने काम को अंजाम दे सकता था लेकिन अब उसे शीला के हाथ का चस्का लग चुका था और वह लिंग बाहर निकाले उसे आशा भरी दृष्टि से देख रहा था।
उसने दरवाज़ा बन्द कर दिया और चाचा के बैड के सरहाने स्थित अलमारी से वह सरसों का तेल निकाल लिया जो उसने परसों ही रखा था।
यह उसे किसी ने बताया नहीं था बल्कि उसका सहज ज्ञान था कि त्वचा से त्वचा की सूखी रगड़ जलन और रैशेज बना सकती थी। अगर तेल जैसी किसी चिकनी चीज़ का प्रयोग किया जाये तो ऐसा नहीं होगा।
अपने हाथ और दूसरे के हाथ में फर्क होता है… खुद के हाथ का पता होता है कितना दबाव देना है पर दूसरे के हाथ से पता नहीं चलता इसलिये चिकनाहट ज़रूरी थी।
वह चाचा को बिस्तर के एक साइड थोड़ा सरका के पूरी तरह पांव फैला कर उसके पास ही बैठ गई। उसने अपने सीधे हाथ में तेल लिया और उसे चाचा के लिंग पर इस तरह चुपड़ दिया कि वह एकदम चमकने लगा।
अभी वह अर्ध-उत्तेजित अवस्था में था लेकिन जैसे ही शीला के हाथों की गर्माहट और घर्षण मिला, उसमे खून भरने लगा और वह एकदम तन कर खड़ा हो गया।
शीला धीरे-धीरे उसे अपने हाथों से रगड़ने लगी।
साथ ही उसने अपने शरीर की इच्छा को सर्वोपरि रखते हुए अपनी नाइटी के ऊपरी बटन खोल लिये और उलटे हाथ को अंदर डाल कर अपने स्तनों को सहलाने लगी।
नरम दूधों पर हाथ की थोड़ी सख्त चुभन उसके अपने बदन में गर्माहट भरने लगी।
उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वक्षों का योनि से कोई इंटर-कनेक्शन हो… वह अपने स्तनों को मसल रही थी, चुचुकों को रगड़ रही थी, दबा रही थी और उत्तेजना भरी सरसराहट नीचे योनि में हो रही थी।
उसे चाचा की परवाह नहीं थी, चाचा को तो समझ ही नहीं थी कि वह क्या कर रही थी, उसे बस इतना पता था कि वह उसके लिंग को मसल रही थी और उसे बेहद सुखद लग रहा था।
जल्दी ही शीला के लिये अपने हाथ को रोके रखना मुश्किल हो गया।
उसने अपने चाचा के लिंग से हाथ हटा कर दोनों हाथों पर फिर से तेल चुपड़ा और सीधा हाथ चाचा के लिंग पर पहुंचाकर उल्टा हाथ, नीचे नाइटी उठाकर अपनी योनि तक पहुंचा दिया।
उसे अपने हाथ की आवरण रहित छुअन में भी अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। वह पूरी योनि को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर सहलाने लगी, रगड़ने लगी।
इन पलों में उसके शरीर में कामवासना से भरी जो लहरें दौड़ीं तो उसकी आंखें मुंद गईं। बस यही दो चीजें दिमाग में थी कि उसके एक हाथ में चाचा का मजबूत लिंग है और दूसरा हाथ उसकी योनि को रगड़ दे रहा है।
अवचेतन के जाने किस अंधेरे से चुपके से यह कल्पना सामने आ खड़ी हुई कि योनि से रगड़ देने वाली चीज़ चाचा का लिंग है जो उसकी, भगनासा, भगोष्ठ और भगांकुर को अकूत आनन्द का अहसास दे रहा है।
ऐसी हालत में उसे यह कल्पना अतिरेक न लगी, अनैतिक या मर्यादा से इतर न महसूस हुई बल्कि उसके यौनानन्द में और बढ़ोत्तरी करने वाली चीज़ लगी।
और उसने इस कल्पना को स्वीकार कर लिया और उसी में खो गई।
फिर न उसे अपना होश रहा, न चाचा का, न कमरे की खुली खिड़की का… आँखें बंद किये बस इस कल्पना में जीने लग गई कि चाचा का लिंग उसे वो संतुष्टि दे रहा है जिसकी उसे भूख थी।
आँखें बन्द थीं और होंठों से दबी-दबी सिसकारियाँ निकल रही थीं, दोनों हाथ तेज़ी से अपना काम कर रहे थे और वासना में डूबे इन पलों की सुइयां घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रही थीं।
फिर इस दौड़ का अंत हुआ…
उसने अपनी मुट्ठी में चाचा के लिंग को फूलते अनुभव किया और साथ ही चाचा के बदन की ऐंठन को भी और वह कल्पना से बाहर आ गई।
उसने आँखें खोल दीं और चाचा की एक कराह के साथ जैसे ही लिंग वीर्य की पिचकारी छोड़ने को हुआ उसने मुट्ठी भींच ली ताकि पिचकारी के उछलने का वेग कम हो जाये।
ऐसा ही हुआ और उछलने के बजाय वीर्य इस तरह निकला कि उसकी मुट्ठी से होता चाचा के पेट तक गया… पूर्वानुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था।
वह हाथ फिर भी ऊपर नीचे करती रही मगर इस सख्ती से साथ कि निकलने वाली पिचकारी वेग न लेने पाये और चार पिचकारी में वह ठंडा पड़ गया।
पांचवी बार में बस बूँद निकली और उसने लिंग छोड़ दिया पर आज उसने कल की तरह अपनी उत्तेजना का अंत नहीं होने दिया था… उसे लग रहा था कि अभी उसके सफर का अंत नहीं हुआ।
हालांकि उसका उल्टा हाथ थक चुका था लेकिन चूंकि अब उसका सीधा हाथ फ्री हो गया तो उसने हाथ बदल लिया और चाचा के पैरों पे सर टिकाते हुए तेज़ी से योनि को रगड़ने लगी।
इस रगड़ में उसने एक चीज़ यह महसूस की थी कि भले पूरी योनि की रगड़ उसे मज़ा दे रही थी लेकिन जब उसकी उंगलियां योनि के ऊपरी सिरे को छूती थीं तो उत्तेजना एकदम बढ़ जाती थी।
यानी सबसे ज्यादा संवेदनशील पॉइंट ऊपर था… यह उसकी समझ में आ गया था।
और इसीलिये अब जब वह रगड़ रही थी तो पूरी योनि के बजाय सिर्फ ऊपर ही रगड़ रही थी और हर रगड़ उसे एक नई ऊंचाई तक लिये जा रही थी।
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07-17-2020, 11:58 AM,
#27
RE: raj sharma story कामलीला
और फिर उसे ऐसा लगा जैसे कुछ निकलने वाला हो।
उसके दिमाग में सनसनाहट इतनी ज्यादा हो गई कि खुद पर कोई नियंत्रण ही न रहा… नसों में इतनी तेज़ खिंचाव पैदा हुआ कि वह एकदम कमान की तरह तन गई और होंठों से एक तेज़ ‘आह’ छूट गई।
उसे ऐसा लगा था जैसे उसकी योनि में मौजूद मांसपेशियों ने उसके अंतर में भरी ऊर्जा एकदम बाहर फेंक दी हो… वह बह चली हो… दिमाग सुन्न हो गया।
कुछ सेकेण्ड लगे संभलने में और दिमाग ठिकाने पर आया तो हड़बड़ा कर उठ बैठी।
चाचा को देखा जो अजीब सी नज़रों से उसकी बालों से ढकी योनि को देख रहा था… शायद समझने की कोशिश कर रहा था कि जैसे उस जगह पर उसके लिंग के रूप में एक अवयव निकला है, शीला के क्यों नहीं निकला।
उसने चाचा की तरफ पीठ करके अपनी टांगें फैलाई और नीचे देखने लगी… क्या निकला था… पेशाब था या कुछ और… उस वक़्त नाइटी का जो हिस्सा उसकी योनि के नीचे था वह थोड़ा सा भीगा हुआ था लेकिन वह उसे सूंघ कर भी यह तय न कर पाई कि वह क्या था?
बहरहाल आज पहली बार उसे जिस आनन्द की प्राप्ति हुई थी… उसे पहले कभी भी उसने नहीं महसूस किया था, स्वप्नदोष के समय सपने में जो भी मज़ा मिला हो, उसे चैतन्य अवस्था में याद करना सम्भव नहीं।
उसने एक भरपूर अंगड़ाई ली, उठी और सफाई में लग गई।
सफाई करके अपने कमरे में पहुंची तो उसे उस रोज़ ऐसी नींद आई कि सुबह भी जल्दी उठने को न हुआ।
सालों बाद उसने वह दिन ख़ुशी और संतुष्टि के साथ गुज़ारा…
शाम को चंदू की वजह से फिर मूड ख़राब हुआ… आज उसने आकृति को अकेले में पकड़ कर उसके वक्षों का ऐसा मर्दन किया था कि वह रोते हुए घर आई थी।
शर्म भी नहीं आती कमीने को… आकृति उससे आधी उम्र की थी, मगर उस कमीने की नियत का कोई ठिकाना नहीं था।
रात को बिस्तर के हवाले होते वक़्त उसके दिमाग से चंदू निकल गया और फिर शरीर की दबी कुचली इच्छाएं सर उठा कर उस पर हावी हो गईं।
वह बहुत देर चाचा की ‘ईया’ का इंतज़ार करती रही लेकिन चाचा ने पुकार न लगाई… वैसे भी उसे रोज़ यह हाजत नहीं होती थी तो उसने खुद ही यह करने का फैसला किया।
कमरे को बन्द करके और अंधेरा करके आज उसने अपने पूरे कपड़े उतार दिए।
तेल का प्रबंध उसने पहले ही कर रखा था… अपने दोनों हाथ तेल में नहला कर पहले वह अपने वक्षों को धीरे-धीरे सहलाने-दबाने लगी… चुचुकों को चुटकियों में पकड़ कर खींचने मसलने लगी।
धीरे-धीरे पारा चढ़ने लगा और वक्षों से पैदा होती उत्तेजना की लहरें योनि में उतरने लगीं।
जब उसे अपनी योनि में गीलापन महसूस हुआ तो उसने एक हाथ वहां पहुंचा लिया और उसे सहलाने रगड़ने लगी… कल के अनुभव से पता था कि मेन पॉइंट कहां था तो आज उसी पे ज्यादा फोकस कर रही थी।
कभी इस हाथ से कभी उस हाथ से और दूसरा हाथ वक्षों का मर्दन करता रहता।
करते-करते चरमोत्कर्ष की घड़ी आ पहुंची और हाथों में तेज़ी लाते हुए उसने खुद को उस बिंदु तक पहुंचा ही लिया जहां स्खलन का शिखर मौजूद था।
फिर सुकून के साथ बिना कपड़ों के ही सो गई।
अगले दो दिन यही सिलसिला चला।
और चौथे दिन रात को चाचा ने पुकार लगाई।
उसे ऐसा लगा जैसे उसके रोम-रोम में चिंगारियां छूट पड़ी हों… वह ऐसे खुश हो गई जैसे कोई मनमांगी मुराद मिल गई हो।
वह जितनी जल्द हो सकता था चाचा के कमरे में पहुंच गई और चाचा को भी उसे देख कर तसल्ली पड़ गई… उसका बाहर निकला लिंग जैसे उसी की प्रतीक्षा में था।
चाचे को किनारे सरकाते हुए वह उसके पास बैठ गई और हाथों में तेल लेकर एक हाथ से चाचा का लिंग मसलना शुरू किया और दूसरे हाथ से अपनी योनि।
जब आधा सफर तय हो चुका तो उसके ज़हन के किसी कोने ने सवाल किया कि ज़रूरी क्या था… चाचा का वीर्यपात या उसके लिंग को हाथ से रगड़ने की क्रिया?
उसके ज़हन ने ही इसका जवाब भी दिया कि ज़रूरी वीर्यपात था तो उसके लिए एक ही तरह की क्रिया की अनिवायर्ता क्यों? कोई दूसरा तरीका भी तो हो सकता था…
कोई दूसरा तरीका क्या?
वह सोचने लग गई… वीर्यपात का कारण घर्षण था जो उसके हाथ से मिलता था… अगर यह घर्षण किसी और तरीके से दिया जाये तो… किस तरीके से?
दिमाग ने ही एक तरीका सुझाया।
उसने चाचा को खींच के बीच में किया और अपने दोनों पैर उसके इधर-उधर रखते हुए उस पर ऐसे बैठी कि चाचा का लिंग उसके पेट पे लिटा दिया और उसकी जड़ की तरफ अपनी योनि टिका दी।
अपनी उंगलियों से योनि के दोनों होंठ ऐसे फैला दिये कि चाचा का लिंग अंदर की चिकनाहट और गर्माहट को महसूस कर सके और खुद उसकी योनि चाचा के गर्म और तेल से सने लिंग को महसूस कर सके।
फिर अपने नितंबों पर ज़ोर देते हुए आगे की तरफ वहां तक सरकी जहां तक चाचा के लिंग का बड़े आलू जैसा शिश्नमुंड था… और फिर वापस होते जड़ तक।
यहां इस बात का खास ध्यान उसने रखा था कि उसके बदन का बोझ उसके घुटनों पर ही रहे न कि चाचा के पेट पर जाए।
और चाचा आँखें खोले जिज्ञासा से देख रहा था कि वह क्या कर रही है… सामने से उसे शीला की योनि के ऊपर मौजूद काले घने बाल ही दिख रहे होंगे।
और योनि भी दिख जाती तो उसे क्या फर्क पड़ना था, उसे कोई समझ ही नहीं थी… पर वह अपने लिंग पर फिसलती खुली योनि के गर्माहट भरे घर्षण को साफ़ महसूस कर सकता था।
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07-17-2020, 11:58 AM,
#28
RE: raj sharma story कामलीला
शायद यह उसके लिए सख्त हाथों से ज्यादा बेहतर अनुभव था। उसने सर तकिये से टिका कर आँखें बंद कर ली थीं और उस घर्षण में खो गया था।
जबकि यह घर्षण शीला को योनि के निचले सिरे से लेकर ऊपर भगांकुर तक लगातार मिल रहा था और इस किस्म की लज़्ज़त दे रहा था जिसे वह शब्दों में बयां नहीं कर सकती थी।
अपनी नाइटी उसे अवरोध लग रही थी… उसने नाइटी को नीचे से उठा कर पेट पर बांध लिया था, अब उसका कमर से नीचे का पूरा निचला धड़ अनावृत था।
उसने अपने हाथ अपनी जांघों पे टिका लिये थे और सर पीछे की तरफ ढलका कर सिसकारते हुए अपने नितंबों के सहारे योनि को तेज़ी से ऊपर-नीचे करने लगी थी।
उसे ऐसा लगा था जैसे उसके निचले हिस्से में कोई ज्वालामुखी पैदा हो गया हो, जिसमे भरा लावा उबालें मार रहा हो, किनारों को तोड़ कर बाहर निकल आना चाहता हो।
इस यौन-उत्तेजना ने उसके ज़हन के सारे दरवाज़े बंद कर दिए थे और शरीर का सारा नियंत्रण उसकी योनि के हाथ में आ गया था… इच्छाएं बलवती होती जा रही थीं।
इस घर्षण के बीच एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसकी योनि के अंदर मौजूद सुराख अपने हक़ की मांग करने लगा। उसकी योनि का बार-बार दबता रगड़ता वह छेद जैसे उससे कह रहा हो कि मुझे भर दो।
इस बेचैनी और तड़प ने उसकी एकाग्रता में खलल पैदा कर दिया।
सेक्स रिलेटेड ज्यादातर चीज़ों से वह अनजान थी लेकिन इस बेसिक चीज़ से नहीं, उसने जानवरों को अपना लिंग योनि में घुसाते देखा था, जब भी उसे स्वप्नदोष हुआ था उसने योनि-संसर्ग देखा था।
उसे पता था लिंग का अंतिम ठिकाना योनि की गहराइयों में ही होता है।
और आज वह इस बाधा को भी पार कर जाने पर अड़ गई।
वह चाचा के ऊपर से उठ गई और खुद उसके लिंग को पकड़ कर सीधा कर लिया।
अब उसके ऊपर इस तरह बैठने की कोशिश की, कि लिंग उसकी योनि के छेद में उतर जाये… लेकिन चिकनाहट और फिसलन इतनी ज्यादा थी कि लिंग फिसल कर पीछे की दरार में चढ़ता चला गया।
उसने फिर आगे की तरफ रखते हुए छेद पर टिकाया और उस पर बैठने की कोशिश की तो इस बार वह फिसल कर उसके बालों से रगड़ खाता पेट की तरफ चला गया।
उसे झुंझलाहट होने लगी…
उसने कई बार कोशिश की लेकिन कहीं वह पीछे चला जाता तो कहीं ऊपर… चाचा भी उलझन में पड़ कर उसे देखने लगा था।
‘दीदी…’ तभी एक तेज़ आवाज़ गूंजी।
उसके ऊपर जैसे ढेर सी बर्फ आ पड़ी हो… ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे दसवीं मंज़िल से नीचे फेक दिया हो… दिल धक से रह गया… सांस गले में फंस गई, ठंड के बावजूद पसीना छूट पड़ा।
उसने आवाज़ की दिशा में देखा… बिना पल्लों की खिड़की पर पड़ा पर्दा एक कोने से उठा हुआ था और एक चेहरा उसकी तरफ झांक रहा था।
‘दीदी!’ चेहरे ने फिर पुकारा तो उसकी समझ में आया कि वह रानो थी।
उसे एकदम जैसे करेंट सा लगा और वह चाचा के ऊपर से हट गई… चाचा की समझ में कुछ भी नहीं आया था और वह उलझन में पड़ा इधर उधर देख रहा था।
शीला ने अपनी नाइटी नीचे की और आगे बढ़ के दरवाज़ा खोल दिया…
‘दीदी।’
उसके होंठों के कोर कांपे मगर शब्द हलक में ही घुंट कर रह गए और वह एकदम आगे बढ़ कर अपने कमरे में घुस गई। दरवाज़ा उसने पीछे ‘भड़ाक’ से बन्द कर लिया।
उधर शीला के हटते ही चाचा उठ बैठा था और एकदम मुट्ठियाँ बिस्तर पर पटकते ‘ईया-ईया’ करने लगा था। रानो उलझन में पड़ गई कि इधर जाए या उधर।
फिर उसकी समझ में यही आया कि शीला समझदार है खुद को संभाल सकती है लेकिन चाचा को कोई समझ नहीं थी और ऐसी हालत में उसे सिर्फ वीर्यपात ही शांत कर सकता था।
उसका यौन-ज्ञान शीला से बेहतर था… उसने देर नहीं लगाई और लपक कर चाचा के पास पहुंच कर उसके तेल और शीला के कामरस से सने और चिकने हुए पड़े लिंग पर हाथ चलाने लगी।
चाचा शांत पड़ते-पड़ते फिर लेट गया और रानो ने उसे अंत तक पहुंचा के ही छोड़ा। फिर गीले कपड़े से उसकी सफाई करके वहां से निकल आई।
शीला का दरवाज़ा अभी भी बंद था… उसने शीला को पुकारते हुए दरवाज़ा खटखटाया। दो तीन बार खटखटाने के बाद दरवाज़ा खुला।
सामने शीला लाल आँखें लिए खड़ी थी… देख कर ही अंदाज़ा होता था कि रो रही थी।
रानो उसे अंदर करते खुद भी अंदर आ गई और दरवाज़ा बंद कर दिया, फिर उसे अपने सहारे चला कर बिस्तर पर लाकर बिठाया और उसके हाथ अपने हाथ में लेकर मलने लगी।
‘दीदी… मैंने तुम्हें पुकार नैतिकता का ज्ञान देने, सामाजिक मूल्यों की याद दिलाने या ताने-उलाहने देने के लिए नहीं लगाई थी।’
‘फिर?’
‘बाज़ रखने के लिए लगाई थी कि जो कर रही थी वह सम्भव नहीं था।’
शीला ने अपनी सूजी हुई आँखें उठा कर सवालिया निगाहों से उसे देखा।
‘दीदी, मैं कौन होती हूँ तुम्हें दुनिया के नियम कायदे बताने वाली… शरीर की जो ज़रूरतें तुम्हें जला रही हैं, क्या उन्हें मैंने नहीं झेला? शरीर में पैदा होने वाली इच्छाओं का बोझ मैंने भी तो उठाया है।’
‘तू… तू समझ सकती है मेरी तकलीफ?’
‘क्यों नहीं दी… क्या मेरी तकलीफ उससे अलग है।’
‘तू नीचे आई कैसे?’
‘पेशाब करने आई थी तो तुम्हारी सिसकारियां सुनी… समझ न सकी तो आके देखा। शर्मिंदा मत हो दी, मुझे देख कर बुरा नहीं लगा, बल्कि इस समाज पे क्रोध आया था जिसने हम जैसी लड़कियों-औरतों के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा।’
शीला के सब्र का बांध टूट पड़ा और वह रानो के सीने से लग कर फफकने लगी, रानो उसकी पीठ थपथपाते हुए उसे सांत्वना देने लगी।
‘दी, ये मर्यादाएं, नियम, नैतिकता के दायरे, समाज की बेहतरी के लिए खींचे गए थे वरना हर इंसान जानवर ही बना रह जाता…
मानती हूं कि इनकी ज़रूरत है हमें और समाज इन्हीं की वजह से टिका है लेकिन शिकायत बस इतनी है कि इसमें हम जैसी बड़ी उम्र तक कुंवारी बैठे रहने वाली लड़कियों औरतों के लिए घुट-घुट के जीने के सिवा कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी गई…’
हमें समाज में स्वीकार्य यौन-संसर्ग उपलब्ध नहीं तो क्या हममें इतनी सामर्थ्य है कि हम अपनी यौन-इच्छाओं को ख़त्म कर सकें…
ये समाज के बनाये नियम क्या शरीर को बांध पाते हैं, जो बस अपनी ज़रूरत देखता है और ज़रूरत के हिसाब से रियेक्ट करता है।
सही-गलत, अच्छा-बुरा, स्वीकार्य-अस्वीकार्य और नैतिक-अनैतिक के मापदंड हम जैसी अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर स्त्रियों के लिए भला क्या मायने रखते हैं?’
‘हम कुछ भी बदल नहीं सकते… क्या करें फिर रानो? ऐसे ही सुलग-सुलग कर ख़त्म हो जायें?’
‘इसीलिए तो कहा कि जब नियम बनाने वालों ने हमारे लिए कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी तो हम क्यों उनकी परवाह करें… क्यों न हम उन्हें ठुकरा दें।
क्यों न हम उन बेड़ियों को तोड़ दें… जो तुम कर रही थी वो उन नियमों की नज़र में गलत था जो उन मर्दों ने बनाये हैं जिनकी शादियां न हों तो भी उन्हें भोगने के लिए औरतों की कमी नहीं होती।’
रानो की बातों से उसे तसल्ली मिली… कुछ देर के लिए वह खुद की ही नज़र में गिर गई थी और लगता था कि अपनी बहन से भी कभी आँखें न मिला पायेगी मगर अब खुद में आत्मविश्वास पा रही थी।
रानो खुद भी लेट गई और उसे भी लिटा लिया।
‘पर जो मैं कर रही थी वह संभव क्यों नहीं हो पा रहा था… यौन-संसर्ग का अर्थ लिंग द्वारा योनिभेदन ही तो होता है।’
‘हां दी, पर प्रकृति ने हर कांटिनेंट के हिसाब से शरीरों के जोड़े बनाये हैं और उसी हिसाब से उनके अंग विकसित किये हैं… जैसे सबसे बड़े लिंग नीग्रोज़ के होते हैं, उसके बाद अंग्रेज़, योरोपियन के और फिर एशिया के लोगों के और सबसे छोटे पूर्वी एशिया के।
और उसी हिसाब से उनकी सहचरियों की सीमा और क्षमता भी होती है. भारतीय पुरुषों के साइज़ चार इंच से लेकर सात इंच तक ही होते हैं।’
‘तो चाचा का इतना बड़ा क्यों है… हब्शियों जैसा।’
‘शायद भगवन ने चाचा को दिमाग की जगह लिंग दे दिया है। चाचा जन्मजात कई विकृतियों का शिकार है, दिमाग, उल्टा हाथ, रीढ़ और शायद यह भी किसी किस्म की विकृति ही है।’
‘तो क्या कोई बड़े लिंग वाला नीग्रो किसी चीनी लड़की से सेक्स नहीं कर सकता?’ उसे हैरानी हुई।
‘सेक्स तो कोई भी किसी से कर सकता है… लंबाई मैटर करती है तो योनि की गहराई के हिसाब से ही आदमी अंदर बाहर करेगा और मोटाई ऐसी किसी भी लड़की या औरत के लिए मायने नहीं रखती जिसकी योनि अच्छे से खुली हुई हो।’
‘मतलब?’
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07-17-2020, 11:58 AM,
#29
RE: raj sharma story कामलीला
‘मतलब यह कि चाचा का लिंग किसी नीग्रो जैसा है और तुम्हारी योनि पूरी तरह बंद, अभी उसमे एक उंगली भी न गई होगी… चाचा का लिंग किसी भी ऐसी स्त्री की योनि में जा सकता है जो पहले अच्छे से सेक्स कर चुकी हो।
फिर चाहे वो इंग्लिश हो, भारतीय या चीनी, लंबाई वो अपनी गहराई के हिसाब से एडजस्ट कर लेगी लेकिन तुम्हारी योनि का रास्ता अभी नहीं खुला… चाचा का लिंग कैसे भी उसमे नहीं जायेगा।’
‘फिर?’
‘फिर यह कि पहले तुम्हें योनि ढीली करनी होगी, चाहे खुद से चाहे किसी और भारतीय साइज़ के लिंग से… जब रास्ता बनेगा तो तकलीफ होनी तय है, मगर ये तकलीफ किसी सात इंच वाले से भी मिले तो जैसे तैसे झेल लोगी लेकिन किसी नीग्रो या चाचा से मिले तो शायद बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगी।’
‘तू आज बड़ी बड़ी बातें कर रही है…’
‘क्योंकि हमने एक कश्ती के सवार होते हुए भी आज तक इस ज़रूरी विषय पर कभी बात नही की लेकिन आज जो हालात हैं उनकी रूह में हमारा बात करना ज़रूरी है।’
‘तुझे इन चीज़ों के बारे में इतना कैसे पता?’
‘सोनू के स्मार्टफोन पे कई ऐसी पोर्न क्लिप्स देख के, ऐसा पोर्न कंटेंट पढ़ के और साइबर कैफ़े में भी कभी इन चीज़ों के बारे में जानकारी हासिल की है।’
‘सोनू के फोन पर? उसने तुझे क्यों दिया अपना फोन इस सब के लिए?’
‘दी, प्लीज अब तुम नैतिक-अनैतिक की ठेकेदारी लेके न बैठ जाना…’
‘नहीं… पर बता तो सही कि बात क्या है?’
‘तुमने अपनी शारीरिक ज़रूरतों के आगे बहुत देर में हार स्वीकार की लेकिन मैंने बहुत पहले कर ली… शायद तुम पुराने ज़माने की थी।
इसलिए अनदेखे भगवन पर यकीन किये, कुछ अच्छा होने के इंतज़ार में बैठी रही लेकिन मैं नई सोच की हूं… जो अपने आप मिलने की उम्मीद दूर-दूर तक न दिखे उसे आगे बढ़ के हासिल कर लेना ही ठीक।’
‘मतलब… तू सेक्स कर चुकी है?’ वह आश्चर्य से उठ कर बैठ गई।
‘कई बार…. बल्कि शायद पचास बार से ज्यादा।’
रानो ने उसकी आँखों में देखते हुए इत्मीनान से जवाब दिया था और वह उसे घूरने लगी थी… उसे रानो का ये नैतिक पतन बुरा लगा था।
क्यों लगा, जब खुद भी उसी राह चल चुकी थी तो…
शायद प्रतियोगिता का अनदेखा अहसास, शायद पांच साल छोटी बहन से हार जाने की चोट।
जो सबक वह तीस साल की उम्र में सीख पाई वह उसने पच्चीस साल में कैसे सीख लिया?

रानो ने उसकी बांह पे दबाव बनाते हुए उसे फिर लिटा लिया और उसका चेहरा अपनी तरफ कर लिया… उसकी आँखों में फिर आंसू आ गए थे।
‘क्यों बुरा लगा दी? कि मैंने तुम्हें नहीं बताया… एक सीख मुझे रंजना ने दी थी वही आज छोटी होने के बावजूद तुम्हें दे रही हूँ।
अपना नंगा तन तब तक छुपाओ जब तक सामने वाला नंगा न हो जाये, जब वह भी नंगा हो जायेगा तो छुपावे की ज़रूरत ही न रह जाएगी।’
‘कौन है वह?’ पूछते हुए उसने महसूस किया कि बचपन के संस्कारों ने ज़ोर मारा था और उसने अच्छे-बुरे के ठेकेदारों के अंदाज़ में पूछा था।
‘सोनू।’
‘क्या? रानो तू पागल हो गई है क्या…’ वह चौंक कर फिर उठने को हुई लेकिन रानों ने न उठने दिया, ‘सात साल छोटा है तुझसे, गोद खिलाया है तूने… दीदी कहता है तुझे!’
‘अब मुझे गोद में खिलाता है… चाचा भी उम्र में दस साल बड़ा है न तुमसे और सगा चाचा है, क्या फर्क रोक पाया तुम्हें?’
‘वह समझदार नहीं जो इन बातों को समझे… फिर मर्द बड़ा हो तो चलता है मगर…’
‘वह समझदार नहीं तुम तो समझदार थी, ताना नहीं दे रही, समझाने की कोशिश कर रही हूं कि हमें शादी नहीं करनी और जब मकसद सिर्फ तन की ज़रूरतों को पूरा करना हो तो उम्र क्या मायने रखती है?’
वह सोच में पड़ गई… रानो और सोनू के बीच का जो रिश्ता एकदम उसे हज़म न हुआ और वह ऐतराज़ और हैरानी जाता बैठी… उसे उसने अपने और चाचा के रिश्ते से कंपेयर किया।
क्या गलत था… पर सोनू के घर वाले, उसकी बहन रंजना… वह सब क्या सोचेंगे?
‘क्या सोचने लगी… बाकियों के बारे में… उन्हें क्या करना। लड़का जवान है, कहीं न कहीं तो मुंह मरेगा ही, घर में ही जुगाड़ हो रहा है तो क्या बुराई है?
और रह गई रंजना… तो वह भी उसी आग की झुलसी है जिसमे हम थे, वही तो थी जिसने मुझे रास्ता सुझाया था, जिसने मुझे अपना सुख खुद पा लेने का तरीका सिखाया था।’
‘कैसे… कैसे हुआ यह सब?’
‘पूरा सुनेगी… इंटरेस्टिंग कहानी है मेरी भी, इस बहाने मैं भी याद कर लूं कि कभी मैं भी कुंवारी थी और कैसे मेरा कौमार्य लुटा था।
वह भी अपने से सात साल छोटे उस लड़के के हाथों जो मुझे दीदी कहता था, जिसे मैंने गोद खिलाया था और छोटा भाई ही समझती थी।’
‘सुनाओ…’ अंततः उसने एक लंबी सांस खींचते हुए आँख बन्द कर ली जैसे रानो के शब्दों को अपनी कल्पना में जी लेना चाहती हो…
और रानो भी छत देखती जैसे सब कुछ वैसे ही याद करने लग गई जैसे गुज़रा था।
‘सोनू सात साल छोटा है मुझसे, कभी ध्यान ही नहीं दिया कि जिसे मैं बच्चा समझती हूँ, वो कभी तो बड़ा होगा। कब वह बड़ा हो गया एहसास ही नहीं हुआ।
और अहसास हुआ तो तब जब एक दिन उसके हाथों की छुअन में मर्दानी गर्माहट महसूस की… तब उसकी कई पिछली ऐसी बातें याद आईं जिन्हें मैंने इत्तेफ़ाक़ समझ कर इग्नोर कर दिया था।
ऐसा नहीं था कि उसका मेरे प्रति आकर्षण एकदम से हुआ था बल्कि शायद तब से ही उसमे इस तरह की भावनाएं पैदा होने लगी थीं जब वह आठवीं में था और जब बारहवीं तक पहुंचा तो मेरे प्रति उसकी भावनाएं पूरी तरह बदल चुकी थीं।
कभी जो लड़की उसके लिए ‘दीदी’ होती थी, कब ‘माल’ में बदल गई, उसके बताये ही मुझे मालूम है कि उसे इस बदलाव का अहसास भी नहीं हो सका था और वह कैसे धीरे-धीरे मुझे याद करते हस्तमैथुन करने लगा था।
उसने अपनी भावनाएं जताने के लिए कई बार मुझे इधर-उधर छुआ था, अपने हाथ लगाए थे लेकिन चूंकि मैंने उसे हमेशा अपने से सात साल छोटे ‘भाई जैसे’ की नज़र से ही देखा था इसलिए महसूस ही न कर सकी थी।
पर उस दिन मुझे कॉलेज से अपने कागज़ लेने जाना था, और रंजना ने ही उसे मेरे साथ भेज दिया था कि न सिर्फ मेरी मदद करेगा बल्कि खुद भी उसे वहां काम था कुछ।
हम बस से गये थे… जो बुरी तरह भरी हुई थी और सोनू भीड़ में मुझसे सट के ही खड़ा था। मैंने महसूस किया कि किसी का हाथ मेरे नितंबों पर फिर रहा है…
बचपन के संस्कार थे… महसूस करते ही तन-बदन सुलग उठा और मुड़ के देखा तो एकदम समझ में नहीं आया कि कौन हो सकता था क्योंकि पीछे तो सोनू ही था।
मुझे मुड़ते देख उसने हाथ भी फ़ौरन हटा लिया था इसलिए और न समझ सकी… पर थोड़ी देर बाद उस हाथ को जब फिर अपने नितम्बों पे महसूस किया तो इस बार उसी हाथ की ओर एकदम से गर्दन घुमाई।
उसने तेज़ी से हाथ हटाया था लेकिन फिर भी मैंने देख लिया था कि वह सोनू का हाथ था और मैं सन्न रह गई थी।
मुझे समझ में ही नहीं आया कि मैं कैसे रियेक्ट करूँ।
मेरी उलझन और ख़ामोशी देख कर उसे यही लगा कि शायद मैं उसे रोकने में सक्षम नहीं और उसने भीड़ का फायदा उठाते हुए फिर अपना हाथ वही रख दिया और इस बार जानते हुए रखा कि मैं उसके मन की भावना या दुर्भावना समझ चुकी हूं।
उसका हाथ मेरे नितंबों के बीच की दरार में फिरते हुए मुझमे अजीब सी फीलिंग पैदा करने लगा जिसमे क्रोध, झुंझलाहट, आश्चर्य, एक किस्म के वर्जित सेक्स जैसी रोमांच भरी अनुभूति और वितृष्णा सभी कुछ था।
पर यह भी सच था कि मैं उसे रोक नहीं पा रही थी… शायद मन में कहीं ये भावना भी थी कि मेरी ऐसी कोई प्रतिक्रिया उसका तमाशा बना देगी।
मैंने उन पलों में वो वाकये याद करने शुरू किये जो पहले उसके साथ होने पे हुए थे और मैंने इत्तेफ़ाक़ समझ कर जिन्हें इग्नोर कर गई थी।
उस दिन मेरी समझ में उसकी बदली हुई नियत आ पाई।
जब तक भीड़ रही उसके हाथों की सहलाहट मेरे नितंबों पर बनी रही और जब कॉलेज आने वाला हुआ तो उसने हाथ समेट लिया।
मेरे अंदर ढेरों विचार पैदा हो गये थे, आक्रोश से भरी कई बातें हो गई थीं जो मैं उससे कहना चाहती थी लेकिन जगह अनुकूल नहीं थी और वह कोई गैर तो था नहीं कि बीच सड़क पे ही ज़लील करुं।
हमने चुपचाप अपने काम निपटाये और वापसी की राह ली।
वापसी में भी भीड़ थी और इस बार भीड़ का फायदा उठाते हुए सोनू ने न सिर्फ हाथों से मेरे नितम्ब सहलाये बल्कि पीठ से चिपक कर इस तरह खड़ा हुआ कि उसके फूले तने लिंग की सख्ती और गर्माहट भी मुझे महसूस हुई।
उसकी जुर्रत पर मुझे जितना दुःख था उससे कहीं ज्यादा हैरानी थी… आज वह खुद को पूरी तरह ही ज़ाहिर कर देना चाहता था।
उसने नितंबों की दरार के बीच ही लिंग को रखा था और भीड़ के बहाने खुद को मुझ पर ऐसे दबा रहा था कि मैं ठीक से उसके लिंग को महसूस कर सकूं।
घर पहुंचने तक हममे कोई बात नहीं हुई और घर में घुसते ही वह सीधा ऊपर अपने कमरे की तरफ भाग गया ताकि मैं कुछ कह न पाऊं।
उनके यहां का तुम्हें तो पता ही है कि चाचा जी नौ बजे तक आ पाते हैं और चाची को बतियाने और दोस्ती निभाने की इतनी परवाह रहती है कि घर में पांव ही नहीं टिकते।
घर में रंजना ही अक्सर अकेली होती है या कभी कभी सोनू भी।
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07-17-2020, 11:58 AM,
#30
RE: raj sharma story कामलीला
बच्चों की छुट्टी करके जल्दी घर भेज दिया और तब मैंने रंजना को सारी बात बताई। रंजना को कोई हैरानी नहीं हुई बल्कि उसे सोनू की बदली हुई मानसिकता का पहले ही पता था।
अब वह उम्र के जिस दौर में था वहां शरीर में वीर्य का इतना उत्पादन होता है कि किसी युवा का इस तरह चेंज हो जाना कोई खास महत्त्व नहीं रखता।
कई युवाओं का अपने वीर्य को निकालने का ‘जुगाड़’ हो जाता है तो कई सोनू जैसे साधारण शक्ल-सूरत वाले युवा भी होते हैं जिनका कोई इंतज़ाम नहीं हो पाता, तो वे हस्तमैथुन का सहारा लेते हैं और ऐसे ही हर सामने पड़ने वाली लड़की से आकर्षित हो जाते हैं…
चाहे वह उनकी सगी बहन ही क्यों न हो।
उन्हें इन बातों की कोई परवाह नहीं होती कि क्या जायज़ है और क्या नाजायज़, क्या नैतिक क्या अनैतिक… उनके लिए सब बराबर।
कई बार वह खुद सोनू को उसी की ब्रा या पैंटी हाथ में लिए हस्तमैथुन करते देख चुकी थी, पकड़ चुकी थी लेकिन कभी उसने सोनू के चेहरे पर शर्मिंदगी नहीं देखी थी।
फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं अपने वर्तमान से खुश हूँ? क्या मेरे शरीर में सहवास की प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली इच्छाएं नहीं पनपती? क्या मुझे उम्मीद है कि किसी जायज़ तरीके से वे पूरी हो जाएंगी?
उस दिन ऐसी ही बातों से, जैसी मैंने अभी तुमसे की… रंजना ने मेरे सोचने का तरीका बदल दिया। उसने तुम्हारा उदाहरण दिया कि कैसे तुम सभी सामाजिक मूल्यों का पालन करते, सभी नैतिकता के मापदंडों को पूरा करते इतने साल गुज़ार लाई।
लेकिन हासिल क्या हुआ और क्या हासिल होने की उम्मीद है। क्या जब सारा वक़्त निकल जायेगा और कुछ नहीं हासिल होगा और ये अहसास होगा कि जलते झुलसते बेकार में समाज के नियम निभाती रही।
तो क्या वापसी करके वहां पहुंच पाओगी जहाँ से जवानी का दौर शुरू हुआ था। क्या ज़िन्दगी में भी कोई रिवर्स सिस्टम होता है जो बाद में अपनी गलती का पता चलने पर वापस हो के उसे सुधारने का कोई मौका देता हो?
पहली बार मैंने भी उस दिन रंजना की नज़र से खुद को देखा। मैं वही कर रही थी जो हमारे जैसी घर पे कुँवारी बैठी सैकड़ों हज़ारों लड़कियाँ करती हैं… अपनी इच्छाओं का क़त्ल!
मुझे यह समझ में आ गया कि मैं चाहे इन सामाजिक नियमों को निभाते बूढ़ी भी हो जाऊं, अगर शादी न हो सकी, जिसकी कोई उम्मीद भी नहीं तो क्या यह समाज मेरे लिए भी कोई चोर रास्ता निकलेगा?
तो क्यों न मैं इन्हें ताक पर रख दूं।
रंजना ऐसा ही चाहती थी, वह खुद भी ठोकर मार चुकी थी इन नियमों को पर विकलांग थी, कहीं आना-जाना मुश्किल था और घर पे आने वाला मर्द सिर्फ एक था जो उसका सगा भाई था।
सगे भाई से सम्भोग के लिए वह खुद को तैयार नही कर पाती थी इसलिए कुढ़ने पर मजबूर थी लेकिन मैं क्यों मजबूर थी।
मैं तो आ-जा सकती थी।
मेरे लिये तो एक मर्द वहीं मौजूद था जो मेरा सगा भाई नहीं था।
उसके शब्दों का जादू था या मेरी दबी इच्छाओं का उफान कि दिमाग वैसा ही सोचता गया जैसा वह चाहती थी और उसके उकसाने पर मैं जैसे जादू के ज़ोर से बंधी ऊपर उसके कमरे तक पहुंच गई।
उसका दरवाज़ा बंद था… मैंने सोचा पुकारुं पर हिम्मत न हुई।
दरवाज़े के पास ही खिड़की थी जिसके पल्ले अधखुले थे… वहां से पूरा तो नही पर आधा-अधूरा तो देखा जा सकता था।
सोचा उसे देख के हिम्मत पैदा करुं।
देखा तो बदन में पैदा हुई आग और भड़क गई… पागल था, पूरा नंगा बिस्तर पर पड़ा था और अपने हाथ से अपने लिंग को सहला रहा था।
मैं यह नहीं कह सकती कि मैंने कभी लिंग देखा नहीं था, चाचा का देखा था, उतना बड़ा तो नहीं पर फिर भी बड़ा था… सात इंच तक तो ज़रूर था और वैसे ही मोटा भी।
मेरे हलक में जैसे कुछ फंस गया… एक मादकता से भरी सरसराहट नीचे दोनों टांगों के बीच होने लगी लेकिन उसी पल बचपन के संस्कार और समाज के नियम नाम के दो फ़रिश्ते वहाँ पहुंच गये।
उन्होंने मुझे सोनू को पुकारने नहीं दिया, मेरे शब्द हलक में घुट गये, मेरे बाजुओं को पकड़ लिया और मुझे खिड़की-दरवाज़ा खटखटाने नहीं दिया।
कुछ देर उनसे जूझते फिर बेबसी से मैं वापस हो गई।
मैं रंजना से यह कहकर कि मुझमें खुद आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं, कभी वह खुद से आगे बढ़ेगा तो देखा जाएगा… वहाँ से चली आई।
फिर दो दिन बाद ऐसा मौका आया जब दोपहर में रंजना ने उसे मुझे बुलाने भेजा।
मैंने उसे यही कहा कि मैं आधे घंटे बाद आकृति के आ जाने के बाद आ पाऊँगी।
उस वक़्त मैं अकेली ही तो होती हूँ, एक बजे आकृति आती और दो बजे बबलू।
उसने चाय पीने की इच्छा की तो उसे बरामदे में बिठा कर मैं किचन में चली आई।
मैं उस वक़्त सिंक में कुछ धो रही थी कि चुपके से वह मेरे पीछे आ खड़ा हुआ।
मैंने एकदम पलट के देखा तो वह मुझसे ऐसे सट गया जैसे बस में सटा था।
मेरे हाथ रुक गये।
‘यहाँ कौन सी भीड़ है?’ मैंने थोड़े गुस्से से कहा।
‘अपना काम करती रहो दीदी।’ उसने मेरी कमर थामते हुए कहा।
उसके स्पर्श ने मुझे झटका दिया था, नैतिकता और नियमों वाले फ़रिश्ते फिर सामने आये पर मैं उन्हें दूर ही रहने को कहा और उस स्पर्श को महसूस करने लगी कि वह मुझे कैसा लग रहा था।
एक नर्म गुदगुदाहट का अहसास, रोएं खड़े हो गये थे… सीने के उभारों में एक कसक और दोनों जांघों के बीच छुपी हुई जगह में एक मखमली हलचल।
एक मस्ती भरी सनसनाहट महसूस होने लगी थी।
दिमाग में रंजना की बातें गूंजने लगीं।
क्या इस वक़्त के गुज़र जाने के बाद मैं फिर वापस ला सकती थी?
नहीं, तो क्यों मैं इसे ऐसे ही गुज़र जाने दूँ।
मैंने सामने खड़े दोनों फरिश्तों को बाय कर दिया।
और इत्मीनान से खड़ी होके अपना काम करने लगी।
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