06-08-2020, 11:34 AM,
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hotaks
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
कुछ सोचकर इंस्पेक्टर बोला- 'आपने अपने बयान में बताया कि जिस समय जमींदार साहब का खून हुआ–आप बरामदे में थीं।'
'जी।'
'फिर आप विश्वासपूर्वक कैसे कह सकती हैं कि गोलियां खिड़की की ओर से चली थीं।'
'क्योंकि उस समय जय मेरे सामने थे और उनके हाथ में रिवाल्वर भी न थी।'
'क्या आपको पूरा विश्वास है कि गोलियां खिड़की की दिशा से ही चली थीं?'
'जी।'
'फिर तो आपने हत्यारे को अवश्य देखा होगा?'
'नहीं-मैं उसकी सूरत नहीं देख सकी।'
'खैर।' इंस्पेक्टर बोला- 'अब अंतिम प्रश्न। आप बता सकती हैं-जय एवं जमींदार के बीच झगड़ा किस बात पर हुआ था?'
'मेरा ख्याल है-संपत्ति से संबंधित कोई विवाद था।'
'किंतु हरिया ने तो...।'
डॉली ने साहस एवं दृढ़ता से उत्तर दिया 'इंस्पेक्टर साहब! हरिया ने आपसे क्या कहा है-यह मैं नहीं जानती। मैंने सिर्फ वह कहा जो मैं जानती हूं।'
'क्या आप सरकारी गवाह बनना पसंद करेंगी?'
'नहीं इंस्पेक्टर साहब! मैं किसी उलझन में फंसना नहीं चाहती। वैसे भी इस हत्याकांड से मेरा कोई संबंध नहीं है। न तो मैंने कुछ देखा है और न ही कुछ सुना है। मेरा अपराध केवल यह है कि मैं उस वक्त एक मेहमान के रूप में यहां उपस्थित थी।'
'खैर, अब आप यहीं रहेंगी अथवा अपने किसी रिश्तेदार के पास जाएंगी?'
'इंस्पेक्टर साहब! आपके इस प्रश्न का संबंध मेरे व्यक्तिगत जीवन से है। मैं इस शहर में भी रह सकती हूं और अपने किसी रिश्तेदार के पास भी जा सकती हूं किन्तु विश्वास कीजिए-मैं इस मकान में नहीं रहूंगी।'
'थॅंक डॉली जी!' इंस्पेक्टर उठ गया और बोला 'मुझे आपसे और कुछ नहीं पूछना है। वैसे मैं चाहूंगा कि आप यहीं रहें और इस मुकदमे में अपनी गवाही दें।'
डॉली ने कुछ न कहा।
इंस्पेक्टर ने उससे और कोई प्रश्न न किया और चला गया। डॉली उसके जाते ही फिर उसी विज्ञापन को पढ़ने लगी।
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06-08-2020, 11:34 AM,
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hotaks
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'फिर आई क्यों नहीं?'
'आती कैसे?'
'क्यों?'
'पिंजरे में जो पड़ी थी। चाचा ने कभी एक दिन के लिए भी गांव से बाहर न जाने दिया। शायद उन्हें भय था कि कहीं मैं हमेशा के लिए रामगढ़ न छोड़ दूं।'
'चल खैर! देर से आई किन्तु आई तो सही!
लेकिन।' डॉली के मैले वस्त्रों एवं बिखरे बालों को देखकर शिवानी ने कहा- 'यह क्या हालत बना रखी है तूने? गांव की लडकियां क्या इसी ढंग से रहती हैं?'
'गांव और शहर के रहन-सहन में अंतर होता है।' डॉली ने कहा। ठीक उसी समय बाहर से किसी की आवाज सुनाई पड़ी– 'कौन है शिवा?'
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'भैया!' शिवानी ने उत्तर दिया- 'मेरी सहेली है डॉली। पहले यहीं रहती थी-आजकल रामगढ़ गांव में रहती है लेकिन आप बाहर क्यों आ गए? आपको तो ज्वर है।'
'थोड़ा घूमने को मन कर रहा था। कितना अच्छा मौसम है।' शिवानी ने फिर कुछ न कहा।
डॉली ने उससे पूछा- 'ये...?' 'बड़े भैया हैं-राज भाई साहब।'
"अच्छा! राज भाई साहब।'
'तूने तो देखे न होंगे। विवाह के पश्चात तुरंत चंडीगढ़ चले गए थे। न जाने किस बात पर पापा से विवाद हो गया था।'
'भाभी?'
'साथ ही ले गए थे लेकिन...।'
'लेकिन क्या?'
'एक दिन भाभी ने भी साथ छोड़ दिया। तलाक लेकर दूसरा विवाह कर लिया। राजू को भी साथ ले गईं।'
'राजू कौन?'
'भाई साहब का बेटा।'
'ओह!'
'भैया को इस घटना से ऐसा आघात लगा कि चंडीगढ़ छोड़कर यहां आ गए। तभी पापा का देहांत हो गया और फिर एक दिन भैया भी एक दुर्घटना के शिकार हो गए। उस दुर्घटना में भैया की दोनों टांगें चली गईं।'
'तो क्या?'
'अपंग हैं बेचारे।' शिवानी ने कहा। तभी एकाएक उसे कुछ ध्यान आया और वह उठकर बोली 'मैं भी कितनी अजीब हूं। न जाने कहां-कहां की बातें ले बैठी और तेरे लिए जलपान भी न लाई।' इतना कहकर शिवानी बाहर चली गई।
उसके जाते ही डॉली ने फिर मेज पर रखा वही अखबार उठाया और वही विज्ञापन पढ़ने लगी।
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