Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
12-07-2020, 12:13 PM,
#31
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#२६

जब मैं वहां पर पहुंचा तो आरती खत्म हो गयी थी, लोग मंदिर से निकल रहे थे, सीढिया चढ़ते हुए मैं बस मंदिर के आँगन में पहुंचा ही था की मेरा सामना उन्ही लडको से हो गया , जो मुझे मेले में मिले थे, उनमे से एक मुझे पहचान गया .

लड़का- अरे ये तो वही है , यारो देखो ये तो वही है

मैंने भी उनको पहचान लिया था और ये तो एक न एक दिन होना ही था

“साले, तेरी इतनी हिमाकत तू यहाँ तक आ पहुंचा ” बोला वो

मैं- हाँ तो या तेरी रजिस्ट्री है मंदिर पर, देवता अधीन है क्या तेरे

लड़का- हाँ ये सब हमारा है , और उस दिन तो तू बच गया था आज समझ तेरे दिन पुरे हुए.

“सुन बे चूतिये, ये चुतियापा किसी और के साथ करना, होगा तू कोई भी , मुझे घंटा मतलब नहीं है तेरे से, मैं इस मंदिर में आता हु सिर्फ दर्शन करने और चला जाता हूँ, मुझे न तेरे से कुछ लेना देना है और न तेरे गाँव से, और न तेरी जागीरदारी से, मेरी बात समझ और रस्ते से परे हो ” मैंने कहा

“देख क्या रहा है सुमेर, मार न साले को दिखा इसकी औकात इसे ” उनमे से एक बोला

“उसको क्या बोलता है तू आ न सबसे पहले तू कर तेरा शौक पूरा ” मैंने कहा

बचे खुचे लोग जो मंदिर में रह गए थे आँगन में जमा होने लगे थे,थोडा घबरा तो मैं भी गया था क्योंकि वो चार- पांच लोग थे और मैं अकेला पर अब मामले को देखना तो था ही .

सुमेर- बड़ी दिलेरी है तेरे अन्दर , ये जानते हुए भी की बकरी शेरो की टक्कर नहीं ले सकती

मैं- आजमाना चाहता है मुझे

सुमेर - आ तुझे कुछ दिखाता हु , मेरे साथ आ , तेरी औकात क्या है तू खुद देख

मुझे लगभग खीचते हुए वो मंदिर की दक्षिण दिशा में ले गया , जहाँ बहुत झाडिया थी, बेतारिब पेड़ पौधे थे .

सुमेर- देख इस जगह को, ये जमीन खून से सींची गयी है , तेरे गाँव के लोगो के खून से, उनमे भी तेरी तरह उबाल था यही ठंडा हुआ सबका, तेरा भी होगा, रतन गढ़ की तलवारों ने यही खेली थी होली, आज भी बड़े गुमान से वो किस्से सुनाये जाते है ,तेरे गाँव के बड़े बड़े सुरमा लोगो के सरो का भोग इसी मंदिर में लगा है माता को, जिसने भी हमारे सामने सर उठाया ,फिर वो सर कभी धड पर नहीं रहा , और तू हमसे नजरे मिलाता है . गौर से देख इस जमीन को और महसूस कर उस खून को जो फिर कभी खौल नहीं पाया हमारे सामने

मेरे लिए ये बहुत अजीब पल था, मुझे समझ नहीं आ रहा था की उसकी बात का मैं क्या जवाब दूँ

सुमेर- क्यों क्या हुआ , फट गयी, अच्छे अच्छे घबरा जाते है तेरी तो बिसात ही क्या , पर न जाने क्यों चल तुझ पर दया करने को जी कर रहा है , चल वापिस मुड जा. तू भी क्या याद करेगा, किस मर्द से पाला पड़ा था , मैं तुम्हे माफ़ करता हूँ प्राण बक्श दिए तेरे .

आसपास के तमाम लोग हंसने लगे, जीवन में पहली बार इस उपहास का बहुत बुरा लगा मुझे, और मैंने उसे उलझने का निर्णय ले लिया पर मैं कहाँ जानता था की मेरा ये निर्णय मेरा भूत, वर्तमान और भविष्य सब बदल देगा

“रतन गढ़ की तलवारों को जंग लग गया क्या , क्या उनकी लहू पीने की हसरत नहीं रही ” मैंने हस्ते हुए सुमेर के अहंकार पर चोट की

“मुर्ख लड़के, तू क्यों मरना चाहता है , चला क्यों नहीं जाता यहाँ से ” ये पुजारी की आवाज थी जो दौड़ते हुए हमारी तरफ आ रही थी

मैं- सुमेर, अपनी तलवारों की धार तेज कर ले, मैं वचन देता हु की रक्त से स्नान होगा माँ तारा की मूर्ति का चाहे वो रक्त तेरा हो या मेरा , मैं तेरे अभिमान को तिनको की तरह बिखेर दूंगा, मेरे लिए ये धरती , ये मंदिर मेरी श्रद्धा रहा है पर तूने बात ही ऐसी कह दी, सुमेर, मैं तुझे चुनोती देता हु,

सुमेर की आँखों में मैंने बिजली की सी चमक देखि

“लगता है इस बार होली, चोमासे में आएगी, बाबा , शंखनाद कर दे, रतनगढ़ का ये बीर इस चुनोती को स्वीकार करता है मैं शुकिया करता हु तेरा जो तेरी वजह से मेरे भाग में ये दिन आया, जा कर तयारी ढाल सजा ले अपनी, और ऐसी ढाल बनाना जो मेरी तलवार का भार सह पाए, जब तेरा सीना चिरुंगा तो असीम ख़ुशी होगी मुझे ” बहुत ख़ुशी से बोला वो

“ऐसी कोई तलवार नहीं बनी जो मेरा सीना चीर दे, देख ले कोई शुभ मुहूर्त , कोई तिथि , जब तू और मैं होंगे आमने सामने , ” मैंने बस इतना कहा

सुमेर- सावन की तीज ,,,,,,,,,,,,,,,

मैं- मंजूर

सुमेर- जा जीले अपने बचे खुचे दिन , बाबा केसरिया झंडा लगा दो प्राचीर पर ताकि हर किसी को मालूम हो जाये रतनगढ़ की तलवार की प्यास जाग उठी है .

मैं वहां से वापिस जाने को हुआ पर तभी मुझे याद आया की माता के दर्शन तो किये ही नहीं मैंने तो मैं सर झुकाने चला गया मेरे पीछे पीछे पुजारी भी आ गया

पुजारी- मुर्ख, माफ़ी मांग ले पाँव पकड ले बात आई गयी हो जाएगी, प्राण सलामत रहेंगे तेरे,

मैं- पुजारी,अहंकार का सर झुकाने की जिम्मदारी सबकी होती है , मैं बस अपनी निभा रहा हु, आगे मेरी नियति

उस रात बहुत देर तक मैं मंदिर में ही बैठा रहा उस मुस्कुराती हुई मूर्ति के सामने , सबकी पालनकर्ता ये ही तो थी मेरा ध्यान भी यही रखेगी मुझे फिर क्या डर

अगला दिन बस बेचैनी में कटा मेरा , शाम को खेत पर बैठे मैं सोच रहा था की क्या करू की तभी मैंने गाड़ी को आते देखा, ये मेरे पिता की गाडी थी ,और जैसे ही वो गाड़ी से उतर के मेरी तरफ आये, एक जोरदार थप्पड़ मेरे गाल पर आ पड़ा .
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12-07-2020, 12:13 PM,
#32
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#27

“तू पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया , तेरे जैसी नालायक औलाद रब्ब किसी को न दे ” ये मेरे पिता के शब्द थे

मैं- तो फिर इस नालायक के पास आने की क्या जरुरत पड़ गयी, महलो के राजा को यु फकीरों के दर पर कोई देखेगा तो हसेगा

पिताजी- हरामजादे, तेरी ये बाते तीर सी चुभती है मुझे, और तू जो ये काण्ड करके आया है न , इसकी कीमत क्या है तू नहीं जानता , इस दुःख को मुझे ढोना पड़ेगा, अरे नालायक तू मुझे अगर कोई ख़ुशी नहीं दे सकता तो कम से कम दुःख तो मत दे.

मैं- जब हमारी राहे जुदा है तो मेरे बारे में क्या सोचना

पिताजी- आखिर कौन बाप होगा जो अपने बेटे की लाश को आग देगा

मैं- वो बाप आप नहीं होंगे, और ये झूठी फ़िक्र किसलिए करते है, आपको मेरी जरुरत न कभी थी न होगी, कबीर कभी आपकी छाया न था और न होगा, आपको इस बेटे की कभी जरुरत नहीं थी , न होगी दरअसल आप यहाँ आये है अपने गुरुर की खातिर , आपको डर इस बात का है की अगर मैं सुमेर सिंह से हार गया तो आप का सर झुक जायेगा , और ठाकुर साहब का अहंकार सबसे ऊँचा है , हैं न पिताजी ,

पिताजी- बेकार है तुझ से बात करना , मुझे इतना बता आखिर तुझे दुश्मनों के गाँव जाने की क्या जरुरत पड़ गयी,

मैं- ताई ने बताया नहीं क्या ,

मेरी बात सुनकर पिताजी के चेहरे पर हवाइया उड़ने लगी,एक पल को वो रौनकदार चेहरा पीला पड़ गया . उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी, की ऐसे मैं उनके मुह पर उन्हें आइना दिखा दूंगा.

मैं- अब आप मुझे बताइए , ताई को मेरे बिस्तर में भेजने का क्या प्रयोजन था खैर आप से क्या पूछना जरुर कोई लालच रहा होगा, बिना किसी फायदे के आप कहाँ कुछ करते है , पर अफ़सोस, कबीर के पास आपको देने के लिए कुछ नहीं .और हाँ ताई से कहना उसे मेरे पास आने की जरुरत नहीं क्योंकि जब उसे सच मालूम होगा तो मैं उस से नजरे नहीं मिला पाउँगा और आप भी . , मुझे मेरे हाल पर छोड़ देना, यदि सुमेर सिंह मेरी साँसों की डोर काट भी दे तो आप मत आना मेरे जिस्म के टुकड़े समेटने और

मेरी तीखी बातो ने पिताजी के कलेजे को छलनी कर दिया वो बस इतना बोले- तेरी माँ से मिल ले बार, बहुत याद करती है तुझे

मैं जरुर मिलूँगा पर गाँव की मालकिन से नहीं , जिस दिन वो अपने बेटे से मिलने आएगी जरुर मिलूँगा.

“मैं राणा से मिलकर इस मामले को सुलझाने की कोशिश करूँगा ” पिताजी ने कहा

मैं- क्यों, ठाकुर साहब को अपने खून की गर्मी पर भरोसा नहीं रहा क्या आजकल

मेरी इस बात को सुन कर वो कुछ नहीं बोले बस चले गए वहां से.

कहते है न की इन्सान को अपने अहंकार से बहुत प्रेम होता है कुछ ऐसा ही हाल मेरा था और इसी अभिमान में मैं उस शाम फिर से तारा माँ के मंदिर में पंहुचा , आरती खत्म हो गयी थी मेरे पहुचने से पहले ही म मैंने दर्शन किये और पानी पी रहा था की मैंने सुमेर सिंह को देखा , अपने दोस्तों के साथ वो तयारी कर रहा था , उसने भी मुझे देखा पर वो अपना काम करता रहा . तक़दीर ने हम दोनों को न जाने किस काम के लिए चुन लिया था , जिंदगी के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा था मैं जहाँ से कुछ दिख नहीं रहा था मुझे, ,मैं मूर्ति के आगे जाके बैठ गया, मैं बस ऐसा ही करता था, कुछ देर बाद घंटी की आवाज आयी मुझे लगा मेघा होगी मैंने पलट कर देखा, एक बुजुर्ग औरत थी , माता को परसाद चढ़ाया उसने और फिर थाली मेरी तरफ कर दी,

“प्रसाद लो बेटे ” उन्होंने कहा

मैंने अपने हाथ आगे किये प्रसाद लिया और फिर उनके चरण -स्पर्श किये

“आयुष्मान भव ” बोली और मेरे पास ही बैठ गयी.

उनके पास एक किताब थी बहुत देर तक वो उसे पढ़ती रही, उनके चेहरे पर एक अजीब सा तेज था , वो शांत थी जैसे उस सन्नाटे का एक हिस्सा हो . फिर वो चली गयी, मैं इंतज़ार करता रहा मेघा का, पर वो नहीं ये,

मेरी अब ये दिनचर्या हो गयी थी मैं घंटो सुमेर सिंह को पसीना बहाते देखता हर शाम वो बुजुर्ग औरत मंदिर आती, मुझे प्रसाद देती अपनी किताब पढ़ती और चली जाती , ठीक पांच दिन बीत गए थे और फिर उस शाम जब उसने अपनी किताब पढनी बंद की तो बोली- मैं सुमेर की दादी हूँ

बेहद विनम्रता से कहे गए इन शब्दों ने मुझ पर जैसे बज्रपात सा कर दिया था , मुझे समझ नहीं आया की मैं क्या कहूँ , दरअसल मेरे पास कुछ भी नहीं था कहने को

“फिर मेरी भी दादी हुई न आप ”मैं बस इतना बोल पाया

वो- हाँ

मैं- दरअसल मैं , मेरा मतलब मुझे नहीं मालूम मैं क्या कहू,ये सब जो हुआ है , जो होगा ...........

“तुम्हे कुछ कहने की जरुरत नहीं , मैं सब समझती हु, इन बूढी आँखों ने बहुत कुछ देखा है ये जगह बेटे, ये जगह जहाँ हम बैठे है कहने को तो ये मंदिर है पर इसका सच ये है की ये कब्रिस्तान है, इस जमीन को खून से सींचा गया है , आत्मा की नजर से देखो तो तुम्हे चारो तरफ बिखरी लाशो के सिवा कुछ नहीं दिखेगा. ये सब अहंकार, द्वेष , अपनी अपनी लालसा का ठिकाना है , ” उन्होंने कहा

मैं- पर आप का ये सब मुझे बताने का क्या प्रयोजन है

दादी- मुझे मेरा पोता सबसे प्यारा है , मैचाहती हूँ की यदि वो तुमसे हार जाए तो तुम उसके प्राण नहीं लोगे,

मैंने उस बुजुर्ग औरत की आँखों में वैसी ही बेबसी देखि जैसे मैंने मेरे पिता की आँखों में देखि थी और मुझे अहसास हुआ की वो कितने सच्चे थे उस लम्हे में

मैं- दादी, ये मेरे बस में तो नहीं , हो सकता है की वो जीत जाये,

दादी- हो सकता है पर मुझे तुम्हारी सलामती भी चाहिए,एक दिए को बुझाकर कौन अपने घर में रौशनी करना चाहिए, बेटे यदि तुम हाँ कहो तो मैं तुम्हे वचन देती हु की तुम्हारे एक कोई भी ख्वाहिश मैं पूरी करुँगी ,

मैं- इस जगह के किसी भी किये वादे का कोई मोल नहीं , कोई वजूद नहीं

दादी- मेरा वचन है .

मैं- प्रीत का वचन भी यही तोडा गया था , है न दादी .............................,
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12-07-2020, 12:13 PM,
#33
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#28

हम दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी थी , एक सवाल दादी का था एक मेरा था और दोनों के पास ही कोई जवाब नहीं था, हम जानते थे की अपनी अपनी जगह हम दोनों सही थी, हमारे पास अपनी अपनी वजह थी वो मेरा इकरार चाहती थी मैं उनका इकरार .

“क्या नाम है तुम्हारा ” बोली वो

मैं- जी कबीर

दादी- कबीर, सामने जो ये मूर्ति है इसमें तुम्हे क्या खास दीखता है

मैं कुछ नहीं बस और मूर्तियों जैसी ही है ये

दादी- गौर से देखो

मैंने देखा पर कुछ खास नहीं लगा .

दादी- ये एक अधूरी मूर्ति है ,

मैं- असंभव , कोई भी अधूरी या खंडित मूर्ति की स्थापना नहीं की जा सकती

दादी- तुम्हे कुछ भी नहीं मालूम और बात तुमने प्रीत के वचन की कह दी , मुझे लगा था की तुम .......

दादी ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी .

मैं- क्या लगा था आपको

दादी- मेरे जाने का समय हो गया कबीर,

दादी ने अपनी किताब उठाई और मंदिर से बाहर की तरफ चल पड़ी, मेरे दिमाग में बहुत से सवाल छोड़ गयी. मैं घंटो सुमेर सिंह को देखता उसके हर एक पैंतरे को , उसके रिफ्लेक्स किस तरह की चपलता थी उसमे, किस तरह वो आगे पीछे होता है , मैं बारीकी से उसकी हर एक हरकत को देखता ,

बस थोड़े से दिन रह गए थे और मैं बड़ी शिद्दत से मेघा से मिलना चाहता था , मेरे दिल में बहुत सी बाते थी जो मैं उस से कहना चाहता था , उसको अपने सीने से लगाना चाहता था उसे बताना चाहता था की कितना प्यार करने लगा था मैं उस से

और वो न जाने कहाँ गुम थी, मुझे नींद नहीं आती थी रातो को ,मैं बस बैठा रहता था,सोचता रहता था ये मूर्ति मुझे देखती थी और मैं उसे, न वो कुछ कहती थी न मैं कुछ . बस एक बात थी की मुझे लगता था की इन तमाम टूटे धागों की डोर से मेरा कुछ तो लेना देना था .मुझे टुकड़े मिल रहे थे बस तलाश थी एक सिरे की, जिस से इस कहानी की कोई भी एक डोर मैं पकड सकू,

इन तमाम उलझनों की बीच मैं एक चीज़ को भूल गया था, वक्त को जो अपने अन्दर न जाने ऐसे कितने अधूरे, कितने पुरे किस्से समाये बैठा था, जिसने न जाने कितनी प्रीत देखि थी जो न जाने कितनी जुदाई का गवाह था . वो तो बस सब देखते हुए बढ़ता रहता है अपने सफ़र पर और उसके सफ़र का पड़ाव सावन की तीन का दिन भी आ ही गया, ये वो दिन था जो दो लोगो के अहंकार को तोड़ देने वाला था , ये वो दिन था जो इन दो गाँवो के इतिहास में एक पन्ना और जोड़ देने वाला था .

घरघोर मेह ऐसे बरस रहा था की जैसे धरती की सारी प्यास आज ही बुझा देगा. काले बादलो ने ठान ली थी की आज सूरज की किरणों को धरती पर नहीं उतरने देंगे पर कुछ लोग थे जिनको इस सब से घंटा फर्क नहीं पड़ता था . वहां मोजूद उन सारे लोगो की आँखों में जो देखा मैंने मुझे सुमेर सिंह की कही बात याद आई, होली जल्दी आई है बरसो बाद .

लोग चीख रहे थे चिल्ला रहे थे, और मेरी नजरे किसी को ढूंढ रही थी पर सामने कोई और था .

“ढाल के रूप में नहीं लाया किसी को , तेरे घुटने टिकने लगेंगे तो सहारा कौन देगा तुझे ” सुमेर ने जैसे मेरा उपहास उड़ाते हुए कहा

मैं- ढाल तो तू भी नहीं लाया.

सुमेर- मुझे जरुरत नहीं पड़ेगी, और तू दुआ कर की मेरे हाथो से ही मर जाये, उसे तू झेल नहीं पायेगा.

पुजारी ने शंख बजाया और खेल शुरू हो गया , मैं कुछ समझ पाता उस से पहले ही सुमेर ने मुझे धरती पर पटक दिया, पहले ही झटके को मैंने अपनी हड्डियों के अन्दर तक महसूस किया.

“क्या हुआ , अभी से चित्त ” हस्ते हुए बोला वो .

मैं उठा और इस बार उसे पटकने की कोशिश की पर बेकार, इस बार उसके वार को बचाया मैंने और मुझे उसके जोर का अंदाजा हुआ, गीली मिटटी में पैर फिसलने लगे थे, की तभी उसने अपने बदन को ढीला छोड़ दिया और झुकते हुए मेरी पीठ पर वार किया

“आह ”चीख पड़ा मैं वो तेज नश्तर मेरी पीठ के मांस को चीर गया. लोगो का शोर बढ़ने लगा था वो चीख रहे थे, खून देखकर पागल हुए जा रहे थे .

अब बारी मेरी थी , पर उसकी तलवार मुझसे तेज थी, एक के बाद एक कई बार वो मेरे जिस्म पर अपने निशाँ बना रही थी, , एक तो बारिश की वजह से मैं देख नहीं पा रहा था या शायद खून बहने की वजह से, पर मुझे हारना नहीं था , हारना नहीं था , उसके वारो से बचते हुए मैंने स्मरण करना शुरू किया, मैं तमाम वो पल देख रहा था जब मैंने उसे देखा था और फिर तन्न्न से हमारी तलवारे टकराई , मेरे जोर से सुमेर झुकने लगा. वो पूरी कोशिश कर रहा था पर फिर भी उसकी तलवार को झुकाते हुए मेरी तलवार उसके काँधे पर घाव कर गयी,

कभी वो तो कभी मैं , एक दुसरे को पछाड़ने की भरपूर कोशिश कर रहे थे, , एकदो बार मैंने बहुत मुश्किल से खुद को बचाया और फिर एक पल ऐसा आया जब गीली मिटटी पर उसका पाँव फिसला और मैंने मौके का फायदा उठा लिया. आधे सीने को चीर दिया मैंने , तलवार की नोक कुछ इंच अन्दर घुस गयी थी सुमेर के और उसकी तलवार हाथ से छूट गयी.

मेरे लिए ये बड़ी बात थी मैंने उसकी आँखे बंद होते देखि,

“उसके प्राण मत लेना ” मुझे दादी कीबात याद आई , दरअसल उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया. मैंने सुमेर की तलवार उठा ली, सबकुछ जैसे शांत हो गया था, एक गहरा सन्नाटा

“तो मैं जीत मानु अपनी ” मैंने दोनों तलवारे लहराते हुए कहा

कोई कुछ नहीं बोला, सब स्तब्ध थे ,

“मैं इसे मारना नहीं चाहता, मेरा कोई बैर नहीं इस से , मैं बस उस अहंकार को हराना चाहता हूँ जो नफरत बनकर तुम सब के दिलो में बैठा है ” मैंने चीखते हुए कहा

नहीं मालूम किसी ने मेरी बात सुनी के नहीं , मैंने तलवारे फेंकी और खुद को संभालते हुए, मंदिर की तरफ जाने लगा की तभी दर्द ने बदन को हिला दिया मैंने देखा सुमेर ने पीछे से वार किया था मुझ पर . उसके अगले वार को बचाते हुए मैंने भागकर अपनी तलवार उठाई ही थी

“रुक जाओ ” ये जोरदार आवाज राणाजी की थी , प्रज्ञा के पति की

वो दौड़ते हुए हमारी तरफ आये और आते ही सुमेर को थप्पड़ मार दिया

“शर्म नहीं आती ये कायरता वाला कृत्य करते हुए, ” उन्होंने एक थप्पड़ और मारा सुमेर को

राणा-हार को भी उसी तरह स्वीकार करना चाहिए जैसे जीत को पीठ पीछे वार करना नपुन्सको की निशानी है सुमेर ,

“मैं चाहता तो तुझे मार सकता था सुमेर पर मैं ऐसा चाहता नहीं था , रही बात इस ज़ख्म की तो तू दुआ करना ऐसा कोई लम्हा नहीं आये तेरे जीवन में जब तू ऐसा दिन देखे, उस दिन मैं एक पल भी नहीं सोचूंगा ”

मैंने राणा जी की तरफ देख कर हाथ जोड़े और मंदिर की तरफ चल पड़ा

मैंने कहा था की सुमेर के रक्त से नहला दूंगा इस मूर्ति को पर चलो उसका नहीं तो मेरा ही सही, अपने बहते रक्त से सने हाथो को मैंने मूर्ति पर लगाना शुरू किया, पर मैं कहा जानता था की मैं किस बंधन को बाँध रहा था उस पल

मुझे बैध की जरुरत थी, सीढियों से उतरा तो देखा मेरा भाई और बाप खड़े थे गाड़ी लिए,

“गाड़ी में बैठो ” कर्ण ने कहा पर किसे परवाह थी उसकी

बिना उनको देखे मैं पैदल ही चल पड़ा , थोड़ी मुश्किल से मैं टूटे चबूतरे तक पहुंचा और खांसते हुए बैठ गया. ये दूसरी बात था जब मेरा खून इस चबूतरे पर बिखरा था ,शायद यही नियति का लेख था
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12-07-2020, 12:13 PM,
#34
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#29

जिंदगी बस उस मंदिर और इस टूटे चबूतरे के बीच सिमट कर रह गयी थी, मैं समझने लगा था की हो न हो इस का और मंदिर के बीच कोई तो सम्बन्ध है कोई तो बात है , पर क्या ये कौन बताये कौन राह दिखाए मुझे , पर वो सुबह मेरे लिए रोशन होने वाली थी ,

“कबीर, उठो , उठो न कबीर ” मेरे कानो में वो शोख आवाज जैसे उतर कर सीधा दिल पर दस्तक दे गयी, उस सुबह आँखे खोलते ही मैंने सबसे पहले जिस चेहरे को देखा, उसे मैं बार बार देखना चाहता था हर बार देखना चाहता था .

“तुम यहाँ कैसे, ” मैंने पूछा

“ढूंढने वाले तलाश कर ही लेते है , ” मेघा बोली

मैं मुस्कुरा दिया

मैं- मुझे मालूम होता तो मैं थोडा संवार लेता, सब कुछ अस्त व्यस्त पड़ा है

मेघा- क्या फर्क पड़ता है ,तुम हो पास मेरे बस और क्या कहूँ मैं

मैं- तू बैठ तेरे लिए कुछ लाता हु खाने को मैं, बस अभी गया और अभी आया

मेघा- जरुरत नहीं, मैं यही कुछ बना लेती हु, सामान तो है न

मैं- तुम चूल्हा जलओगी

मेघा- क्यों, आखिर तुम्हारा चूल्हा मुझे ही जलाना है

उफ्फ्फफ्फ्फ़ इन लडकियों की ये शोख अदाए, इकरार भी नहीं करती और सब कह भी जाती है

“अब उठ भी जाओ, कब तक पड़े रहोगे यूँ इस तरह ” कहा उसने

मैं उठा और बाहर हाथ मुह धोने चला गया, आया तब तक उसने चाय चढ़ा दी थी .

मैं- तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था , इस माहौल में भटकना ठीक नहीं

मेघा- यही बात मैं भी कहती हूँ तुम्हे, मेरा कहना माना है क्या कभी तुमने

मैं- क्या करू, तुमसे मिलने को दिल करता है मैं रोक नहीं पाता खुद को

मेघा- ये भी नहीं सोचते की की तुम्हे कुछ हो गया तो............. समझते क्यों नहीं अब तुम अकेले नही हो, कोइऔर भी है जो तुम्हे देख कर जीता है, और क्या जरुरत थी ये तमाशा करने का, मैं बहुत नाराज हूँ तुमसे , कब तक तक़दीर के भरोसे रहोगे तुम,

मैं- मेरी तक़दीर तुम हो मेघा,

मेघा- इसीलिए डरती हूँ मैं , मैं किस से कहू अपनी पीड़ा, किसी ने जरा सा उकसाया और तुम तैयार हो गए, मर्द के अहंकार को कुछ नहीं होना चाहिए , सोचा तुमने मेरे बारे में, ये जो दम भरते हो न मोहब्बत का, ऐसे निभाओगे इसे

गुस्से में उबलती चाय को फूंक मारते देखना उसे, दिल हार जाता कोई भी उस पल , वो न जाने क्या कह रही थी , किसे खबर थी , मेरे होंठो पर एक मुस्कान थी , मेरी निगाहे बस उसे देख रही थी और देखे भी क्यों ना, हमारे घर हमारी तक़दीर जो आई थी, आज मैं बादलो से कहना चाहता था की ए बादल आज तू बरस , मेरा महबूब आया है आज तू इतना बरस की वो भीग जाए मेरे रंग, में.

“सुन रहे हो न ” थोडा नाराजगी से बोली वो

“आंह, क्या कहा ” मैंने कहा

“चाय और क्या , और इस तरह से न देखो मुझे, ये नजरे कलेजे में उतरती है ” बोली वो

“कातिल खुद को बेगुनाह बताये तो इस से बड़ा क्या गुनाह ” मैंने कहा

मेघा- बाते बड़ी अच्छी करते हो तुम

एक दुसरे को देखते हुए चाय की चुसकिया ले रहे थे हम,

मेघा- कबीर, रतनगढ़ की तरफ थोडा कम करो आना जाना

मैं- तुमसे मिले बिना नहीं रह सकता

मेघा- मैं उसी बारे में सोच रही हु, कोई ऐसी जगह जहाँ हम मिल सके, क्योंकि आज नहीं तो कल हम लोगो की नजरो में आ जायेंगे और फिलहाल के लिए मैं ऐसा नहीं चाहती

मैं- एक न एक दिन तो सबको मालूम होगा ही

मेघा- जानती हु, बस थोडा समय चाहिए,

मैं- ज़माने का डर तो हमेशा रहा है प्रेमियों को

मेघा- प्रेमिका नहीं पत्नी बनना चाहती हूँ पर क्या ये खेल है

मैं- समझता हूँ तुम्हारी बात को ,

मेघा- खैर जाने दो, और बताओ

मैं- बस उलझा हूँ अपने आप में,

मेघा- ये जो बातो को गोल घुमाते हो न तुम मेरा जी करता है मैं मार दू तुम्हे

मैं- सौभाग्य हमारा

मेघा- कमीने

उसने हलके से मेरी छाती में मारा और अपना चेहरा मेरे सीने में छुपा लिया. उसका मेरे आगोश में यु आना ऐसा लगा जैसे रेत पर मेघ की दो बूँद गिर गयी हो.

“धडकने बेकाबू है तुम्हारी ” बोली वो

मैं- तुम्हारे कारण

मेघा- दवाइया समय से ले रहे होना, दुबारा कब मिल रहे हो डॉक्टर से

मैं- जल्दी ही

मेघा- देखू जरा,

मैं- नहीं, ठीक हु मैं , इतनी फ़िक्र मत करो

मेघा- तो किसकी करूँ

मैंने उसे थोडा और कस लिया. फिर मैं उसे बाहर ले आया,

मैं- देखो इस जगह को यही हम अपना आशियाँ बनायेंगे

मेघा- हमारे घर की दीवारों को मैं खुद रंगुंगी, मुझे बेहद पसंद है रंगों से खेलना

मैं- जैसे तुम चाहो.

“तुम कैसे रह लेते हो यूँ अकेले , मेरा मतलब ”

मैं- आदत हो गई है ,

“ये साइकिल तुम्हारी है ” पूछा उसने

मैं- हाँ,

वो- सैर कराओ मुझे , दिखाओ अपना इलाका

मैं- फिर कभी , अभी बस तुम पास रहो मेरे

मेघा- पास ही तो हूँ तुम्हारे,

बहुत देर तक हम बाते करते रहे, ये एक शानदार दिन था , मैंने कभी सोचा नहीं था की कोई ऐसा दिन आएगा जो मुझे इतनी ख़ुशी देगा. दोपहर में हमने खाना बनाया और बाहर पेड़ के निचे बैठ कर खा रहे थे,

मैं- जानती हो तुम बहुत अच्छा खाना बनाती हो ,

मेघा- मेरी माँ से सीखा है वो बहुत पारंगत है

मैं- ओह, , वैसे मेघा मैं तेरे गाँव आने का सोच रहा हूँ , जानता हूँ तू नाराज होगी पर एक बार तो मेरा जाना बहुत जरुँरी है

मेघा- तुझ पर असर तो होना नहीं है, करेगा तू अपने मन की ही, पर किसलिए कबीर किसलिए

मैं- मुझे किसी से मिलना है

मेघा- किस से

मैं- सुमेरी सिंह की दादी से

मेघा- उसकी कोई दादी नहीं है अनाथ है वो .

मेघा ने जैसे बम फोड़ दिया मेरे ऊपर, मेरा निवाला गले में ही अटक गया .
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12-07-2020, 12:13 PM,
#35
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#30

“क्या कहा तुमने ” मैंने कहा

मेघा- वही जो तुमने सुना , सुमेर सिंह की कोई दादी नहीं है , अनाथ है वो

मैं- ऐसा कैसे हो सकता है ,

मेघा- क्या हुआ मुझे बताओ तो सही

मैंने मेघा को पूरी बात बताई. वो भी हैरान थी ,

“खाना खत्म करो ” उसने मुझे कहा

उधेड़बुन के बीच हमने जल्दी से खाना खाया और फिर उसने कहा - मेरे साथ चलो

“पर किधर ” मैंने पूछा

मेघा- रतनगढ़

अजीब लड़की थी इतना बड़ा भाषण दिया था मुझे की मैं वहां न जाऊ और अब खुद ही मुझे ले चली थी . आधे घंटे बाद हम मंदिर के पास थे,

“आओ ” लगभग मुझे खींचते हुए वो मंदिर के आँगन में ले आई

“कहाँ थी वो , मेरा मतलब कहाँ मिले थे तुम उस से ” एक साँस में कितने सवाल पूछ गयी थी वो

मैंने उसे तमाम किस्सा बताया हर एक बात .

मेघा के चेहरे पर शिकन थी

“मेघा तुम्हे ये माता की मूर्ति कैसी लगती है ” मैंने पूछा

मेघा- मतलब

मैं- कभी तुमने इसे ध्यान से देखा है

मेघा- नहीं, पर क्यों पूछ रहे हो

मैं- उस दादी ने मुझे बताया था की ये अधूरी है, खंडित है

मेघा- नहीं ऐसा नहीं हो सकता, अधूरी मूर्ति कभी स्थापित नहीं की जा सकती

मैं- मैंने भी उनसे यही कहा था .

“एक बुजुर्ग औरत आती है तुमसे मिलती है , कहती है की सुमेर को मत मारना , तुम्हारे साथ बैठती है , बाते करती है, क्या तुमने देखा कौन सी किताब पढ़ती थी वो ” मेघा बोली

मैं- नहीं ध्यान नहीं दिया मैंने कभी

मेघा- किस तरह का प्रसाद था वो, लड्डू, जलेबी, मखाने , बर्फी , बूंदी

मैं- इनमे से कुछ नहीं

मेघा- तो फिर

मैं- मीठे पानी की कुछ बूंदे

मेघा- बस ,

मैं - बस

तभी मुझे एक बात याद आई,

“वो पानी , वो पानी ”

“वो पानी क्या कबीर, ” झुंझलाते हुए वो बोली

मैं- वो पानी , मेघा वो पानी, याद है अपनी पहली मुलाकात मेघा, उस तम्बू में तुमने मुझे पानी पिलाया था , वो मीठा पानी , वो बिलकुल ऐसा ही था

मेघा- क्या कह रहे हो कबीर, मैं समझ नहीं पा रही

मैं- वो तम्बू किसका था

मेघा- मैं क्या जानू, वो तो बस उस समय घुस गयी थी तुम्हे लेके

मैंने अपना माथा पीट लिया. मेघा ने मंदिर में रखे पंचांग को उठाया और बोली- किस किस दिन तुम्हे मिली थी वो

मैंने तारीख बताई

कुछ देर वो देखती रही और बोली- बीते दिनों कोई खास संयोग नहीं है

मैं- दादी, के कपडे अमीरों जैसे थे, देख कर लगता था की किसी अमीर खानदान की होंगी , एक मिनट क्या वो राणाजी के परिवार से हो सकती है , शायद उनकी मा

मेघा- राणा जी की मा , हम्म , बरसो से वो हवेली से बाहर नहीं निकली है और चलो मान लो अगर वो तुमसे मिली थी तो भी सुमेर से क्या लेना देना उनका.

मैं- अपने को क्या मालूम.

मेघा- जितना मैं सोचती हूँ उतना ही उलझती जाती हूँ इन सब में , लगता है कहीं मैं पागल न हो जाऊ , पर कबीर, ये बात मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई

उसने अपने झोले से दो तीन कागज निकाले और कुछ रंग,

मेघा- मुझे दादी का हुलिया बताओ , देखते है वो कैसी दिखती है

बहुत देर तक मेघा कागज पर रेखाओ से खेलती रही और अंत में मेरे कहे अनुसार आखिर उसने तस्वीर बना ही ली

“क्या वो ऐसी दिखती थी ”

मैं- बहुत कुछ ऐसी ही .

मेघा- मैं मालूम करती हु, तलाश करती हु पुरे रतनगढ़ में की कौन है ऐसी बुजुर्ग औरत .

मैं- अगर वो तम्बू वाले भी मिल जाये तो

मेघा- मेले में न जाने कितने लोग आते है , भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसी बात करते हो.

मैं- ये सब नियति का खेल है मेघा, मेरा तुमसे उसी खास लम्हे में मिलना, हमारा प्रेम, हम दोनों की जिन्दगी का यु मंदिर और टूटे चबूतरे के बीच सिमट जाना, मेघा कोई तो बात है, कोई तो कहानी लिख रही है तक़दीर , जिसके पात्र हम है .

मेघा- पर ये कहानी आगे तो बढे, हर दो कदम पर पीछे हटना पड़ता है

मैं- अगर हम ये पता लगा सके की टूटे चबूतरे और इस मंदिर का क्या मेल है तो कोई सिरा हाथ आ सके

मेघा- कुछ तो गड़बड़ है , कुछ तो ऐसा है जो नजरो के सामने होकर भी छुपा हुआ है , पर अभी मुझे जाना होगा सांझ ढल रही है और हाँ मैं एक हफ्ते बाद तुमसे मिलूंगी, तुम्हारे खेत पर , तब तक मैं योजना भी बना लुंगी की हमेशा किस स्थान पर मिलना होगा और तब तक मैं कुछ काम भी निपटा लुंगी.

मैं- जो हुकुम सरकार

मेघा ने इधर उधर देखा और फिर मेरे माथे को हौले से चूमा , बोली- अपना ध्यान रखना भटकना मत . मिलती हु जल्दी ही

वो तो चली गयी थी पर बहुत से सवाल छोड़ गयी .

शाम को पुजारी आया तो मैंने उस से पूछा- पुजारी वो जो औरत शाम को आती थी वो कौन थी .

पुजारी- कौन औरत

मैं- अरे वही, जो मंदिर में बैठकर पुस्तक पढ़ती थी,

पुजारी ने चुतिया के जैसे देखा मेरी तरफ और बोला- किस की बात कर रहा है , मैंने तो नहीं देखा ऐसी किसी औरत को

मैं- सुन मेरी बात को ध्यान से समझना और फिर जवाब देना , ये जो माता की मूर्ति है , तुम्हे क्या दीखता है इसमें

पुजारी- कहना क्या चाहता है लड़के

मैं- क्या ये मूर्ति अधूरी है

पुजारी- किसने कहा तुमसे, अधूरी मूर्ति स्थापित नहीं होती

मैं- गौर से देखो तो सही

पुजारी- माफ़ कर मुझे, जब से तू यहाँ आया है कुछ न कुछ उल्टा सीधा हो रहा है , तेरे जाने के बाद कोई पाठ करना पड़ेगा मुझे.

मैं- बढ़िया. पर मेरा सवाल फिर भी वही है वो औरत कौन थी .
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12-07-2020, 12:13 PM,
#36
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#31

तारो की छाँव में मैं वापिस पहुंचा , थोडा बहुत खाया पिया और सोने की कोशिश करने लगा. पर आँखों में बार बार उस दादी की तस्वीर आ रही थी , उसका मुझसे मिलना , बाते करना , आखिर उसका क्या मकसद था , मेरा सर फटने को था , कभी इधर करवट बदलू तो कभी उधर पर चैन न मिले करार न मिले, इस समय मुझे एक ही चीज़ थोडा सकूं दे सकती थी वो थी चूत , और उसका मिलना इस समय ना मुमकिन था , ताई से मेरा मन उचाट हो गया था अब करू तो क्या करू, मैं तमाम बातो पर विचार कर रहा की मेरे दिमाग में सविता मैडम की कही बात ध्यान आई

“तुम तो जानते हो तुम्हारे पिता पैसो के मामले में केवल मास्टर जी पर भरोसा करते है , ”

मास्टर जी को सब कुछ मालूम होगा. कहाँ कहाँ हमारी जायदाद है , मैंने भूसे के ढेर में सुई तलाशना शुरू कर दिया था. उसी समय मैंने साइकिल उठाई और गाँव की तरफ चल पड़ा.

“मास्टर जी कहा है ” मैंने सविता से पूछा

सविता- क्या हुआ , और हांफ क्यों रहे हो तुम

मैं- मास्टर जी कहाँ है , कुछ जरुरी काम है

सविता- अन्दर आओ

मैं- अन्दर गया .

सविता- वो शहर गए हुए है, परसों तक लौटेंगे

मैं- मिलना जरुरी था

सविता- तुम्हारे पिता से सम्पर्क करो, उनके साथ ही गए है, तुम्हारे पिता एक नयी फैक्ट्री लगा रहे है उसी के चक्कर में , पर तुम मुझे बता सकते हो शायद मैं कुछ मदद कर सकू

मैं- मुझे जानना था की हमारी कहाँ कहाँ जमीं जायदाद है , हर एक छोटी से छोटी जानकारी

सविता- क्या इरादे है, बंटवारे का तो नहीं सोच लिया है

मैं- नहीं मैडम जी, मेरे कुछ सवाल है जिसका जवाब चाहिए मुझे

सविता- कबीर, देखो मैं नहीं जानती तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, पर मैं तुम्हे इतना कहूँगी की अभिमन्यु मत बनो, वर्ना उलझ कर रह जाओगे इस सब में, अर्जुन की तरह सोचो .

“अर्जुन के पास तो माधव थे मेरे पास कौन है ” मैंने कहा

मैडम- कबीर, ऊपर वाला जब बहुत से दरवाजे बंद कर देता है तो एक नया दरवाजा खोलता भी है ,

मैं थोड़ी देर और वहां बैठा और फिर चल दिया . पर जाऊ कहाँ , किस दर पर जाके फरियाद करू की मेरे इन सवालों के जवाब दे कोई तो हो जो मुझ को थाम ले, अपने घर के पास से गुजरते हुए एक बार फिर मेरे कदम डगमगा गए, एक ऐसी डोर जो रोक लेती थी मेरे कदमो को, ये दहलीज जिसे पार करने से मुझे मेरा अहंकार रोक लेता था , उस बड़े से दरवाजे के सामने खड़ा मैं बस देखता रहा .

अपने ही घर की देहरी पार ना करने की बेबसी क्या होती है कोई मुझसे पूछे, मेरी आँखों से आंसू गिरने लगे, मेरा दर्द आंसुओ के बहाने बहने लगा.कापते कदमो से मैं हवेली के दरवाजे की तरफ बढ़ा और खोल दिया उसने, जानी पहचानी हवा ने मेरे माथे को चुमते हुए इस्तकबाल किया मेरा. एक कदम आगे बढ़ाते हुए मैंने उस जंजीर को तोड़ दिया. बरसो बाद कबीर ने उस आँगन को देखा था .

आंगन में लगा वो तुलसी का पौथा आज भी वैसा ही था, बल्कि कुछ भी नहीं बदला था , मेरे होंठो पर एक मुस्कान आ गयी

“कौन है वहां ”

मैंने मुड कर देखा , भाभी थी .....

“माँ माँ बाहर आओ जरा ” भाभी जोर से चिल्लाई

और फिर मैंने रसोई से बाहर निकलते उसे देखा, दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा, वो चेहरा जिसे देखते देखते मैं बड़ा हुआ था, जिसके आंचल तले परवरिश हुई थी मेरी

माँ ने जैसे ही मुझे देखा, हाथो से थाली छूट गयी , सब कुछ भूल कर दौड़ते हुए वो मेरे सीने से आ लगी. ज़माने भर का करार था उस आगोश में , मैंने भी हाथ आगे करके माँ को अपने आगोश में भर लिया. इस पल ने मुझे अहसास करवाया की औलाद के लिए असली भगवान कौन होता है, बहुत देर तक वो सुबकती रही .

“बहुत इंतजार करवाया बेटे, ” रुंधे गले से बोली वो.

और मेरे पास कोई जवाब नहीं था, मेरी तमाम मजबुरिया, मेरा अहंकार, मेरा दंभ सब कुछ उस के एक सवाल ने चूर चूर कर दिया था. मैं क्या कहता उसे, कुछ नहीं कह पाया. माँ ने मेरे माथे को चूमा

“बहुत कमजोर हो गया है ” बोली वो

मैं- तबियत ठीक नहीं है थोड़े दिन से

माँ- चल अन्दर आ

मैं- जाना है , रात बहुत हुई

माँ- दो घडी रुक ,खाने का समय हुआ है खाना खा ले पहले, आ मेरे साथ आ.

मैं ना नहीं कर पाया.

“क्या मैं अपने कमरे में हो आऊ ” मैंने पूछा

माँ- इजाजत की जरुरत नहीं कबीर,

मैं पहली मंजिल पर अपने कमरे में आया. कुण्डी खोली , सब कुछ वैसा ही था जैसे मैं छोड़ गया था . खिड़की के पास रखी मेज पर मेरी किताबे आज भी वैसी ही रखी थी, मैंने अलमारी खोली, मेरा हर सामान आज भी हिफाजत से था. कमरे को देख लगता ही नहीं था की मैं बरसो से यहाँ नहीं आया.

“माँ, घंटो बैठी रहती है यहाँ, आपको बहुत याद करती है ” ये भाभी थी , जो कमरे के दरवाजे में खड़ी थी.

“कबीर, मैं माफ़ी चाहूंगी उस दिन मैं आपो पहचान नहीं, पायी, मैं मिली जो नहीं थी आपसे ” भाभी ने कहा

मैं- कोई बात नहीं भाभी, होता है और बताओ मन लग गया यहाँ

भाभी- हाँ मन लग गया

कुछ देर बाद मैं निचे आ गया. जल्दी ही खाना भी आ गया

माँ ने खाना परोसा .

“मेरे भेजे खाने को वापिस क्यों भेज देता है तू ” पूछा उसने

मैं- तुम क्यों नहीं आई कभी, बेटे की याद नहीं आई

माँ- बहुत आई पर पैरो में पति की बेडियां भी थी, भंवर में छोड़ दिया मुझे तो किस किनारों को पकडू

ये कहकर वो खामोश हो गयी, पर हमारे रिश्ते की हकीकत ही यही थी, खाने के बाद मैं चलने को उठ खड़ा हुआ

“ये सब तेरा ही हैं ये घर, हम लोग सब तेरे ही हैं, आ जाया कर , ” वो बस इतना बोली

मैंने सर झुका लिया
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12-07-2020, 12:13 PM,
#37
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#32
“कुंवर सा , उठिए सुबह हो गयी है ”

इस आवाज से मेरी आँख खुली, मैंने देखा मैं एक दूकान के आगे पड़ी बेंच पर सोया पड़ा था .

“आहन एक मिनट रुको. और एक चाय ले आओ जरा ” मैंने उस से कहा और फिर आँखों को मूँद लिया . कुछ देर और सोना चाहता था मैं, चाय पीने के बाद मैं वापिस अपने खेतो की तरफ चल दिया. कल रात की खुमारी अभी तक आँखों में चढ़ी थी , बहते पानी में मैंने खुद के अक्स को देखा, एक रंग सा चढ़ा था मुझ पर , मेघा का रंग, उसके नूर का रंग.

सुबह की किरने कुछ ऐसे छू रही थी मुझे जैसे मेघा के लब चूम रहे हो मुझे, मेरी आँखे सपने सजाने लगी थी, मैंने कभी सोचा नहीं था की इन पगडण्डी पर चलते हुए मैं इश्क की मंजिल तक पहुँच जाऊंगा, इस कुछ किलोमीटर के जंगल ने मुझे बार बार अहसास करवाया था की मेरी दुनिया बस इस तक ही सिमटी हुई है , और बात थी सही थी, इसने मुझे सब कुछ दिया था मेघा, प्रज्ञा और कुछ अनसुलझे सवाल , मैंने अपनी पेंट कुछ ऊँची की और अपने पांवो को घुटनों तक ठन्डे पानी में लटका दिया. कसम से बहुत सुख मिला. मैंने आँखे फिर बंद कर ली. और ख्यालो में डूब गया.

खिडकिया बंद थी पर रोशनदानो से आती रौशनी बता रही थी की जिंदगी अभी भी थी, उस कमरे में , कुर्सी पर पीठ टिकाये वो सामने टंगी तस्वीर को घूरे जा रही थी , चेहरे पर मुस्कान थी आँखों में आंसू, एक गहरी सांस ली उसने और पास रखे कपड़े से उस तस्वीर पर जमी धुल को पोंछने लगी .

“जुदाई लम्बी हो गयी सरकार, अब नहीं होता मुझसे, अब नहीं होता ,तुम्हारे बिना कुछ भी तो नहीं है ,तोड़ क्यों नहीं देते इस डोर को ” जैसे वो उस तस्वीर से शिकायत कर रही थी , पर अफ़सोस तस्वीरे जवाब जो नहीं देती.

हताश होकर वो उस कमरे से बाहर आई, सूरज की रौशनी जो उसके चेहरे पर पड़ी, उसके तेज से जैसे सूरज भी लाल हो गया, अपने आस पास एक नजर डाली उसने, दिल में गहरी टीस उठी, गुलिस्तान को जैसे किसी की नजर लगी पड़ी थी , जो पहले कभी कुछ था वो अब कुछ नहीं था . उन टूटी संगमरमर की सीढियों पर बैठे वो सूरज को निहारती रही बस निहारती रही .

“कबीर ” बिस्तर पर करवट बदलते हुए वो हौले से फुसफुसाई,सूरज कब का सर पर चढ़ गया था पर उसका मूड नहीं था शायद उठने का, पास रखे तकिये को उसने हलके से चूमा और फिर सीने से लगा लिया.

काश उस समय कोई सहेली होती उसके पास तो रश्क कर लेती, उसके चेहरे पर आई मोहब्बत की रंगत को देख कर.

परदे हटाये, खिडकीयो को खोल दिया और शीशे के सामने निहारा उसने खुद को. चेहरे पर घिर आई लटो को कान के पीछे किया उसने और हंस पड़ी,

“बहुत जल्दी मैं तुम्हारे लिए सजुंगी कबीर, ” उसने शीशे को देखते हुआ कहा

“पर क्या होगा जब कबीर के सामने हकीकत आएगी, क्या ये जमाना हमारी मोहब्बत को मुकाम देगा. ” उसके दिमाग ने सवाल किया.

हस्ते चेहरे की ख़ुशी अचानक से गायब हो गयी. उसने एक गहरी सांस ली और खुद से बोली- देख लेंगे ज़माने को

“मेघा, ओ मेघा, उठ जा अब कब तक सोती रहेगी ” बाहर से आती आवाज ने उसे ख्यालो की दुनिया से धरातल पर ला दिया

“आई ” कहते हुए वो बाहर की तरफ भागी .

दूसरी तरफ

“हुकुम , सविता बता रही थी की कल कबीर घर आया था , पूछ रहा था आपकी तमाम प्रोपर्टी के बारे में ” मास्टर ने ठाकुर साहब को बताते हुए कहा

“उसे जानकारी भी होनी चाहिए , आखिर कल को आधा हिस्सा उसका ही होगा न ” ठाकुर साहब ने कहा

मास्टर- मुझे नहीं लगता हुकुम, उसे दौलत में रूचि है .

ठाकुर- आजकल उसके दिमाग में न जाने क्या चल रहा है , तुम्हे तो मालूम है ही उसने रतनगढ़ में क्या बखेड़ा खड़ा किया ,

मास्टर- ठाकुरों का खून है ,

ठाकुर- नहीं मास्टर, बात वो नहीं है , उसकी बेख्याली, उसकी बे परवाह हरकते, उसका यूँ भटकना कुछ तो है , वो कुछ तो कर रहा है , मैंने कुछ लोग लगाये थे उसकी मदद को पर एक एक करके उन सबका कत्ल हो गया.
मास्टर- तो क्या आपको लगता है की कबीर ने उनको
ठाकुर- नहीं वो ऐसा नहीं करेगा, लोगो की परवाह करता है वो . उसने रतनगढ़ वाले लड़के को भी नहीं मारा था

मास्टर- तो क्या मैं उसे सब बता दू, हर एक डिटेल

ठाकुरु- हाँ

ये कहते हुए ठाकुर साहब के चेहरे पर ऐसे भाव थे जिन्हें वो चाह कर भी छिपा नहीं सकते थे ,

भटकते भटकते मेघा जंगल की गहराई में उतर गयी थी, इस तरफ बहुत ज्यादा पेड़ थे घनी झाडिया थी, इतनी घनी की दोपहर बाद की धुप भी शर्मा रही थी वहां आने को. मेघा को तलाश थी किसी ऐसी जगह की जहाँ वो और कबीर मिल सके, इस दुनिया की नजरो में आये बिना. वो थोडा और आगे बढ़ी ही थी की उसके पैर किसी सख्त चीज़ से ठोकर खा गए, दर्द से बिलबिला गई वो. पैर को सँभालते हुए उसने देखा वो सीढ़ी थी , पत्थरों की बनाई सीढ़ी.

मेघा ने आस पास की झाड़ियो को हटाया तो उसने पाया की वो इंसानों की बनाई सीढिया थी , पर जगह की हालत बहुत ख़राब थी , हर तरफ प्रकृति ने अपना कब्ज़ा किया हुआ था

“ये कैसी जगह है , क्या है ये ” खुद से सवाल किया उसने
मेघा झाड़ियो को हटाने लगी पर उसे कुल्हाड़ी की जरुरत थी ताकि वो इन रस्ते में आये पेड़ो की टहनियों को काट सके, जैसे तैसे करके उसने थोडा सा रास्ता बनाया और कुछ सीढिया ऊपर चढ़ी, और जब उसे समझी आया की ये क्या है तो उसकी आँखों में चमक आ गयी.

अपनी मस्ती में चूर इधर उधर भटकने के बाद थकी रात में मैं बस सोने को ही था की दरवाजे पर हुई उस दस्तक ने मेरी नींद चुरा ली.

“तुम इस समय यहाँ ”

“हाँ, मैं यहाँ ”
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12-07-2020, 12:13 PM,
#38
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#33

“हाँ मैं यहाँ ” प्रज्ञा ने मेरी तरफ शोख निगाहों से देखते हुए कहा

“ऐसे रातो को भटकना ठीक नहीं है ” मैंने कहा

प्रज्ञा- हाँ देर तो हुई पर ये भी तो अपना ही ठिकाना है .

मैंने एक नजर प्रज्ञा पर डाली और मुझे अहसास हुआ की उसने वही काली साडी पहनी है जो उसने होटल में पहनी हुई थी , आसमान से जैसे कोई परी उतर आई हो , इस धरती पर ,लाल गुलाब की तो सब प्रसंशा करते है पर एक काला गुलाब भी होता है , प्रज्ञा की साडी कुछ उसी काले गुलाब जैसे उसके जिस्म पर लिपटी हुई थी.

“ये नजरे एक बार पहले भी मुझे यूँ ही देख रही थी ” उसने चुटकी लेते हुए कहा

“और मैंने कहा था की नशा सामने हो तो फिर बोतल की किसे जरुरत ” मैं बोला-

“तो चख लो इस नशे को किसने रोका है ” अपने निचले होंठ को दांतों से काटते हुए वो बोली.

मैं बिस्तर से उठा और उसके पास गया. मैंने उसकी कमर में हाथ डाला और प्रज्ञा को अपने सीने से लगा लिया. गर्म साँसों को अपने जिस्म पर महसूस करते ही मेरा रोम रोम अंगड़ाई लेने लगा. प्रज्ञा की मादकता , उसकी कामुक आदये किसी भी विश्वामित्र की बरसो की तपस्या यूँ क्षण भर में ही नष्ट कर दे. मेरा हाथ कमर से फिसलते हुए उसके कुल्हो पर पहुच गया था, रुई के नर्म गद्दों को दबाने लगा था. उसके कुल्हो के बीच की दरार को सहलाते सहलाते मैंने अपने होंठ उसके होंठो पर रख दिए.

प्रज्ञा ने अपने होंठ थोडा सा खोल दिए जिस से मेरी जीभ को उसके मुह में जाने का रास्ता मिल गया. मैं कायल था की मेरी जिन्दगी में वो आई, क्योंकि जिस्मो के इस खेल में एक निपुणता थी प्रज्ञा के अन्दर, जब भी हम चुदाई करते थे तो ये महज जिस्मो की जरुरत नहीं होती थी बल्कि इस से हम एक दुसरे के और करीब आ जाते थे.

चूतडो को मसलते हुए हम दोनों एक दुसरे की लिजलिजी जीभ को चाट रहे थे, चूस रहे थे मुह में ढेर सारा थूक इकठा हो रहा था. उतेजना से वशीभूत मैंने उसकी साडी को उतार दिया. ब्लाउज और पेटीकोट में क्या गजब लग रही थी वो.

पेटीकोट की फिटिंग उसके जिस्म पर जिस प्रकार कसी हुई थी , उसकी गांड, मांसल जांघे , हल्का सा फुला हुआ पेट, uffffffffff मैं क्या कहूँ उस हुस्न में बारे में, मेरी नसों में खून के बहते दौरे में वासना भी शामिल होने लगी थी, मेरे कान गर्म होने लगे थे. प्रज्ञा के चेहरे को चूमते हुए एक हाथ से उसकी चूची दबाने लगा था मैं.

उसने खुद अपने पेटीकोट का नाडा खोल दिया, जो जांघो को चुमते हुए उसके पैरो में आ गिरा. मेरी नजर उसकी कच्छी पर गयी बेहद छोटी सी कच्छी , गहरी नीले रंग की जिस पर छोटी छोटी तितलि बनी थी आगे से जालीदार. यदि प्रज्ञा की चूत पर बाल होते तो उन्हें धक नहीं पाती वो.
“इस तरह मत देखो, मैं पिघल जाउंगी ” लरजती आवाज में बोली वो

मैंने उसकी ब्रा की डोरियो को खोल दिया , दो कबूतर कैद से आजाद हो गये, उसकी चुचियो की खास बात ये थी वो जरा भी लटकी हुई नहीं थी, उनका कसाव आज भी बरकार था. जैसे ही मैंने उसकी चूत को मुट्ठी में भरा, प्रज्ञा का बदन कांप गया .

“””””ssssssssssssss ” ” उसने आह सी भरी

मैंने उसे पलंग पर बिठाया और अपने कपड़े उतारने लगा. जल्दी ही मैं प्रज्ञा के सामने नंगा खड़ा था , मेरा लंड आसमान की तरफ तने हुए प्रज्ञा को सलामी दे रहा था. प्रज्ञा ने अपना हाथ मेरे लंड पर रखा

“बहुत गर्म है ये ” बोली वो

मैं- तुम्हारे हुस्न जितना नहीं .

एक हाथ से मेरी गोलियों को सहला रही थी और दुसरे में लंड को , जैसा मैंने बताया, सेक्स में बहुत निपुणता थी प्रज्ञा को.

“मजा आ रहा है ” उसने शरारती ढंग से पूछा

मैं- अपने सुलगते लबो से चूम लो न इसे,

प्रज्ञा ने मेरे सुपाडे की खाल को पीछे किया और अपनी ऊँगली उस सुपाडे की नाजुक त्वचा को सहलाने लगी, मेरे बदन में झंझनाहट फ़ैल गयी, फिर प्रज्ञा ने अपने चेहरे को निचे झुकाया और मुह खोलते हुए सुपाडे को अपने होंठो में दबा लिया. उसकी गर्म सांसे जैसे पिघला ही देती .

“उम्म्म्म ” मस्ती में डूबते हुए मैंने थोडा सा लंड और उसके मुह में दे दिया. प्रज्ञा उसे किसी कुल्फी जैसे चूसने लगी, अपनी जीभ को लंड पर बार बार वो गोल गोल घुमाती, मेरे पैर मस्ती में कांपने लगे थे, मैंने उसका सर पकड़ लिया और थोडा थोडा लंड उसके मुह में सरकाने लगा. और वो भी मेरा पूरा साथ दे रही थी.

प्रज्ञा के रेशमी बालो को सहलाते हुए मैं उसे लंड चुसवा रहा था, कोई भी अगर ये नजारा देखता तो जल उठता मेरी किस्मत से. जिस तल्लीनता से वो चूस रही थी मेरी गोटियो पर दवाब पड़ रहा था और कही उसके मुह में ही न झड़ जाऊ ये सोचते हुए मैंने प्रज्ञा के मुह से लंड बाहर खींच लिया

“क्या हुआ ” पूछा उसने

“घोड़ी बन जाओ, तुम्हारी मस्तानी गांड देखनी है मुझे ” मैंने बेशर्मी से कहा

मैं जानता था की ऐसी हालत में बेशर्मी ही असली मजा देती है , मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेर और फिर कच्छी के ऊपर से ही चूतडो को सहलाया, चूत पर हाथ फेर और फिर कच्छी को घुटनों तक सरका दिया.
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12-07-2020, 12:14 PM,
#39
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#34

गुलाबी रंगत लिए प्रज्ञा के चुतड , जिनमे बहुत ज्यादा कशिश थी , उन पर हाथ फेरते हुए मैंने राणा जी नसीब से जलन महसूस की. , उसकी चूत की गुलाबी फांके, हलके हलके से बाल, सौन्दर्य और मादकता का एक ऐसा मिश्रण था उसका जिस्म, मैंने उसके चूतडो को थोड़ी ताकत से विपरीत दिशाओ में फैलाया तो उसकी गांड का छेद भी खिंच गया .

Uffffffffffff, ये नारी का जिस्म, हर मर्द की कमजोरी, मैं निचे झुका और अपने होंठो को उस जन्नत के दरवाजे पर लगा दिया. उन गुलाबी फांको को मैंने अपने दांतों तले दबा लिया

प्रज्ञा का पूरा जिस्म एक झटके में हिल गया.

“ohhhhhhhhhhhhhh kabirrrrrrrrrrrrrrrrrr ओह्ह्ह्हह ” जोर जोर से चिल्लाने लगी वो . मस्ताने लगी वो. चूत से गीले रस का दरिया बहने लगा. और मैं पूरी जीभ उसके मादक अंग पर फेरने लगा. प्रज्ञा ने अपने कुल्हे पूरी तरह ऊपर उठा लिए जिस से मेरी पहुँच और हो गयी. , वो भी जानती थी की उसका लक्ष्य मुझे चूत का रस पिलाना है .

कुछ देर बाद मैंने अपना चेहरा चूत के मुख से हटा लिया और अपनी तीन उंगलिया चूत में घुसा दी और तेजी तेज अन्दर बाहर करने लगा.

“कबीर कबीर, उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़ ” प्रज्ञा बहुत बुरी तरह से कामुक हो गयी थी . कांप रही थी, मैंने उंगलियों की रफ़्तार और बढ़ा दी. प्रज्ञा ज्यादा देर तक सह नहीं पायी और फिर उसकी चूत से फव्वारा फूट पड़ा.

वो मूतने लगी थी, पेशाब की तेज बहती धार ने सब कुछ गीला कर दिया. पर मैंने अपना हाथ नहीं रोका वो मस्ती से चीखती रही, चिल्लाती रही पर जब तक मूत की छोटी से छोटी बूँद बह नहीं गयी मैं रुका नहीं

“बहुत बहुत कमीने हो तुम ” हाँफते हुए बोली वो

“तुमसे ही सीखा है ” मैंने कहा

प्रज्ञा उठी और मेरी गोद में आके बैठ गई, लंड को चूत पर लगाया और उसे अपनी चूत में घुसा लिया.

“अब दिखाती हूँ मेरा कमीनापन ” उसने कहा और मेरे को धक्का देते हुए मेरे ऊपर आ गयी.

न जाने क्यों उसे ऊपर चढ़कर चुदाई करना क्यों पसंद था. पर बात तो थी उस मस्तानी में, मैंने बस उसके चूतडो को थाम लिया और खुद को उसके हवाले कर दिया. उसके धक्को से मजा बहुत आ रहा था उसकी चूत के पानी में बहुत चिकनाई थी,

“चूची मुह में लो ” उसने अपनी चूची मेरे मुह में दे दी , मैंने निप्पल को चुसना शुरू किया,प्रज्ञा और कामुक होने लगी, कुछ देर बाद मैं उसके ऊपर आ गया और अब चुदाई जोरो से होने लगी .

“नहीं, गाल नहीं, निशान हो जायेगा ” उसने मना करते हुए कहा तो मैंने उसके होंठो को चूम लिया. प्रज्ञा ने टांगो को मेरी कमर के चारो तरफ कस लिया और झड़ने लगी,
“छोड़ भी दो अब ” बोली वो

मैं- होने ही वाला है बस थोड़ी देर और

मैंने उसे घोड़ी बनाया और पीछे से चोदने लगा. प्रज्ञा आहे भरने लगी और कुछ देर बाद मैंने उसकी चूत को वीर्य से सींच दिया.

कुछ देर वो मेरी बाँहों में लेटी रही फिर उठ कर अपने कपडे पहनने लगी,

मैं- कपडे किसलिए

वो घर भी तो जाना है

मैं- मैंने सोचा रुकोगी यही

वो- जाना होगा. मायके से सीधा यही आई, तुमसे मिलने का दिल था

मैं- रुक जाती तो अच्छा लगता.

वो- फिर कभी पक्का ,

मैं- ठीक है मैं तुम्हारे साथ चलता हु, जंगल में अकेली ठीक नहीं है जाना

वो- मैं चली जाउंगी कबीर, और फिर तुम्हे भी वापिस आना होगा, वो और ठीक नहीं है

मैं- मैंने कहा न, मैं तुम्हे अकेले नहीं जाने दूंगा.

प्रज्ञा- समझो न कबीर,

मैं- कहा न नहीं.

हमने अपना अपना हुलिया ठीक किया. और फिर बाहर आ गए उसकी गाड़ी क पास

“एक मिनट, तुम्हारे लिए कुछ लायी थी ” उसने दरवाजा खोला और कुछ बैग निकाले.

प्रज्ञा- कुछ खाने का सामान है और कुछ कपडे

मैं- जरुरत नहीं थी

प्रज्ञा- इतना तो हक़ दो मुझे,

अब मैं क्या कहता मैंने सामान अन्दर रखा और फिर हम रतनगढ़ की तरफ निकल पड़े, मैंने देखा टूटे चबूतरे पर एक दिया जल रहा है,

“मेघा , मेरे दिमाग में उसका नाम गूंजा ”

“क्या सोचने लगे कबीर, ” प्रज्ञा ने पूछा

मैं- कुछ नहीं बस यु ही

प्रज्ञा- अगली बार पक्का, एक रात हम साथ रहेंगे कबीर,

मैं- हाँ

उसने मेरे कांधी पर सर रख दिया मैंने गाड़ी की रफ़्तार और बढ़ा दी. थोड़ी ही देर बाद हम मंदिर के पास से गुजर चुके थे, रतनगढ़ शुरू हो गया था, एक जगह मैंने गाड़ी रोक दी..

प्रज्ञा- गाड़ी ले जाओ ,

मैं- कैसि बाते करती हो ,

प्रज्ञा- चिंता रहेगी तुम्हारी,

मैं- कल मिल लेना फिर

वो- समय मिलते ही

मैं गाड़ी से उतर गया उसने सीट संभाली तभी मेरे दिमाग में एक बात आई

मैं- प्रज्ञा, एक मदद चाहिए

वो- हाँ

मैं- क्या तुम मेरे लिए किसी को खोज सकती हो

वो- किसे

मैंने उसे दादी के बारे में बताया , तो वो भी हैरान हुई

वो- ऐसी तो कोई औरत नहीं हमारे गाँव में.

मैं- तुम्हारी सास

प्रज्ञा- नहीं , वो बेड पर रहती है , उन्हें हर समय एक सहायक चाहिए होता है , पर यदि तुम्हारे पास कोई तस्वीर हो तो मैं कोशिश कर सकती हु,

मैं- अगली मुलाकात पर मैं तुम्हे दे दूंगा.

“अपना ख्याल रखना ” उसने कहा और फिर गाडी आगे बढ़ा थी. मैं भी वापिस मुड गया . मंदिर के पास से गुजर ही रहा था की पायल की आवाज ने मेरा ध्यान खींच लिया.

“मेघा, क्या मेघा है मंदिर में ” मैंने खुद से कहा और मंदिर की तरफ बढ़ गया , पर वहां कोई नहीं था, कोई भी नहीं, क्या मेरा वहम था , या शायद मेरे ख्यालो में वो थी इसलिए. मैं माता की मूर्ति के पास गया. सर झुकाया और तभी मेरी नजर एक छोटी सी हांडी पर पड़ी. मैंने उसे देखा और हाथ में उठा लिया.

छोटी हांडी थी बस दो तीन गिलास पानी आ जाये, मैंने ढक्कन हटाया पानी से भरी थी, प्यास तो लगी ही थी मैंने उसे होंठो से लगा लिया. और एक पल को मेरी आँखे बंद हो गयी. मुझे कुछ याद आ गया. उफफ्फ्फ्फ़ इस पानी की मिठास, ये पानी, ये पानी, ये पानी वही था जो मैंने उस तम्बू में पिया था . एक ऐसा स्वाद जो अपने आप में निराला था, तमाम जहाँ के शरबत भी जिसकी होड़ न कर पाए. गटागट मैंने वो हांडी खाली कर दी.

मेरे सवालो में एक सवाल और जुड़ गया था की ये हांडी यहाँ कौन लाया. मैं सोच ही रहा था की तभी मुझे फिर से पायल की आवाज आई,

“मेघा, मेघा क्या ये तुम हो मेघा ” मैंने थोड़ी जोर से कहा

आवाज फिर आई, मैं बाहर आया, कोई नहीं था सिवाय अँधेरे के,

“मेघा क्या तुम हो, ” मैंने फिर आवाज लगाई कोई जवाब नहीं आया

कुछ पल बीते और फिर ऐसे लगा की जैसे कोई भाग रहा हो. मैं पायल की आवाज की दिशा में भागा और जल्दी ही मैं सड़क पर था , ,,,,,,,,,,,,,,,,, ..........की
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12-07-2020, 12:14 PM,
#40
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#35
सड़क के बीचो बीच कोई पड़ा था, मैं दौड़ते हुए उसके पास गया. रौशनी कम थी फिर भी मैं उसे पहचान गया था, वो सुमेर सिंह था. हाँ, था. अब बस था , एक लाश के रूप में, उसकी लाश देख कर मेरे माथे पर पसीना बह चला, इस गंभीर हालत में मेरा इस लाश के पास होना बिलकूल भी ठीक नहीं था, कोई भी देखता तो यही सोचता की मैंने ही मार दिया उसे.

उसके बदन पर ज़ख्म थे, जैसे किसी कसाई ने काटा हो, बेहद गहरे और साफ़ कट के निशानों से भरा था उसका जिस्म, पर एक खास बात और थी तमाम गहरे जख्म ठीक उन्ही जगहों पर थे जहाँ जहाँ सुमेर ने उस दिन मुझे घाव दिए. थे

“क्या मेघा ने मारा है उसे, नहीं मेघा ऐसा नहीं कर सकती , नहीं मेरा ऐसा सोचना ठीक नहीं है ” मैंने अपने आप से कहा , पर एक चीज़ जो मेरे दिमाग में खटक गयी थी वो थी उस पायल की आवाज , उस आवाज को मैं हजारो में भी पहचान सकता था , मेरे कान मुझे धोखा नही दे सकते थे,

मेरे तमाम सवालों के जवाब अगर कोई दे सकता था तो बस केवल मेघा. पर मुझे उसका इंतजार करना था , फिलहाल तो मुझे यहाँ से खिसक लेना चाहिए था , और मैंने वैसा ही किया. अपने कंधो पर अनसुलझे सवालो का बोझ लिए मैं वापिस गाँव की तरफ चले जा रहा था, मैं सोच रहा था की काश उस दिन मैं मेले के लालच में रतनगढ़ नहीं आता तो सही रहता.

क्योंकि उस एक दिन के बाद से जो मेरे जीवन में घटनाये हो रही थी, असामान्य थी हर चीज़. मेले में सुमेर और उसके दोस्तों से टकराना, मेघा का अचानक से मुझे बचाना, ताई के साथ अवैध सम्बन्ध, प्रज्ञा का आना, और वो तमाम घटनाये जिन्होंने किसी मकड़ी का सा जाल बुन दिया था मेरे चारो और.

वापसी में मैं टूटे चबूतरे की तरफ से गुजर रहा था की मैंने देखा वो दिया बुझने को फडफडा रहा था, किसी भी पल उसकी लौ बुझ सकती थी , मैंने सर झटका और उसके पास से गुजर ही गया था की मेरी आँखों ने उस छिपी हुई चीज को देख लिया. चाँद की रौशनी में चमकती उस चीज की तरफ गया मैं .

वो कुछ गले में पहनने का था , पर इस से पहले के मैं उसे ठीक से देख पाता वो दिया बुझ गया. अँधेरा छा गया . बिना सोचे समझे मैंने उसे जेब में डाल लिया और तेजी से दौड़ लगा दी, अनजाना खौफ छाने लगा था मुझ पर.

ये रात न जाने क्या क्या दिखाने वाली थी मुझे, प्रज्ञा के साथ बिताये कुछ खास लम्हे, फिर मंदिर में पायल की आवाज, सुमेर सिंह की लाश और अब ये चीज़ को मेरी जेब में पड़ी थी. जब तक मैं खेत पर पहुंचा मेरी हालत ख़राब थी, सांस फुल रही थी, पैरो में दर्द था, मैंने थोडा पानी पिया और साँसे दुरुस्त की.

फिर मैंने उस सामान को जेब से बाहर निकाला और देखा, वो एक चेन थी, लॉकेट जैसी, सोने की चेन, पुराने सोने की चेन, जगह जगह से हरी हुई पड़ी थी, और वो लॉकेट सफ़ेद था, शायद चांदी का था. मैंने उसे खोला , अन्दर दो छोटी छोटी तस्वीरे थी, पर किसकी थी वो समझ नहीं आ रहा था क्योंकि न चेन की हालत ठीक थी और न तस्वीरों की , वक्त ने धुंधला दिया था उनको.

मैंने उसे सिराहने रखा और सो गया. अगले दिन आँख जरा देर से खुली , और जब खुली तो सबसे पहले मैंने जिस चेहरे को देखा वो मेरे बाप का था. जो शायद मेरे जागने का ही इंतज़ार कर रहा था.

“यहाँ कैसे ” मैंने बिना किसी लाग लपेट के पूछा

पिताजी- मेरे सवाल का सही सही जवाब देना , बिना कुछ छुपाये,

मैं- पर हुआ क्या

पिताजी- सुमेर सिंह को तूने मारा न

मैं- नहीं , बिलकुल नहीं

पिताजी- तू वहां था

मैं- हाँ , मैं वहां था पर किसी और कारण से , मैंने बस उसे जमीन पर पड़े देखा था, मैं उसके पास पहुंचा तो मुझे मालूम हुआ की वो सुमेर था .

पिताजी- तुम्हारे पास पर्याप्त कारण है उसकी जान लेने का , सब जानते है तेरी और उसकी दुश्मनी

मैं- पर्याप्त कारण तो मेरे पास तीज के दिन भी था , मारना होता तो तभी मार देता उसे,

पिताजी- उसकी मौत बस उसकी मौत नहीं है आने वाले समय मी दोनों गाँवो की नफरत और बढ़ेगी, रतनगढ़ वाले सबसे पहले तुम्हारा नाम लेंगे

मैं- मुझे फर्क नहीं पड़ता

पिताजी- मुझे पड़ता है, तू औलाद है मेरी, नालायक ही सही पर मेरा खून है

मैं- मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो न फिर, मैं देख लूँगा अपना

पिताजी- तेरा यही अहंकार तेरी मौत का कारन बनेगा एक दिन

मैं- वो मेरी समस्या है

पिताजी- नहीं तुम मेरी समस्या हो , मैं परेशां हूँ आखिर क्यों बार बार तुम रतनगढ़ जाते हो , क्या है तुम्हारा वहां , ऐसा क्या मिलता है तुम्हे वहां जो यहाँ इस गाँव में नहीं है
मैं- सकून मिलता है मुझे, वहां जाके, सुनना चाहते हो आप, तो सुनो आपकी होने वाली बहु रहती है वहां, आपके बेटे को मोहब्बत हो गयी है , प्रीत की डोर बाँध ली है मैंने, मैं बार बार उस से मिलने जाता हूँ और जाता रहूँगा, कोई नहीं रोक सकता मुझे,

मेरे बाप के चेहरे का रंग फीका पड़ गया मेरी बात सुनकर जैसे कोई दौरा सा आ गया उसकी आँखे फटने को आई ,

“ये कभी नहीं हो सकता कबीर, कबीर , तुझे ब्याह करना है तू बोल जिस भी लड़की से तू चाहेगा, मैं करवा दूंगा, एक से एक लडकिया आगे खड़ी कर दूंगा तेरे, पर रतनगढ़ की कोई लड़की हमारी बहु बने ये हो नहीं सकता मैं चाहू तो भी नहीं हो सकता और जरुर वो भी कोई मुर्ख ही होगी जिसने तुझसे प्रेम किया है ” पिताजी ने एक ही साँस में कितनी ही बाते कह डाली

मैं- मैंने कहा न मुझे फर्क नहीं पड़ता, मैं देख लूँगा.

पिताजी- तू कुछ नहीं देख पायेगा, जब हकीकत सामने आएगी तो तेरे होश उड़ जायेंगे, पैर कांप जायेंगे तेरे

मैंने कुछ नहीं कहा

पिताजी- तेरा नसीब , खैर, मास्टर से मिल लेना तुझे जो जानकारी चाहिए वो सब दे देगा और तुझे जहाँ भी हिस्सा चाहिए मैं दे दूंगा,

मैं- क्या लगता है मुझे जरुरत है

पिताजी- तो फिर क्यों जानकारी चाहिए तुझे

मैं- बस यूँ ही

पिताजी तो चले गए थे पर मैं ये नहीं जानता था की आज का दिन बेहद मुश्किल होने वाला था मेरे लिए, क्योंकि उनके जाने के बाद एक और गाड़ी आ रुकी मेरे दर पर जिसकी उम्मीद मुझे बिलकुल नहीं थी .
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