RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
जय गिरफ्तार हो गया और जमींदार साहब की लाश भी पोस्टमार्टम के लिए चली गई। जय ने पुलिस के सामने स्वीकार किया था कि पापा का खून उसने किया था। यदि वह अपराध स्वीकार न करता तो पुलिस डॉली को परेशान करती।
फिर भी पुलिस ने डॉली का बयान लिया। अपने बयान में डॉली ने बताया कि जमींदार साहब का खून जय ने नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने किया था। उसने यह भी बताया कि गोलियां खिड़की की ओर से चलाई गई थी और उस समय वह बरामदे में मौजूद थी, किन्तु पुलिस ने डॉली के इस बयान को महत्व न दिया।
डॉली अब भी वहीं थी-उसी मकान में। उसकी समझ में न आ रहा था कि वह क्या करे। यहीं रहे अथवा यहां से चली जाए। रामगढ़ में तो अब कोई अपना था नहीं और अब यह शहर भी । उसके लिए पराया हो चुका था। संध्या का समय था और डॉली आंगन में खड़ी अब भी यही सब सोच रही थी। उसी समय हरिया आ गया। हरिया के हाथ में आज का समाचार-पत्र था। समाचार-पत्र डॉली को थमाकर वह उससे बोला 'लीजिए मेम साहब! अखबार पढ़ लीजिए। इस प्रकार आपका मन भी बहल जाएगा और समय भी कट जाएगा।'
'चाचा!'
'मैं तो कहता हूं मेम साहब कि जो कुछ हुआ-ठीक हुआ। आप नहीं जानतीं कि जमींदार साहब कितने बुरे आदमी थे। आदमी को अपने बुरे कर्मों का फल तो भोगना ही पड़ता है न–चले गए दुनिया से।'
'चाचा! उनका खून जय ने नहीं किया।'
'इस सच्चाई को तो पुलिस ही जाने मेम साहब! मैं तो उस समय बाहर का दरवाजा बंद कर रहा था। खैर, खाना रखा है, भूख लगे तो खा लीजिए। मैं रामगढ़ जा रहा हूं।'
'क्यों?'
'जमींदार साहब की लाश वहीं जाएगी। क्या पता-पहुंच भी गई हो। अंतिम संस्कार वहीं होना है और हां, मेरे जाने के बाद दरवाजा बंद कर लीजिए। अभी कल तक तो आप यहां रहेंगी ही। दरोगा जी कह रहे थे कि अभी आपका बयान और लेना है।'
इतना कहकर हरिया वहां से चला गया।
उसके जाते ही डॉली ने द्वार बंद किया और बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गई। इस समय उसे अपनी नहीं-जय की चिंता थी। जय ने केवल उसे ही बचाने के लिए अपने पिता से झगड़ा किया था। केवल उसे ही बचाने के लिए उसने हथकड़ियां पहनी थीं और यह सब उसने किया था-अपनी चाहत के लिए। उस अभागिन के लिए जिसने उसे केवल एक ही बार देखा था। कैसे होते हैं कुछ लोग जो एक ही नजर में किसी के अपने हो जाते हैं।
'लेकिन।' एकाएक किसी अदृश्य शक्ति ने डॉली से प्रश्न किया- 'तू उसके विषय में इतनी गहराई से क्यों सोच रही है?'
डॉली ने उत्तर दिया- 'क्योंकि उसने चाहा था मुझे। वह मेरे अंधकारपूर्ण जीवन में उजाला बनकर आया था। उसने मेरी आबरू बचाने के लिए अपने पिता से विद्रोह किया और अंततः जेल चला गया। यह सब-यह सब मेरे लिए ही तो किया था उसने सिर्फ मेरे लिए। वह पराया होकर भी अपनों से कहीं अधिक अपना निकला।'
'किन्तु अब तो तेरी भलाई इसी में है कि तू यह सब भूलकर अपनी मंजिल को तलाश कर।'
'नहीं मैं, उसे इतनी आसानी से मौत का वरण न करने दूंगी। जब वह मेरे लिए बर्बाद हो सकता है तो मैं उसके लिए बर्बाद हो सकती हूं।' 'क्या करेगी-कैसे बचाएगी उसे?' 'मैं उसके लिए मुकदमा लडूंगी। मैं अदालत में चीख-चीखकर कहूंगी कि जमींदार का खून जय ने नहीं किया। जय बेगुनाह है। मैं मिटा दूंगी स्वयं को किन्तु जय को कुछ न होने दूंगी।'
अदृश्य शक्ति हंस पड़ी-बोली- “किन्तु पगली! तेरे पास है क्या उसे बचाने के लिए? न कोई राह, न कोई मंजिल! न घर-न परिवार। न कोई अपना न कोई पराया। फिर क्या करेगी तू? किस प्रकार मुकदमा लड़ेगी तू जय का?' डॉली निरुत्तर-सी हो गई।
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