RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
रिक्शा खैरातीलाल—सुरेशचन्द्र की दुकान से थोड़ा इधर ही रुक गया, क्योंकि दुकान के बाहर भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम-सा हो गया था।
पुलिस पहुंच चुकी थी।
दो पुलिस वाले भीड़ में से ट्रैफिक को निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। अन्य राहगीहों की तरह मैंने भी बाजार में एक व्यक्ति से पूछा—"क्या हुआ भाई साहब?"
"अजी होना क्या है, साला जमाना खराब आ गया है—इन कम्बख्त ठगों ने ठगी की ऐसी-ऐसी तरकीबें ईजाद कर ली हैं कि अच्छे-से-अच्छे आदमी धोखा खा जाए।"
"ऐसा क्या हो गया?"
"खुद को नवाब का लड़का बताकर कोई ठग कबाड़ी बाजार से एक तवायफ को बुर्का पहनाकर दुकान पर ले आया, उसे अपनी बीवी कहा—एक नैकलेस पसन्द किया, धर्मकांटे पर वजन कराने के बहाने नैकलेस लेकर फरार हो गया।"
"माई गॉड!" मैंने कहा—"मगर दुकानदार ने उसे नैकलेस देकर धर्मकांटे पर भेजा ही क्यों?"
"जब किसी की पत्नी दुकान पर बैठी हो तो दुकानदार बेचारा उसके फरार हो जाने की कल्पना कैसे कर सकता है? मगर फिर भी, खैराती ने उसके साथ अपना नौकर भेजा था, नौकर को सिगरेट लाने के लिए कहकर वह रफूचक्कर हो गया।"
"तवायफ पकड़ ली गई?"
"हां।"
"वह क्या कहती है?"
"कहती तो ये है हरामजादी कि वह ठग के बारे में इससे ज्यादा कुछ नहीं जानती कि उसका नाम असलम था और खुद को मेरठ के किसी अमीर मुसलमान का इकलौता लड़का बताता था।"
"तो क्या पुलिस ने उसे पकड़ लिया है?"
"हां—वह बुरी तरह शोर मचा रही है—गन्दी-गन्दी गालियां बक रही है और थाने जाने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है—कह रही हैं कि वह ठग के साथ नहीं थी, बल्कि सर्राफ से कहीं ज्यादा ठगी गई है—जो आदमी उसे सर्राफ के सामने बार-बार अपनी बीवी कहता रहा, नैकलेस पसन्द करता रहा—पकड़े जाने से पहले एक बार भी उसने यह नहीं कहा कि वह उसका पति नहीं, बल्कि उसका सहयोग करती रही, भला ऐसा कैसे हो सकता है भाई साहब कि वह उसे जानती ही न हो?"
जी चाहा कि उसे बता दूं कि ऐसा कैसे हुआ?
मगर अपने इस आला विचार को मैंने दिमाग में ही कैद रखा। रिक्शा थोड़ा-सा आगे बढ़ गया—जिस क्रम में पुलिस वालों को भीड़ छांटने में कामयाबी मिलती रही, उसी क्रम में रिक्शा आगे बढ़ता रहा—रिक्शा दुकान के सामने से गुजरने पर मैंने कंचन को छाती पीट-पीटकर रोते देखा। वह पुलिस इंस्पेक्टर तक को गालियां बक रही थी।
यह रिक्शा मैंने घंटाघर पर छोड़ा।
अब मुझे अपने शहर यानी दिल्ली की तरफ रवाना होना था, अतः मैं टहलता हुआ देवनागरी कॉलेज के चौराहे पर पहुंच गया। वहां से डीoटीoसीo की बस पकड़ी।
दरअसल जो किया था, सिर्फ वही करने मैं ठीक एक महीने पहले मेरठ आया था। धर्मशाला और रात गुजारने के अन्य सस्ते साधनों की अदला-बदली करता हुआ मेरठ में पूरा एक महीना रहा।
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