RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ३१)
दो दिन बाद,
पुलिस स्टेशन में...;
इंस्पेक्टर दत्ता के सामने बैठा हुआ उसे उस लड़के और साथियों के बारे में बता रहा था...
सब बताया, पर अपने स्टाइल में.. कुछ छुपाया, कुछ बदल दिया..
दत्ता मेरी बातों को सीरियसली सुन तो रहा है.. पर उसका बॉडी लैंग्वेज साफ़ बता रहा है की वो ज़रा भी सीरियस नहीं है ...
मेरी पूरी बात ख़त्म होते ही उसने टेबल पर रखी घंटी बजाई,
एक मरियल सा आदमी आया --- जिसके शरीर पे वर्दी ऐसे चढ़ाई हुई है मानो वर्दी को खूंटे पर से लटकाया गया हो ....
आते ही सैल्यूट बजाया;
“दो चाय ....”
दत्ता का ऑर्डर पूरा ख़त्म होने से पहले ही दोबारा सैल्यूट मार कर चला गया...
उसके जाते ही दत्ता मेरी ओर दोबारा ध्यान दिया...
“फ़िर से कहना.. उस लड़के को कैसे जानते हो?”
“काफ़ी दिनों से मेरे घर के आस पास चक्कर काटता था..”
“ऐसा?”
“जी, ऐसा.”
“क्यों?”
“पता नहीं... पर कल जब पीछा किया, तब जा कर ये सब पता चला...”
“क्या पता चला?”
“सर...!!??”
“अरे भई पता है ... पता है.. तुमने अभी अभी मुझे सब बताया है... पर मैं कुछ भी सोचने से पहले एकबार और तुम्हारी ज़ुबानी सुनना चाहता हूँ .. अच्छा, ये बताओ.. तुमने एक्साक्ट्ली वहाँ अंदर घुस कर क्या क्या देखा?”
“कुछ लोग थे.. गिन नहीं पाया ठीक से.. पर उनके बातचीत से अंदाज़ा लगाया कि उस समय वहाँ तीन ही लोग थें .. जब वे लोग बाहर चले गए, तब एक रूम में घुस कर उन पेटियों को चेक किया --- हथियार थे... और --- गाँजा, अफ़ीम, चरस जैसे दिखने वाले पाउडर थे छोटे छोटे प्लास्टिक पैकेट्स में..”
“ह्म्म्म.....” दत्ता सोचने की मुद्रा में आ गया..
फ़िर बोला,
“अभी सोचने वाली बात यह है कि, तुम्हें किसी देखा तो नहीं वहाँ जाते, अंदर घुसते हुए?”
“म्मम्म.. नहीं..”
“क्या नहीं?”
“मुझे नहीं लगता मुझे किसी ने देखा होगा वहाँ जाते या अंदर घुसते हुए”
“श्योर?”
“शायद...”
“शायद से काम हो जाएगा? ऐसी चीज़ें शायद से चलती हैं??” थोड़ा तुनक कर बोला दत्ता |
दत्ता की ये हरकत देख कर मुझे हँसी आ गई; पर संभल कर रहा.. दत्ता की बात में दम है.. ये बात तो मैंने सोचा ही नहीं था.. सोचा क्या नहीं था, सच कहो तो दिमाग में ऐसी किसी भी संभावना का ध्यान तक नहीं आया था.. ये तो बुरा फँसा मैं.. चिंता के बादल मेरे चेहरे पर उमड़ने-घुमड़ने लगे ....
मेरी परेशानी को समझते हुए दत्ता बोला,
“दोपहर कितने बज रहे थे उस समय?”
“डेढ़”
“आस पास चहल – पहल थी?”
“नहीं.. बहुत कम... वो जगह ही ऐसी है”
“हम्म.. उस बिल्डिंग के आस पास कितने और दुकानें हैं?”
“उस बिल्डिंग से सटी एक दुकान और है पर बंद था उस समय.. उस बिल्डिंग से थोड़ी दूर एक चाय वाले की दुकान है.. उस चाय दुकान से बाएँ करीब बीस कदम की दूरी पर एक बहुत ही दयनीय अवस्था में मौजूद एक खंडहर नुमा घर है.. चाय दुकान के दाएँ से करीब दस से पन्द्रह कदमो की दूरी पर बच्चों के फैंसी ड्रेस वाले दो दुकान हैं... एक और है.. उसपे ध्यान नहीं दिया..”
“हम्म.. अभी के लिए इतनी जानकारी काफ़ी है.. बाकी जानकारी मैं निकलवा लूँगा---”
“जी..”
“अच्छा अभय, अगर तुम उन तीनों में से किसी को भी... या तीनों को ही अगर तुम्हारे सामने लाया जाए तो क्या तुम उन्हें पहचान लोगे --- संभव है?”
“जी, उस बूढ़े को और मेरे हमउम्र लड़के को पहचानने में मुझसे कोई गलती नहीं होगी.. पर...”
“पर??”
“पर उस तीसरे शख्स को मैं देख पाने में सफ़ल नहीं हो पाया था.. अतः तीसरे बन्दे को मैं पहचान नहीं पाऊँगा...|”
“कोई बात नहीं... जिनको पहचान सकते हो उन्हीं से उगलवा लेंगे”
“जी, अच्छा है”
“पूरी बात बताते समय तुमने ये भी कहा था न कि उन लोगों ने एक और आदमी का नाम लिया था--- क्या नाम था उस आदमी का?” दत्ता अपने दाएँ हाथ की तर्जनी ऊँगली से अपने सिर के बीचों बीच हल्के से मारते हुए कहा ---
“डिकोस्टा!” मुझे भी जैसे एकाएक याद आया वह नाम |
“हाँ... डिकोस्टा !... उसका क्या कहानी है?”
“पता नहीं सर.. पर उनमें से एक; जिसका नाम रहमत था, वो कह रहा था कि उसे उस ‘डिकोस्टा’ से बात करनी है.... ‘माल-माल’ कह कर बात कर रहा था.. उसके बात करने के ढंग से ऐसा अंदाज़ा हुआ कि उसे किसी बहुत ही ज़रूरी मैटर पर डिकोस्टा से बात करनी है..”
एकबार फ़िर थोड़ा छुपा कर ; और थोड़ा मसाला लगा कर बात को सामने रखा.. |
“डिकोस्टा .... डिकोस्टा... डिकोस्टा... डि...” इस नाम को बहुत धीरे धीरे बोलते हुए, प्रायः बुदबुदाते हुए ; दत्ता टेबल पर सामने रखे पेपरवेट को उठा कर दोनों हाथों की मुट्ठियों में लेकर घुमाने लगा --- इस ‘डिकोस्टा’ नाम पर ख़ास ज़ोर देने लगा वह...
कुछ देर चुप्पी छाई रही कमरे में...
दोनों में से कोई कुछ न बोला....
मैंने सामने रखे एक समाचार पत्र को उठा कर थोड़ा थोड़ा देखने लगा --- बीच बीच में तिरछी नज़रों से दत्ता की ओर देख लेता --- दत्ता बड़ा ही सीरियस लग रहा था; उसकी आँखें और भौंहें दोनों ही सिकुड़ चुकी है --- जैसे बहुत ही ध्यान लगा कर कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो... |
अंततः उसी ने चुप्पी तोड़ी;
“अभय, जैसा की तुमने बताया था कि कुछ लोग तुम्हारे घर के चक्कर काट रहे थे, नज़र रख रहे थे .... तुम्हें क्या लगता है; क्यों कर रहे थे ऐसा वो लोग..?”
मैं थोड़ा सकपकाया,
क्योंकि मुझे अंदेशा तो था कि ऐसा कोई प्रश्न ये दत्ता कर सकता है; पर अभी तक कोई यथोचित उत्तर मुझे सूझा नहीं था --- और अब तो दत्ता ने पूछ भी लिया --- इसलिए कोई ऐसा उत्तर मुझे देना ही पड़ेगा जिससे दत्ता और उसका प्रश्न --- दोनों ही संतुष्ट हों ... |
“अं... पता नहीं सर... अब भला ये बात मुझे कैसे पता होगी?”
“ह्म्म्म... फ़िर भी....”
दत्ता की बात पूरी होने से पहले ही दरवाज़े पर दस्तक हुई.. और तुरंत ही एक संतरी भीतर आ कर “जय हिन्द सर” बोलते हुए दत्ता को सैल्यूट मार कर खड़ा हो गया ...
“जय हिन्द.. बोलो गिरधर, क्या बात है..?”
“सर, ये फ़ाइल... आपने....”
“हाँ हाँ... वो विनय वाली फ़ाइल.. लाओ इधर..”
गिरधर नामक उस संतरी ने आगे बढ़ कर फ़ाइल दत्ता के सामने टेबल पर रख दिया... और पूर्ववत् अपने स्थान पर आ कर सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया |
फ़ाइल के पन्नों को पलटते हुए दत्ता बोला,
“अच्छा गिरधर..., तुम तो विनय के साथ अधिकांश समय रहते थे न... विशेष कर जब उसे कहीं छापा वगैरह मारनी होती थी...??”
“जी सर..”
“गायब होने से पहले उसने क्या कहीं कोई छापा मारा था?”
“यस सर, इस शहर के सबसे नामी और उतना ही बदनाम होटल कम रेस्टोरेंट ‘योर होटल’ में एकबार छापा मारा था उन्होंने...”
मैंने गौर किया, ये गिरधर बड़ा नपा तुला उत्तर दे रहा है हर प्रश्न का ... सिर्फ़ उतना ही; जितना की इससे पूछा जा रहा है ---
“क्या?? योर होटल?! उसमें छापा !! --- (चौंकते हुए बोला दत्ता; फिर पूछा) --- कुछ मिला था वहाँ से?”
“जहाँ तक मुझे पता है सर, कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ था ...”
“ओह”
“पर..”
“पर?”
“पर सर.....”
“बोलो गिरधर... क्या बात है?”
“सर, माफ़ कीजिएगा --- छोटी मुँह बड़ी बात --- मैं बहुत ही दिनों; --- दिनों क्या --- महीनों और सालों से विनय सर के साथ रहा हूँ --- बहुत काम किया उनके साथ --- इतना की कभी कभी तो मैं उनके एक्शन या उनके कुछ बोलने से पहले ही ; वह क्या बोलने या करने वाले हैं --- ये अंदाज़ा लगा लेता था --- और हर बार बहुत हद तक सफ़ल भी हो जाता था --- अंतिम बार, ये जो ‘योर होटल’ में छापा मारने गया था उनके साथ --- भले ही कुछ ख़ास हासिल न हुआ हो हमारी पूरी छापेमारी वाली टीम को --- पर मुझे विनय सर के हाव – भाव देख कर ऐसा लगा था कि उन्हें कुछ मिला था ---- .........”
“क्या मिला था...??” संतरी की बात को बीच में ही काटते हुए दत्ता बोल उठा ..
“पता नहीं सर”
“तो तुमने पूछा नहीं...??” दत्ता उतावला होने लगा ---
“सर, एक तो मैं उनसे छोटा ... दूसरा, मुझे तो सिर्फ़ ऐसी किसी बात का अंदाज़ा भर हुआ था... कैसे पूछ लेता साब ?” चेहरे पर अफ़सोस और बेचारगी वाले भाव लाते हुए बोला गिरधर |
“ओफ्फ्फ़...”
कहते हुए दाएँ हाथ की मुट्ठी से हल्के से टेबल पर प्रहार किया दत्ता ने --- असफ़लता वाली खीज --- ऐसी खीज जो सामान्ययता सफ़लता के बहुत पास पहुँच कर असफ़ल होने से होती है --- |
तभी उसकी नज़र मेरे तरफ़ हुई --- फ़िर उसने सामने रखे फ़ाइल की ओर देखा --- फ़िर खुद को थोड़ा संयत करता हुआ गिरधर से बोला,
“तुम अभी जाओ --- बाद में बुला लूँगा |”
“सर!” कहते हुए गिरधर ने एक ज़ोर का सलाम बजाया और खड़े खड़े एक कदम पीछे होकर पीछे मुड़ा और लंबे डग भरता हुआ कमरे से बाहर चला गया ---
उसके जाते ही मैं बोल उठा,
“एक बात पूछूँ?”
“मुझे पता है तुम क्या पूछोगे....” चेहरे पर एक मुस्कराहट लाते हुए दत्ता बोला ---
“पता है??!”
“हाँ...”
“कैसे?”
“अंदाजन ....”
“तो फ़िर कृपया जिज्ञासा शाँत करने की कृपा करने ...” चापलूसी वाले स्वर में दिखावटी विनती करता हुआ मैं बोला ---
“हाहाहा ......” मेरे प्रयास को देख कर हँस पड़ा दत्ता ---
फ़िर बोला,
“ये हमारे ही विभाग के सीनियर इंस्पेक्टर; इंस्पेक्टर विनय की गुमशुदगी की फ़ाइल है ---” कहते हुए थोड़ा निराशा हो गया दत्ता |
“गुमशुदगी --- कैसे??” कौतुहलवश समय न गँवाते हुए पूछ बैठा ....
थोड़ा शाँत रहा दत्ता,
फ़िर बोला,
“वही तो पता करना है... खैर, तुम अभी जाओ... ज़रूरत हुई तो बाद में बुला लूँगा ...... |” बुझे बुझे से स्वर में दत्ता बोला ---
“जी सर..”
मैं उठा और कमरे से बाहर निकल आया --- अपने साथ कुछ प्रश्न लिए --- |
क्रमशः
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