Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:04 PM,
#91
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"अकेला इन्सान यदि मुसीबतों के तूफान में फंस जाये तो उसके लिये जीना काफी मुश्किल पड़ सकता है। कभी-कभी वह खुदकशी भी कर बैठता है।"

"जी।"

"परन्तु जब साथ में दूसरा कोई हो तो ऐसे में सांत्वना जीने का सहारा बन जाती है।" विनीत खामोश ही रहा।
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पांच दिन और गुजर गये। विनीत की आशा अब निराशा में बदलने लगी थी। उसके मन में यह बात घर करने लगी थी कि सुधा और अनीता अब दुनिया में नहीं हैं। अर्चना स्वयं एस.पी. साहब से मिली थी। उन्हें उन दोनों के विषय में जानकारी नहीं मिल सकी थी। प्रीति के विचार को विनीत ने तब तक के लिये त्याग दिया था जब तक कि वहनें उसे नहीं मिल जाती थीं।

परन्तु प्रीति के स्थान पर अर्चना उसकी ओर बढ़ने लगी थी। 'आप' का सम्बोधन 'तुम' पर आ गया था। औपचारिकता बिल्कुल समास हो चुकी थी। इस पर भी अर्चना ने मुंह से तो कुछ नहीं कहा था। परन्तु उसके हाव-भाव यह जाहिर करते थे कि वह विनीत से प्रेम करने लगी है। स्वयं विनीत ने भी कुछ नहीं कहा था। अर्चना सुन्दरता की प्रतिमा थी....उसके पास सब कुछ था। इतना सब कुछ होते हुये भी विनीत ने अपनी भावनाओं को उसकी ओर नहीं बढ़ने दिया था। कोई प्रतिपल उसकी आस लगाये बैठा था। ऐसे में वह अर्चना का कैसे हो सकता था? उदासी और खामोशी पूर्वबत् बनी रही। । अर्चना काफी रात तक उसके पास बैठी रहती। अपनी मुक्त हंसी और मधुर मुस्कान से उसकी उदासी को दूर करने का प्रयास करती। हां....उन क्षणों में विनीत की बेचैनी किसी सीमा तक कम हो जाती थी। परन्तु उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन न आ सका था।

इस समय भी वह बिस्तर पर लेटा हआ सुधा और अनीता के बारे में सोच रहा था। अतीत के पृष्ठ बार-बार खुलते और बन्द हो जाते थे। उनमें उसे तड़प और अशांति के सिवाय और कुछ नहीं मिलता था। नौकर बिस्तर की चाय लेकर आता होगा, यह सोचकर वह उठा। दरवाजे को खोला और फिर बिस्तर पर लेट गया। न जाने क्यों उठने को जी नहीं हुआ। शायद इसलिये कि वह रात में बहुत ही कम सो पाता था। दरबाजे से बाहर आहट हुई। चौंककर उसने उस दिशा में देखा। अर्चना थी। होठों पर बही मधुर मुस्कान....चेहरे पर बही सुवह की ताजगी। चलती हुई वह उसके बिस्तर के पास आ गयी। उसे देखकर भी विनीत ने अनदेखा कर दिया।

अर्चना कुछ क्षणों तक खामोशी से उसकी ओर देखती रही। फिर बोली-"आज उठना नहीं है क्या....?"

“नहीं....” उसने असावधानी से उत्तर दिया।

"क्यों ....?"

“जी नहीं चाहता।"

"और दिन जो फैल चुका है।"

"वह तो उसका क्रम है। यदि रात के बाद दिन नहीं आयेगा तो दिन के बाद रात क्योंकर आयेगी? जिंदगी और वक्त, दोनों में धरती आकाश का अन्तर है।"

कैसे....?"

"ठीक कठपुतली की तरह।"

“मतलब....?"

"जिंदगी एक कठपुतली है, जिसकी डोर बक्त के हाथों में होती है। जिंदगी हंसती है....रोती है....गुनगुनाती है, परन्तु यह सब उसी वक्त के हाथों में होता है, जिसे आज तक किसी ने अपनी आंखों से नहीं देखा। दुनिया केबल उसके कारनामों को जानती है।"

"वक्त के विषय में बहुत कुछ जानते हो तुम।”

नहीं।” विनीत बोला—“मैंने भी केबल उसके कारनामे देखे हैं। देखा है कि बड़े से बड़ा इन्सान भी उसके हाथों का खिलौना ही होता है।"

"अच्छी कविता है।"

"क्या मतलब?"

"उर्दू में शायरी समझ लीजिये। खैर, अब उठोगे या...."

“या...?" विनीत ने दुहराया।

"आज दिन भर सोना ही है।"

"अर्चना....जो रात में नहीं सो पाते....बे दिन में सो सकते हैं क्या?"

"हां, कुछ लोगों का स्वभाब उल्लुओं जैसा होता है।" अर्चना ने कहा। कहने के तुरन्त बाद ही वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर बोली-“जनाब शायर साहब, यह सोने का नहीं, उठने का बक्त है।"

विनीत शायद न भी उठता, परन्तु तभी नौकर ने चाय ले कर कमरे में प्रवेश किया। वह उठकर बैठा हो गया। अर्चना ने उसके हाथ में चाय का प्याला थमा दिया।

चाय के मध्य अर्चना बोली-“एक बात कहूं।"

“बोलो....!"

"क्या तुम हमेशा-हमेशा के लिये यहां नहीं रह सकते?"

"क्यों....?"

"मैं चाहती हूं कि तुम हमेशा यहीं रहो।"

"परन्तु क्यों....?"

"कहना ही पड़ेगा क्या?" अर्चना ने उसकी ओर देखा।

"कह दो...."

“जिस दिन से तुम यहां आये हो, मुझे दुनिया में कुछ और ही नजर आने लगा है।”

"क्या नजर आने लगा है!"

"खूबसूरती....रौनक और बहारें।"

"अच्छा ।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:04 PM

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