RE: Post Full Story प्यार हो तो ऐसा
“इस दिल को तुम्हे किसी और के लिए धड़कना सीखाना होगा… मैं चाह कर भी प्यार के बंधन में नही बाँध पाउन्गा. इस दोस्ती को दोस्ती ही रहने दो तो अछा होगा”
“तुम बहुत आगे निकल गये प्रेम… मैं तो बहुत पीछे रह गयी…. अब दोस्ती भी कहा निभा पाउन्गि”
“तुम वो साधना नही हो जिसे मैं जानता था…. क्या हो गया है तुम्हे ?”
“शायद प्यार ऐसा ही होता है… खैर जाने दो.. तुम जाओ मैं ठीक हूँ”
साधना और प्रेम अपनी बातो में खोए थे. अचानक उन्हे आवाज़ सुनती है
“मेरे साथ अन्याय हुवा है और तुम मुझे ही दोषी ठहरा रहे हो”
साधना मूड कर घर में घुसती है.
प्रेम देखता है कि एक आदमी अंदर से निकलता है और गुस्से में बड़बड़ाता हुवा उसके पास से निकल जाता है. थोड़ी देर बाद साधना बाहर आती है.
“क्या हुवा… कौन था वो ?” --- प्रेम ने पूछा
“वो जीजा जी थे… सरिता दीदी के साथ जो कुछ भी हुवा, उसके लिए वो उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. बोल गये हैं कि उनका दीदी से अब कोई लेना देना नही है”
“ये क्या पागलपन है… कैसे लेना देना नही है” --- प्रेम ने कहा
“इस पुरुष प्रधान दुनिया में कुछ भी हो सकता है… कोई भी, कभी भी, कहीं भी, दामन छ्चोड़ सकता है”
“मैने तुम्हारा दामन कब छ्चोड़ा साधना ऐसा मत कहो” --- प्रेम ने पूछा
“मैं तुम्हे नही कह रही प्रेम, तुम जाओ मैं दीदी को संभालती हूँ वो रो रही हैं… वैसे मुझे खुद को भी संभालना है….” ---- साधना भारी आवाज़ में कहती है. कहते हुवे उसकी आँखे छलक उठती हैं
“ठीक है मैं चलता हूँ. तुम किसी बात की चिंता मत करना… मेरा मित्र गोविंद यही है और नीरज भी यही है. मैं धीरज को साथ ले जा रहा हूँ” --- प्रेम ने साधना की तरफ पीठ करके कहा
“ठीक है जाओ प्रेम, …….. अपना ख्याल रखना” --- साधना ने गहरी साँस ले कर कहा
प्रेम ने धीरज को आवाज़ लगाई और उसके साथ खेत की तरफ चल दिया
“स्वामी जी आप कुछ परेशान लग रहे हैं” – धीरज ने पूछा
“जींदगी में काई बार हमें अपनो के दिल को कुचल कर चलना पड़ता है” – प्रेम ने कहा
“क्या ऐसा करना पाप ना होगा स्वामी जी ?” --- धीरज ने पूछा
“तुम्हारे स्वाल मुझे हॅमेसा परेशान करते हैं. अब पता नही ये पाप होगा या पुन्य. हाँ पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि ऐसा करना ज़रूरी है. कभी तुम्हारे जीवन में ऐसा अवसर आया तो तुम खुद समझ जाओगे” – प्रेम ने जवाब दिया.
“कैसा अवसर स्वामी जी ?”
“कुछ नही…. अब ज़रा थोड़ा शांति से चलो”
“जी स्वामी जी”
हवेली में:------
“ये क्या हो गया है वीर को भैया, अभी तो गाँव जाने की तैयारी कर रहा था और अब कहता है, एक दो दिन में तूफान नही आ जाएगा” --- जीवन प्रताप सिंग ने कहा
“पता नही क्या बात है… ये बहू भी तो उसका दीमाग खराब करके रखती है” --- रुद्र ने कहा
“वो सब तो ठीक है भैया पर गाँव पर पकड़ ढीली नही पड़नी चाहिए” --- जीवन ने कहा
“तुम चिंता मत करो जीवन, वीर नही जाएगा तो हम खुद जाएँगे इन गाँव वालो की अकल ठीकाने लगाने”
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इधर वीर अपने कमरे में पड़ा-पड़ा गहरे ख़यालो में खोया है.
वो सोच रहा है, “वो वर्षा हरगिज़ नही हो सकती. वो मेरे सामने कभी ऐसा नही कर सकती. फिर वो कौन थी. और वो लड़का कौन था ?. वो मदन तो नही था. कुछ समझ नही आ रहा. वो कमरे से गायब कैसे हो गये ? क्या वो दोनो भूत थे….”
ऐसे बहुत सारे सवाल वीर के मान में गूँज रहे थे. पर उसके पास इन सवालो का कोई जवाब नही था.
तभी वियर देखता है कि रेणुका उसकी ओर आ रही है
“मुझे माफ़ कर दीजिए मैं आपको बहुत दुख देती हूँ”
“ठीक है… ठीक है..ये नाटक बंद करो और यहा से दफ़ा हो जाओ…. मनहूस कहीं की”
“मनहूस तो ये घर है, मैं नही. देखा नही क्या कर रही थी वर्षा ?”
“चुप कर वरना ज़ुबान खींच लूँगा, वो वर्षा नही थी समझी” --- वीर ने गुस्से में कहा
“अरे उसकी रगो में भी तो इसी घर का खून है.. मुझे पूरा यकीन है कि वो वर्षा ही थी”
“साली चुप नही होती… दफ़ा हो जा यहा से”
“सच बोलने में मुझे कोई डर नही है.. मैने जो देखा वो बोल रही हूँ”
“अभी बताता हूँ तुझे”
“आअहह… छोड़िए मेरे बॉल”
“तेरी ज़ुबान दिन-ब-दिन और ज़्यादा चलने लगी है. आज तेरा वो हाल करूँगा कि तू याद रखेगी”
“देखिए ये सब ठीक नही है… छ्चोड़ दीजिए मुझे… मैं सच ही तो बोल रही थी”
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