RE: Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगा...
इधर अल्पमत की केंद्र सरकार, ढाई साल में ही धराशाई हो गयी, दुबारा चुनाव हुए वो भी कोई एकमत नही दे पाए.
देश के वरिष्ठतम और सुलझे हुए राजनेता ने कुछ पार्टियों को लेकर सरकार चलाने की कोशिश की.
इसी बीच हमारे दुश्मन मुल्क जो कि जग जाहिर है, ने अपनी सेना को घुस्पेठ करने की कोशिश की, जिसका हमारी अल्पमत की सरकार ने अपनी बिल पॉवर दिखाते हुए सेना को उचित कार्यवाही करने का आदेश दिया.
हमारे मुल्क में जँवाज़ो की तो कभी भी कमी नही रही है, सो कुछ ही दिनो में हमारी सेना के जँवाज़ो ने दुश्मन को उसकी औकात दिखा दी, और उन्हें मुँह की खानी पड़ी.
इसका एक फ़ायदा हुआ, अल्पमत की सरकार तो गिर गयी लेकिन दुबारा एलेक्षन में उन्होने बहमत के साथ स्थाई सरकार बना ली.
देश को एक अच्छा और संवेदनशील नेता मिल गया था.
सरकार तो स्थाई बन गयी थी, साथ ही साथ दुश्मन भी स्थाई मिला, जो हर संभव हमें नुकसान पहुँचाने का प्रयास करता रहता.
हमारी ओर से अनगिनत प्रयास हुए कि किसी तरह महाद्वीप में शांति की स्थापना हो सके,
लेकिन शायद वो हमारे शांति संदेश को हमारी दुर्बलता ही समझता रहा, और उसके अशांति फैलाने वाले प्रयास बदस्तूर जारी रहे, जो हमें ना चाहते हुए भी समय समय पर झेलने पड़ रहे थे.
चाहे वो अक्षर धाम पर हमला हो, फिर चाहे मुंबई रेल धमाके. चाहे गोधरा कांड हो या फिर सीमा पर हमला.
ना जाने कितने ही जान माल का नुकसान हर वर्ष झेल रहा था हमारा देश.
समय आ गया था, कि अब हमें भी उसी की भाषा में जबाब देना चाहिए..
वो अगर हमारे देश में आतंकवादियों की घुस्पेठ करा सकते हैं, तो क्या हम उनके घर से निकलने पर पाबंदी नही लगा सकते…? उनकी मनमानियों पर नकेल नही कस सकते..?
उसी कड़ी के तहत एक दिन मुझे अपने एनएसएसआइ ऑफीस, जो नयी सरकार के बनते ही पुनः गठित हो गयी थी से कॉल आई,
मुझे घर की ज़िम्मेदारियाँ ट्रिशा के कंधों पर डालकर अर्जेंट देल्ही निकलना पड़ा.
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मुज़फ़्फ़राबाद के उत्तर का पहाड़ी और जंगली इल्लाका, जहाँ की अधिकतर अवादी छोटे-2 कबीले टाइप टुकड़ों में बस्ती है,
परिवारों के ज़्यादातर मर्द काम की तलाश में या तो दूर दराज शहर की ओर चले जाते हैं,
या फिर कहीं रोड साइड कोई छोटा-मोटा धंधा रख कर अपनी रोज़ी-रोटी कमाने की कोशिश में लगे रहते हैं.
औरतें घर परिवार, बच्चों की परवरिश के साथ-2 जंगली पहाड़ों में जाकर आमदनी का कोई ज़रिया या फिर रेहड़ और दूसरे जानवरों को पाल कर काम चलाती हैं.
ऐसे ही एक कबीले से हटकर पहाड़ी के आँचल में बने एक इकलौते घर में, एक विधवा औरत अपनी दो जवान बेटियों के साथ रहती है,
उसका इकलौता बेटा असलम शहर में रहकर चार पैसे कमाता है किसी रेस्टौरेंट में वेटर का काम करके.
अधेड़ उम्र अमीना बेगम और उसकी 24 साल की बड़ी बेटी रेहाना जो शुदा सुदा होने के बावजूद विधवाओं जैसा जीवन जीने पर मजबूर है, और अपनी अम्मी के साथ ही रहती है.
उसका शौहर पाकिस्तानी फौज में था, लेकिन कारगिल वॉर के बाद जान बचा कर भागने के जुर्म में पाकिस्तानी हुकूमत ने उसे गद्दार घोषित करके जैल में सड़ने के लिए डाल दिया था.
उससे दो साल छोटा असलम, जो शहर चला गया, अमीना की तीसरी औलाद उसकी छोटी बेटी शाकीना जो इस समय 19 साल की कमसिन कली निहायत ही खूबसूरत किसी खिलती कली जैसी.
अमीना का शौहर पीओके में आए दिन होने वली दहशत गर्दि का शिकार हो चुका था.
कुल मिला कर ये परिवार, पाकिस्तानी हुकूमत और उसके पाले हुए दहशत गर्दो का शिकार था.
ऐसा नही था कि ये इकलौता परिवार ही इन जुल्मों का शिकार हुआ हो, ऐसे ना जाने कितने ही परिवार इस तरह के हादसों के शिकार होकर ग़रीबी और कुरबत की जिंदगी बसर करने पर मजबूर थे.
इन लोगों में हुकूमत और दहशत गर्दि के खिलाफ रोष तो था, लेकिन मजबूर थे, क्योंकि खिलाफत करने का मतलब था मौत.
ज़्यादातर बेसहारा परिवार अपने सिसकते जीवन को जीने पर मजबूर थे, कहीं कोई गोली चलने की आवाज़ ही इनकी रूह को कंपा देती थी.
हर संभव यही कोशिश करते, कि कभी किसी सरकारी नुमाइंदे या फ़ौजी या फिर किसी दहशत गर्द की नज़र इन पर ना पड़े.
ऐसे ही एक दिन शाकीना अपने घर से थोड़ा दूर अपने रेहड़ और पालतू जानवरों को पास के ही एक मैदान में चरा रही थी,
पास से ही एक पतली सी ख़स्ता हाल सड़क गुजरती थी, जिस पर बमुश्किल कभी कोई वहाँ गुज़रता था.
शाम होने को थी, धूप अपने अंतिम पड़ाव पर थी कि तभी उस सड़क से होकर एक पोलीस की जीप गुज़री, उसमें 4 पोलीस के सिपाही दारोगा के साथ गस्त पर निकले होंगे शायद.
उनकी मनहूस नज़र शाकीना पर पड़ी और उन्होने जीप रोक ली.
पोलीस जीप को रुकता हुआ देखकर उसके शरीर में डर की लहर दौड़ गयी,
उसने उन पोलीस वालों को अनदेखा करके अपने जानवरों को घर की ओर ले जाने के लिए हांकना शुरू कर दिया.
जीप में बैठे दारोगा ने उसको आवाज़ देकर अपने पास आने का इशारा किया, वो बेचारी उसकी बात टाल भी तो नही सकती थी.
सो नज़रें झुकाए काँपते कदमों से वो उन लोगों के पास पहुँची.
उन पोलीस वालों की हवस भरी नज़रें उसके शरीर का एक्स्रे कर रही थी, और वो बेचारी दूर खड़ी थर-2 काँप रही थी.
दारोगा – आए लड़की ! कहाँ रहती है तू, और क्या नाम है तेरा ?
उसने उंगली से अपने घर की तरफ इशारा किया, और धीरे से अपना नाम बताया.
अब वो दारोगा और दो सिपाही जीप से उतर गये और उससे बोला- दूर क्यों खड़ी है यहाँ पास आकर बोल, सुनाई नही दे रहा.
वो बेचारी काँपते कदमों से और थोड़ा नज़दीक आई और बोली- जी मेरा नाम शाकीना है,
अभी वो अपना नाम ठीक से बता भी नही सकी थी कि उस दारोगा ने एक सिपाही को इशारा किया और उसने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-
चल हमारे साथ जीप में बैठ, तुझे थाने ले जाना है, बिना इज़ाज़त कहीं भी जानवरों को चराते हो तुम लोग.
वो बेचारी अपनी नाज़ुक कलाई को छुड़ाने की जद्दोजहद करने लगी, लेकिन कहाँ वो नाज़ुक कलाई और कहाँ उस पोलीस वाले का शख्त कठोर हाथ.
उसकी आँखों से जार-2 आँसू बहने लगे, वो उनसे खुद को छोड़ देने की गुहार कर रही थी लेकिन उन ज़ालिमों पर उसके बेबस आँसुओं का कोई असर नही हुआ.
वो नर-पिशाच भेड़िया उस लाचार मजबूर नाज़ुक सी कली को हाथ पकड़ कर घसीटते हुए जीप की तरफ ले जाने लगा…
वो बेचारी सिवाय रोने बिल्खने के और कुच्छ भी कर पाने में असमर्थ थी…जब कोई चारा नही बचा तो वो वहीं ज़मीन पर बैठ गयी…
उस सिपाही ने उसकी कलाई छोड़ दी, और उसके पीछे जाकर उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया..
पहले तो वो उसके नाज़ुक मुलायम अधखिले वक्षों से खेलता रहा, और फिर उसने ज़बरदस्ती उसे अपनी गोद में उठा लिया.
वो किसी छोटी बच्ची की तरह उसकी गोद में तड़पति हुई उसकी मजबूत गिरफ़्त से निकलने की नाकाम कोशिश करती रही..लेकिन निकल ना सकी..
वो सिपाही उसे उठाए हुए जीप की तरफ बढ़ने लगा. वो चीख-2 कर अपनी आममी और अप्पा को आवाज़ देने लगी.
अभी वो सिपाही शाकीना को लेकर जीप तक पहुँचा ही था कि एक बड़ा सा पत्थर भनभनाता हुआ उसकी कनपटी पर पड़ा.
अप्रत्याशित पत्थर की चोट इतनी ज़ोर्से पड़ी, कि वो शाकीना को वही छोड़कर दर्द से बिलबिलाता हुआ अपनी कनपटी पर हाथ रख कर ज़मीन पर बैठता चला गया……!
जैसे ही वो सिपाही दर्द से बिलबिलाता हुआ ज़मीन पर बैठा, झट से दारोगा और उसके वाकी साथियों की नज़र, पत्थर मारने वाले की तरफ घूम गयी….
उनसे कोई 50-60 मीटर की दूरी पर एक 6 फूटा युवक पठानी सूट में, चेहरे पर घनी लेकिन छोटी सी दाढ़ी थी, उमर कोई 28 साल होती, अपनी कमर पर हाथ रखे खड़ा था.
फ़ौरन उन चारों की गने उसकी ओर तन गयी.
दारोगा ने उसे अपनी ओर आने का इशारा किया,
वो जवान, अपने संतुलित कदमों से उनकी तरफ बढ़ा…जब वो उनसे कोई 10 कदम पर आकर रुक गया तो गुर्राते हुए दारोगा उससे बोला- आए ! कॉन है तू..? इसको पत्थर तूने मारा..?
जी जनाब ! मैने ही मारा है. मुझे लगा ये आदमी इस लड़की के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर रहा था इसलिए.
दारोगा उसकी साफ़गोई से और भड़क उठा और उसको गाली देते हुए चिल्लाया- कफर की औलाद जानता नही पोलीस के कामों में दखलंदाजी करने का अंजाम क्या होता है..? मे तुझे बताता हूँ.
और उसने एक सिपाही की ओर इशारा करके बोला- मार साले को, इसकी हीरो गिरी निकाल.
वो सिपाही उस युवक की ओर बढ़ा, और उसके कंधे पर राइफ़ल के हत्थे से एक ज़ोर दार प्रहार किया. वो जवान अपने कंधे को पकड़ के बिलबिला उठा.
बोल हरम्जादे..! हीरो बनेगा..? और एक और प्रहार उसके पेट पर कर दिया.
दर्द से वो युवक पेट पकड़ कर दोहरा हो गया और गिडगिडाते हुए बोला- मुआफी माई-बाप, अब आइन्दा ऐसा नही करूँगा.
तब तक वो सिपाही उसके पीछे पहुँच गया था, और राइफल के हत्थे की एक और भरपूर चोट उसकी पीठ पर पड़ी.
चोट काफ़ी जोरदार थी, जिसकी वजह से वो जवान 5-6 कदम आगे तक गिरता हुआ बढ़ गया, जैसे तैसे उसने अपने को आगे की तरफ गिरने से बचाया…
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