RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“फिर भी बुलाने पर कोई सरकारी पाबंदी तो नहीं ! कोई गजट में तो नहीं छपा था कि.....”
“पिच्छा छोड़, कोल्ली ।” वो तनिक चिढे स्वर में बोला, “कोई और बात सोच । ये नहीं चलने की ।”
“लेकिन....”
“ओये वीर मेरे, इतने बड़े केस में तेरी झूठी गवाही नहीं चलने की । तेरी झूठी गवाही मुझे तो बचा नहीं सकेगी, तुझे जरूर साथ फंसा देगी । ओये, तेरे जैसे प्राइवेट जसूस को बड़े आराम से खरीदा जा सकता है । कह कि मैं झूठ कह रहा हूं ।”
मैं कसमसाया, तिलमिलाया, भुनभुनाया लेकिन ये न कह सका कि वो झूठ कह रहा था ।
“ऊपर से अभी और सुन ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, “सुन और सोच । तेरी झूठी गवाही का खरीददार कौन है ? क्या चीज हूं मैं ? मैं एक अंडरवर्ल्ड डान हूं । दिल्ली का नामचीन दादा हूं । स्मगलर हूं । रेकेटीयर हूं । बुर्दाफरोश हूं । इन बातों से सोसायटी में खौफ तो बनता है, रुतबा नहीं बनता । मेरे जैसे आदमी का कोई हमदर्द नहीं होता सोसायटी में । एक बार फंस जाए तो हर कोई ये ही कहता है कि अच्छी हुई साले के साथ । बहुत कहर बरपाया हुआ था कमीने ने । ऐसी रिप्युट वाले आदमी का एक कत्ल में दखल बन जाता है । मुझे तो उधेड़ के रख देंगे मेरे दुश्मन । कत्ल के इल्जाम से पुलिस ने बख्श भी दिया तो बीमा कम्पनी वाले पसर जाएंगे । वो इसे डिस्प्यूट वाला केस बना देंगे और रकम की अदायगी में इतने अडंगे लगा देंगे कि सालों मुझे रकम के दर्शन नहीं होंगे । कोर्ट कचहरी के चक्कर में पडूंगा तो और मिट्टी खराब कराऊंगा । पल्ले से पैसा लगाकर केस लड़ना पडेगा, दीवानी का केस होगा, सालों फैसला नहीं होगा । तब तक कुछ मेरे वकील मुझे नंगा कर देंगे और कुछ वैसे ही मेरे दाने बिक जाएंगे । वीर मेरे, मौजूदा हालात से मेरी निजात का एक ही रास्ता है कि असली कातिल पकड़ा जाए । ठीक ?”
“ठीक ।”
“तो पकड़ ।”
“क्या ?” मैं हड़बड़ाया ।
“असली कातिल और क्या ?”
“उसे तो पुलिस ही पकड़ लेगी । आखिर पुलिस.....”
“खौत्ते ! पुलिस कोशिश तक नहीं करेगी । वो तो ये ही जान के बाग-बाग हो जाएगी कि कत्ल के इल्जाम में मैं” उसने अपनी तेल के बड़े वाले ड्रम जैसी छाती ठोकी, “लेखराज मदान फंस रहा था । अव्वल तो उनके किए कुछ होगा नहीं, उनको शर्म आ गई, लिहाज आ गया और कुछ हो गया तो तो तब होगा जवकि मेरी वैसे ही वज्ज चुकी होगी ।”
“वो कैसे ?”
“कौशल्या की उस चिट्ठी की वजह से जिसमें इस बात का सबूत है कि मुकन्दलाल सेठी का कातिल मैं था ।”
“वो चिट्ठी अभी तक शशिकान्त रखे हुए होगा ?”
“बिल्कुल रखे हुए होगा । कलेजे से लगाकर जान से ज्यादा अजीज वनाकर रखे हुए होगा ।”
“वो चिट्ठी कोठी में ही कहीं होगी । ढूंढ लेते हैं । क्या मुश्किल काम है ! ऐसी तलाश से हमें रोकने वाला तो मरा पड़ा है ।”
“कोल्ली आज तेरा ऐसा कोई बरत-वरत तो नहीं जिसमें अक्ल इस्तेमाल करने पर वरत टूट जाता हो ।”
“क्या हुआ ?”
“अरे, चौदह साल तक ये कुत्ती दा पुत्तर मेरी छाती पर हिमालय पहाड़ की तरह जमा रहा, इतने अरसे में मैंने कोई कसार छोड़ी होगी, कोई कोशिश उठा रखी होगी उस चिट्ठी की तलाश में । चार बार सुई की तलाश जैसी महीन तलाशी कर चुका हूं मैं इस कोठी की । यहां के अलावा क्लब को और और भी हर उस मुमकिन जगह को, जहां शशिकांत का दूर-दराज का भी दखल हो, मैं खंगाल चुका हूं । लेकिन वो चिट्ठी मेरे हाथ नहीं लगी ।”
“किसी बैंक के लॉकर में होगी । किसी वकील के दफ्तर में होगी ।”
“कहीं तो होगी ही । फेंकने वाला तो वे था नहीं उसे । आखिर वो चिट्ठी ही तो थी जो मेरी नाक की नकेल बनी हुई थी । कोल्ली, मेरी सलामती इसी में है कि वो चिट्ठी नुमाया होने से पहले असल कातिल पकड़ा जाए ।”
“वो तो फौरन नुमायां हो सकती है ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । जिस किसी के पास भी वो चिट्ठी होगी, वो कुछ अरसा तो देखेगा ही कि पुलिस की सरगर्मियों का क्या नतीजा निकलता है । अगर उसे मालूम होता है कि कातिल मैं नहीं हूं और जो कातिल है उसकी पीठ पर मेरा हाथ भी साबित नहीं होता तो फिर वो क्यो भला उस चिट्ठी को आम करेगा ।”
“हूं ।”
“कोल्ली, सारी कथा का निचोड़ यही है कि कातिल को पकड़ फौरन पकड़, फौरन से पेश्तर पकड़ ।”
“कहां मिलेगा ?”
“मजाक मत कर बकवास भी मत कर ।”
“फोकट में पकडूं ?”
“फोकट में क्यों वीर मेरे, तू कोई वालंटियर है !”
“ऐन मेरे मन की बात कही ।”
“अपनी कीमत खुद बोल ।”
“रजनी के नाम वाला जो लिफाफा तुम्हारी कोट की जेब में है, वो मुझे दो ।”
“ज्यादा है ।”
“क्या बात है, मेरी औकात अपने पहलवान हबीब बकरे जितनी भी नहीं समझते हो ?”
“वो रकम जिक्र के लिए थी, देने के लिए नहीं ।”
“यानी कि मुझे यहां लाकर जब वो मेरा खून कर देता तो खुद तुम उसका पत्ता साफ कर देते ?”
“जरूरी था । ऐसे मामलों में गवाह नहीं छोड़े जाते ।”
“मेरे बारे में भी तो ऐसा ही कुछ नहीं सोचे बैठे हो ?”
“अब नहीं । अब मुझे तेरी जरुरत है ।”
“ऐसे तुम्हारी जरूरत कैसे पूरी होगी, लिफाफा तो अभी भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा ।”
“कम से नहीं मानेगा ?”
“वक्त खराब कर रहे हो जबकि जानते हो कि एक-एक मिनट कीमती है ।”
उसने एक आह सी भरी और जेब से लिफाफा निकाला । चिट्ठी समेत ही उसने वो लिफाफा मुझे सौंप दिया ।
सुधीर कोहली - मैंने मन ही मन खुद अपनी पीठ थपथपाई लक्की बास्टर्ड ।
मेरे और पुलिस के कारोबार में जो भारी फर्क है, वो यह कि उनका काम लोगों को सजा दिलाना है जबकि मेरा काम उन्हें सजा से बचाना होता है । उन्होंने अपनी तनख्वाह को जस्टिफाई करने के लिए बेगुनाह को भी मुजरिम मानना होता है जवकि मुझे अपनी फीस को जस्टीफाई करने के लिए मुजरिम को भी बेगुनाह साबित करके दिखाना होता है । इसीलिए मेरी फीस उनकी तनख्वाह से कहीं ज्यादा है ।
|