RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“आई सी । बहरहाल बात किन्हीं कागजात के मसले को लेकर आपकी और मरने वाले की तकरार की हो रही थी ।”
“वो मसला कुछ भी नहीं था । वो पहले से ही बेहद उखड़े हुए मूड में न होता तो सवाल ही नहीं था तकरार का ।”
“थे क्या वो कागजात ?”
“उसकी राजेंद्रा प्लेस में जो नाइट क्लब है और जो आजकल बंद है, उसके खुलने के आसार दिखाई दे रहे हैं । इस मुद्दे पर अपने क्लायंट की तरफ से मैं कई बार लेफ्टीनेंट गवर्नर और पुलिस कमिश्नर से मिला हूं । उम्मीद थी कि क्लब को कुछ दिनों में फिर से खोलने की इजाजत मिल जाने वाली थी । दोबारा क्लब खुलने से पहले शशिकान्त उसकी रेनोवेशन कराना चाहता था और इस काम के लिए एक इंटीरियर डेकोरेटर की खिदमात हासिल की गई थीं ।”
“किसकी ?”
“इंटीरियर डेकोरेटर की । आंतरिक साज-सज्जा विशेषज्ञ की ।”
“आई मीन कौन से इंटीरियर डेकोरेटर की ?”
“वो क्या है कि मेरे एक और क्लायंट हैं, उनकी मिसेज शहर की फेमस इंटीरियर डेकोरेटर है । वो ही..”
“सुधा माधुर !”
उसने हैरानी से मेरी और देखा ।
“से यस ऑर नो ।” मैं तनिक शुष्क स्वर में बोला, ड्रामेटिक इफेक्ट्स लेटर । यू आर इन ए हरी । रिमेम्बर !”
“हां । वही ।” वो तनिक हकबकाया सा बोला, “मिसेज सुधा माथुर ही नाइट क्लब की रेनोवेशन का प्लान तैयार कर रही थीं ।”
“आगे ।”
“प्लान के स्कैच वगैरह और प्रोपोजल के सारे कागजात कल शशिकांत को दिखाए जाने का मेरा वादा था लेकिन किन्हीं वजहात से कागजात वक्त पर तैयार नहीं ही हो सके थे । एकाध दिन की अतिरिक्त देरी का मसला था, लेकिन वो देरी को यूं उछाल रहा था जैसे अगले रोज प्रलय आ जाने वाली थी । बात नाजायज थी, गैरजरूरी थी इसलिए मैं भी ताव खा गया था । नतीजतन पहले बात तकरार तक पहुंची और फिर तकरार झगड़े तक । उस घड़ी इतना अनरीजनेबल हो उठा शशिकांत कहने लगा कि कैलेंडर की तारीख बदलने से पहले अगर वो कागजात उस तक न पहुंचे, जो कि नामुमकिन था, तो प्रोपोजल को कैंसल समझा जाए ।”
“यानी कि वो अगले रोज तक भी इत्तंजार करने को तैयार नहीं था ।”
“नहीं था । बाद में तो माहौल कुछ शांत भी हो गया था और मैंने उसे नए सिरे से समझाया था कि आज ही होने वाला काम वो नहीं था और उससे दरख्वास्त की था कि कम-से-कम चौबीस घंटे की तो मोहलत दे लेकिन उसने तो ऐसी जिद पकड़ ली थी कि वो टस-से-मस न हुआ । आखिरकार अपना सा मुंह ले के मैं वहां से लौट आया ।”
“कितने बजे रुखसत हुए थे आप मकतूल की कोठी से ?”
“आठ बजने वाले थे । दसेक मिनट रहे होंगे बाकी ।”
“यानी कि सात पचास पर ।”
“हां ।”
“वहां से कहां गए आप ?”
“डिफेंस कालोनी ।”
“वहां कहां ?”
“वहां अब्बा नाम का एक डिस्कोथेक है जहां कि मैं तफरीह के लिये अक्सर जाता हूं ।”
“आई सी । मैटकाफ रोड से रवाना हुए तो सीधे वहीं पहुंचे आप ?”
“न..नहीं । सीधा तो नहीं पहुंचा था । रुका तो था मैं रास्ते में एक जगह ।”
“कहां ?”
“दिल्ली गेट । पैट्रोल पम्प पर ।”
“पेट्रोल पम्प पर । पेट्रोल पम्प तो आजकल सात बजे बंद हो जाते हैं ?”
“हां । लेकिन ये सिलसिला अभी नया-नया ही शुरू हुआ है न इसलिए मुझे अक्सर भूल जाता है । ऊपर से पम्प के ऑफिस में रोशनी थी । मैंने सोचा पम्प वाले कोई कनस्तरों में पेट्रोल रखकर बैठै रहते होंगे और ब्लैक में बेचते होंगे इसी चक्कर में मैंने गाड़ी वहां ले जा खडी की थी ।”
“पैट्रोल बहुत कम था आपकी गाड़ी में ?”
“नहीं, कम तो नहीं था । था गुजारे लायक । दरअसल पम्प पर जाने की एक और भी वजह थी ।”
“और क्या वजह थी ?”
“मैं एक फोन कॉल करना चाहता था । उस पम्प से क्योंकि मैं रेगुलर पैट्रोल डलवाता हूं इसलिए वहां लोग मुझे पहचानते हैं ।”
“हूं । फोन किसे करना चाहते थे आप ?”
“सुधा माथुर को । वो क्या है शशिकांत से जो गरमा-गरमी हुई थी, वो मुझे परेशान कर रही थी । वो भले ही बहुत अनरीजनेबल हो उठा था, लेकिन मुझे भी ये नहीं भूलना चाहिए था कि कस्टमर इज आलवेज राइट । तब मुझे लगा था कि प्रोपोजन कैंसल न हो, इसके लिए मुझे कोई जुगाड़ करना चाहिए था आखिर उसने आधी रात तक का तो वक्त दिया ही था । आन दि रोड मुझे ये ख्याल आया था कि उस पेचीदा मसले पर मुझे सुधा माथुर से बात करनी चाहिए थी ।”
“जो कि आपने की ? पम्प से टेलीफोन करके ?”
“हां । मुझे उम्मीद थी कि जैसा शशिकांत मेरे से भड़का था, वैसा शायद वो सुधा से न भड़कता । सुधा उससे बात करती तो शायद वो अपनी रात बारह बजे तक की डैड लाइन में कोई ढील दे देता या उसे खारिज ही कर देता ।”
“आई सी ।”
“मैंने सुधा से इस बाबत बात की तो उसने बताया कि वो उस प्रोपोजल के कागजात को आफिस से घर ले आई थी और घर पर भी वो उसी प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी, लेकिन कागजात मुकम्मल होने में अभी बहुत काम बाकी था । तब मैंने उससे प्रार्थना की थी कि वो आधे-अधूरे कागजात ही जा के शशिकांत को दिखा आए । मैंनै कहा कि शशिकांत को कौन-सा पता लगने वाला था कि कागजात आधे-अधूरे थे !”
“उसने कबूल किया यूं अधूरे कागजात को ले के यूं शशिकांत की कोठी पर जाना ?”
“हां, किया । थोड़ी टालमटोल की लेकिन किया ।”
“वो गई वहां ?”
“जब हामी भरी थी तो गई ही होगी ।”
“आपने दरयाफ्त नहीं किया ?”
“मौका नहीं लगा । वो क्या है कि रात को मैं एक-डेढ़ बजे घर पहुंचता हूं इसलिए सुबह देर से सो के उठता हूं । यहां ऑफिस में मैं दोपहर के बाद ही पहुंच पाता हूं । आज आते ही काम-काज में मसरूफ हो गया । फिर जब सुधा को फोन करने की फुर्सत लगी तो मदान का फोन आ गया और फिर ...”
“अब कीजिए ।”
“क्या ?”
“सुधा को फोन ।”
उसने फोन अपनी तरफ घसीटा और एक नम्बर डायल किया ।
“बिजी मिल रहा है ।” कुछ क्षण बाद वह बोला ।
“जाने दीजिए ।”
उसने फोन वापस क्रेडल पर रख दिया ।
“सुधा से आपकी कितने बजे बात हुई थी ?” मैंने सवाल किया ।
“भई, अब घड़ी तो देखी नहीं थी मैंने ।”
“अंदाजन बताइए ।”
“अंदाजन !” वो सोचने लगा, “देखो, मैटकाफ रोड से दिल्ली गेट का कोई दस-बारह मिनट का रास्ता है । सात पचास पर मैं शशिकांत की कोठी से निकला था । इस लिहाज से आठ पांच और आठ दस के बीच मेरी बात हुई होगी सुधा से ।”
“पेट्रोल पम्प से आप सीधे डिफेंस कॉलोनी गए ?”
“हां ।”
“अब्बा में कब पहुंचे ?”
“साढ़े आठ बजे ।”
“यानी कि जिस वक्त मैटकाफ रोड पर शशिकांत का कत्ल हो रहा था, एन उस वक्त आप अब्बा में दाखिल हो रहे थे ।”
“कत्ल साढ़े आठ बजे हुआ था ?”
“आठ अट्ठाइस पर । हालात का इशारा तो इसी तरफ है । बाकी आप वहां मौकाएवारदात पर जा ही रहे हैं ।”
“ओह, यस ।” वो तत्काल उठ खड़ा हुआ, “तो मैं चलूं ?”
“जरुर । मैं आपसे फिर मिलूंगा ।”
“एनी टाइम । यू आर मोस्ट वेलकम ।”
“थैंक । थैंक्यू सर ।”
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