Maa ki Chudai माँ का चैकअप
08-07-2018, 10:48 PM,
#5
RE: Maa ki Chudai माँ का चैकअप
"आप कुच्छ कह रहे थे डॉक्टर. ?" डॉक्टर. ऋषभ के चुप होते ही विजय ने उसे टोका.
"ह .. हां" जैसे कोई डरावना सपना टूटा हो, गहरी निद्रा से आकस्मात ही यथार्थ में लौटने के उपरांत ड्र. ऋषभ हड़बड़ा सा जाता है.
"वो .. वो मैं यह कह रहा था, विजय जी! एक ब्रॅंडेड लूब्रिकॅंट ट्यूब सजेस्ट कर रहा हूँ. अनल सेक्स स्टार्ट करने से पहले अपना टूल उससे पोलिश कर लिया करें ताकि इंटरकोर्स के दौरान अनचाहा फ्रिक्षन रेड्यूज़ हो सके और स्लिप्पेरिनेस्स भी बरकरार रहे" वह दवाइयों के पर्चे पर लूब्रिकॅंट का नाम लिखते हुवे बोला. अपनी मा की ताका-झाँकी के भय से उसके अशील अल्फ़ाज़, चेहरे के बे-ढांगे भाव और लंड का तनाव इत्यादि सभी विकार तीव्रता से सुधार में परिवर्तित हो चले थे.
"यह अँग्रेज़ी में क्या खुसुर-फुसुर चल रही है ड्र. साहेब ? मुझे कुच्छ समझ नही आया" रीमा ने पुछा, अब वह अनपढ़ थी तो इसमें उसकी क्या ग़लती.
विजय: "अरी भाग्यवान! ड्र. ऋषभ ...."
"तुम चुप रहो जी! हमेशा चपर-चपर करते रहते हो. तो डॉक्टर. साहेब! क्या कह रहे थे आप ?" अपने पति का मूँह बंद करवाने के पश्चात रीमा ड्र. ऋषभ से सवाल करती है, अपने पुत्र-तुल्य प्रेमी के ऊपर तो अब वह अपनी जान भी न्योछावर करने से नही चूकती.
"कुच्छ ख़ास नही रीमा जी" ड्र. ऋषभ ने सोचा कि अब जल्द से जल्द उन दोनो को क्लिनिक का दरवाज़ा दिखा देना चाहिए ताकि अन्य कोई ड्रामा उत्पन्न ना हो सके. तत-पश्चात दोबारा उसने अपनी निगाहें बंद कंप्यूटर की स्क्रीन से जोड़ दी मगर इस बार उसे विज़िटर'स रूम की खिड़की पर कोई आक्रति नज़र नही आती.
"मैं इतनी भी गँवार नही ड्र. साहेब! आप ने अभी सेक्स, पोलाइस और लू .. लू .. लुबी, हां! ऐसा ही कुच्छ बोला था" रीमा ने नखरीले अंदाज़ में कहा. अब कोई कितना भी अनपढ़ क्यों ना सही 'सेक्स' शब्द का अर्थ तो वर्तमान में लगभग सभी को पता होता है. हां! जितना वह नही समझ पाई थी उतने का क्लू देने का प्रयत्न उसने ज़रूर किया.
"वो! रीमा जी" अब तक ड्र. ऋषभ के मन में उसकी मा का डर व्याप्त था, हलाकी ममता अब खिड़की से हट चुकी थी मगर फिर भी वह फालतू का रिस्क लेना उचित नही समझता.
"मैने विजय जी को सब बता दिया है, घर जा कर आप इन्ही से पुछ लीजिएगा" उसने पिच्छा छुड़ाने से उद्देश्य से कहा और दवाइयों का पर्चा विजय के हवाले कर देता है.
"हम चलते हैं डॉक्टर.! आप की फीस ?" विजय ने अपनी शर्ट की पॉकेट में हाथ डालते हुवे पुछा मगर रीमा का दिल उदासी से भर उठता है. वह कुच्छ और वक़्त ड्र. ऋषभ के साथ बिताना चाहती थी, फीस के आदान-प्रदान के उपरांत तो उन्हें क्लिनिक से बाहर जाना ही पड़ता.
"नही विजय जी! रीमा जी का रोग ठीक होने के बाद मैं खुद आप से फीस माँग लूँगा" ड्र. ऋषभ की बात सुन कर जहाँ विजय उसकी ईमानदारी पर अचंभित हुवा, वहीं रीमा के तंन की आग अचानक भड़क उठती है.
"ड्र. साहेब! कभी हमारे घर पर आएँ और हमे भी आप की खातिरदारी करने का मौका दें" रीमा फॉरन बोली, उसके द्वि-अर्थी कथन का मतलब समझना ड्र. ऋषभ के लिए मामूली सी बात थी परंतु जवाब में वह सिर्फ़ मुस्कुरा देता है.
"हां ड्र.! मेरा नंबर और अड्रेस मैं यहाँ लिख देता हूँ, आप हमारे ग़रीब-खाने में पधारेंगी तो हमे बहुत खुशी होगी" सारी डीटेल'स टेबल पर रखे नोट पॅड में लिखने के उपरांत दोनो पति-पत्नी अपनी कुर्सियों से उठ कर खड़े हो गये. रीमा ने अपने पति के पलटने का इंतज़ार किया और तत-पश्चात अपनी सारी, पेटिकोट समेत पकड़ कर उसके खुरदुरे कपड़े को अपनी चूत के मुहाने पर ठीक वैसे ही रगड़ना शुरू कर देती है जैसे पेशाब करने के पश्चात अमूमन कयि भारतीय औरतें अपनी चूत के बाहरी गीलेपन्न को पोंच्छ कर सॉफ करती हैं.
"क्या हुवा रीमा ? अब चलो भी" अपनी पत्नी को नदारद पा कर विजय ने पुछा.
"तुमने तो अपनी बीवी को इतने जवान ड्र. साहेब के सामने नंगी हो जाने पर विवश कर दिया, अब क्या साड़ी की हालत भी ना सुधारू ?" रीमा, ड्र. ऋषभ की आँखों में झाँकते हुवे बोली और कुच्छ देर तक अपनी साड़ी की अस्त-व्यस्त हालत को सुधारने के बहाने अपनी चूत को रगड़ती ही रहती है. कॅबिन के दरवाज़े पर खड़े, उसकी प्रतीक्षा करते विजय का तो अब नाम मात्र का भी भय उसके चेहरे पर नज़र नही आ रहा था.
"घर ज़रूर आईएगा ड्र. साहेब! अच्छा! तो अब मैं चलती हूँ" अंत-तह कॅबिन के भीतर मौजूद उन दोनो मर्दो पर भिन्न-भिन्न रूप के कहेर ढाने के उपरांत अन-मने मन से रीमा को विदाई लेनी पड़ती है, ड्र. ऋषभ के साथ ही विजय के चेहरे पर भी सुकून के भाव सॉफ देखे जा सकते थे.
--------------
"उफफफ्फ़" अपनी टाइ की बेहद कसी नाट ढीली करने के बाद ऋषभ कुच्छ लम्हो तक लंबी-लंबी साँसें भरने लगा जो की मानसिक तनाव दूर करने में चिकित्सको का प्रमुख सहायक माध्यम होता है.
"कुच्छ देर और अगर यह औरत यहाँ रहती तो शायद मैं इस दुनिया से रुखसत हो जाता, आई थी अपनी गांद सिलवाने मगर फाड़ कर चली गयी मेरी" उसने मन ही मन सोचा, चुस्त फ्रेंची की जाकड़ में क़ैद उसका लंड अब भी ऐंठा हुवा था. मेज़ पर स्थापित घड़ी में वक़्त का अंदाज़ा लगा कर उसने जाना कि उसकी मा पिच्छले आधे घंटे से विज़िटर'स रूम के अंदर बैठी उसके फ्री होने का इंतज़ार कर रही थी.
"हेलो मा! कॅबिन में आ जाओ, मैं अब बिल्कुल फ्री हो चुका हूँ"
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