non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
07-29-2019, 11:54 AM,
#1
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आखिर वो दिन आ ही गया


मैं आज इंडिया के एक दूर-दराज कस्बे से आपसे मुखातिब हूँ, मैं अपनी जिंदगी की 86 बहारें देख चुका हूँ। आज मैं तन्हा एक झोंपड़ेनुमा घर में रहता हूँ। मेरी तन्हाइयां और मैं, यह खामोशी मुझको डस रही है। मेरी मौत बहुत करीब है, हाँ मैं जानता हूँ अब मैं बहुत ही कम इस दुनियाँ में रहूंगा। मौत मुझको अक्सर करीब की झाड़ियों में बैठी नजर आती है। एक दिन वह मुझको अपने साथ ले जायेगी।

मेरा नाम प्रेम है। आज मेरी फेमिली में कोई भी जिंदा नहीं रहा। सब वहाँ जा चुके हैं जहाँ से कभी कोई वापपस नहीं आया आज तक, और सब वहाँ मेरा बेताबी से इंतिजार कर रहे हैं। मैं जानता हूँ, वहाँ मेरा अंजाम बहुत बुरा होगा, शायद मैं कभी मुक्ति ही ना पा सकूं। पर मैं यह बातें ना जाने क्यों कह रहा हूँ।

मेरा कोई धरम, कोई मजहब नहीं। मैंने जो जिंदगी गुजारी उसमें धरम, इख्लाक, शरम, मशरती तकाज़े इन चीजों का नाम-ओ-तनशान तक ना था, वहाँ फितरती तकाज़े ही मेरे रहबेर थे। जहां फितरत खुद मेरी रहनुमाई पर तैयार थी।

मुझको आज भी अच्छी तरह याद है। मेरे बचपन के दिन, क्योंकी मैं एक बेटी के बाद पैदा हुआ था, इसलिए माँ, बाप का प्यारा था, मेरी माँ बहुत अच्छी औरत थी। आज भी अपने आस पास उसकी परछाईं महसूस करता हूँ। मेरे पिताजी ब्रिटिश नेवी में थे और हम अच्छे खासे खाते पीते घराने से थे। मैं 18 अगस्त 1929 में पैदा हुआ उस वक्त मेरी बहन राधा सिर्फ़ 6 साल की थी। वह एक नन्हा भाई पाकर बहुत खुश थी। जब मैं तीन साल का हुआ तो हमारे घर में और खुशियाँ आ गईं, हमारी एक और बहन आ गई उसका नाम पिताजी ने बड़े प्यार से कामिनी रखा। वह थी भी तो बिल्कुल कोमल कोमल, उसका बचपन आज भी यूँ लगता है। बस क्या कहूं?

उस वक्त हमारी बड़ी बहन राधा 9 साल की हो चुकी थी और काफी सुंदर भी। वह अब माँ के साथ काम भी करवा लिया करती थी, भारी कामों के लिए तो नौकर थे ही।

बहुत खुशियों भरे दिन थे वह भी।

फिर हिन्दुस्तान के हालात कुछ बिगड़ने लगे। यह लगभग 1937 के आख़िर की बात है। अब पिताजी और माँ अक्सर इन बिगड़ते हुये हालात पर परेशान हो जाती थीं । आख़िर मेरे पिताजी की फौज की नौकरी और उनके ताल्लुक़ात काम आए और मेरी फेमिली ने इंगलिस्तान शिफ्ट होने का फैसला किया।
जिनमें मेरे दादा, दादी, पिताजी, माँ और हम तीनों बच्चे शामिल थे। कुछ दिनों तक पिताजी भाग दौड़ करते रहे आख़िर फरवरी 1938 के अंत में जाकर हमारे सारे डाक्युमेंटस तैयार थे।

और हम तैयार थे इगलेंड जाने के लिए। लेकिन बहरहाल तैयारियाँ करते करते मार्च 1938 भी गुजर ही गया तकरीबन और हमारी बाहरी जहाज की टिकेट कन्फर्म हुई 27 मार्च 1938 की उस दिन हमने अपना देश हिन्दुस्तान हमेशा के लिए छोड़ देना था।

आज हम सब बहन भाई बहुत खुश थे क्योंकी माँ की जबानी हमको बाहरी जहाज की बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिली थीं और हम इस रोमांचक सफर के लिए बेचैन थे। हमारा सारा समान दो लोरियों में भरा जा रहा था

और फिर वह बंदरगाह की जानिब चलीं गईं। हम सब बहन भाई और हमारी पूरी फेमिली एक विक्टोरिया में बैठ कर बंदरगाह की तरफ रवाना हो गये।

उन दिनों बाम्बे की बंदरगाह आज की तरह शानदार ना थी। ज़्यादातर वहाँ इंगलिस्तान से आए और स्पेन की तरफ से आए तिजारती जहांजों की भरमार रहती थी। गोदी पर मजदूरों की भाँति भाँति की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं एक अजब गहमा गहमी थी।

ब्रिटिश नेवी के भी कई जहाज वहाँ लंगरअंदाज थे। जाब्ते की करवाइयों से गुजरिे हुये हम सब आख़िर जहाज पर अपने केबिन में आ ही गये। बस यूँ ही छोटा सा केबिन था। आज के क्रूज शिप्स की तरह शानदार तो ना था पर उस जमाने में बेहतर ही तसलीम किया जा सकता था। खैर आख़िर शाम को जहाज का लॅंगर उठाकर गोदी को खैरबाद कहा गया बंदरगाह पर इस वक्त लोगों का हजूम था जो अपने अजीजों को विदा करने के लिए वहां जमा थे।


मैं यह सब देख रहा था। मेरी उमर उस वक्त 9 बरस की थी, मैं अभी समझदार हो रहा था और इन तमाम चीजों को बहुत दिलचस्पी से देख रहा था मेरी दोनों बहनें भी मेरे करीब खड़ी थीं और हम तीनों रेलिंग से लटके किनारे को दूर हटता देख रहे थे। दूर आसमान में आग का गोला सूरज अपनी आूँखों से दुनियाँ को देख रहा था और रात की तरीकी अपनी पलकें पटपटाते तेज़ी से दुनियाँ को अपनी लपेट में ले रही थी।
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