RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
मैं सड़क के पार अपनी पुरानी-सी फिएट में बैठा था और अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश कर रहा था।
आते ही मैंने वहां के एक कर्मचारी से संपर्क करके अमर चावला के बारे में कुछ जानने की कोशिश की थी। लेकिन मेरी इसलिए दाल नहीं थी क्योंकि तभी अमर चावला वहां पहुंच गया था। उस क्षण वह भीतर ऑफिस में बैठा था और ऑफिस के शीशे की विशाल खिड़की में से मुझे दिखाई दे रहा था।
रेड एंड वाइट के कश लगाता मैं उसके वहां से टलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
ऑफिस के दरवाजे पर वह मर्सिडीज कार खड़ी थी, जिस पर कि वह थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था । उसका वर्दिधारी ड्राइवर कार के साथ ही टेक लगाए खड़ा था, इससे मुझे लग रहा था कि वह जल्दी ही वहां से विदा होने वाला था।
दस मिनट बाद वह दो दादानुमा व्यक्तियों के साथ बाहर निकला । वे सब सैंडविच की सूरत में - पहले दादा फिर
चावला, फिर दादा - कार में सवार हो गए । ड्राइवर भी वापिस अपनी सीट पर जा बैठा। उसने कार का इंजन स्टार्ट किया। उस घड़ी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैंने चावला का पीछा करने का फैसला किया। मर्सिडीज वहां से रवाना हुई तो मैंने अपनी फिएट उसके पीछे लगा दी।
चावला कोई पचास साल का ठिगना, मोटा, तंदरुस्त आदमी था । मुझे फोन करने वाली कथित मिसेज चावला से उसकी क्या रिश्तेदारी थी, इसका संकेत मुझे अभी भी हासिल नहीं था। मैं उसकी कल्पना अमर चावला से किसी रिश्तेदार के तौर पर महज इसलिए कर रहा था कि उसने जिस जगह पर मुझे मिलने को बुलाया था, उसका मालिक अमर चावला था । हकीकतन दोनों का एक जात का होना महज इत्तफाक हो सकता था और मुझे फार्म पर बुलाये जाने की वजह रिश्तेदारी की जगह यारी हो सकती थी। अगली कार राजेन्द्र प्लेस जाकर रूकी। चावला और उसके दोनों साथी कार से निकलकर एक बहुमंज़िली इमारत में दाखिल हुए । अपनी कार को पार्क करके जब मैंने उस इमारत में कदम रखा तो मैंने उन्हें लिफ्ट के सामने खड़े पाया। मेरे देखते-देखते लिफ्ट वहां पहुंची। उनके साथ ही मैं भी लिफ्ट में दाखिल हो गया। किसी की तवज्जो मेरी तरफ नहीं थी। लिफ्ट पांचवी मंजिल पर रूकी तो वे दोनों बाहर निकले । मैं भी बाहर निकला। लिफ्ट फ्लोर के मध्य में खुलती थी । वे बायीं तरफ चले तो मैं जानबूझकर विपरीत दिशा में चल पड़ा।
एक क्षण बाद मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो मैंने उन्हें कोने का एक दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल होते देखा। वे दृष्टि से ओझल हो गए तो मैं वापिस लौटा। कोने के उस दरवाजे पर पीतल के चमचमाते अक्षरों में लिखा था - जॉन पी एलेग्जेंडर एंटरप्राइसिज ।
| मैं सकपकाया । तब मुझे पहली बार सूझा कि मैं कहां पहुंच गया था।
एलेग्जेंडर शहर का बहुत बड़ा दादा था और उसकी एंटरप्राइसिज जुआ, अवैध शराब, प्रोस्टिच्युशन, स्मगलिंग और ब्लैकमेलिंग वगैरह थीं ।
और चावला अपने दो दादाओं के साथ वहां आया था। मैं वहां से टलने ही वाला था कि एकाएक मेरे कान में एक आवाज पड़ी –
"क्या चाहिये ?"
मैंने चिहुंक कर पीछे देखा। मेरे पीछे एक दरवाजा निशब्द खुला था और उसकी चौखट पर उस वक्त चावला के दो। | दादाओं में से एक खड़ा मुझे अपलक देख रहा था।
वह कंजी आंखों और चेचक से चितकबरे हुए चेहरे वाला सूरत से ही निहायत कमीना लगने वाला आदमी था। प्रत्यक्षत: वह दरवाजा भी एलेग्जेंडर के ऑफिस का था।
"कुछ नहीं ।” - मैं सहज भाव से बोला।
"तो ?"
"मैं टॉयलेट तलाश कर रहा था ।"
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