RE: antervasna चीख उठा हिमालय
"दोनो तरफ व्यवस्थित ढंग से चमन के नागरिक खड़े थे । दरवाजे के ठीक सामने--- दूर सिंहासन रखा हुआ था । वतन और फलवाली बूढी मां की जय जयकार से सारा चमन गूंज उठा ।
बैण्ड बन्द हो गए । शहनाइयां खामोश हो गई ।।
'वतन' बुढिया को सिंहासन के करीब ले गया । बोला-"बेठो दादी मां ! इस देश का राजा अपनी मां को सिंहासन पर बैठाकर , राज करेगा ।"
चौंक पडी बुढिया, बोली---"ये क्या कहता है बेटा ? यह गदी तो तेरी है ।"
" नहीं दादी मां ।" वतन ने कहा'---“गद्दी मां की है ---बेटा तो मां की सेवा करेगा ।"
" नहीं वतन---नहीँ मेरे बेटे !" खुशी के मारे रो पडी़ बुढिया ---" मुझे तो बस सिर्फ मेरेे पैसे दे दे ।।
” पैसे तो दूगा ही मा ।। " वतन बोला---" पहले बैठो तो सही यहां ।।"
खुशी से रोती हुई बुढिया को राजगद्दी पर बैठना ही पड़ा ।
फिर-बिकास एक थाली लाया । थाली में रोली थी, साथ ही चावल और एक हीरे-जड्रित सोने का मुकुट । वतन ने रोली में अंगूठा भिगोया, बोला----", गद्दी पर तुम बैठा करोगी मां ।। दुनिया चाहे यह जाने कि चमन का राजा वतन है, लेकिन हकीकत यही रहेगी कि यह गद्दी तुम्हारी है । तुम वतन की माँ हो, इस देश के राजा ,. की मां…इस देश की मां ।" कहते हुए बुढिया के माथे पर रोली लगा दी उसने ।
झर झर करके बुढिया की आंखों से खुशी के आसू बहते रहे । वतन ने माथे पर रोली पर चावल चिपका दिए ।
फिर ताज हाथ मैं लेकर कहने लगा----" यह मत समझना दादी मां, कि यह मुकुट मैं तुम्हें मुफ्त में, खैरात में या कोई एहसान करने के लिए दे रहा तू । यह तो उन नो सौ आठ सेर फलों की कीमत है जो तुमने मुझे उधार खिलाए हैं ।"
इतनी खुशी मिले तो इन्सान पर सहन नहीं होती । खुशी चरम सीमा का प्रतीक होता है फूट-फूटकर रोना । बुढिया रो पडी ।
वतन ने उसके सिर पर ताज रख दिया ।
फ़लबाली बुढिया की जय जयकार से वातावरण गूंज ऊठा ।।
बुढिया की आखों से आसूं झलक रहे थे ।
रोते रोते अचानक वह बोली -"‘वतन, मेरे बच्चे ! देख, मुझ पर यह खुशी सहन नहीं हो रही है । अब देख.....मैं देख रही हू कि तूं मेरे लिए स्वर्ग का दरबाजा खोल रहा है, अरे तू तो बुला रहा है मुझे ......अाई वेटे...मैं आ रही हूं ।"
" दादी मां...दादी मां !” कन्धों से पकडकर वतन उसे झंझोडता हुआ बोला---"क्या होगया तुम्हें होश में आओ ।"
और, वास्तव में फ़लबाली बुढिया अपनी सुधबुधु खो बैठी थी । उसकी आंखें अन्तरिक्ष में जम गई । वहीँ अन्तरिक्ष में निहारती, खोई-सी कह रही थी---"बेटे, तूने मेरे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया----हां जाती हूं ।"
"मां…मां...!" बुढिया को बूरी तरह झंझोड़कर चीखता हुआ रो पडा वतन----"होश में आओ ...क्या कह रही हो तुम ?"
बुढिया हल्के से चौंकी, वतन के चेहरे को देखा, बोली-----" मैं जा रही हूं वतन ।"
" कहा मां ?” वतन तड़प उठा---" कहां ?"
"वहीँ, स्वर्ग में...” वतन का चेहरा देखती हुई वह बोली----"तु रोना नहीं...मुझे हाँ जाना है...”
" नहीं.मा, नहीं ।" रो पड़ा वतन----'"जिससे भी प्यार होगा, क्या वह मर जाएगा ? मां नहीं ! मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा ।"
"‘पागल !" बुढिया ने कहा--"'अरे मेरी तो उम्र ही मरने की है । वह तो उधार लेने के लिए जिन्दा थी मैं । उधार ले लिया---- अब मैं चलूं। तुझे कसम है मेरी----- वतन । याद रखना --- मेरी कसम् हैं---- मेरी लाश पर एक भी आंसू न बहे-न ही तेरा न तेरी प्रजा का । देख तेरे राजतिलक का सारा काम ठीक उसी तरह होना चाहिए , जिस तरह होता है ।"
"ऐसा मत कहो दादी मां, ऐसा मत कहो ।" तढ़पकर रो पड़ा वतन---"क्या मैं इतना बुरा हूं मां, कि जिससे भी मैं प्यार करूं, उसे ही खा जाऊं ? अपनी मा से प्यार किया था, वहन से प्यार किया था, पिता से प्यार किया था; उन सबको तो बचपन मे ही खा गया मैं । जब उन सबके बाद तुम्हीं से तो प्यार किया है मैंने, तो...तो क्या तुम्हें भी खा जाऊंगा मैं ?"
…“क्या वेवकुफ है रे तू जो मरती हुई मां की नहीं सुनता-अपनी हांके जा रहा है ।" उसी तरह खोई सी बुढिया ने कहा---"सुन...सुन...तू पापी से भी प्यार करेगा तो स्वर्ग में जाएगा...हां...हां भाई-आ रही हूं....अरे दो मिनट अपने बेटे से तो बात कर लूं। वतन...देख...स्वर्ग के देवता मुझे बुला रहे हैं । वेटे, ज्यादा वक्त नहीं है मेरे पासं...ध्यान से सुन…-अगर एक भी आसू बहा, तेरे राजतिलक के किसी भी काम में , मेरे जाने से कोई फर्क अाया तो सच कहती हूं --- -मेरी आत्मा हमेशा भटकती रहेगी।"
और उस बुढिया-के मुंह से निकले ये आखिरी शब्द थे ।
सिंहासन की पुश्त से सिर जा टकराया उसका । वह ठंडी हो गई-निश्चल ।।
अवाक-सा वतन अपने काले चश्मे में से उसे देखता रह गया ।
दरबार में सन्नाटा छा गया----मौत का सन्नाटा ।
"कोई रोएगा नहीं" वतन की इस गर्जना ने पूरे चमन को हिला डाला…'किसी भी आंख से कोई आंसु नहीं निकलेगा । आज वतन तुम्हारा राजा वना है । एक बार फिर आज वतन को की मरी है । जश्न मनाओ-शहनाइयाँ बजाओ ।"
जवाब. में सन्नाटा…वही मौत का ।
"सुना नहीं था तुमने ?" दर्द से भरी वतन की गुर्राहट--"मेरी मां ने अभी क्या कहा था---" बैण्ड बजाओ ।"
और-सब कुछ जैसे वेण्ड और शानाइयों की आवाज में दबकर रह गया ।
वड़ा अजीब जश्न मनाया जा रहा था ।
फ़लवाली बूढी़ मां की लाश को सीधी करके सिंहासन पर रख दिया गया था ।
उसी सिंहासन के बराबर में एक छोटे सिंहासन पर बैठ गया था वतन ।
देखने वाले हर पल उसके होंठों पर मुस्कान देख रहे थे । आखें तो उसकी कोई देख ही नहीं सकता था । हमेशा की तरह उसृकी आंखें काले चश्में के नीचे छुई थी ।
बैण्ड और शहनाइयां बज रहीं थी, चमन के नागरिक खूशी से नाच रहे थे--वतन का आदेश जो था । परन्तु वतन के आजाद होने का जश्न मनाते हर आदमी की आंखों में आंसू थे ।
मजाल थी किसी का एक भी आंसू आखों की सीमा को तोड़कर गालों तक अाता ।
फिर---वह वक्त अाया---जब राजतिलक, होने वाला था ।
सभी आवाजें थम गई तो वतन ने कहा-"मेरी इच्छा थी कि माथे पर सबसे पहला तिलक दादी मां लगाएं किन्तु... "
"अभी तो हम जिन्दे हैं बेटे ।" सबके साथ वतन भी चौंक पड़ा क्योंकि राजमहल में गूंजने बाली आवाज सिंगहीं के अलावा किसी की नहीं थी ।
हर निगाह दरवाजे की तरफ उठ गई ।
सिंगहीं चला अा रहा था । जो सिंगही को जानते थे, वे तो उसके भयावने चेहरे को देखते ही सहम गए । परन्तु इस दरबार में ज्यादातर लोग ऐसे थे जिन्होंने सिंगही का सिर्फ नाम सुना था, आज ही पहली वार देख रहे थे ।
देखने वालों के जिस्मों में झुरझुरी-सी दौढ़ गई ।
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