RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
ठाकुर साहब की आँखें गीली थी. उनके चेहरे पर बेटी को गले से लगाने की गहरी तड़प थी. उन्होने अपनी बाहें खोल दी. कंचन आगे बढ़ी और उनकी बाहों में समा गयी. उनके बाहों में सिमट'ते ही कंचन को वो पल याद आया जब वो छोटी थी और हवेली में निक्की के साथ खेला करती थी. तब ठाकुर साहब को देखते ही निक्की उछल्कर उनकी गोद में बैठ जाती थी. तब कंचन का मन भी होता था कि वो भी ठाकुर साहब की गोद में जाए, पर लज्जावश वो ऐसा नही कर पाती थी. हां ठाकुर साहब कभी कभार प्यार से उसके सर पर हाथ फेर देते थे या कभी कभार झुक कर उसके माथे को चूम लिया करते थे. पर उन्होने कभी निक्की की तरह कंचन को अपनी छाती से भींचा नही था. ना कभी उसे अपनी गोद में उठाए थे. उनकी गोद में चढ़ने की तमन्ना कंचन के दिल में हमेशा रही थी. फिर जैसे जैसे बड़ी होती गयी ये दूरी और बढ़ती गयी. हालाँकि ठाकुर साहब कंचन की इस बाल भावना से अंजान थे अगर वे जानते होते तो निसंदेह वो कंचन को भी अपनी गोद में लेने से नही हिचकिचाते. वे कंचन से भी उतना ही प्यार करते थे जितना की निक्की से.
किंतु आज ठाकुर साहब की छाती से लगकर कंचन को एक असीम सुख का अनुभव हो रहा था. यही दशा ठाकुर साहब की भी थी.
शांता, सुगना और दिनेश जी पिता पुत्री के इस मिलन से भावुक हो उठे थे.
कुच्छ देर बाद ठाकुर साहब कंचन से अलग हुए और शांता से बोले - "शांता तुमने मेरी बेटी को मा जैसा प्यार दिया. इसे तो हवेली में भी वो प्यार वो खुशी नही मिलती जो इस घर से, तुम लोगों से मिला है. हम तुम्हारे अभारी हैं. अब हमें इज़ाज़त दो कि हम कंचन को हवेली ले जा सकें" ये कहते हुए ठाकुर साहब ने शांता के आगे हाथ जोड़ दिए.
उत्तर में शांता ने भी सहमति में सिर हिलाते हुए अपने हाथ जोड़ दिए. फिर कंचन से बोली - "जाओ बेटी, अब अपने असली घर जाओ, पर कुच्छ दिन तक यहाँ आती रहना. हमें तुम्हारी आदत हो चुकी है."
इस घर को छोड़ कर जाने की बात से कंचन का दिल बैठ गया. उसके मन में आया कि वो अभी मना कर दे. पर कर ना सकी.
"दीदी कहाँ जा रही है मा?" अब तक खामोश खड़े चिंटू की समझ में कुच्छ ना आया तो शांता से पुच्छ बैठा.
उसकी बात सुनकर कंचन उसके पास आई और उसे अपनी छाती से लगा लिया. फिर ठाकुर साहब से बोली - "पिताजी, क्या मैं चिंटू को भी अपने साथ लेकर जा सकती हूँ? ये मेरे बगैर नही रह सकेगा."
"बेटी अब से वो घर तुम्हारा है, तुम बेशाक़ अपने भाई को अपने साथ रखो, हम तो चाहते थे कि तुम्हारे साथ साथ इस घर के सारे लोग हमारे साथ रहें. पर हम ऐसा कहकर सुगना के स्वाभिमान को ठेस नही पहुँचाना चाहते."
"हम इस घर में खुश हैं ठाकुर साहब. आपने हमारे लिए इतना सोचा यही काफ़ी है." सुगना ने झेन्प्ते हुए कहा.
ठाकुर साहब आभारपूर्ण दृष्टि सुगना पर डालकर कंचन के साथ बाहर जाने लगे. चिंटू भी कंचन के साथ था.
सुगना शांता और दिनेश जी भी पिछे पिछे बाहर तक आए.
कंचन एक बार सबसे गले मिलकर जीप में बैठ गयी. जीप के आगे बढ़ते ही उसे लगा जैसे वो किसी अंजानी दुनिया में जा रही हो. उसकी नज़रें सुगना पर ही टिकी हुई थी. कंचन का दिल भी वैसे ही रो रहा था जैसे सच्चाई जान लेने के बाद निक्की का दिल रोया था.
दोनो का दुख एक समान था. उनके पिता वो ना थे जिन्हे वे दोनो समझती आई थी. किंतु फिर भी उनके दुख में एक विशेष अंतर था. निक्की इस बात से दुखी थी कि दीवान जी की बेटी होने की वजह से अब वो ज़िंदगी भर सर उठाकर नही जी सकेगी. अब उसे उमर भर ज़माने की चुभती नज़रों का सामना करना पड़ेगा. जिसकी उसे आदत नही थी. किंतु कंचन इस बात से दुखी थी कि जिस सुगना के गोद में वो बचपन से खेलती आई थी. जिसकी छाती से लगकर वो चैन की नींद सो जाया करती थी. जिसके कंधो पर बैठकर वो खुशी से इतराया करती थी. जिसके हाथों से नीवाला खाकर वो बड़ी हुई थी.....वो उसका पिता ना था. कंचन इस बात से दुखी थी कि जो स्नेह जो वात्सल्य जिस व्यक्ति से अब तक वो लेती आई थी वो उसका पिता ना था.
कंचन इस बात से उतनी खुश नही थी कि अब वो ठाकुर साहब की बेटी कही जाएगी, हवेली में मौज से रहेगी, दिन भर नौकर चाकर उसके आगे पिछे घुमा करेंगे. और अब वो बिना किसी बाधा के रवि से शादी कर सकेगी. जितना दुख उसे इस बात से था की सुगना उसका पिता ना था.
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