RE: Incest Kahani एक अनोखा बंधन
एक अनोखा बंधन--8
गतान्क से आगे.....................
ज़रीना बहुत बेचैन हो रही थी ये जान-ने के लिए कि आदित्य आया की नही. उसके चेहरे पर ये बेचैनी सॉफ झलक रही थी.
“आप हमें कुछ बेचैन सी लग रही हैं. सब ख़ैरियत तो है.” एमरान ने कहा.
“सब ख़ैरियत है आप हमारी फिकर ना करें.” ज़रीना थोड़ा गुस्से में बोल गयी.
तभी मौसी चाय ले आई. ज़रीना वाहा से उठी और बोली, “मौसी मैं अभी आती हूँ.”
“चाय ठंडी हो जाएगी बेटा.”
ज़रीना को कुछ नही सुन-ना था. उसे तो बस उपर आ कर बाल्कनी से झाँक कर देखना था कि आदित्य आया है कि नही. दौड़ कर आई वो उपर और दिल में आदित्य को देखने की बेचैनी लिए उसने चारो तरफ देखा गली में. मगर उसे कोई नज़र नही आया. थक हार कर वो वापिस आ गयी.
“चाय ठंडी हो गयी, ऐसा क्या ज़रूरी काम था उपर.” मौसी ने पूछा.
“शायद ज़रीना को चाय पसंद नही है.” एमरान ने कहा.
“बहुत पसंद है इसे चाय. पता नही आजकल क्या हो गया है इसे.”
“खाला ज़रीना गम के ऐसे दौर से गुज़री है कि इंसान की रूह काँप जाए. इंसान का खो जाना लाजमी है. अब इज़ाज़त चाहूँगा खाला. कुछ ज़रूरी काम है मुझे. फिर मिलेंगे. खुदा हाफ़िज़!”
“खुदा हाफ़िज़ बेटा. आते रहना.”
“खुदा हाफ़िज़ ज़रीना जी. हम फिर मिलेंगे.” एमरान ने मुश्कूराते हुवे कहा.
“खुदा हाफ़िज़…” ज़रीना ने जवाब दिया.
“हमारी यही दुवा है कि अल्ला का रहम हो आप पर और आप इस गम के दौर से जल्द निकल आयें बाहर. हम इस खुब्शुरत से चेहरे पर जल्द से जल्द मुश्कान देखना चाहते हैं.” एमरान ने कहा.
ज़रीना ने कुछ नही कहा. उष्का ध्यान ही नही था एमरान की बात पर. वो तो आदित्य के ख़यालो में खोई थी.
“ज़रीना जी हम आपको दुवा दे रहें हैं और आप कबूल नही कर रहीं. क्या हमसे कोई गुस्ताख़ी हुई है.”
ज़रीना को होश आया और वो झट से बोली, “शुक्रिया आपका. बहुत बहुत शुक्रिया.”
एमरान चला गया वाहा से. एमरान के जाने के बाद मौसी बोली, “अछा लड़का है. बहुत मेहनती है. बहुत अहसान है इसके हम पर. बहुत पसंद आई तुम उसे. जब तुम उपर गयी थी तो तुम्हारा हाथ माँग रहा था. एमरान से अछा शोहार नही मिलेगा तुम्हे.”
“मौसी आप सोच भी कैसे सकती हैं ऐसा.” ज़रीना के ये बात ना-गवारा गुज़री.
“बेटा तेरे अब्बा और अम्मी के बाद अब मैं ही हूँ तेरी अपनी. इतना सोचने का हक़ तो शायद मुझे है ही. तुझे ये सुझाव पसंद नही तो ना सही मगर फिर भी गौर करना इस पर. एमरान बहुत ही अछा लड़का है. आछे से जानती हूँ मैं उसे. तुम्हारे लिए उस से बेहतर शोहार नही मिल सकता. उसे तुम पसंद भी आ गयी हो. बाकी तुम्हारी मर्ज़ी है. तुम्हारा निकाह तुम्हारी मर्ज़ी से ही होगा.”
ज़रीना ने कुछ नही कहा और आ गयी सीढ़ियाँ चढ़ कर उपर बाल्कनी में. आदित्य वाहा हो तो दीखे. आँखे नम हो गयी इस बार उसकी.
“क्यों तडपा रहे हो मुझे आदित्य. मर जाउन्गि मैं इस तड़प में. प्लीज़ जल्दी आ जाओ. मैं और इंतेज़ार नही कर सकती.”
सुबह से दोपहर हुई और दोपहर से शाम. शाम से रात भी हो गयी. ज़रीना की आँखे पथरा गयी राह देखते-देखते. बहुत रोई वो बार-बार. आँखे लाल हो गयी उष्की. उसे क्या पता था कि जिसे वो ढूंड रही है वो इस वक्त कोमा में है और शायद गहरी नींद में उसे अपने पास बुला रहा है.
अनोखा बंधन था ये सच में. प्यार इस जानम का नही बल्कि काई जन्मों का लग रहा था. रात तो हो गयी थी पर पता नही क्यों उम्मीद नही छोड़ी थी ज़रीना ने. प्यार हमेसा उम्मीद की किरण जगाए रखता है इंसान में. रात को भी वो काईं बार आई बाल्कनी में चुपचाप दबे पाँव. मगर हर बार निरासा ही हाथ लगी. बहुत मुश्किल से जाती थी वो वापिस अपने कमरे में. मन करता नही था उसका बाल्कनी से हटने का मगर वो वाहा ज़्यादा देर नही रुक सकती थी. दिन में मौसी काई बार पूछ चुकी थी कि क्या कर रही हो बार बार बाल्कनी में. ज़रीना नही चाहती थी कि किसी को भी पता चले उसके और आदित्य के बारे में. उनका प्यार जितना गुमनाम रहे उतना ही अछा. जितना लोगो को पता चलेगा उतनी ही मुसीबत बढ़ेगी. आदित्य की चिट्ठी उसने बहुत ध्यान से छुपा कर रखी थी. फाड़ नही सकती थी उसको. अनमोल प्यार जो था उस चिट्ठी में. ऐसा प्यार जो कि उसे अपनी जींदगी से भी ज़्यादा प्यारा था. होता है ऐसा भी. प्यार अपनी जींदगी से भी ज़्यादा अनमोल हो जाता है.
ज़रीना वापिस आकर गिर गयी अपने बिस्तर पर. थाम नही पाई अपनी आँखो को और वो बह गयी फिर से.
“कहा रह गये तुम आदित्य. क्यों नही आ पाए तुम. ऐसा क्या हो गया कि तुमने मुझे यू तड़प्ता छ्चोड़ दिया. अगर मैं मर गयी तड़प-तड़प कर तो देखना बहुत पछताओगे तुम. मेरे जितना प्यार कोई नही कर सकता तुम्हे. क्यों आदित्य क्यों…….क्यों नही आ पाए तुम.” और बोलते बोलते रो पड़ी ज़रीना फिर से.
“कभी कितनी नफ़रत करती थी तुमसे और आज ये हालत है तुम्हारे कारण. एक पल भी जीना नही चाहती तुम्हारे बिना. याद है तुम्हे वो दिन जब तुम कीचड़ उछाल कर चले गये थे मेरे उपर.
मैं कॉलेज से मार्केट चली गयी थी सुमन और प्रिया के साथ. वापसी में बारिस शुरू हो गयी. शुक्र है छाता था मेरे पास. बचते-बचाते चल रही थी पानी की बूँदो से. नयी जीन्स पहन रखी थी मैने. घर के नज़दीक ही थी मैं. तुम ना जाने कहा से आए अचानक बाइक पर और कीचड़ उछाल दिया मेरे उपर. जीन्स तो मिट्टी से लथपथ हुई ही, मेरे चेहरे पर भी कीचड़ के छींटे डाल दिए तुमने.
तुम रुक गये ये देख कर. तुम्हे लगा कोई और है. छाते के कारण शायद तुम मुझे पहचान नही पाए थे. आए बाइक खड़ी करके नज़रे झुकाए हुवे. मैने तो तुम्हे पहचान ही लिया था. मन कर रहा था कि ईंट उठा कर मारु तुम्हारे सर पर.
“मिस्टर आदित्य क्या समझते हो तुम खुद को. देख कर नही चल सकते क्या. मेरी नयी जीन्स खराब कर दी तुमने.” मैने गुस्से में रिक्ट किया.
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