RE: XXX Hindi Kahani अलफांसे की शादी
आशा के फ्लैट पर हुई मीटिंग के तेरहवें दिन बाद वे सभी न केवल लंदन बल्कि एलिजाबेथ होटल पहुंचे थे। योजना के मुताबिक उनके नाम बशीर, चक्रम, डिसूजा, मार्गरेट और ब्यूटी ही थे तथा वे पूर्वनिर्धारित स्कीम के मुताबिक ही वहां पहुंचे थे।
न केवल अपने ही बल्कि वे एक-दूसरे के मेकअप से भी पूरी तरह सन्तुष्ट थे, क्योंकि जानते हुए भी एक-दूसरे को देखकर वे विश्वास नहीं कर सके कि वह उनका ही साथी है।
अलफांसे और इर्विन अभी तक उसी यानी सेवन्टी-वन नम्बर कमरे में ही रह रहे थे, उन्हें वॉच करने का काम विजय ने अपने जिम्मे लिया था और उसने उन्हें वॉच किया भी था परन्तु—कोई लाभ नहीं निकला।
वे हनीमून मना रहे, साधारण पति-पत्नी की तरह रह रहे थे।
विकास के जिम्मे उस व्यक्ति को खोज निकालने का काम था, जिसने गार्डनर के हुक्म पर फोकस वाले बल्ब का रुख ग्राडवे की लाश की तरफ किया था।
यह काम विकास को भूसे के ढेर में से सुई ढूंढ निकालने के बराबर कठिन लगा—सारे दिन वह लंदन की सड़कों पर मारा-मारा फिरता, किन्तु शाम के वक्त थक-हारकर वापस लौट आता।
आज दोपहर आशा ने म्यूजियम जाकर एक नजर कोहिनूर को देखने का निश्चय किया, इसमें शक नहीं कि ऐसा निश्चय करते ही उसका दिल असामान्य गति से धड़क उठा।
ब्यूटी एक जापानी लड़की थी, जापान में उसके पिता का बहुत बड़ा कारोबार था और वह अकेली थी, और वह अकेली ही दुनिया घूमने के लिए निकली थी। भारत के बाद उसकी लिस्ट में ब्रिटेन का नाम था—किसी आवश्यक कार्यवश वह भारत से आस्ट्रेलिया गई और वहां से सीधी लन्दन आई है।
फिलहाल संक्षेप में आशा का यही परिचय था।
वह गोरी-चिट्टी तीखे नाक-नक्श नीली आंखों और तांबे से रंग वाले बालों वाली लड़की नजर आती थी, जिस्म पर जापानी पोशाक पहने थी। उस वक्त दो बजने में सिर्फ दस मिनट बाकी रह गए थे, जब वह उस गैलरी में दाखिल हुई जो कोहिनूर वाले हॉल तक जाती थी—अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि गैलरी में एक छोटी-सी बुकिंग देखकर ठिठक गई।
बुकिंग के माथे पर लिखा था—“कृपया कोहिनूर देखने के लिए फ्री कूपन यहां से लें।”
बुकिंग के अन्दर मोटी भंवो और चौड़े चेहरे वाला व्यक्ति बैठा सिगरेट पी रहा था, पहली नजर में देखने पर ही वह व्यक्ति बहुत क्रूर-सा नजर आता था—आशा के ठिठकने की वजह वह बुकिंग और उसके मस्तक पर लिखा वाक्य था।
आशा के दिमाग में बड़ी तेजी से विचार कौंधा—‘ये क्या चक्कर है?’
विजय ने तो ऐसी किसी बुकिंग या कूपन का जिक्र नहीं किया था। फिर भी वह स्वयं को नियन्त्रित करके बुकिंग की तरफ बढ़ गई।
“मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?” बुकिग के अन्दर बैठे क्रूर-से नजर आने वाले व्यक्ति ने पूछा।
“मैं कोहिनूर देखना चाहती हूं।” आशा ने नियन्त्रित स्वर में कहा। सिगार को दांतों के बीच फंसाकर उसने कलमदान से पैन उठाया और अपने सामने खुले रखे रजिस्टर पर झुकते हुए प्रश्न किया—
“आपका नाम?”
“ब्यूटी!”
लिखते हुए चौड़े चेहरे के व्यक्ति ने पूछा— “किस देश की नागरिक हैं?”
“जापान की।”
“फिलहाल लन्दन कहां से आई हैं?”
“आस्ट्रेलिया से!”
“यहां किस होटल में ठहरी हैं, कृपया कमरा नम्बर सहित बताएं।”
आशा ने उसके इस अन्तिम सवाल का जवाब भी ठीक-ठाक दे तो दिया, किन्तु सच्चाई ये है कि ढेर सारी आंशकाओं ने उसके मस्तिष्क को बुरी तरह हिलाकर रख दिया—जो सवाल उससे पूछे गए थे वह पहले से उनमें से किसी एक का भी जवाब देने के लिए तैयार नहीं थी। होती भी तो कैसे?
उसे ज्ञात ही नहीं था कि यहां ऐसे सवाल किए जाएंगे और वैसे भी उसने नोट किया था कि क्रूर व्यक्ति ने पृष्ठ के सबसे ऊपर क्रम संख्या एक डालकर उसके जवाब लिखे हैं, इसका सीधा-सा मतलब था, कोहिनूर को देखने वाली आज की वह पहली दर्शक है।
यह सोचकर वह कांप गई कि म्यूजिम के इस सन्नाटेदार भाग में बिल्कुल अकेली है।
“मिस ब्यूटी!” क्रूर व्यक्ति ने उसे चौंकाया।
हड़बड़ाकर वह कह उठी—“य...यस!”
“कहां खो गईं आप?”
“क...कहीं नहीं।”
“आपका कूपन!” उसने पीतल का बना एक गोल कूपन विन्डो के रास्ते से बाहर की तरफ सरका दिया, आशा ने जल्दी से कूपन उठाया और घूम गई—क्रूर व्यक्ति की तरफ अपनी पीठ कर दी थी उसने और कूपन को कसकर मुट्ठी में दबाए हड़बड़ाहट में बुकिंग से कई कदम आगे निकल आई।
आशा महसूस कर रही थी कि उसके मस्तक पर पसीने की ढेर सारी बूदें उभर आई हैं—दिल बेकाबू होकर जोर-जोर से धड़क रहा है और अनजाने में ही वह हांफने लगी है।
वह गोल हॉल की तरफ जाने वाले रास्ते पर बढ़ी थी और उस तरफ सन्नाटा व्याप्त था—जाने क्यों, इस वक्त आशा को यह सन्नाटा बहुत ही भयावह-सा महसूस हुआ।
वह ठिठक गई, जान-बूझकर उसने अपने आगे बढ़ते हुए कदमों को रोक लिया—जाने कहां से यह विचार उभरकर उसके मस्तिष्क से टकराया कि—कहीं वह किसी जाल में तो नहीं उलझती जा रही है?
अनजाने में ही कूपन को उसने मुट्ठी में कसकर भींच लिया। गैलरी का एक मोड़ घूमने के बाद ही उसे गोल हॉल का दरवाजा नजर आया, अभी वह बन्द था और उसके समीप ही एक सैनिक कन्धे पर गन लटकाए सावधान की-सी मुद्रा में खड़ा था।
आशा ने रिस्टवॉच में समय देखा—दो बजने में केवल दो मिनट शेष थे।
दरवाजा उसे चमक जरूर रहा था परन्तु इतना दूर था कि वहां तक पहुंचने में उसे डेढ़ मिनट लग ही जाना था, सो वह धीमे-धीमे कदमों से गैलरी पार करने लगी।
सैनिक किसी स्टैचू के समान मुस्तैद खड़ा था।
आशा उसके निकट पहुंच गई, कुछ कहना तो दूर—वह हिला तक नहीं।
पन्द्रह सेकण्ड बाद ‘घर्र-घर्र’ की एक छोटी-सी आवाज के साथ दरवाजा खुल गया, आशा का दिल बेकाबू होकर जाने क्यों धड़कने लगा।
हॉल में पहला कदम रखते ही नजर एक मेज के पीछे कुर्सी पर बैठे व्यक्ति पर पड़ी, मेज पर एक खुला हुआ रजिस्टर और पेन रखा था, एक तरफ लगे छोटे-से बोर्ड पर लिखा था— “कृपया अपने साइन करें!”
गहरी नीली आंखों वाला व्यक्ति आशा को अपनी तरफ देखता हुआ महसूस हुआ और यही वह क्षण था जब बड़ी तेजी से उसके दिमाग में यह विचार उठा कि—ये व्यक्ति परले दर्जे का मनोवैज्ञानिक है, साइन करते हुए आदमी का हाथ देखकर ताड़ जाता है कि साइन करने वाले का नाम वही है या नहीं?
यह विचार आशा को नर्वस करने लगा।
फिर भी उसने खुद को संभाला और मेज की तरफ बढ़ गई। दिल असामान्य गति से धड़कने लगा था, किन्तु उसने पूरी लापरवाही के साथ पैन उठाया, नीली आंखें उसके हाथ पर जम गईं—ऐसा देखकर आशा के सारे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई, लेकिन हाथ को नहीं कांपने दिया उसने।
पूरे फ्लो में फटाक से साइन किए और घूम गई।
अपनी आंखें वहां उसने कोहिनूर पर जमा दीं—जंजीर से रेलिंग की तरफ बढ़ी—आंखें वहां होने के बावजूद भी वह कोहिनूर को देख नहीं रही थी, मस्तिष्क में सैकड़ों अजीब-अजीब-से विचार घुमड़ रहे थे—अचानाक ही विचार उठा कि कहीं उसने रजिस्टर में आशा के नाम से तो साइन नहीं कर दिए हैं?
वह ठिठक-सी गई।
उसे याद नहीं रहा था कि रजिस्टर में ब्यूटी के नाम से साइन करके आई है या आशा के—दिल चाहा कि घूमे, मेज के पास जाए और अपने साइन को देखे—परन्तु नहीं, यही उसकी सबसे बड़ी और अन्तिम बेवकूफी साबित होगी, नीली आंखों वाले के एक इशारे पर उसे इसी वक्त गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
अतः अपना सम्पूर्ण ध्यान उसने कोहिनूर पर एकत्रित कर दिया—दुनिया का वह अकेला और नायाब हीरा दमक रहा था।
सारी स्थिति विजय के बताए मुताबिक ही थी।
रेलिंग के सहारे घूमती हुई आशा कोहिनूर का अवलोकन करने लगी और इसमें शक नहीं कि उसकी खूबसूरती में डूबकर वह सब कुछ भूल गई—उन क्षणों में ठीक से अपना नाम तक याद नहीं रहा था उसे।
थोड़ी आश्वस्त होकर उसने अपने चारों तरफ देखा। हॉल की दीवारों के सहारे खड़े सशस्त्र सैनिकों ने गनें उसी तरह तान रखी थीं—वह अकेली थी— और शायद इसीलिए चारों तरफ खड़े सशस्त्र सैनिक उसी की तरफ देख रहे थे।
उस वक्त उसकी जान में जान आई जब प्रवेश द्वार पर उसने बहुत-से पदचाप और कई व्यक्तियों के आपस में बात करने की आवाजें सुनीं—आशा ने उधऱ देखा, कोई अंग्रेज परिवार अपने मेहमानों को कोहिनूर दिखाने लाया था।
उन सभी ने आगे बढ़-बढ़कर रूटीन के-से अन्दाज में साइन कर दिए।
आशा पुनः कोहिनूर को देखकर सोचने लगी कि यदि वह यहां इस हीरे को देखने आशा के नाम से ही आई होती तो उन लोगों की तरह स्वच्छन्द मस्तिष्क से कोहिनूर की खूबसूरती का आनन्द उठा सकती थी, उस वक्त मेरे पास इस वक्त जैसा तनावग्रस्त मस्तिष्क न होता। अवसर मिलते ही वह निकासी द्वार की तरफ बढ़ गई।
द्वार पर एक सैनिक खड़ा था, जिसने उसके निकट पहुंचते ही हाथ फैला दिया।
“क...क्या बात है?” आशा हड़बड़ा गई।
उसने नम्र स्वर में कहा—“कूपन प्लीज!”
“ओह!” कहती हुई आशा ने अपनी वह मुट्ठी खोल दी जिसमें कूपन था, अनजाने ही में कूपन को सख्ती से भींचे रखने के कारण आशा की कोमल हथेली पर उसकी छाप स्पष्ट बन गई थी जिसे देखकर कूपन लेते हुए सैनिक ने अजीब-सी मुस्कान के साथ कहा—
“कमाल है, आपने कूपन को इतनी सख्ती से क्यों पकड़ रखा था?”
“श...शायद अनजाने में!” कहने के बाद आशा दरवाजा पार कर गई, तेज कदमों के साथ गैलरी से गुजरने लगी वह-आशा जल्दी-से-जल्दी इस म्यूजियम से बाहर निकल जाना चाहती थी—निकासी द्वार पर जो सैनिक खड़ा था, हालांकि उसके द्वारा कही गई बात कोई विशेष नहीं थी परन्तु उसके एक ही वाक्य ने आशा को हिलाकर रख दिया था।
भारतीय सीक्रेट सर्विस की एजेण्ट आशा।
अपने जीवन में वह पहले भी अनगिनत बार खतरों से गुजर चुकी थी, कई बार तो मौत की आंखों में आंखें डालकर उसने बड़े साहस से जंग की थी, ऐसी जंग कि हर बार मौत उसके कदमों में औंधे मुंह गिरी थी, उसी आशा को कोहिनूर देखने की परीक्षा ने हिलाकर रख दिया था।
आज पहली बार उसकी समझ में यह बात आई कि जुर्म करते वक्त चालाक से चालाक मुजरिम आखिर गलतियां कर क्यों जाता है—जुर्म करते वक्त मुजरिम के मन में एक चोर होता है, दिमाग पर एक अजीब-सी नर्वसनेस हावी रहती है—प्रत्येक क्षण उसे याद रहता है कि वह मुजरिम है—जुर्म कर रहा है—आवश्यकता से अधिक सतर्कता के कारण ही वह भूल करता है।
इन्हीं विचारों में खोई आशा गैलरी के कई मोड़ पार कर गई—एक मोड़ पर घूमते ही उसकी नजर एक काउण्टर पर पड़ी—काउण्टर के पीछे एक आकर्षक और युवा अंग्रेज बैठा इण्टरकॉम पर किसी से बातें कर रहा था, आशा ने देखा कि बातें करते हुए अंग्रेज ने उसकी तरफ देखा।
आशा यह तो न सुन सकी कि इण्टरकॉम पर वह क्या बातें कर रहा है, परन्तु उसे लगा कि बातें करते युवक ने उसे विशेष नजरों से देखा है, वह बिना ठिठके—नजरें झुकाकर तेजी के साथ काउण्टर के समीप से गुजर गई।
म्यूजियम से बाहर निकलते ही उसने टैक्सी पकड़ी और एलिजाबेथ चलने के लिए कहकर सीट पर बैठ गई—टैक्सी आगे बढ़ गई—आशा ने आंखें बन्द करके सिर पुश्त से टिका दिया।
उसके कोहिनूर को देखने के क्षण बहुत ही तनाव में गुजरे थे।
ज्यों-ज्यों वह म्यूजिम से दूर होती गई, त्यों-त्यों मन हल्का होता गया और अचानक उसे ख्याल आया कि उसके बाकी साथी भी योजनानुसार एक-एक बार कोहिनूर को देखने जाने वाले हैं, तभी उसे कूपन वाली बुकिंग और उसके द्वारा किए गए सवालों का स्मरण हो आया।
‘ओह, यदि वे सब जाएंगे तो उनसे भी वही प्रश्न पूछे जाएंगे-होटल का नाम और कमरे का नम्बर तक। ओह-सिक्योरिटी विभाग यह जानकर चौंक सकता है कि आजकल एलिजाबेथ में ठहरे विदेशी लोग कोहिनूर को देखने ज्यादा आ रहे हैं।’
‘ख...खतरा!” यह शब्द बिजली की तरह आशा के मस्तिष्क में कौंध गया।
सभी का कोहिनूर देखने जाना खतरनाक है—सिक्योरिटी को शक हो सकता है, वे शक कर सकते हैं कि हम पांचों अपरिचित नहीं हैं और फिर इस शक के आधार पर ही जासूस हम लोगों के पीछे लग सकते हैं।
बैठे-बिठाए यह एक व्यर्थ की मुसीबत गले पड़ जाएगी।
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