RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'क्यों राज, इस वातावरण में भी तुम्हारे मुख में परंतु का शब्द!'
'सेठ साहब, आप इस घाटी और यहां के वातावरण को किसी और दृष्टि से देखते हैं और मैं किसी और!'
'आखिर तुम्हारी दृष्टि क्या देखती है! कुछ हम भी तो सुनें।'
'आप जीवन की यात्रा को पूरी करके निर्दिष्ट के समीप पहुंच रहे हैं और मैं अभी यात्रा की तैयारी में हूं। आप उस कोलाहल भरे संसार से उकताकर इन सुनसान घाटियों में चैन और संतोष ढूंढ सकते हैं परंतु मेरे मूक हृदय में घाटियां, जंगली घास के ढेर और ये सूनी पगडंडियां हलचल पैदा नहीं कर सकेंगी। सेठ साहब, आप ही सोचिए, मैंने बी.ए. की शिक्षा प्राप्त की। इस संघर्षमय संसार में मनुष्य को जीवन की सड़क पर भागते देखा। अब यह किस प्रकार हो सकता है कि मैं यह सब देखकर एक कोने में चुपचाप बैठा रहूं। आप ही कहिए, क्या आपके हृदय में इच्छाओं का समुद्र ठाठे नहीं मार रहा? क्या आप अपने बढ़ते हुए कारोबार को देखकर प्रसन्न नहीं होते और इससे अधिक देखने की आपकी अभिलाषा नहीं? इसी प्रकार मैं भी मनुष्य हूँ। मेरी भी इच्छाएँ हैं। यदि बहुत बड़ी नहीं तो छोटी ही सही।'
'मैं तुम्हारी प्रत्येक बात से सहमत हूं। तुम पढ़े-लिखे हो, सयाने हो, जो चाहो कर सकते हो, परंतु तुम्हें रोकता कौन है?'
'पिताजी। वह चाहते हैं कि मैं अब उनकी तरह दुशाला ओढ़े घास कटवाता रहूं और शाम को घास के स्थान पर चांदी के सिक्के थैलियों में भरकर घर लौटूं। आप ही सोचिए, ऐसे जीवन में क्या धरा है। कई बार कहा है कि शहर में एक कोठी ले लें, आराम से रहें। स्वास्थ्य ठीक नहीं, इलाज भी हो जाएगा। यहां का काम तो नौकर भी कर सकता है, परंतु वह मानते ही नहीं।'
'मानें भी क्यों कर? तुम्हें अनुभव नहीं है। यह काम नौकरों पर नहीं छोड़े जाते। फिर भी यदि तुम चाहो तो अपने ही काम में बहुत उन्नति कर सकते हो। टोकरियां, चटाइयां और ऐसी ही अनेक वस्तुएं जो इस घास से बन सकती हैं, तुम अपने-आप बनवा सकते हो और एक अच्छा-खासा व्यापार खड़ा कर सकते हो।'
'परंतु यह सब कुछ यहां बैठकर तो होने का नहीं। रुपया चाहिए और पिताजी की आज्ञा। दोनों ही बातें कठिन जान पड़ती हैं।'
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