RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'किन्तु आपको यों अकेले न जाना चाहिए था। दिन का समय होता तो दूसरी बात थी किन्तु रात में?'
'कहा न-विवशता थी।'
'खैर! चलिए मैं आपको शहर छोड़ देता हूं। यूं तो मुझे रामगढ़ जाना था किन्तु आपका यों अकेले जाना ठीक नहीं।'
'आप कष्ट न करें। मैं चली जाऊंगी।'
'यह तो मैं भी जानता हूं कि आप चली जाएंगी। काफी बहादुर हैं। बहादुर न होतीं तो क्या रात के अंधेरे में घर से निकल पड़ती?'
डॉली ने इस बार कुछ न कहा।
युवक ने इस बार अपनी रिस्ट वॉच में समय देखा और बोला- 'आइए! संकोच मत कीजिए।'
डॉली उसका आग्रह न टाल सकी और गाड़ी में बैठ गई। उसके बैठते ही युवक ने गाड़ी का स्टेयरिंग संभाल लिया। गाड़ी दौड़ने लगी तो वह डॉली से बोला- 'कहां रहती हैं?'
'जी! रामगढ़।'
'रामगढ़।' युवक चौंककर बोला- 'फिर तो आप वहां के जमींदार ठाकुर कृपात सिंह को अवश्य जानती होंगी। वह मेरे पिता हैं।'
डॉली के सम्मुख धमाका-सा हुआ।
युवक कहता रहा- 'मेरा नाम जय है। शुरू से ही बाहर रहा हूं-इसलिए रामगढ़ से कोई संबंध नहीं रहा। लगभग पांच वर्ष पहले गया था-केवल दो घंटों के लिए! गांव का जीवन मुझे पसंद नहीं। गांवों में अभी शहर जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं।'
डॉली के हृदय में घृणा भरती रही।
जय उसे मौन देखकर बोला- 'आपको तो अच्छा लगता होगा?'
'जी?'
'गांव का जीवन।' जय ने कहा- 'कुहरे से ढकी पहाड़ियां-देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष और हरी-भरी वादिया।'
'विवशता है।'
'क्यों?'
'भाग्य को शहर का जीवन पसंद न आया तो गांव में आना पड़ा।'
'इसका मतलब है...।'
'अभी दो वर्ष पहले ही रामगढ़ आई हूं।'
'उससे पहले?'
'शहर में ही थी।'
'वहां?'
'माता-पिता थे किन्तु एक दिन एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई और मुझे शहर छोड़ना पड़ा।'
'ओह!' जय के होंठों से निकला।
डॉली खिड़की से बाहर देखने लगी।
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