RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'फिर आई क्यों नहीं?'
'आती कैसे?'
'क्यों?'
'पिंजरे में जो पड़ी थी। चाचा ने कभी एक दिन के लिए भी गांव से बाहर न जाने दिया। शायद उन्हें भय था कि कहीं मैं हमेशा के लिए रामगढ़ न छोड़ दूं।'
'चल खैर! देर से आई किन्तु आई तो सही!
लेकिन।' डॉली के मैले वस्त्रों एवं बिखरे बालों को देखकर शिवानी ने कहा- 'यह क्या हालत बना रखी है तूने? गांव की लडकियां क्या इसी ढंग से रहती हैं?'
'गांव और शहर के रहन-सहन में अंतर होता है।' डॉली ने कहा। ठीक उसी समय बाहर से किसी की आवाज सुनाई पड़ी– 'कौन है शिवा?'
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'भैया!' शिवानी ने उत्तर दिया- 'मेरी सहेली है डॉली। पहले यहीं रहती थी-आजकल रामगढ़ गांव में रहती है लेकिन आप बाहर क्यों आ गए? आपको तो ज्वर है।'
'थोड़ा घूमने को मन कर रहा था। कितना अच्छा मौसम है।' शिवानी ने फिर कुछ न कहा।
डॉली ने उससे पूछा- 'ये...?' 'बड़े भैया हैं-राज भाई साहब।'
"अच्छा! राज भाई साहब।'
'तूने तो देखे न होंगे। विवाह के पश्चात तुरंत चंडीगढ़ चले गए थे। न जाने किस बात पर पापा से विवाद हो गया था।'
'भाभी?'
'साथ ही ले गए थे लेकिन...।'
'लेकिन क्या?'
'एक दिन भाभी ने भी साथ छोड़ दिया। तलाक लेकर दूसरा विवाह कर लिया। राजू को भी साथ ले गईं।'
'राजू कौन?'
'भाई साहब का बेटा।'
'ओह!'
'भैया को इस घटना से ऐसा आघात लगा कि चंडीगढ़ छोड़कर यहां आ गए। तभी पापा का देहांत हो गया और फिर एक दिन भैया भी एक दुर्घटना के शिकार हो गए। उस दुर्घटना में भैया की दोनों टांगें चली गईं।'
'तो क्या?'
'अपंग हैं बेचारे।' शिवानी ने कहा। तभी एकाएक उसे कुछ ध्यान आया और वह उठकर बोली 'मैं भी कितनी अजीब हूं। न जाने कहां-कहां की बातें ले बैठी और तेरे लिए जलपान भी न लाई।' इतना कहकर शिवानी बाहर चली गई।
उसके जाते ही डॉली ने फिर मेज पर रखा वही अखबार उठाया और वही विज्ञापन पढ़ने लगी।
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