RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
सुरेश की आंखें भर आईं, मगर मैं जानता था कि वे मगरमच्छी आंसू हैं, वह टूटे स्वर में बोला—"ये सही है कि बाबूजी के जीते-जी मैंने उनकी बातें कभी न मानीं—आपकी मदद करता रहा और बाबूजी मेरी इस धृष्टता को सिर्फ इसलिए सहते रहे हैं क्योंकि वे मुझसे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, मगर मदद के पीछे मेरी मंशा आपको जाहिल या नकारा बनाने की बिल्कुल नहीं थी।"
"फिर क्या मंशा थी?"
"सोचा करता था कि बाबूजी गलत कहते हैं, आप दिक्कत में हैं—परेशान हैं और मदद करना मेरा फर्ज है—हर बार, जब भी आपने मांगी, मैं यह सोचकर मदद करता रहा कि शायद इस मदद के बाद आप सुधर जाएंगे।"
"फिर आज से दो महीने पहले क्या हो रहा था?"
"बाबूजी की मौत के बाद भी अपनी सोचों को ही ठीक जानकर मैंने कई बार आपकी मदद की—धीरे-धीरे ऐसा महसूस किया कि हर मदद के बाद जुर्म की दलदल में आप कुछ और गहरे धंस जाते हैं, और फिर मुझे यह अहसास हुआ कि मेरी सोचें गलत थीं, बाबूजी ठीक कहते थे—आप इसलिए कोई काम नहीं करते क्योंकि हर जरूरत तो मैं पूरी कर ही देता हूं—दरअसल जरूरत ही इंसान से मेहनत-मजदूरी कराती है, इस सिद्धान्त की सच्चाई जानने के बाद मैंने भविष्य में आपकी कोई मदद न करने का संकल्प लिया—सिर्फ और सिर्फ इस इच्छा के साथ कि यदि मैं मदद नहीं करूंगा तो जरूरतें आपको जुर्म की दुनिया त्यागने और 'कोई काम' करने पर विवश कर देंगी।''
"तभी तो पूछ रहा हूं कि जमानत क्यों कराई?"
"अपने दिल के हाथों मजबूर होकर।" सुरेश ने कहा— "इस कल्पना ने मेरे समूचे अस्तित्व को झंझोड़ डाला कि मैं इस महल में ऐश कर रहा होऊंगा और आप जेल में सड़ रहे होंगे।"
"यदि तुम मुझे वास्तव में सुधारना चाहते थे तो जमानत भी नहीं करानी चाहिए थी।" मैंने उस पर बड़ा जबरदस्त व्यंग्य किया—"क्योंकि यदि इसी तरह मेरी जमानतें होती रहीं, तो मेरे हौंसले और बढ़ेंगे, जुर्म की जिस दलदल में मैं फंसा हुआ हूं, उसमें गहरा धंसता चला जाऊंगा—तुम्हें तो यह सोचना चाहिए था सुरेश कि मुझे जेल में सड़ने दो.....शायद, वह सड़न मुझे सुधार दे, सही रास्ते पर ले आए मुझे।"
"हां.....शायद मुझे यही करना चाहिए था।" सोचने के साथ ही सुरेश मानो स्वयं से कह रहा था- "दिल के हाथों मजबूर होकर मैं ये कदम उस ट्रीटमेंट के विरुद्ध उठा गया, जो आपको सुधारने के लिए कर रहा था।"
"अब तो कभी मेरी जमानत नहीं कराओगे?"
"न.....नहीं—दिल पर पत्थर रख लूंगा।"
तिलमिलाकर मैं गुर्रा उठा—"तुम जमानत कराओगे!"
"क्या मतलब?"
"उसके बाद फिर कहोगे कि ऐसा तुमने अपने दिल के हाथों मजबूर होकर किया है।"
"मैं समझा नहीं, मिक्की भइया।"
मेरे मुंह से जहर बुझे शब्द निकले—"किसी धनवान व्यक्ति के पास गरीब को मुकम्मल तौर पर तबाह करने के लिए ढेर सारे तरीके होते हैं और तुम मुझ पर वह तरीका इस्तेमाल कर रहे हो जो उन सब तरीकों से ज्यादा नायाब है।"
"य.....ये आप क्या कह रहे हैं?"'
"खामोश!" दहाड़ता हुआ मैं एक झटके से खड़ा हो गया, उसे एक भी शब्द बोलने का मौका दिए बगैर बोला— "वह तरीका ये है कि पहले गरीब आदमी को उसकी जरूरत से ज्यादा धन देकर जरूरतें बढ़ा दो—बढ़ाते रहो और फिर तब, जब उसकी जरूरतें नाक के ऊपर पहुंच जाएं तो मदद देनी बन्द कर दो—साला मुकम्मल रूप से तबाह हो जाएगा।"
सुरेश इस तरह आंखें फाड़े मेरी ओर देखता रह गया जैसे मैं कोई अजूबा हूं और अपनी ही धुन में मग्न मैं हल्का-सा ठहाका लगाकर कह उठा—"क्यों, हैरान रह गए, यह सोचकर कि मैं तुम्हारी इतनी गहरी चाल को समझ कैसे गया?"
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