RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
मानिक अच्छे बच्चे की तरह हाँ में सर हिलाता रहा. इसके बाद राणाजी माला से मुखातिब हो गये. बोले, “माला तुम वहां आराम से रहना. जो भी मन करे मानिक से कह मंगवा लेना और बाज़ार में कभी अकेले मत जाना. आज कल का जमाना ठीक नही है. अपने इस आने वाले बच्चे का खयाल रखना और हो सके तो मुझ पर एक एहसान करना कि इस बच्चे को मुझे दे देना. अगर तुमसे हो सके तो. नही तो को बात नही. क्योंकि मैं जानता हूँ किसी माँ के लिए ये सब करना इतना आसान नही होता. वैसे मैं कभी कभार तुम्हारे पास आ सकता हूँ लेकिन विश्वास से नही कह सकता. हाँ एक बात और ध्यान से सुनो. मैं अपनी बची खुची जायदाद और हवेली की वसीयत तुम्हारे और तुम्हारे पैदा होने वाले इस बच्चे के नाम कर दूंगा. अगर मुझे कुछ हो जाए तो तुम यहाँ की ये सारी चीजे आकर अपने कब्जे में कर लेना. मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद पंचायत के लोग मुझे निरवंशी समझ मेरी जमीन को पंचायत घर बना उस पर झूठे फैसले सुनाये. और तुम्हें जब भी कोई दुःख हो तो मुझे एक बार खबर जरुर कर देना. साथ ही मेरा कहा सुना सब माफ़ करना. मुझसे कोई गलती हुई हो तो मैं माफ़ी के काबिल हूँ.”
इतना कहते कहते राणाजी का गला भर्रा गया. आखें आंसू वहाए जा रही थी लेकिन माला के सिवाय किसी और न देख पाए. राणाजी की बातों को माला सिर्फ सुन रही थी लेकिन उसने न तो हाँ ही की और न न ही की. वो किसी और दुनिया में खो गयी थी. तांगे वाले ने चिल्लाकर कहा, "चलो भईय्या चलना है या नहीं?"
राणाजी गला खंखार कर बोले, “बस भैय्या चलते हैं."
इतना कह राणाजी ने माला के सर पर हाथ फिराया और बोले, "मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि तुम हमेशा खुश रहो. तुम्हें कभी दुःख से भेंटा न हो. अच्छा चलो अब देर हो रही है. मानिक तुम बैग पकड़ो और देखो माला को सम्हाल कर ले जाना.” राणाजी ने माला के सर से अपना हाथ हटा लिया. दूसरे हाथ में लगा बैग मानिक को थमा दिया, मानिक तांगे पर बैग रख उस पर चढ़ गया. जिससे माला का हाथ पकड़ उसे चढ़ा सके.
अब माला के बैठने की बारी थी लेकिन माला के पांव तो वही के वही जम गये थे. राणाजी ने माला को टस से मस न होते देख कहा, "अरे माला, जल्दी करो भई. देर हुई जा रही है.”
माला एक दम के साथ राणाजी के पैरों में गिर पड़ी. मानिक और राणाजी उसे देखते ही रह गये.
राणाजी ने माला को अपने पैरों से उठा कर अलग किया. वो सिसक रही थी. राणाजी उसे समझाते हुए बोले, "पगली रोती क्यों हो? चलो अब जल्दी से तांगे में बैठ जाओ. अब तुम ऐसे रोओगी तो कैसे काम चलेगा. तुम्हें तो इस वक्त बहुत बहादुरी से काम लेना पड़ेगा. चलो जल्दी से आंसू पोंछो और तांगे में बैठ जाओ."
माला राणाजी के पास से जाने की हिम्मत नही कर पा रही थी लेकिन वो इस वक्त रुक भी नही सकती थी. राणाजी हाथ पकड कर माला को तांगे तक ले गये. मानिक ने तांगे से माला को सहारा दे ऊपर चढ़ा लिया. माला तांगे में बैठ गयी लेकिन आँखें अभी भी नम होती जा रही थी. इतना तो दुःख उसे अपने माँ बाप के घर से आते वक्त नही हुआ था. क्योंकि उन्होंने राणाजी की तरह उसे विदा नही किया था. राणाजी तो उसके माँ बाप से भी ज्यादा स्नेह दिखा रहे
___ राणाजी का सीना छलनी हो गया था. माला थोड़ी देर और उनके सामने रूकती तो उन्हें रोना आने लगता. वो तांगे वाले से भर्राए हुए गले से बोले, “चलो भैय्या. ले जाओ तांगा और इन लोगों को बस अड्डे पर छोड़ देना." तांगे वाले ने अपने घोड़े को हांक लगा दी.
तांगा घोड़े के पैरों की टप टप की आवाज करता चल पड़ा. राणाजी का दिल भी उस टप टप से ताल मिलाने लगा. माला का तो हाल ही बहुत बुरा हो रहा था. थोड़ी ही देर में तांगा राणाजी की आँखों से ओझल हो गया.
राणाजी वही खड़े खड़े सिसक पड़े. आँखों से आंसुओं की धार वह निकली. दिल फटने की कगार पर लगने लगा. शरीर किसी बूढ़े आदमी सा जर्जर महसूस हो रहा था. उन्होंने अपने कदमों को धीरे धीरे उठाया और अपने गाँव की तरफ चल पड़े. चलते में कदम लडखडा रहे थे. लगता था कि वे किसी भी समय गिर पड़ेंगे. उनका मन संतुलित नही था. शरीर बस चल रहा था लेकिन रामभरोसे. उनका दिल ही जानता था कि माला को अपने घर से विदा करना उनके लिए कितना मुश्किलों से भरा था. जो राणाजी ने जो किया गाँव का कोई और आदमी शायद ही कर पाता. उन्हें वो सब दिन याद आने लगे जब वो माला को ब्याह कर अपने घर लाये थे. माँ और वो कितने खुश थे माला के घर में आने से. माला ने घर में आकर इस खंडहर हवेली को फिर से आबाद करने की लौ जला दी थी. सब कुछ कितना बदल गया था माला के घर में आने से. उनकी माँ ने वेशक माला के हाथ का न खाया था लेकिन जिस दिन उन्हें माला के गर्भवती होने की खबर मिली उस दिन वो सब उंच नीच भूल गयी थीं.
जी भरकर माला को प्यार किया था उन्होंने. जब तक जीवित थीं तब तक माला की हरएक बात का कितना ख्याल रखतीं थीं. उन्हें अपने घर का नन्हा चिराग देखने की कितनी लालसा थी. अच्छा था कि आज वो जिन्दा नही थीं. वरना इस घटना से उनको कितना धक्का लगता. शायद इस को सहना उनके लिए बहुत मुश्किल होता. राणाजी दुःख भरे आवेश में अपने घर पहुंच चुके थे. उन्हें पता ही न चला कि कब वो अपने घर आ पहुंचे.
हिम्मत नही होती थी कि घर का ताला खोल अंदर घुस जाएँ. आज पहली बार घर किसी स्त्री वाला हो गया था. पहले घर में माँ रहती थीं. बाद में माला भी आ गयी. जब माँ गुजरी तो माला घर में रहती थी लेकिन आज तो माला भी चली गयी थी. राणाजी बचपन से सुनते आये थे कि विना स्त्री के घर नरक होता है. उन्हें पहले इस बात पर भरोसा नही होता था लेकिन आज घर को विना किसी स्त्री के देख वो सब सच लगने लगा था. उन्हें इस वक्त का माहौल देख लगता था कि वे इस घर में एक दिन भी चैन से न रह सकेंगे. काट खाने को दौड़ता था सूना और शांत घर. वो घर ही क्या जिसमें चूड़ियों की खनखनाहट न हो? जिसमें पायल के धुंघरुओं की छन्न छन्न न हो? लानत है ऐसे घर पर,
राणाजी ने यह सोचते हुए हिम्मत कर घर का ताला खोल दिया. पैरों में खड़े होने की हिम्मत नही थी. सुबह से खाना भी नही खाया था. उपर से सुबह से घोर निराशा और चिंता थी वो अलग से. राणाजी अंदर पहुंच अपने कमरे के पलंग पर गिर पड़े. गिरते ही फूट फूट कर रो दिए. फिर अपना बिस्तर ले छत पर जा लेटे. वहां भी माला को याद कर देर तक रोये. फिर न जाने रोते रोते उन्हें कब नींद आ गयी.
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