RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
भाग -13
राणाजी सुबह की धूप देख उठ गये. छत से उतर कर नीचे कमरे में आये. पूरा घर सूना लग रहा था. लगता था जैसे माला अपने साथ घर का सारा आनंद भी ले गयी हो. रात राणाजी रोते रोते ही सो गये थे. पैसे से खरीद कर लायी गयी गैर बिरादरी की लडकी के लिए इतने बड़े खानदान का आदमीरात भर रोया था. राणाजी सुबह उठे तो फिर से उसी दुःख में खो गये. कमरे में लगी उनकी माँ तस्वीर ने उन्हें फिर से भावुक कर दिया. राणाजी माँ की तस्वीर से लिपट सिसक सिसक कर रो पड़े.
माँ के द्वारा किया गया सारा प्यार याद आने लगा. राणाजी फूट फूट कर रोते हुए अपनी माँ की तस्वीर से कह रहे थे, “माँ. मुझे माफ़ करना. मैं वो न कर सका जो तुम चाहतीं थी. मैं इस खानदान के बारिस को अपने घर में पैदा न कर सका. माँ माला को घर के बाहर भेज मैने गलती की है लेकिन उस लडकी का भी तो कुछ मन है. वो एक ऐसे घर में पली जिसमें खाने तक को ठीक से नही था. लोग वहां अपनी लडकी को पैसों के लिए बेच देते हैं. माँ ये उनकी मजबूरी भी और मुश्किल भी. पता नही वहां के लोग कैसे जीते हैं? माँ मैं चाहता तो माला को घर में हमेशा के लिए भी रख सकता था लेकिन किसी अबला औरत को जबरदस्ती अपने पास रखने से बड़ा कोई पाप नही होता. और मैं इस उम्र में कोई पाप नही करना चाहता था.
माँ अगर मैने सही किया है तो भगवान मुझे इसका फल भी देगा. हो सकता है माला अपने पहले बच्चे को मुझे दे दे. अगर नही भी देगी तब भी अपने घर का बारिश तो हमें मिल ही गया न माँ. माँ मैं भी जल्दी ही इस दुनिया को छोड़ तुम्हारे..."
राणाजी सिसक सिसक कर अपनी बात को पूरा करते उससे पहले ही दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. राणाजी चुप हो गये. दरवाजा फिर से खटखटाया गया. राणाजी ने अपने आंसू पोंछे और अपने कमरे से निकल दरवाजे पर पहुंच गये. उन्होंने धीरे से दरवाजा खोल दिया. बाहर के उजाले की किरन के साथ उन्हें एक मनभावनी लडकी हाथ में बैग लिए खड़ी दिखाई दी. उसका चेहरा आंसुओं से लदा हुआ लेकिन पाश्चाताप से भी भरा हुआ था.
राणाजी को सामने खड़ी माला को देख अपनी आँखों पर यकीन नही हो रहा था. उन्हें लगता था कि वो अभी रात में सोते हुए सपना देख रहे हैं लेकिन माला अपना बैग एक तरफ रख उनके पैरों में गिर पड़ी. माला के ठंडे कोमल हाथों का स्पर्श उन्हें यकीन दे गया कि माला सच में उनके पास है. वो फिर से लौट कर आ गयी है. माला राणाजी के पैरों में अपना सर रखे सिसक रही थी और राणाजी अपने सोच विचारों में खोये हुए थे. मानो उन्हें माला की कोई खबर ही न हो.
फिर जैसे ही राणाजी को माला के पैरों में पड़े होने की खबर हुई वैसे ही उन्होंने माला को उठा अपने कलेजे से लगा लिया. मानो माला उनसे बर्षों की बिछड़ी हुई थी और आज आ मिली. माला ने भी अपने देवता पुरुष को कसकर सीने से लगा लिया.
दोनों हिल्की भर भर कर रोने लगे. जैसे दोनों छोटे बच्चे हों. न राणाजी ने माला से रोने का कारण पूंछा और न माला ने राणाजी से. दोनों खूब फूट फूट कर रोये लेकिन आदमी रोये भी तो कब तक? राणाजी ने माला को धीरे से अपने सीने से अलग किया.
उसके मासूम चेहरे पर जो आंसू वह रहे थे उन्हें अपनी हथेलियों से पोंछा और बोले, "चुप हो जाओ माला. ऐसे रोते नही वावली.तुम रोओगी तो मैं भी और ज्यादा रोऊंगा. क्या तुम चाहती हो कि मैं और ज्यादा रोऊँ?"
माला ने अपना रोना कम कर ना में सर हिला दिया. जैसे कहती हो कि मैं नहीं चाहती आप और ज्यादा रोयें.
दोनों का रोना बंद हुआ तो राणाजी का दिमाग भी बिजली के करंट सा हिल गया. उन्हें ध्यान आया कि माला को तो वो मानिक के साथ तांगे में बिठाकर आये थे. फिर माला उनके पास कैसे...बोले, "अरे माला तुम तो रात मानिक के साथ गयीं थीं. फिर यहाँ कैसे और मानिक कहाँ गया? तुम लोग लौट क्यों आये? क्या कोई बात हो गयी क्या?"
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