RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
माला ने अपना रोना कम कर ना में सर हिला दिया. जैसे कहती हो कि मैं नहीं चाहती आप और ज्यादा रोयें.
दोनों का रोना बंद हुआ तो राणाजी का दिमाग भी बिजली के करंट सा हिल गया. उन्हें ध्यान आया कि माला को तो वो मानिक के साथ तांगे में बिठाकर आये थे. फिर माला उनके पास कैसे...बोले, "अरे माला तुम तो रात मानिक के साथ गयीं थीं. फिर यहाँ कैसे और मानिक कहाँ गया? तुम लोग लौट क्यों आये? क्या कोई बात हो गयी क्या?"
राणाजी अधीर हो सवाल पर सवाल किये जा रहे थे और माला शांत और गम्भीर हो खड़ी थी. माला भारी गले से बोली, "मैं अब कहीं नहीं जाना चाहती इसलिए मैं लौट आई. मैं इसी घर में आपके साथ रहना चाहती हूँ. आप चाहो तो रख लो. मानिक मुझे यहाँ छोड़ता हुआ अपने घर चला गया है. मैं अब कही नही जाना चाहती हूँ."
राणाजी की समझ में कुछ भी न आया. उन्हें माला के घर लौटने की खुशी से ज्यादा आश्चर्य था. बोले, "लेकिन माला बात क्या हुई? तुम लौट क्यों आई? कुछ बताओ तो सही?"
__ माला की आँखें फिर से नम हो गयी. गला बोलने में उसका साथ नहीं दे रहा था. मुंह रोने के लिए बार बार काँप जाता था. बोली, “मैं जाने को तो यहाँ से चली गयी लेकिन आपका स्नेह देख मुझे जाने का मन नही करता था. बस अड्डे तक सिर्फ आपका खयाल आता रहा. रह रह कर मेरा दिल मुझे धिक्कारता रहा कि मैं क्यों ऐसा कर रही हूँ? एक आदमी अपना सबकुछ मुझे देने को तैयार है और मैं उसे ही छोड़ किसी और के साथ जा रही हूँ. आपके एहसानों ने मेरे दिल में आपके लिए मोहब्बत पैदा कर दी. आप तो मेरे माँ बाप को पैसा दे मुझे लेकर आये लेकिन मुझे कभी ये एहसास न होने दिया कि मैं किसी और जाति की हूँ और मुझे खरीदकर लाया गया है. मेरी किस्मत से ज्यादा खुशियाँ आपने मुझे दीं और जब मैं आपकी पत्नी रहते किसी और से दिल लगा बैठी तो आपने अपने जुबान से एक भी बुरा शब्द मुझसे न बोला. साथ ही मेरे लिए सारे गाँव के ताने आप सहते रहे. मेरे कारण आप के यहाँ से जाने तक की नौबत आ गयी. मुझे घर से विदा करते हुए भी आप मेरा ऐसा खयाल रख रहे थे जैसे मैं अब भी आपकी सगी होऊ. आपने अपने पुश्तैनी गहने भी मुझी को दे दिए. अपनी सारी जमीन जायदाद भी आप मेरे और बच्चे के नाम करने जा रहे थे. सारी जिन्दगी आप ने दुखों में काटी और आज फिर उसकी फ़िक्र न कर मुझे सुखी कर दिया. यह सब सोच मेरा मन परिवर्तन हो गया. मैंने कसम खायी कि अब आपके कदमों में ही मेरी जान निकलेगी. मैं जब तक जिउंगी तब तक आपके लिए ही जिउंगी. बस यही सोच फिर से आपके पास आ गयी. अब आप मुझे धक्के मार कर भी घर से निकालने तो भी मैं न जाउंगी."
राणाजी तो माला की इस बात यकीन ही नही कर रहे थे. उन्हें समझ न आ रहा था कि वो इसे सच माने या झूठ. भगवान का शुक्रिया अदा करते भी मन न थक रहा था क्योंकि ये विन मांगी मन की मुराद थी. जिसे भगवान ने सिर्फ मन में होने पर ही पूरी कर दिया था.
राणाजी खड़े खड़े उस वावली लडकी का सोणा मुखड़ा देख रहे थे. जो शाम की भूली सुबह घर आ पहुंची थी. मानो आज उसकी नई जिन्दगी हुई थी. मानो आज फिर से वो दुल्हन बन इस घर में आ गयी थी. राणाजी ने माला को अपने सीने से चिपका लिया.
राणाजी सावन और माला सावन की बदली हो गयी. दोनों किसी माला की तरह टूटकर फिर से एक हो गये लेकिन इस मिलने में कोई गांठ नही पड़ी थी. ये तो गाठों का अंत हुआ था जो दोनों के मनों में पहले से पड़ चुकी थी.
राणाजी ने माला को खुद से अलग किया. दरवाजे पर पड़ा बैग उठाया और माला का हाथ पकड़ उसे अंदर अपने कमरे में ले गये. पलंग पर माला को ठीक अपने सामने बिठा लिया और उसे जी भर के देखा. लेकिन राणाजी के मन में अब भी कुछ सवाल थे. बोले, "माला तुमने मानिक से क्या कहा? क्या इस तरह लौटने पर उसने तुमसे कुछ नही कहा?"
माला अब मन से हल्की हो गयी थी. बोली, “मैने अपने मन की बात उसे कह सुनाई. उसने थोडा सोचा फिर बोला कि मैं अभी भी अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हूँ. वो खुद भी आपका इतना स्नेह देख भावुक हो गया था. मानिक और मैंने फिर कभी न मिलने की कसम खायी और घर लौट आये. उसने आप के दिए पैसे भी मुझे लौटा दिए और अपने पिता के जागने से पहले घर चला गया."
राणाजी ने सोचते हुए हाँ में सर हिला दिया और बोले, "चलो जो भी हुआ ठीक हुआ लेकिन तुमने ऐसा क्यों सोचा? मैं तुमसे दोगुनी से भी ज्यादा उम्र का हूँ. कल को मुझे कुछ हो गया तो ये पहाड़ सी जिन्दगी कैसे काटोगी?" __
माला ने तडप कर उत्तर दिया, “ऐसा अशुभ न कहिये. लेकिन अगर भगवान ने ऐसा कर भी दिया तो मैं आपकी विधवा बन अपनी जिन्दगी गुजार दूंगी. मुझे इस काम में ज्यादा स्वाभिमान मिलेगा. लेकिन मुझे अब एक ही चिंता है कि अब पंचायत के लोग क्या करेंगे? न हो तो हम लोग यहाँ से कही दूर चलें?"
राणाजी की आँखों में बीस साल पहले सी आग जल उठी. शरीर फिर से जवान हो उठा. सीना फिर से जवानी की तरह फूल उठा. बोले, “तबसे मैं इस कारण किसी से कुछ नही कहना चाहता था कि तुम खुद मेरे साथ नहीं थीं लेकिन आज तुम मेरे साथ हो. आज से किसी की इतनी हिम्मत नही जो मेरे द्वार पर भी चढ़ सके. मुझे भी कानून की समझ है. मैं बीस साल पहले वाली गलती नही करूँगा. आज तो मैं सिर्फ क़ानून से सबका सामना करूँगा. कानून पंचायत को नही मानता और न ही उसके फैसलों को. तुम निश्चिंत हो रहो. मैं आज ही थाने में शिकायत दर्ज करा दो सिपाही मंगवा लेता हूँ फिर देखू किसकी हिम्मत होती है कि मेरे आसपास भी भटक जाए?" ।
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