RE: raj sharma story कामलीला
मूलतः मैं उसके बचपन या जवानी में नहीं जाऊँगा बल्कि उसकी कहानी वहाँ से शुरू करूंगा जहाँ से उसका नैतिक पतन हुआ।
नैतिक पतन मेरे हिसाब से एक बेहूदा और अव्यवहारिक शब्द है जो किसी के चरित्र को डिफाइन नहीं करता, पर चूंकि सामाजिक परिपेक्ष्य में प्रचलन में है तो इसी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
वह इस वक़्त बत्तीस की वय की थी और ये नैतिक पतन अब से दो साल पहले हुआ था जब उसने सारे संस्कार, सामाजिक मूल्य और नैतिकता के ओढ़ने बिछौने उठा कर ताक पर रख दिए थे और अपनी शारीरिक इच्छाओं के आगे समर्पण कर दिया था।
वह लखनऊ के एक पुराने मोहल्ले में पुश्तों से आबाद थी जिसके कारण एक बड़ा सा घर विरासत में मिला हुआ था।
बाप अमीनाबाद की एक कपड़ों की दुकान पर मुनीम थे और जब तक जिन्दा थे, घर के हालात ठीक ही थे।
उसकी मां को गुज़रे पांच साल हो चुके थे… घर में उसके सिवा पिताजी, एक मानसिक विकलांग चाचा, उसकी छोटी बहनें रानो, आकृति और एक छोटा भाई बबलू था।
दो साल पहले बाबा एक हादसे का शिकार होकर चल बसे थे और अब वे भाई बहन ही एक दूसरे का सहारा थे।
पीढ़ियों से वहीं रहते आये थे इसलिए सबसे जान-पहचान भी थी और वक़्त ज़रूरत सभी साथ और सहारे के लिये उपलब्ध भी थे लेकिन कोई माँ बाप की जगह की पूर्ति कर सकता है क्या?
वह रंग में सांवली थी, शरीर में भी कम लंबाई और थोड़े भरे शरीर की थी, पढ़ाई भी सिर्फ बारहवीं तक की थी… ऐसे ही उससे पांच साल छोटी रानो भी साधारण शक्ल-सूरत, और हल्की रंगत की बेहद दुबली पतली लड़की थी।
लाख कोशिश करके भी पहले उसके माँ-बाप और बाद में उसके बाबा उन दोनों बहनों की शादी न करा पाए थे तो मोहल्ले वाले इस सिलसिले में भला क्या कर पाते।
पर जिसकी शादी नहीं होती, उसमें क्या उमंगें नहीं होतीं, जवानी के तूफ़ान उन्हें बिना छुए गुज़र जाते हैं, उनके शरीर में वह ऊर्जा नहीं पैदा होती जो एक सम्भोग की डिमांड करती है… और ऐसे में सिवा घुटने के, कुढ़ने के उनके पास विकल्प ही क्या होते हैं।
मर्यादा, सामाजिक मूल्य, संस्कार और परिवार का सम्मान… ये वो वेदियां हैं जिनपे किसी ऐसी विकल्पहीन स्त्री की शारीरिक इच्छाओं की बलि ली जाती है।
यह बलि वह भी देती आ रही थी।
शरीर में सहवास से शांत हो सकने वाली ऊर्जा तो सोलहवें सावन से ही शुरू हो गई थी लेकिन इन्हीं मूल्यों को ढोते-ढोते वह चौदह और साल गुज़ार लाई थी और अब तो उसमें इन मर्यादाओं के विरुद्ध लड़ जाने की इच्छा भी बलवती होने लगी थी।
रानो से तीन साल छोटा बबलू और उससे दो साल छोटी आकृति उन दोनों बहनों से अलग गोरे चिट्टे और खूबसूरत थे।
उसने बहुत पहले कई बार माँ-बाबा को किसी ऐसी बात पे कलह करते देखा था जिससे उसने अंदाज़ा लगाया था कि दोनों शायद उसकी माँ के बच्चे तो थे लेकिन उनका पिता कोई और था।
सच्चाई कुछ भी हो पर उनके लिये तो वह माँ-जाया भाई बहन ही थे।
रानो भले उससे पांच साल छोटी थी लेकिन वही उसकी सबसे करीबी सहेली थी।
आखिर दोनों एक ही कश्ती की सवार थी।
दोनों की पीड़ा साझा थी… तो ऐसी हालात में उनका एकदूसरे के दुखदर्द का साथी बन जाना कौन सा बड़ी बात थी।
बबलू बीबीए के अंतिम सेमेस्टर में था और आकृति बीटेक कर रही थी।
उन दोनों की शादी के लिए जो धन संचित करके रखा गया था, अब ऐसी कोई उम्मीद न देख दोनों बड़ी बहनों ने वह धन दोनों छोटे भाई बहन की पढाई के लिए लगाने का फैसला किया था।
हालांकि रोज़ की गुज़र बसर के लिए बाबा के मरने के बाद से ही शीला ने एक दुकान पर नौकरी कर ली थी, रानो रंजना के घर बाकायदा ट्यूशन क्लास चलाती थी जहाँ कई छोटे बच्चे रानो और रंजना से पढ़ते थे।
रंजना उन चौधरी साहब की एक पैर से विकलांग बेटी थी जिनके घर से उन लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध थे और बाबा के गुजरने के बाद अब कभी ऐसी गार्जियन की ज़रूरत होती थी तो यह भूमिका वही चाचा-चाची निभाते थे।
उनके परिवार में रानो की हमउम्र विकलांग बेटी के सिवा उससे सात साल छोटा बेटा सोनू था जो बीए की पढ़ाई कर रहा था।
रंजना भी उसी कश्ती की सवार थी जिस पे रानो और शीला थीं।
उम्र हो गई थी लेकिन विकलांग और खूबसूरत न होने की वजह से उसका भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था और वह भी उन दोनों बहनों की ही तरह अपनी ही आग में झुलस रही थी।
रानो की ही तरह बबलू भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मोहल्ले की एक कोचिंग में पढ़ाने जाता था।
दो बजे कॉलेज से आकर चार बजे जाता था और रात को आठ बजे आता था।
उनकी सबसे छोटी बहन आकृति ऐसा कोई कमाई वाला काम नहीं करती थी, बल्कि वह तो कॉलेज से आकर कोचिंग पढ़ने जाती थी और बारी बारी से कोई न कोई घर में रहता था।
घर में मानसिक रूप से अपंग चाचा एक ऐसी ज़िम्मेदारी था जो उन्हें उसके मरने तक उठानी थी।
वह उनके पिता से काफी छोटा था और शीला से आठ साल बड़ा था। दिमाग सिर्फ खाने, उलटे सीधे ढंग से कपड़े पहन लेने, हग-मूत लेने तक ही सीमित था।
दिमाग के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी में भी ऐसी समस्या थी कि बहुत ज्यादा देर न खड़ा रह सकता था न चल फिर सकता था। बस कमरे तक ही सीमित रहता था।
एक तरह से जिन्दा लाश ही था, जिसके लिए वह लोग मनाते थे कि मर ही जाए तो उसे मुक्ति मिले और उन्हें भी…
लेकिन किसी के चाहने से कोई मरता है क्या।
सेक्स असल में शरीर में पैदा होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा है जिसे वक़्त-वक़्त पर निकालना ज़रूरी होता है, न निकालें तो यह आपको ही खाने लगती है।
इस यौनकुंठा के शिकार सिर्फ वही दोनों बहनें नहीं थीं उस घर में, बल्कि वह चाचा भी था जिसका दिमाग भले कुछ सोचने समझने लायक न हो लेकिन उसके पास एक यौनांग था और उसके शरीर में भी वह ऊर्जा वैसे ही पैदा होती थी जैसे किसी सामान्य इंसान के शरीर में।
बल्कि शायद दिमाग की लिमिटेशन के कारण किसी सामान्य इंसान से ज्यादा ही पैदा होती थी।
कभी किसी वक़्त में प्राकृतिक रूप से या किसी इत्तेफ़ाक़ से उसे हाथ के घर्षण के वीर्यपात करने के तरीके का पता चल गया होगा और अब वह रोज़ वही करता था।
उसे न समझ थी न ज्ञान… कई बार तो वह भतीजियों की मौजूदगी में ही हस्तमैथुन करने लगता था और उन्हीं लोगों को हटना पड़ता था।
हमेशा से ऐसे हर हस्तमैथुन के बाद उसने बाबा को ही उसकी सफाई धुलाई करते देखा था और जब से बाबा गुज़रे थे, यह ज़िम्मेदारी उस पर आन पड़ी थी।
लड़की होकर यह सब करना उसे वितृष्णापूर्ण और अजीब लगता था लेकिन विकल्पहीनता के कारण करना उसे ही था। वही घर की बड़ी थी और किसी बड़े की सारी ज़िम्मेदारियां उसे ही निभानी थी।
न उनके घर में कोई स्मार्टफोन था, न कंप्यूटर, लैपटॉप और न ही ऐसी किसी जगह से उसका कोई लेना देना था जो वह कभी पोर्न देखती या सेक्स ज्ञान हासिल करती और न ही उसकी कोई ऐसी सखी सहेली थी जो उसे यह ज्ञान देती।
सेक्स की ज़रूरत भर जानकारी तो कुदरत खुद आपको दे देती है लेकिन व्यावहारिक ज्ञान तो आपको खुद दुनिया से हासिल करना होता है जिसमें वह नाकाम थी।
उसे पहला और अब तक का अकेला परिपक्व लिंग देखने का मौका तो काफी पहले ही मिल गया था, जब एक दिन चाचा ने उसकी मौजूदगी में ही उसे निकाल कर हाथ से रगड़ना शुरू कर दिया था।
तब वह घबरा कर भागी थी।
लेकिन अब भाग नहीं सकती थी।
अब तो उसे जब तब देखना पड़ता था और जब भी चाचा हस्तमैथुन करता था तो घर पे वह होती थी तो वह साफ़ करती थी या रानो हुई तो वह साफ करती थी।
वैसे ज्यादातर चाचा को रात में सोने से पहले ही हस्तमैथुन की इच्छा होती थी और इस वजह से ये ज़िम्मेदारी दस में से नौ बार उसे ही उठानी पड़ती थी।
चाचा को जब भी खाने पीने या किसी भी किस्म की हाजत होती थी तो वह बड़ी होने के नाते उसे ही बुलाता था। उसका नाम भी ठीक से नहीं ले पाता था तो ‘ईया’ कहता था।
जब वह हस्तमैथुन करके अपने कपडे ख़राब कर चुकता था तो ‘ईया’ की पुकार लगाता था और उसे पहुंच कर चाचे को साफ़ करना होता था।
पहले उसने कभी चाचा का लिंग देखा था तो इतना ध्यान नहीं दिया था पर अब देती थी। उसका सिकुड़ा रूप, उसका उत्तेजित रूप… सब वह बड़े गौर से देखती थी।
और ये देखना उसके अवचेतन में इस कदर घुस गया था कि सोने से पहले उसके मानस पटल पर नाचा करता था और सो जाती थी तो सपने में भी पीछा नहीं छोड़ता था।
उसे साफ़ करते वक़्त जब छूती थी, पकड़ती थी तो उसकी धड़कनें तेज़ हो जाया करती थीं, सांसों में बेतरतीबी आ जाती थी और एक अजीब से सनसनाहट उसके पूरे शरीर में दौड़ जाती थी।
उसने कोई और परिपक्व लिंग नहीं देखा था और जो देख रही थी उसकी नज़र में शायद सबके जैसा ही था।
वह जब मुरझाया हुआ होता था तब भी सात इंच तक होता था और जब उत्तेजित होता था तो दस इंच से भी कुछ ज्यादा ही होता था और मोटाई ढाई इंच तक हो जाती थी।
उसकी रंगत ऊपर शिश्नमुंड की तरफ ढाई-तीन इंच तक साफ़ थी और नीचे जड़ तक गेहुंआ था, जिसपे मोटी-मोटी नसें चमका करती थीं।
तब उसे भारतीय पुरुषों के आकार का कोई अंदाज़ा नहीं था और वो इकलौता देखा लिंग उसे सामान्य लिंग लगता था, उसे लगता था सबके ऐसे ही होते होंगे।
सेक्स के बारे में उसे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। बस इतना पता था कि यह भूख शरीर में खुद से पैदा होती है और इस पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता।
एक तरह की एनर्जी होती है जिसे शरीर से निकालना ज़रूरी होता है और इसे निकालने के तीन तरीके होते हैं। पहला सम्भोग, दूसरा हस्तमैथुन और तीसरा स्वप्नदोष।
पहले दो तरीकों से आपको खुद ये ऊर्जा बाहर निकालनी है और खुद से नहीं निकाली तो स्वप्नदोष के ज़रिये आपका शरीर खुद ये ऊर्जा बाहर निकाल देगा।
उसके लिये तीसरा तरीका ही जाना पहचाना था। सम्भोग का कोई जुगाड़ नहीं था, हस्तमैथुन के तरीकों से अनजान भी थी और डरती भी थी। बस स्वप्नदोष के सहारे ही जो सुख मिल पता था, उसे ही जानती थी।
इन सपनों ने उसे अट्ठारह से अट्ठाइस तक बहुत परेशान किया था जब अक्सर बिना चेहरे वाले लोग (जिनके चेहरे याद नहीं रहते थे) उसके साथ सहवास करते थे और वह स्खलित हो जाती थी।
चूंकि उसने एक साइज़ का ही लिंग देखा था जो उसके अवचेतन में सुरक्षित हो गया था और उसी लिंग को वो योनिभेदन करते देखती थी… समझना मुश्किल था कि कैसे इतनी छोटी जगह में इतनी मोटी और बड़ी चीज़ घुस पाती थी।
लेकिन सपने में तो घुसती थी और उसे दर्द भी नहीं होता था बल्कि अकूत आनन्द की प्राप्ति होती थी।
पर सपनों पर किसका वश चला है… वह रोज़ ऐसे रंगीन सपने देखना चाहती थी पर वह दो तीन महीने में आते थे और बाकी रातें वैसे ही तड़पते, सुलगते गुज़रती थीं।
रानो भले ही शीला की सखी जैसी बहन थी लेकिन चाचा का हस्तमैथुन और इसके बाद उसके लिंग और जहां-तहां फैले उसके वीर्य को साफ़ करना एक ऐसा विषय था जिसपे दोनों चाह कर भी बात नही कर पाती थीं।
पर हर गुज़रते दिन के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
जितना वह चाचा के लिंग को छूती, पकड़ती, साफ़ करती, उतनी ही उसकी दिलचस्पी उसमें बढ़ती जा रही थी और उसके पकड़ने छूने में एक अलग भावना पैदा होने लगी थी।
उस दिन वह घर पहुंची थी तो उसका खून खौल रहा था, दिमाग रह रह कर कह रहा था कि या तो वह चंदू का खून कर दे या खुद ही आग लगा ले।
चंदू समाज का कोढ़ था, पूरे मोहल्ले के लिये नासूर था। वह उसे आज से नहीं जानती थी बल्कि तब से जानती थी जब बचपन में वह उसकी फ्रॉक ऊपर करके चड्डी उतार कर भाग जाया करता था और वह रोते हुए घर आती थी।
वह उससे भी दस साल बड़ा एक मवाली, मोहल्ले का छंटा हुआ बदमाश था। बचपन से ही लड़ाई झगड़े करता आया था और अब हिस्ट्री शीटर बन चुका था।
उस पर मर्डर, मर्डर अटैम्प्ट, रेप और एक्सटॉर्शन जैसे कई केस चल रहे थे… अक्सर पकड़ा जाता मगर पहुंच ऐसी बना रखी थी कि कुछ दिन में ही छूट जाता था और अब तो स्थानीय विधायक ने अपनी सरपरस्ती में ले लिया था।
वह पूरे मोहल्ले में आतंक फैलाये रहता था, अपने चमचों के साथ मोहल्ले में ही इधर उधर डेरा जमाये रहता था। जुआ, शराब, रंडीबाज़ी कोई शौक बाकी नहीं था और मोहल्ले की लड़कियों से छेड़छाड़ तो उसे खास पसंद थी।
और दिखने में पूरा राक्षस था। साढ़े छह फुट से ऊपर तो लंबाई थी और उसी अनुपात में चौड़ाई। हराम की खा-खा के ऐसा सांड हुआ पड़ा था कि लोगों को देखे खौफ होता था, उसके खिलाफ कोई कुछ बोलता क्या!
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