RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दो
कंपनी के दफ्तर के सामने मजदूरों की एक लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में खड़े मजदूर अति प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे, कारण आज वेतन मिलने का दिन था। आज सबके घर अच्छे-से-अच्छा भोजन बनेगा। घर वाले भी इनकी राह देख रहे होंगे, क्योंकि आज उनके जीवन की आवश्यकताओं के पूरी होने का दिन था। चाँदी के चंद सिक्के, जैसे मजदूर का जीवन बस इन्हीं में दबा पड़ा है।
राजन सबकी मुखाकृतियों को देख रहा था-सामने से कुंदन आता दिखाई पड़ा। वह भी आज बहुत प्रसन्न था। निकट आते ही बोला, ‘क्यों राजन? तुम्हें भी कुछ मिला।’
‘नहीं तो।’
‘क्यों तुम्हें आवश्यकता नहीं?’
‘आवश्यकता? इसकी आवश्यकता ही तो एक निर्धन का जीवन है।’
‘तो फिर जाओ अपना हिसाब कर आओ।’
‘हिसाब अभी से? आज मुझे यहाँ आए केवल पंद्रह दिन ही हुए हैं।’
‘तो क्या हुआ? यहाँ वेतन हर पंद्रह दिन के बाद मिलता है, यह रईसों की कोठी नहीं, मजदूरों की बस्ती है।’
‘सच?’ यह कहता हुआ राजन खिड़की की ओर बढ़ा और अपना कार्ड जेब से निकाल खजांची के सामने जाकर रख दिया-थोड़ी देर में दस-दस के पाँच नोट लिए कुंदन के पास लौट आया।
‘आज बहुत प्रसन्न हो।’
‘क्यों नहीं होंगे? आज पगार मिली है।’
‘कलकत्ता भेजेंगे क्या?’
‘नहीं, अभी तो होटल का बिल चुकाना है।’
‘और क्या?’
‘कलकत्ता से एक चीज मंगवानी है।’
‘हम भी तो सुनें।’
‘आने पर बताऊँगा।’
‘तुम जानो तुम्हारा काम, परंतु एक बात का ध्यान रखना-मँगवाना वही, जिसकी आवश्यकता हो-जमाना जरा नाजुक है।’
‘अच्छा कुंदन तुम चलो, मैं जरा कैंटीन हो आऊँ।’
राजन कुंदन से विदा होते ही कंपनी की कैंटीन में गया और एक चॉकलेट ले ठाकुर बाबा के घर की ओर हो लिया। आज उसे ठाकुर के घर रहते सात दिन बीत चुके थे। कई बार राजन ने वहाँ से जाने को कहा, पर ठाकुर बाबा साफ इंकार कर देते और कहते-‘जब तक तुम्हें कंपनी का क्वार्टर नहीं मिलता, हम तुम्हें पत्थरों की ठोकरें नहीं खाने देंगे।’ राजन को विश्वास था कि इसमें अवश्य पार्वती का हाथ है। उसका आकर्षण ही उसे उनका बोझ बनने के लिए विवश कर रहा था।
|