RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दूसरी ओर माधो अचंभे में था कि आज थैलियाँ इतनी तेजी से क्यों आ रही हैं? अभी एक समाप्त भी न हो पाती तो झट से दूसरी जा पहुँचती। वह यह सोचकर आश्चर्यचकित था कि आज इतनी फुर्ती कैसी? परंतु बेचारा माधो क्या जाने कि प्यार की मंजिल तक पहुँचने के लिए मनुष्य कैसे फुर्तीला हो उठता है?
मैनेजर का अनुमान गलत था परंतु फिर भी सबने मिलकर काम दो घंटे में समाप्त कर लिया। काम के बाद मजदूर इसलिए प्रसन्न थे कि दो घंटे के पश्चात् उन्हें पूरे दिन की छुट्टी है। परंतु राजन के लिए यह दो घंटे भी कितने कीमती थे। उसने काम की समाप्ति पर अपने कपड़ों को झाड़ा और रजिस्टर उठा स्टेशन की ओर देखा। सूरज डूब चुका था-अभी उसे हिसाब मिलाने भी जाना था। नीचे जाने को भी समय चाहिए, पहले तो उसने सोचा न जाऊँ, परंतु फिर अपनी जिम्मेदारी का ध्यान आते ही ऐसा न कर सका। आखिर उसने जाने का निश्चय कर ही डाला।
अचानक उसे कुछ सूझा और वह रुक गया। पार्सल एक मजदूर को देते हुए बोला-‘इसे जरा मेरे घर छोड़ देना।’
राजन ने दोनों हाथों से तार के साथ लटके कड़े को मजबूती से पकड़ लिया, सब मजदूर आश्चर्य में थे कि उसे क्या सूझी। राजन थोड़ी देर में थैली की तरह नीचे जाने लगा। एक-दो मजदूर उसे रोकने को भागे भी परंतु वह हवा के समान निकल गया। नीचे गहरी और पथरीली घाटियाँ देख उसे घबराहट हुई और उसने अपनी आँखें मूँद लीं। जब उसने आँखें खोलीं तो अपने आपको एक रेल के डिब्बे में पाया। शरीर दर्द के मारे चकनाचूर हो रहा था। राजन ने हाथ में पकड़ा रजिस्टर माधो की ओर बढ़ाया-जो उसकी मूर्खता पर हँस रहा था।
हिसाब मिलाने के बाद राजन सीधा मंदिर की ओर चल दिया।
अंधेरा हो चुका था, परंतु उसे आशा थी कि शायद पार्वती उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। परंतु जब वह वहाँ पहुँचा तो उसे निराश होना पड़ा। उसने चारों ओर देखा-पार्वती वहाँ नहीं थी, यह सोच कि शायद मंदिर में हो। जब वह सीढ़ियों पर चढ़ने लगा तो उसके कदम अकस्मात् सामने कुछ देखकर रुक गए।
सीढ़ियों पर लाल गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थीं और किसी ने लंबी प्रतीक्षा के बाद क्रोध में तोड़कर वहाँ फेंक दी थीं।
राजन, धरती की ओर झुका और प्रेमपूर्वक बिखरी कलियाँ चुनने लगा-बटोरकर घर की ओर चल पड़ा-असफलता की चोट से आहत-सा।
सारी रात वह सो न सका-ज्यों ही सोने की कोशिश करता, उसे पार्वती का ध्यान आ जाता। न जाने वह क्या सोचेगी? उसे रह-रहकर मैनेजर पर क्रोध आ रहा था।
उसके साथी आनंद से सो रहे थे-शायद उन्हें अगले दिन की छुट्टी की बहुत प्रसन्नता थी, परंतु राजन की आँखों में नींद कहाँ।
जब आधी रात तक वह सो न सका तो बिस्तर को छोड़ उसने कलकत्ता से आया पार्सल खोला। थोड़ी देर बाद एक चमकदार ‘मिंटो वायलन’ बाहर निकालकर तार ठीक करने लगा। तार तो ठीक हुए, पर मन में भरी व्यथा और आवेग वायलिन के खिंचे तारों में फूट उठे। सारी रात वह वायलन बजाता रहा।
प्रातःकाल उसे काम पर तो जाना नहीं था। वह स्नान आदि के पश्चात् शीघ्र ही बाबा के घर जा पहुँचा, पार्वती बरामदे में खड़ी बाबा से बातें कर रही थी, उसे देखते ही मुँह फेरकर अंदर चली गई। बाबा नमस्कार का उत्तर देते हुए बोले-‘राजन! तुम तो यहाँ का रास्ता ही भूल गए।’
‘नहीं बाबा, समय ही नहीं मिला।’
‘अब समय क्यों मिलने लगा, नया मकान कैसा है?’
‘बस, सिर छिपाने को काफी है, अपनी कहिए, तबियत कैसी है?’
‘हमारी चिंता न किया करो बेटा! जैसी पहले थी, वैसी अब भी है-पार्वती की तो सुध लो।’
‘क्यों, उसे क्या हुआ?’ राजन ने घबराते हुए पूछा।
‘होना क्या है, जब से तुम गए हो, उदास रहती है। तुम थे तो बातों में समय कट जाता था, अब सारा दिन बैठे करे भी क्या?’
‘ओह! परंतु गई कहाँ? अभी तो...।’
‘शायद अंदर गई है।’
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