Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 01:07 PM,
#41
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ३८)

मोना की कार अपने सामने वाले कार का पीछा कर रही थी...

कार मोना की ज़रूर है पर चला मैं रहा हूँ.

मोना बगल की सीट में बैठी बेचैनी से पहलू बदले जा रही है...

अधिक देर तक चुप नहीं रहा गया तो पूछ ही बैठी,

“तुम कुछ बताओगे भी, अभय? कहाँ जा रहे हो .. किसके पीछे जा रहे हो? क्या करने वाले हो??”

बड़ी सावधानी और पूर्ण मनोयोग से सामने वाली गाड़ी का पीछा करने के कारण पहली बार में मोना की बात को सुन न सका पर मोना ने समझा की मैं उसे और उसके प्रश्न को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश कर रहा हूँ.

इसलिए वो तुनक कर जब दोबारा अपने प्रश्न को दोहराई तब मैंने ध्यान दिया,

“ओह्ह.. सॉरी मोना. मेरा ध्यान कहीं ओर था...”

“पता है.. दिख रहा है.. पर मेरे लिए अभी ज़रूरी यह है की मैंने जो पूछा है तुमसे उसका जवाब दोगे भी या नहीं?”

“यस, श्योर...”

“तो दो...”

जवाब सुनने को लेकर एक तरह से मोना की इस तरह की हठ को देख कर मैंने भी अधिक चुप रहना उचित न समझा.

“मोना, तुम्हारे चार प्रश्न में से पहला प्रश्न का उत्तर है की मैं अभी तुम्हें बताऊँगा.. सब.. दूसरा प्रश्न की मैं कहाँ जा रहा हूँ तो सच कहता हूँ , ये मुझे भी नहीं पता. तुम्हारा तीसरा प्रश्न की किसके पीछे जा रहा हूँ तो इसका जवाब ये है कि जब हम दोनों वहाँ कॉफ़ी पीते हुए बातें कर रहे थे तो मुझे बगल के ही रास्ते पर वही लड़का दिखा जो उस दिन उस पुराने बिल्डिंग में देखा था .. वह लड़का सड़क पर खड़ा , एक कार की ड्राइविंग वाली सीट के खिड़की पर हाथों के सहारे झुक कर किसी से बातें कर रहा था. लड़के को पहचानने में मुझसे कोई भूल नहीं हो सकती. शत प्रतिशत वही लड़का था... दोनों के बीच कुछ बातें हुईं और फ़िर वह उसी कार में बैठ गया.. अभी मैं उसी कार का पीछा कर रहा हूँ. ऍम सॉरी मोना, अगर मेरे कारण तुम्हें परेशानी हो रही है तो ..... म..”

मुझे बीच में ही टोकती हुई मोना बोली,

“और चौथा??”

“चौथा क्या... ओह हाँ.. तुम्हारा चौथा प्रश्न की मैं क्या करने वाला हूँ, तो इसका उत्तर देना अभी थोड़ा मुश्किल है पर इतना तय है की जो भी करूँगा, बहुत सोच समझ कर करूँगा.”

“ह्म्म्म.. संभल कर अभय .. ज़्यादा रिस्क लेने की गलती मत करना.”

“बिल्कुल.. वो देखो.. वह कार उस मोड़ को पार कर सड़क के आगे जा कर रुकी. मैं भी अपनी कार यहीं रोक देता हूँ.....”

“अपनी कार?”

“सॉरी .. तुम्हारी कार...”

“कोई बात नहीं, सुन कर अच्छा लगा.”

“श्शश्श्श... वो देखो, वह लड़का कार से उतर गया..”

“हम्म.. उतर कर ड्राईवर से कुछ बात कर रहा है... तुम्हें कोई आईडिया है की ऐसा कौन हो सकता है?”

“नहीं मोना, मुझे कैसे मालूम होगा..?”

“डिकोस्टा?”

“नहीं.. आई मीन, मुझे नहीं लगता की ड्राइविंग सीट पे डिकोस्टा होगा.”

इस वाक्य को बड़ी दृढ़ता से कहा मैंने.

थोड़ा हैरान होते हुए मोना फ़िर पूछी,

“ऐसा क्यों?”

“इनकी बातों से.. उस दिन उस पुरानी बिल्डिंग में ये लोग जिस तरह से डिकोस्टा के बारे में बात कर रहे थे; मानो डिकोस्टा कोई बहुत ही पहुँचा हुआ चीज़ हो.. और ये लोग उसके प्यादे... इसलिए मुझे नहीं लगता की कार में बैठा शख्स डिकोस्टा हो सकता है.. अगर होता तो गाड़ी उसका ड्राईवर चला रहा होता.. वो खुद नहीं.”

“हम्म.. तुम्हारी बात में दम है. पर दिक्कत यह है की कार के सभी खिड़कियों में काले शीशे लगे हुए हैं. ठीक से कुछ दिखता भी तो नहीं.”

मोना ने चिंता ज़ाहिर की.

उसकी चिंता सही भी है. काले शीशों के जगह अगर पारदर्शी शीशे लगे होते तो थोड़ा बहुत अंदाज़ा लगा पाना आसान होता. पर अब जो है नहीं उसके बारे में सोच कर क्या फ़ायदा.

मैं अपने रिस्ट वाच की ओर देखा.. खड़े खड़े पाँच मिनट ऐसे ही बीत गए. लड़का अभी भी ड्राईवर से पूर्ववत बात किये जा रहा है. एक दो बार उसने सिर इधर उधर कर घूमाते समय एकाध बार हमारे कार की ओर भी देखा.. शायद उसे अभी भी कोई संदेह नहीं हुआ है.

पाँच मिनट और बीत गए.

मैं और मोना, दोनों ही बेचैन हो रहे थे उनके अगले कदम को ले कर.

तभी लड़का सीधा खड़ा हुआ.

अपने दाएँ हाथ को आँखों के ऊपर से सर पे रख कर कार वाले को सलाम किया.

कार स्टार्ट हुआ.

और धुआँ छोड़ते हुए आगे बढ़ गया.

लड़का कुछेक मिनट उस कार को दूर तक जाते देखता रहा , फ़िर अपने चारों ओर एक नज़र घूमा कर देख लेने बाद वह तेज़ी उस मोड़ वाले रास्ते अंदर चला गया. मेरे हाथ स्टीयरिंग पर जम गए.. आगे कुछ करता की तभी मोना पूछ बैठी,

“अब क्या करोगे?”

“मतलब?” थोड़ा आश्चर्य से पूछा.

“मतलब की, एक मोड़ वाले रास्ते में अंदर घुस गया और दूसरा कार ले कर सीधे निकल गया. तुम्हारा क्या प्लान है... किधर जाओगे... किसके पीछे जाओगे?”

“ओह्ह.” एक अफ़सोस सा आह निकला.

कार के चक्कर में लड़के को भूल ही गया था.

एक साथ दोनों के पीछे जाना संभव नहीं है.

पर किसी एक के पीछे तो जा सकता हूँ.

पर किसके पीछे जाऊं...

जल्द ही निर्णय लेना था..

और निर्णय ले भी लिया ..

मोना की ओर देख कर कहा,

“मोना, मैं सोच रहा हूँ इस लड़के के पीछे जाने का. कार वाला तो पता नहीं अब तक कहाँ से कहाँ निकल गया होगा. लड़के का पीछा किया जा सकता है आसानी से. क्या कहती हो?”

मोना सहमती में सिर हिलाते हुए बोली,

“हाँ, यही ठीक रहेगा. तुम जाओ, मैं आती हूँ.”

“मतलब.. क्या करोगी?”

“अरे बाबा.. गाड़ी को साइड में लगाना होगा न.. या फ़िर इसी तरह यहाँ छोड़ दूँ?” व्यंग्यात्मक लहजे में थोड़ा गुस्सा करते हुए मोना बोली.

मैं हल्का सा मुस्कराया और तेज़ी उस लड़के के पीछे उस मोड़ वाले रास्ते की ओर बढ़ गया.

मैं तेज़ी से चलता हुआ उस मोड़ तक पहुँचा ही की देखा वह लड़का आगे दाएँ ओर की एक गली में घुस गया. अगर सेकंड भर की देर हो जाती तो शायद लड़के को ढूँढने में थोड़ी परेशानी हो सकती थी क्योंकि ये मोड़ वाला रास्ता आगे बहुत दूर तक निकल गया है और इस सामने दाएँ वाली गली के अलावा थोड़ी ही दूरी पर बाएँ तरफ़ एक और गली का होना मालूम पड़ता है.

मैं मुड़ कर पीछे गाड़ी की ओर देखा, मोना अब तक ड्राइविंग सीट पर बैठ चुकी थी और गाड़ी को थोड़ा पीछे करते हुए सड़क के किनारे लगाने का प्रयास कर रही थी.

मैं जल्दी से उस मोड़ वाले रास्ते से आगे बढ़ा और गली तक पहुँचा.

जेब से मशहूर जापानी सिगरेट ‘कास्टर’ निकाला और सुलगा लिया और इस अंदाज़ से गली में घुसा मानो मुझे किसी की परवाह नहीं.. बस ऐसे ही गली गली घूमने वाला कोई आवारा लड़का हूँ.

गली में घुसते ही वह लड़का एक छोटे से रेस्टोरेंट में घुसता हुआ दिखा.

मैं भी रेस्टोरेंट में घुसा.

लड़का एक टेबल पर जा कर बैठा, वेटर का काम करते एक छोटे लड़के को बुलाया और दो समोसे, दो वेजिटेबल चॉप और एक चाय मँगाया. उस चौकोर टेबल की चार कुर्सियों में से एक पर बैठा था वह.

मैं उसके पीछे वाले टेबल पर जा बैठा. उसकी पीठ की ओर अपना पीठ कर सिर नीचे कर अपने शर्ट के पॉकेट से तह कर के रखे कागजों को निकाला और टेबल पर सामने रख कर बड़े ध्यान से उन कागजों को देखने का नाटक करने लगा.

ऐसा आभास हो रहा था जैसे की वह लड़का बार बार सिर पीछे कर दरवाज़े की ओर देख रहा हो. शायद किसी के आने का इंतज़ार है उसे.

उसके इस इंतज़ार में भागीदार बनने के लिए मैंने भी दो समोसे और एक चाय मँगा लिया.

कुछ ही मिनटों बाद देखा की सामने एक सफ़ेद अम्बेसेडर कार थोड़ा आगे जा कर रुकी और उसमें से एक भारी भरकम सा आदमी उतरा.

बहुत अधिक मोटा भी न था वह पर शरीर देख कर इतना तो तय था की काफ़ी खाते पीते परिवार से है और ख़ुद भी शायद बड़ा शौक़ीन है खाने पीने का. उम्र से अंदाज़न चालीस के पास होगा.

वह अंदर घुस कर चारों ओर बड़े ध्यान से देखने लगा. तभी मेरे पीछे बैठा वह लड़का अपनी जगह पर खड़ा हो कर हाथ हिला कर उसे संकेत दिया. प्रत्युत्तर में वह आदमी मुस्कराता हुआ आगे बढ़ा और भारी कदमों से चलता हुआ मुझे पार करता हुआ उस लड़के के पास पहुँचा. लड़के ने दुआ सलाम किया. बदले में उस आदमी ने भी मुस्करा कर अभिवादन किया.

“आइए मनसुख भाई, आइए. बैठिए.” लड़के ने कहा.

“हाँ हाँ आलोक.. बैठ रहा हूँ.. भई, कहीं मुझे देर तो नहीं हो गई आने में. हाहाहा.”

हाँ..! अब याद आया लड़के का नाम. आलोक ! यही नाम तो सुना था उस दिन उस पुरानी बिल्डिंग में.

उस मोटे आदमी ने हँसते हुए पूछा. बात करने तरीके से तो बड़ा हँसमुख जान पड़ता है.

इस पर लड़के ने भी ‘खी खी’ कर के हँसते हुए कहा,

“अरे नहीं मनसुख जी.. आप बिल्कुल सही टाइम पर आये हैं. बल्कि टाइम से थोड़ा पहले ही आ गए हैं.”

आवाज़ में बड़ा मीठापन लिए बोला आलोक. समझते देर न लगी की चापलूसी में माहिर है.

अभी इनकी बातों में ध्यान दे ही रहा था की तभी मोना भी मुझे ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँची. चेहरे पर आते जाते भाव साफ़ बता रहे थे की मुझे ढूँढने में उसे थोड़ी परेशानी हुई है. दरवाज़े से अंदर आते ही मैंने अपने होंठों पर ऊँगली रख कर उसे चुप रहने का संकेत किया और फ़िर अँगूठे से पीछे की ओर इशारा कर के ये भी जतला दिया की लड़का पीछे ही बैठा है.

मोना जल्द ही सावधान वाले मुद्रा में आ गई और धीरे कदमों से चलती हुई मेरे पास पहुँची और मेरे सामने वाली कुर्सी के खाली रहने के बावजूद वह मुझे उठा कर मेरे बगल की कुर्सी पर बैठ गई.

मैं दोबारा अपने सीट पर विराजमान हुआ.

गौर किया मैंने, अब तक आलोक और मनसुख भाई में दबे स्वर में बातें होने लगी हैं. मैं उनकी बातों को सुनने को आतुर होने लगा पर कोई उपाय न सूझ रहा था. उनकी खुसुर-पुसुर जारी थी.. कुर्सी पर बैठे बैठे ही मैं बेचैनी में पहलू बदलने लगा. आधा बचा समोसा और ठंडी होती चाय पर मेरा कतई तवज्जो न रहा.

मुझे बेचैन – परेशान देख मोना ने इशारों में कारण पूछा.

मैंने सामने रखे कागजों में से एक उठाया और पेन से लिख कर मोना की ओर बढ़ा दिया.

मोना ने कागज़ पे लिखे मेरे शब्दों को ध्यान से पढ़ा और पढ़ कर कागज़ को मेरी ओर सरका दी. अपने पर्स से हथेली से भी छोटा एक उपकरण निकाली, एक – दो बटन दबाई और उसको एक ख़ास कोण में घूमा कर पीछे बैठे आलोक और मनसुख भाई की ओर कर के अपनी ही कुर्सी पर रख दी. इसके लिए उसे खुद थोड़ा आगे सरकना पड़ा.

मैं हैरानी से उपकरण को देखता हुआ मोना को देखने लगा. कुछ बोलने के लिए मुँह खोलने ही वाला था की मोना ने इशारे से मुझे चुप रहने का संकेत किया और मेरे सामने से कागज़ उठा कर , मेरे हाथ से पेन लेकर उसपे कुछ लिखने लगी.

फ़िर कागज़ मुझे दी.

लिखा था,

“निश्चिन्त रहो. उन्हें उनकी बात करने दो. हम अपनी कुछ बात करते हैं; नहीं तो इन्हें शक हो सकता है. चलो अब जल्दी से कुछ रोमांटिक बातें शुरू करो. बॉयफ्रेंड – गर्लफ्रेंड वाली.”

पढ़ कर मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखा.

वह मुस्कराई.

मुझे समझ में नहीं आया की क्या इसे बात की गम्भीरता समझ में नहीं रही है --- या शायद मुझे परेशान हाल में नहीं देखना चाहती फ़िलहाल.

अभी कुछ सोचता की तभी मोना बोल पड़ी,

“ओफ्फ्हो... क्या सिर्फ़ चुप रहने और समोसा खिलाने के लिए ही मुझे यहाँ बुलाया है. कितनी दूर से किस तरह से आई हूँ तुम्हें पता भी है?”

“अन्हं...अम्म्म्म...”

“और देखो तो.. मेरे आने से पहले ही तुम अपने हिस्से की ले कर खाने लगे हो... ?!”

मैंने गौर किया,

आलोक और मनसुख दोनों ही हमारे तरफ़ देखा, मोना की बातों को सुना, फ़िर आपस में एक-दूसरे को देख कर मुस्कराने लगे.

आलोक – “हाहा.. आजकल ऐसे लव बर्ड्स शहर में हर तरफ़ देखने को मिल रहे हैं मनसुख भाई..”

मनसुख – “हाहाहा... हाँ.. सही कहा .. वैसे एक टाइम अपना भी हुआ करता था आलोक. हर तरह के फूल रखने का शौक हुआ करता था. अब तो बस.... हाहाहा...”

आलोक – “अब तो बस क्या मनसुख भाई.. बोल भी दीजिए.. बात को यूँ अधूरा न छोड़िये |”

“हाहाहा... अब तो बस हरेक फूलों के रस को चूस कर फ़ेंक देता हूँ. हाहाहाहाहा!!”

आलोक भी खिलखिलाकर हँसते हुए मनसुख का साथ दिया..

मैंने मोना की ओर देखा.

गुस्से में होंठ चबाते हुए बड़बड़ाई,

“ब्लडी बास्टर्ड.. स्वाइन..!”

मैंने जल्दी ही उसका बायाँ हाथ थाम कर उसे शांत रखने का प्रयास करने लगा. कोई भरोसा नहीं.. लड़ाकू लड़की है.. कहीं कुछ कर ना बैठे.. वरना सब गुड़ गोबर हो जाएगा.

क्रमशः

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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 01:07 PM

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