RE: DesiMasalaBoard साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन
उन्होंने सुनीता के स्तनों को जोरसे दबाया और "ओह... सुनीता... तुम कमाल हो..." कहते हुए अचानक ही जस्सूजी के लण्ड के छिद्र से जैसे एक फव्वारा फूट पड़ा जो सुनीता के चेहरे पर ऐसे फ़ैल गया जैसे सुनीता का चेहरा कोई मलाई से बना हो। उस दिन सुबह ही सुबह सुनीता ने ब्रेकफास्ट में वह नाश्ता किया जो उसने पहले कभी नहीं किया था।
सुनीता ने जस्सूजी से एक वचन माँगते हुए कहा, "जस्सूजी मैं और आप दोनों, आपकी पत्नी ज्योतिजी को और मेरे पति सुनील को हमारे बिच हुई प्रेम क्रीड़ा के बारे में कुछ भी नहीं बताएँगे। वैसे तो उनसे छुपाने वाली ऐसी कोई बात तो हुई ही नहीं जिसे छिपाना पड़े पर जो कुछ भी हुआ है उसे भी हम जाहिर नहीं करेंगे। मैं हमारे बिच हुई प्रेम क्रीड़ा को मेरे पति सुनील और आप की पत्नी ज्योतिजी से छिपा के रखना चाहती हूँ ताकि सही समय पर उन्हें मैं इसे धमाके से पेश करुँगी की दोनों चौंक जाएंगे और तब बड़ा मजा आएगा।"
कर्नल साहब सुनीता की और विस्मय से जब देखने लगे तब सुनीता ने जस्सूजी का हाथ थाम कर कहा, "आप कैसे क्या करना है वह सब मुझ पर छोड़ दीजिये। मैं चाहती हूँ की आपकी पत्नी और मेरी दीदी ज्योतिजी से मेरे पति सुनीलजी का ऐसा धमाकेदार मिलन हो की बस मजा आ जाये!"
सुनीता का आगे बोलते हुए मुंह खिन्नता और निराशा से मुरझा सा गया जब वह बोली, "मेरे कारण मैं आपको चरम पर ले जा कर उस उन्मादपूर्ण सम्भोग का आनंद नहीं दे पायी जहां मेरे साथ मैं आपको ले जाना चाहती थी। पर मैं चाहती हूँ की वह दोनों हमसे कहीं ज्यादा उस सम्भोग का आनंद लें, उनके सम्भोग का रोमांच और उत्तेजना इतनी बढ़े की मजा आ जाए। इस लिए जरुरी है की हम दोनों ऐसा वर्तन करेंगे जैसे हमारे बीच कुछ हुआ ही नहीं और हम दोनों एक दूसरे के प्रति वैसे ही व्यवहार करेंगे जैसे पहले करते थे। आप ज्योतिजी से हमेशा मेरे बारे में ऐसे बात करना जैसे मैं आपके चुंगुल में फँसी ही नहीं हूँ।"
जस्सूजी ने सुनीता अपनी बाहों में ले कर कहा, "बात गलत भी तो नहीं है। तुम इतनी मानिनी हो की मेरी लाख मिन्नतें करने पर भी तुम कहाँ मानी हो? आखिरकार तुमने अपनी माँ का नाम देकर मुझे अंगूठा दिखा ही दिया ना?"
जब सुनीता यह सुनकर रुआंसी सी हो गयी, तो जस्सूजी ने सुनीता को कस कर चुम्बन करते हुए कहा, "अरे पगली, मैं तो मजाक कर रहा था। पर अब जब तुमने हमारी प्रेम क्रीड़ा को एक रहस्य के परदे में रखने की ठानी ही है तो फिर मैं एक्टिंग करने में कमजोर हूँ।
मैं अब मेरे मन से ऐसे ही मान लूंगा की जैसे की तुमने वाकई में मुझे अंगूठा दिखा दिया है और मेरे मन में यह रंजिश हमेशा रखूँगा और हो सकता है की कभी कबार मेरे मुंहसे ऐसे कुछ जले कटे शब्द निकल भी जाए। तब तुम बुरा मत मानना क्यूंकि मैं अपने दिमाग को यह कन्विंस कर दूंगा की तुम कभी शारीरिक रूप से मेरे निकट आयी ही नहीं और आज जो हुआ वह हुआ ही नहीं। आज जो हुआ उसे मैं अपनी मेमोरी से इरेज कर दूंगा, मिटा दूंगा। ठीक है? तुम भी जब मैं ऐसा कुछ कहूं या ऐसा वर्तन करूँ तो यह मत समझना की मैं वाकई में ऐसा सोचता हूँ। पर ऐसा करना तो पडेगा ही। तो बुरा मत मानना, प्लीज?"
जस्सूजी ने फिर थम कर थोड़ी गंभीरता से सुनीता की और देख कर कहा, "पर जानूं, मैं भी आज तुमसे एक वादा करता हूँ। चाहे मुझे अपनी जान से ही क्यों ना खेलना पड़े, अपनी जान की बाजी क्यों ना लगानी पड़े, एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सामने चल कर मेरे पास आओगी और मुझे अपना सर्वस्व समर्पण करोगी।
मैं अपनी जान हथेली में रख कर घूमता हूँ। मेरे देश के लिए इसे मैंने आज तक हमारी सेना में गिरवी रखा था। अब मैं तुम्हारे हाथ में भी इसे गिरवी रखता हूँ। अगर तुम राजपूतानी हो तो मैं भी हिंदुस्तानी फ़ौज का जाँबाज़ सिपाही हूँ। मैं तुम्हें वचन देता हूँ की जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक मैं तुम पर अपना वचन भंग करने का कोई मानसिक दबाव नहीं बनाऊंगा। इतना ही नहीं, मैं तुम्हें भी कमजोर नहीं होने दूंगा की तुम अपना वचन भंग करो।"
सुनीता ने जब जस्सूजी से यह वाक्य सुने तो वह गदगद हो गयी। सुनीता के हाथ में जस्सूजी का आधा तना हुआ लंड था जिसे वह प्यार से सेहला रही थी। अचानक ही सुनीता के मन में क्या उफान आया की वह जस्सूजी के लण्ड पर झुक गयी और उसे चूमने लगी। सुनीता की आँखों में आँसू छलक रहे थे।
सुनीता जस्सूजी के लण्ड को चूमते हुए और उनके लण्ड को सम्बोधित करते हुए बोली, "मेरे प्यारे जस्सूजी के प्यारे सिपाही! मुझे माफ़ करना की मैं तुम्हें तुम्हारी सहेली, जो मेरी दो जॉंघों के बिच है, उसके घर में घुस ने की इजाजत नहीं दे सकती। तुम मुझे बड़े प्यारे हो। मैं तुम्हें तुम्हारी सहेली से भले ही ना मिला पाऊँ पर मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ।"
सुनीता ने जस्सूजी के पॉंव सीधे किये और फिर से सख्त हुए उनके लण्ड के ऊपर अपना मुंह झुका कर लण्ड को अपने मुंह में लेकर उसे चूमने और चूसने लगी। हर बार जब भी वह जस्सूजी के लण्ड को अपने मुंह से बाहर निकालती तो आँखों में आँसूं लिए हुए बोलती, "मुझे माफ़ करना मेरे जस्सूजी के दूत, मुझे माफ़ करना। मैं तुम्हें तुम्हारी सखी से मिला नहीं सकती।"
सुनीता ने फिर से जस्सूजी के लण्ड को कभी हाथों से तो कभी मुंह में चूस कर और हिला कर इतना उन्माद पूर्ण और उत्तेजित किया की एक बार फिर जस्सूजी का बदन ऐसे अकड़ गया और एक बार फिर जस्सूजी के लण्ड के छिद्र में से एक पिचकारी के सामान फव्वारा छूटा और उस समय सुनीता ने उसे पूरी तरह से अपने मुंह में लिया और उसे गटक गटक कर पी गयी। उस दिन तक सुनीता ने कभी कभार अपने पति का लंड जरूर चूमा था और एक बार हल्का सा चूसा भी था, पर उनका वीर्य अपने मुंह में नहीं लिया था। सुनीता को ऐसा करना अच्छा नहीं लगता था। पर आज बिना आग्रह किये सुनीता ने अपनी मर्जी से जस्सूजी का पूरा वीर्य पी लिया। सुनीता को उस समय जरासी भी घिन नहीं हुई और शायद उसे जस्सूजी के वीर्य का स्वाद अच्छा भी लगा।
कहते हैं ना की अप्रिय का सुन्दर चेहरा भी अच्छा नहीं लगता पर अपने प्रिय की तो गाँड़ भी अच्छी लगती है।
काफी देर तक सुनीता आधे नंगे जस्सूजी की बाँहों में ही पड़ी रही। अब उसे यह डर नहीं था की कहीं जस्सूजी उसे चुदने के लिए मजबूर ना करे।
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