RE: DesiMasalaBoard साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन
सुनीता ने कहा, "जस्सूजी, ऐसे शब्द आगे से अपनी ज़बान से कभी मत निकालिये। मैं आपको अपने आप से भी ज्यादा चाहती हूँ। मैं आपकी इतनी इज्जत करती हूँ की आपके मन में मेरे लिये थोड़ा सा भी हीनता का भाव आये यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। सच कहूं तो मैं यह सोच रही थी की कहीं मुझे इस कॉस्च्यूम में देख कर आप मुझे हल्कट या चीप तो नहीं समझ रहे?"
जस्सूजी ने सुनीता को अपनी बाहों में कस के दबाते हुए बड़ी गंभीरता से कहा, "अरे सुनीता! कमाल है! तुम इस कॉस्च्यूम में कोई भी अप्सरा से कम नहीं लग रही हो! इस कॉस्च्यूम में तो तुम्हारा पूरा सौंदर्य निखर उभर कर बाहर आ रहा है। भगवान ने वैसे ही स्त्रियों को गजब की सुंदरता दी है और उनमें भी तुम तो कोहिनूर हीरे की तरह भगवान की बेजोड़ रचना हो।
अगर तुम मेरे सामने निर्वस्त्र भी खड़ी हो जाओ तो भी मैं तुम्हें चीप या हलकट नहीं सोच सकता। ऐसा सोचना भी मेरे लिए पाप के समान है। क्यूंकि तुम जितनी बदन से सुन्दर हो उससे कहीं ज्यादा मन से खूबसूरत हो। हाँ, मैं यह नहीं नकारूँगा की मेरे मन में तुम्हें देख कर कामुकता के भाव जरूर आते हैं। मैं तुम्हें मन से तो अपनी मानता ही हूँ, पर मैं तुम्हें तन से भी पूरी तरह अपनी बनाना तहे दिल से चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ की हम दोनों के बदन एक हो जाएँ।
पर मैं तब तक तुम पर ज़रा सा भी दबाव नहीं डालूंगा जब तक की तुम खुद सामने चलकर अपने आप मेरे सामने घुटने टेक कर अपना सर्वस्व मुझे समर्पण नहीं करोगी। अगर तुम मानिनी हो तो मैं भी कोई कम नहीं हूँ। तुम मुझे ना सिर्फ बहुत प्यारी हो, मैं तुम्हारी बहुत बहुत इज्जत करता हूँ। और वह इज्जत तुम्हारे कपड़ों की वजह से नहीं है।"
जस्सूजी के अपने बारे में ऐसे विचार सुनकर सुनीता की आँखों में से गंगा जमुना बहने लगी। सुनीता ने जस्सूजी के मुंह पर हाथ रख कर कहा, "जस्सूजी, आप से कोई जित नहीं सकता। आप ने चंद पलों में ही मेरी सारी उधेङबुन ख़त्म कर दी। अब मेरी सारी लज्जा और शर्म आप पर कुर्बान है। मैं शायद तन से पूरी तरह आपकी हो ना सकूँ, पर मेरा मन आपने जित लिया है। मैं पूरी तरह आपकी हूँ। मुझे अब आपके सामने कैसे भी आने में कोई शर्म ना होगी। अगर आप कहो तो मैं इस कॉस्च्यूम को भी निकाल फैंक सकती हूँ।"
जस्सूजी ने मुस्कुराते हुए सुनीता से कहा, "खबरदार! ऐसा बिलकुल ना करना। मेरी धीरज का इतना ज्यादा इम्तेहान भी ना लेना। आखिर मैं भी तो कच्ची मिटटी का बना हुआ इंसान ही हूँ। कहीं मेरा ईमान जवाब ना दे दे और तुम्हारा माँ को दिया हुआ वचन टूट ना जाए!"
सुनीता अब पूरी तरह आश्वस्त हो गयी की उसे जस्सूजी से किसी भी तरह का पर्दा, लाज या शर्म रखने की आवश्यकता नहीं थी। जब तक सुनीता नहीं चाहेगी, जस्सूजी उसे छुएंगे भी नहीं। और फिर आखिर जस्सूजी से छुआ ने में तो सुनीता को कोई परहेज रखने की जरुरत ही नहीं थी।
सुनीता ने अपनी आँखें नचाते हुए कहा, "जस्सूजी, मुझे तैरना नहीं आता। इस लिए मुझे पानी से डर लगता है। मैं आपके साथ पानी में आती हूँ। अब आप मेरे साथ जो चाहे करो। चाहो तो मुझे बचाओ या डूबा दो। मैं आपकी शरण में हूँ। अगर आप मुझे थोड़ा सा तैरना सीखा दोगे तो मैं तैरने की कोशिश करुँगी।"
जस्सूजी ने हाथमें रखा तौलिया फेंक कर पानी में उतर कर मुस्कुराते हुए अपनी बाँहें फैला कर कहा, "फिर आ जाओ, मेरी बाँहों में।"
दूर वाटर फॉल के निचे नहा रहे ज्योति और सुनीलजी ने जस्सूजी और सुनीता के बिच का वार्तालाप तो नहीं सूना पर देखा की सुनीता बेझिझक सीमेंट की बनी किनार से छलांग लगा कर जस्सूजी की खुली बाहों में कूद पड़ी। ज्योति ने फ़ौरन सुनील को कहा, "देखा, सुनीलजी, आपकी बीबी मेरे पति की बाँहों में कैसे चलि गयी? लगता है वह तो गयी!"
सुनीलजी ने ज्योतिजी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। दोनों वाटर फॉल के निचे कुछ देर नहा कर पानी में चलते चलते वाटर फॉल की दूसरी और पहुंचे। वह दोनों सुनीता और जस्सूजी से काफी दूर जा चुके थे और उन्हें सुनीता और जस्सूजी नहीं दिखाई दे रहे थे।
वाटर फॉल के दूसरी और पहुँचते ही सुनीलजी ने ज्योतिजी से पूछा, "क्या बात है? आप अपना मूड़ क्यों बिगाड़ कर बैठी हैं?"
ज्योतिजी ने कुछ गुस्से में कहा, "अब एक बात मेरी समझ में आ गयी है की मुझमे कोई आकर्षण रहा नहीं है।"
सुनीलजी ने ज्योतिजी की बाँहें थाम कर पूछा, "पर हुआ क्या यह तो बताइये ना? आप ऐसा क्यों कह रहीं हैं?"
ज्योति ने कहा, "भाई घर की मुर्गी दाल बराबर यह कहावत मुझ पर तो जरूर लागू होती है पर सुनीता पर नहीं होती।"
सुनीलजी: "पर ऐसा आप क्यों कहते हो यह तो बताओ?"
ज्योतिजी: "और नहीं तो क्या? अपनी बीबी से घर में भी पेट नहीं भरा तो आप ट्रैन में भी उसको छोड़ते नहीं हो, तो फिर में और क्या कहूं? हम ने तय किया था इस यात्रा दरम्यान आप और मैं और जस्सूजी और सुनीता की जोड़ी रहेगी। पर आप तो रात को अपनी बीबी के बिस्तरेमें ही घुस गए। क्या आपको मैं नजर नहीं आयी?"
ज्योतिजी फिर जैसे अपने आप को ही उलाहना देती हुई बोली, "हाँ भाई, मैं क्यों नजर आउंगी? मेरा मुकाबला सुनीता से थोड़े ही हो सकता है? कहाँ सुनीता, युवा, खूबसूरत, जवान, सेक्सी और कहाँ मैं, बूढी, बदसूरत, मोटी और नीरस।"
सुनीलजी का यह सुनकर पसीना छूट गया। तो आखिर ज्योतिजी ने उन्हें अपनी बीबी के बिस्तर में जाते हुए देख ही लिया था। अब जब चोरी पकड़ी ही गयी है तो छुपाने से क्या फायदा?
सुनीलजी ने ज्योतिजी के करीब जाकर उनकी ठुड्डी (चिबुक / दाढ़ी) अपनी उँगलियों में पकड़ी और उसे अपनी और घुमाते हुए बोले, "ज्योतिजी, सच सच बताइये, अगर मैं आपके बिस्तर में आता और जैसे आपने मुझे पकड़ लिया वैसे कोई और देख लेता, तो हम क्या जवाब देते? वैसे मैं आपके बिस्तर के पास खड़ा काफी मिनटों तक इस उधेड़बुन में रहा की मैं क्या करूँ? आपके बिस्तर में आऊं या नहीं? आखिर में मैंने यही फैसला किया की बेहतर होगा की हम अपनी प्रेम गाथा बंद दीवारों में कैद रखें। क्या मैंने गलत किया?"
ज्योतिजी ने सुनील की और देखा और उन्हें अपने करीब खिंच कर गाल पर चुम्मी करते हुए बोली, "मेरे प्यारे! आप बड़े चालु हो। अपनी गलती को भी आप ऐसे अच्छाई में परिवर्तित कर देते हो की मैं क्या कोई भी कुछ बोल नहीं पायेगा। शायद इसी लिए आप इतने बड़े पत्रकार हो। कोई बात नहीं। आप ने ठीक किया। पर अब ध्यान रहे की मैं अपनी उपेक्षा बर्दास्त नहीं कर सकती। मैं बड़ी मानिनी हूँ और मैं मानती हूँ की आप मुझे बहुत प्यार करते हैं और मेरी बड़ी इज्जत करते हैं। आप की उपेक्षा मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। वचन दो की मुझे आगे चलकर ऐसी शिकायत का मौक़ा नहीं दोगे?"
सुनीलजी ने ज्योति को अपनी बाँहों में भर कर कहा, "ज्योति जी मैं आगे से आपको ऐसी शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगा। पर मैं भी आपसे कुछ कहना चाहता हूँ।"
ज्योति जी ने प्रश्नात्मक दृष्टि से देख कर कहा, "क्या?"
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