Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:00 PM,
#70
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"लाला, यदि मैं पहले ही तुम्हें बता देता तो तुम मुझे यहां बैठने भी न देते। मैंने कल से कुछ नहीं खाया था।"

“अब छोड़ो भी....!"

विनीत ढाबे से निकलकर बाहर सड़क पर आ गया। आज उसने जीवन में पहली बार देखा कि इस दुनिया में शराफत को कोई नहीं समझता। गर्मी तेज थी, पेट की ज्वाला बुझ चुकी थी। वह एक पेड़ की छाया में बैठ गया। घण्टों बैठा रहा और सोचता रहा कि वह अब जायेगा कहां? कहां रहेगा? दोनों वहनों की ओर से तो वह निराश हो ही चुका था। कोई ऐसी रिश्तेदारी भी नहीं थी, जहां वे जा सकती थीं। किसी प्रकार गुजारा करने का सवाल ही नहीं था। उसके विचार में दोनों ने आत्म-हत्या कर ली होगी। यह सब सोचते ही उसका दिल भर आया। जी में आया कि वह रोये। सारे दिन यहीं बैठकर रोता रहे। परन्तु रोने से भी क्या होगा। जो चला गया, वह लौटकर तो नहीं आता। कोई भी नहीं आयेगा। कोई नहीं आयेगा। वह उठा और फिर चल दिया। मन में आया, हो सकता है उसकी दोनों वहनें आज भी जिन्दा हों और मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट भर रही हों। इस विचार ने उसके हृदय में आशा का संचार कर दिया। क्षण भर के लिये उसका चेहरा खिल उठा। सोचने लगा, दोनों वहनों के मिलने पर उसके जीवन में किसी बात की कमी नहीं रहेगी। उसका उजड़ा संसार फिर से बस जायेगा। कल से प्रीति का विचार भी उसके मस्तिष्क में कई बार आ चुका था। परन्तु वह जान बूझकर उधर नहीं गया था। हो सकता है प्रीति की शादी हो गयी हो। यह बात तो निश्चित थी, प्रीति इतने समय तक कुंआरी थोड़े ही रही होगी। उन गलियों में उसके लिये रखा ही क्या है? वह एक बार फिर प्रीति के लिये तड़प उठा। प्रीति ने उससे वायदा किया था....उसे बचन दिया था। उसके अन्दर से आवाज आयी, बक्त बड़े-से-बड़े वायदों को भी तोड़ देता है...

.बड़े बड़े निश्चयों को भी डिगा देता है। उसने प्रीति के विचार को ही अपने मन में से निकाल देना उचित समझा। परन्तु यह भी उसके लिये असम्भव-सी बात थी। शाम तक का घूमना व्यर्थ ही रहा। आज उसने झुग्गी-झोंपड़ियों के भी चक्कर लगाये थे। परन्तु नतीजा कुछ नहीं निकला। शाम हो गयी। विनीत के सामने फिर खाने की समस्या खड़ी हो गयी। फिर उसके दिमाग में लाला का बही ढाबा आया। वह फिर बहीं पहुंच गया। लाला उसे देखते ही समझ गया कि मुसीबत फिर उसके पास आ चुकी है। लाला के कुछ भी कहने से पहले उसने कहा-“लाला, भूख का समय हो चुका है।"

"तो...?"

"खाना खाना है लाला। पैसे मेरे पास अब भी नहीं हैं।"

"दादा।" लाला ने उसे सम्बोधित किया—“मैं बहुत ही गरीब आदमी हूं। मंहगाई का तुम्हें पता ही होगा। इस पर बीस पैसे की एक रोटी देनी पड़ती है। किसी-किसी दिन तो घर से भी लगाना पड़ जाता है।"

"साफ बोलो लाला।" उसने आवाज को कठोर बनाया। वह इस बात को जानता था कि लाला अनुनय विनय से मानने वाला नहीं है।

"बात ये है कि....इस वक्त कोई दूसरा ढाबा देख लो। सामने वाले मोड़ पर छोटन हलबाई का ढाबा है।"

"लाला, मुझे न तो हलवाई से मतलब है और न ही नाई से। भूख का समय है और मैं तुम्हारे पास खाना खाने आया हूं। अब तुम मुझसे यह बताओ कि तुम्हें खाना खिलाना है अथबा नहीं....?" विनीत के स्वर में रोब था।

“भई दादा...तुम तो पीछे ही पड़ गये।"

“लाला, मैं खाने की बात कर रहा हूं।"

“जब आ गये हो तो खिलाना ही पड़ेगा....." विनीत अन्दर आकर बैठ गया। छोकरे ने उसके लिये खाना लगा दिया। खाने में दाल-रोटी के सिवाय और कुछ नहीं था। खाना मिल गया था, यही गनीमत थी। खाना खाकर वह बाहर निकला। लाला ने उसे रोक लिया—"दादा!"

"कहो....."

“एक आदमी है।"

“मतलब की बात करो।"

"उस पर मेरे पचास रुपये चल रहे हैं। पन्द्रह दिन तक खाना खाता रहा। बाद में अंगूठा दिखला दिया। मेरे पचास रुपये वसूल दो। एक-दो बार टोका भी तो कहने लगा, लाला, यदि मुझसे रुपये मांगे तो खटिया खड़ी कर दूंगा। मैं तो यह भी नहीं जानता कि खटिया खड़ी करना किसे कहते हैं। शरीफ आदमी हूं, मैंने उससे उलझना ठीक न समझा।"

"कमीशन क्या होगा?" विनीत ने पूछा।

"कमीशन?"

"तुम्हारी जेब में पचास रुपये आयेंगे, उसमें से मेरा क्या होगा?"

"मैं तुम्हारी इतनी सेवा कर रहा हूं....क्या मुझसे भी कमीशन लोगे?"

"खैर....आज मुझे एक दूसरा काम निबटाना है, कल बात करूंगा।" कहकर विनीत आगे बढ़ गया। आज उसे एक आदमी के मुंह से दादा शब्द सुनने को मिला था, जबकि उसने जीवन में सदा ही इस शब्द से नफरत की थी। परन्तु मजबूरी थी। अपनी वहनों को खोजने के लिये उसे जिन्दा रहना था, जिन्दा रहने के लिये खाना भी जरूरी था। पैसे उसके पास नहीं थे। उसे याद आया किसी ने उससे कहा था, दुनिया में कुछ मांगने से नहीं बल्कि छीनने से मिलता है। रात हो ही चुकी थी। वह एक पार्क की बेंच पर लेट गया। ऊपर खुला आकाश था और नीचे धरती। सोचने लगा-धरती और आकाश....इन दोनों के बीच में ही इन्सान की जिन्दगी पिसकर रह जाती है। कोई इसी दूरी में अपना सब कुछ खो बैठता है और कोई बहुत कुछ पा लेता है। वहनों के विषय में भी सोचा। इस विचार को उसने आने वाले समय पर छोड़ दिया। वह उनकी खोज तब तक करेगा जब तक उसके पास एक भी सांस बाकी है। आज वह केबल प्रीति के विषय में सोचता रहा। वह नीति से मिलने के लिये बेचैन हो उठा। वह एक बार ....केबल एक बार प्रीति की सूरत देखना चाहता था। परन्तु सोचता था कि उसकी शादी हो गयी होगी। ऐसी दशा में वह उससे कहां मिलेगा। यदि वह उसके घर गया तो उसके पिताजी अपने दिमाग में क्या सोचेंगे? रात में वह कुछ सोया और कुछ जागा। प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। सबेरे अपने को न रोक सका और प्रीति से मिलने चल दिया।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:00 PM

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