Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:07 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अनीता उठ बैठी तथा चारपाई के पास ही रखे गिलास का पानी पीकर उसी प्रकार लेट गयी। पिछले तीन दिनों से उसकी तबियत खराब थी। कुछ खा-पी नहीं सकी थी। इस समय भी बुखार के कारण उसका शरीर तबे की तरह तप रहा था। उसने तनिक दृष्टि उठाकर झोंपड़ी के खुले दरवाजे की ओर देखा। उसकी निराश आंखें और भी धुंधली हो गयीं। दोपहर हो गयी थी, परन्तु सुधा अभी तक नहीं आयी थी। वह सूरज निकलने से पहले ही दूर रेलवे लाइन पर से कोयले चुगने गयी थी। रोज का क्रम था। दोनों वहनें बहुत ही सबेरे झोंपड़ी से निकल पड़तीं, रेलवे लाइन पर कोयला चुगतीं और उन्हें बेचकर वापिस लौटतीं। सवेरे से शाम तक के खाने का खर्च निकल आता था। तीन दिन से वह बुखार से पीड़ित थी, अतः सुधा को अकेले ही जाना पड़ता था। उसके लौटने तक अनीता बड़ी बेचैनी से उसकी राह देखती थी। हर समय एक अनजाना-सा भय उसके मस्तिष्क में समाया रहता था। उसे सुधा पर विश्वास था, परन्तु दुनिया के नीच इन्सानों को कौन कहे....जो एक औरत को औरत नहीं बल्कि खेलने की बस्तु समझते हैं। सुवह उसने कहा भी था-"सुधा, तुझे अकेले भेजने को मन नहीं करता।"

"क्यों दीदी?” सुधा ने अपनी टोकरी उठाते हुए पूछा था।

मुझे ठेकेदार की नीयत अच्छी नहीं लगती। जब भी झोंपड़ी का किराया मांगने आता है, तेरी ओर अजीब-सी नजरों से देखता है। अब तो वह तीसरे-चौथे दिन आ ही जाता है....आते ही तुम्हारे विषय में पूछने लगता है।"

“दीदी, यदि तुम्हारी सुधा ऐसी होती तो उस सेठ का खून न करती। और आज उसी खून के कारण....."

"सी " अनीता ने होठों पर उंगली रखकर उसे चुप रहने का संकेत किया था— ऐसी बात को फिर मुंह से मत निकालना। दीवारों के भी कान होते हैं। वैसे भी बराबर में जुम्मन की झोंपड़ी है। वह भी अच्छा आदमी नहीं है। तू ऐसा कर, मैं तेरे साथ चलती हूं।"

"तुम...."

"हां, तू काम करना और मैं वहीं तेरे पास बैठी रहूंगी। कम-से-कम तू मेरी आंखों के सामने तो रहेगी। मुझे चैन रहेगा।"

"नहीं दीदी।" सुधा ने कहा था-"तुम्हें बुखार है, मैं तुम्हें बाहर नहीं निकलने दूंगी। तुम आराम करो....मैं जल्दी लौटूंगी। तुम्हारे लिए गोलियां भी लानी हैं।"

"सुधा....” स्वर में ममता टपक पड़ी थी।

"हां दीदी....."

"सोचती हूं यदि हम दोनों इतनी अभागिन न होतीं तो हमें आज ये दिन क्यों देखने पड़ते? पता नहीं कैसी है यह दुनिया! कोई जीने की कोशिश करता है तो उसे जीने भी नहीं देते। खैर, सुधा....जो कुछ भाग्य में है, वह तो देखना ही पड़ेगा।"

"ठीक कहती हो दीदी।"

"जल्दी लौटना....।"

"दोपहर से पहले ही आ जाऊंगी।"

"और सुन...यदि तुझे उधर ठेकेदार दिखलाई दे जाये तो तू सीधी यहां आ जाना।"

"क्यों ....?"

“यही समझदारी की बात है।"

सुधा तनिक मुस्करायी थी— दीदी...ठेकेदार के दिन बुरे होंगे तो उधर आयेगा। मैं उसके डर से अपना काम छोड़कर भागने वाली नहीं हूं।" कहकर सुधा चली गयी।

सहसा ही सुधा अपने अतीत में उलझकर रह गई। उसके विचार उसे बहुत दूर ले गये।

गुजरी जिंदगी का एक-एक दिन उसकी आंखों के सामने तैरने लगा। विनीत के जेल जाने के बाद ही वे दोनों बेसहरा हो गयी थीं। किसी प्रकार खाने का खर्च तो चल जाता था, परन्तु दुनिया की भूखी नजरों को देखकर वह सहम उठती थीं। हां, यदि वह जबान और इतनी खूबसूरत न होतीं तो शायद उन्हें उन नजरों को न देखना पड़ता। लोग तरह-तरह से सहानुभूति दर्शाते थे। परन्तु उनमें था क्या, इस बात को वह अच्छी तरह जानती थी। महज इसीलिये उसने अपने पड़ौसी रामचरन को दुत्कार दिया था। रामचरन उनके घर सुवह-शाम कभी भी आ धमकता था। तरह-तरह से यह जाहिर करता था कि वह उनका सबसे बड़ा हमदर्द है। उसने उस दिन कहा भी था—"चाचा जी, आप हमारे लिये इतना परेशान न हुआ करें।"

"क्या करूं अनीता....." रामचरन ने कहा था-"तुम लोगों को देखे बिना मन ही नहीं मानता। और फिर तुम दोनों वहनों का इस दुनिया में है ही कौन? एक विनीत का सहारा था, वह बेचारा भी जेल में चला गया। मुझे तो हर समय तुम्हारा ख्याल बना रहता है। समझ में नहीं आता तुम्हारे लिये क्या करू....।"

“चाचा जी, आपका इतना उपकार ही काफी है कि आप हमारा ध्यान रखते हैं।"

"मैंने तो एक दूसरी बात सोची है।"

"वह क्या?"

"मेरी जानकारी में एक लड़का है। कहो तो मैं उससे तुम्हारी बात पक्की कर दूं! तुम दोनों को सहारा भी मिल जायेगा।"

"चाचा जी....!"

"जमाना खराब है अनीता।" उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की थी— “सुधा तो अभी इस योग्य नहीं, परन्तु तुम तो जवान हो।"

"चाचा जी....आपकी जुबान से ये शब्द अच्छे नहीं लगते।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:07 PM

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