Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:09 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
जैना होटल में? वह इस बात को मानने के लिये कतई तैयार नहीं था। सुधा और अनीता खूनी बन जाने के बाद भी इसी शहर में होंगी, यह सोचना भी मूर्खतापूर्ण था। यदि ऐसा होता तो पुलिस उन्हें कभी-न-कभी खोज ही लेती। तब कहां जाये? क्या करे वह? इस प्रश्न पर उसका मस्तिष्क फिर उलझकर रह गया। यहां आकर उसे पता चला कि यूं ही कहीं चक्कर काटने से क्या लाभ। शाम और भी गहरी हो गयी थी। कहीं जाने के विचार को त्यागकर वह सड़क के किनारे बने एक पार्क में आकर बैठ गया।

कुछ रंगीन जोड़े इधर-उधर घास पर फैले हुये, बातों में व्यस्त थे। यह सब देखकर अनायास ही उसके मुंह से एक आह निकल गयी। सोचने लगा, कितना सुख है इन लोगों के पास....। जैसे कि जीवन की समस्त खुशियां इन्हीं के भाग्य में लिखी हैं। एक वह है! जब से होश संभाला है, अभाबों के अलावा और कुछ नहीं देखा। पिताजी तथा मां के जाने के बाद जिंदगी जैसे बोझ बन गयी थी। कुछ ही सांसें चैन से ले पाया था, तभी उसके माथे पर एक दाग लग गया और उसे अपनी घुटती सांसों को जेल में पूरा करना पड़ा। इसके बाद फिर घुटन....तड़प और कसमसाहट। सुख का नाम कई बार सुना था, परन्तु जीवन में कभी ऐसा अबसर नहीं आया जब उसने सुख को चन्द घड़ियों को भी देखा हो। और अभी क्या पता....। न राह है, न मंजिल। पता नहीं जिंदगी का दूसरा किनारा क्या होगा। इस समानता में उसे बेदना के अलावा और कुछ न मिला। देर तक इधर-उधर की सोचता रहा, फिर भी किसी नतीजे पर न पहुंच सका। एक ओर अर्चना तथा प्रीति का प्रेम....। शायद यह भी उसके जीवन में एक यादगार बनकर रह जायेगा। अपनों को पाने की लालसा में वह किसी पराये का भी नहीं हो सकेगा, यह बात उसके मन-मस्तिष्क में ठीक से बैठ चुकी थी। शाम के बाद रात का अंधकार सारे संसार को ढकने लगा था। पार्क में बैठे हुए जोड़े भी हाथों में हाथ डाले बाहर चले गये थे। रह गया था वह अकेला। जाने बालों को देखता रहा। सोच रहा, इन सबका अपना छोटा सा घर होगा....आंगन होगा, ढेर सारे अपने होंगे। लेकिन वह बेकार, बेसहारा। कहां जायेगा वह? उसका तो कोई भी अपना नहीं है।

सहसा वह चौंका। कोई उसके बिल्कुल ही करीब आकर खड़ा हो गया था। उसने देखा, कोई युबक था। बिल्कुल उसी तरह फटेहाल में। अपने ही गम बहुत थे, दूसरे के गम को कोई क्या देखे। उसकी ओर से लापरवाह होकर वह फिर अपने विचारों में उलझ गया। "आप यहीं बैठे रहेंगे क्या?" कानों में शब्द पड़े....। उसने उचटती निगाह से यह बात पूछने बाले की ओर देखा। चेहरे पर किसी प्रकार के भाव लाये बिना उसने कह दिया-"हा...."

"क्यों...?" फिर प्रश्न।

"इसलिये कि....।" वह कुछ कहता-कहता रुक गया। फिर बात बदल कर बोला-"परन्तु आप....?"

“मैं भी एक इन्सान हूं।"

"आपकी तरह से रात भर यहीं रहना चाहता हूं।" अब उसने तनिक ध्यान से उस युवक को देखा। एक साथ ही कई प्रश्न उभरे-आखिर यह युवक पार्क में क्यों रहना चाहता है। वह खामोश न रह सका और बोला-"शायद बक्त के सताये हुए हो...."

"हां।" उस युबक ने कहा-"जिन्दगी ने कुछ ऐसा नाटक खेला कि मैं उसमें उलझकर ही रह गया। निकलना चाहता हूं, परन्तु निकल नहीं सकता।"

बैठ जाओ।" विनीत के कहने पर वह युवक उसके पास ही बैठ गया। युवक के कपड़ों से तो ऐसा लगता था जैसे कि वह अच्छे घराने से सम्बन्धित है। केबल चेहरे पर दुःखों की अनेक पर्ते जमी हुई थीं। उसे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि इस तन्हाई में कोई उसका साथी तो मिला। उसने पूछ लिया-"क्या नाम है...?"

"शीश पाल।” "क्या करते हो?"

“कहानियां लिखता हूं।"

"बस....?" विनीत अब उसमें दिलचस्पी लेने लगा था।

"हां।" उस युबक ने कहा- कोई नौकरी नहीं मिली तो इसी काम का सहारा लेकर बैठ गया।"

"तो तुम्हें नौकरी चाहिये?" विनीत कुछ देर के लिये अपने दुःखों को भूल गया था।

"नहीं...."

"और....?"

"मैं मरना चाहता हूं।"
ILL
विनीत ने एक नयी दृष्टि से उस युवक की ओर देखा। आखिर वह क्यों मरना चाहता है, यह बात उसकी समझ में न आ सकी। "लेकिन जनाब, तुम मरना क्यों चाहते हो?"

"क्योंकि मैं जिन्दगी से हार गया हूं।"

“कायर हो?"

"नहीं तो।"

"तब तुम मूर्ख हो।" विनीत ने कह दिया "जिन्दगी से हारकर मौत का दामन थामना चाहते हो। आखिर जीने में क्या हर्ज है?"

"हर्ज यह है कि मैं जीना नहीं चाहता।” युवक भाबुक हो गया— "मैं एक पल के लिये भी जिन्दा रहना नहीं चाहता। मैं ऐसी दुनिया का मुंह देखना भी गुनाह समझता हं जो किसी के सीने में छरा भौंकने में ही अच्छाई समझे, जो किसी को बरबाद करके ही सुख हासिल करती हो।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:09 PM

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