वह पलटा। आशा थी। प्रीति की एक सहेली, जो शादी के एक वर्ष बाद ही विधवा हो चुकी थी। आशा तथा प्रीति ने बचपन के दिनों को एक साथ ही बिताया था। देखकर उसे प्रसन्नता हुई। वह आशा के द्वारा प्रीति तक अपना सदश भेज सकता था। आशा निकट आ गयी— शायद आप प्रीति से मिलने आये हैं....।"
"हां....।" उसके मुंह से निकला।
"आओ मेरे साथा"
"कहां....?" उसने आश्चर्य से पूछा।
"सामने सड़क तक।"
"परन्तु प्रीति.....”
"बहीं मिलेगी।"
आशा की बातों ने उसकी बेचैनी को और भी बढ़ा दिया। वह समझ नहीं सका कि यकायक ही आशा के मिलने का क्या कारण है? तथा प्रीति सड़क पर क्या कर रही होगी? चलकर वह आशा के साथ गली से बाहर आ गया।
आशा ने कहा- "मिस्टर विनीत !"
"कहो....!"
"क्या तुम प्रीति को नहीं भूल सकते?"
"क्या मतलब....?"
“मैंने केवल एक बात पूछी है?"
"नहीं।" विनीत ने कहा-“यह मेरे लिये असम्भब है।"
"परन्तु विनीत ....."आशा एक क्षण के लिए रुकी और फिर बोली-"तुम्हारी प्रीति....अब इस दुनिया में नहीं है। वह कल....।"
"आशा!" विनीत का मुंह खुला का खुला रह गया। उसकी आंखें जैसे पथरा गयी थीं। उसने फिर कहा-"यह क्या कह रही हो तुम? प्रीति कभी ऐसा नहीं कर सकती। नहीं, नहीं! तुम झूठ बोल रही हो....।"
"सच्चाई यही है।" आशा बोली- कल दोपहर अचानक ही हृदय की गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। शायद उस बेचारी के भाग्य में यही लिखा था....कि वह जीवन में खोखले स्वप्न ही देखती रहे....उसका सपना अधूरा रह गया। विनीत, तुम्हारी यादों ने उसे बिल्कुल खोखला कर दिया था। उसने तो जीने की बहुत कोशिश की थी....अपनी अंतिम सांस को भी उसने संभालने की बहुत कोशिश की थी, परन्तु कुछ भी न हो सका। कठोर तपस्या ने उसकी सांसों को तोड़ दिया।"
"ओह...." थोड़ी देर बाद आशा चली गयी और विनीत पत्थर की मूर्ति बना हुआ देर तक वहीं खड़ा रहा। ठगा-सा आज वह जिंदगी का आखिरी दांव भी हार चुका था। प्रीति का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर गया। जैसे कह रहा हो—"विनीत ! मैंने तो अपनी प्रत्येक सांस को तुम्हारी माला का दाना बना दिया था। मैंने तो हर सुवह और शाम तुम्हारी पूजा में गुजारी थी....मैंने तो अपनी प्रत्येक रात को रोते और जागते हुये गुजारा था....इस पर भी तुमने मुझे कुछ नहीं दिया....."
विचारों में खोया हुआ वह चौंका। एक गाड़ी ठीक उसके निकट आकर रुकी थी। उसने गाड़ी से बाहर आती अर्चना को भी देख लिया था।
अर्चना ने निकट आकर कहा-"लौट आये विनीत ....."
"हां....।" विनीत ने बुझे स्वर में कहा।
"तो फिर यहां क्यों खड़े हो....?"
विनीत ने एक बार अपनी ग्रीबा उठाकर अर्चना की ओर देखा, फिर एक लम्बी सांस लेकर कहा-"अपने सपनों को देख रहा हूं....।"
“सपने तो बहुत ही कम पूरे होते हैं विनीत, अन्यथा सभी अधूरे रह जाते हैं। आओ...अब इस गली में कुछ भी नहीं है।"
यानि तुम....!"
"प्रीति के विषय में मुझे पता है।"
विनीत ने कुछ नहीं कहा। अर्चना ने उसका हाथ थामा और गाड़ी तक ले आयी। यंत्र चलित-सा वह गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी चल पड़ी। रास्ते भर वह प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। जबरन अपने आंसुओं को पीता रहा। प्रीति का कहा हुआ, अतीत में डूबा प्रत्येक शब्द रह-रहकर उसे याद आ रहा था। अर्चना ने गाड़ी को अपनी कोठी के कम्पाउंड में रोका तथा विनीत को लेकर सीधी अपने कमरे में आ गयी। विनीत की मनोदशा को वह जानती थी। बैठते ही उसने कहा-"विनीत, मैं भी जिन्दगी की एक बाजी हार चुकी हूं....।"
“मतलब?
“पापा ने कल एक लड़के से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया....। मैं कुछ भी न कर सकी। तुम्हें न पा सकी विनीत। जो रूप मैं चाहती थी, समाज ने उस रूप को मुझसे छीन लिया है। मैं तुम्हारे जीवन का कोई अभाव पूरा न कर सकी। मैं आज भी एक रिश्ता जोड़ना चाहती हूं....जिसके लिये तुम जीवन भर भटकते रहे हो....!" कहकर अर्चना उठी और आलमारी में रखी एक राखी उठा लायी।
विनीत अब भी पत्थर बना बैठा था। अर्चना ने उसकी कलाई में राखी बांध दी। फिर बोली-“एस.पी.अंकल सुवह ही यहां आये थे। उन्होंने मुझसे सब कुछ बता दिया है....."
"ओह....!" विनीत कुछ सोचने लगा।
क्यों, भाई बनना अच्छा नहीं लगा क्या?"
"नहीं वहन।" विनीत की आंखें भर आई-"सोच रहा था कि जीवन का सब कुछ दांव पर लगने के बाद....एक वहन तो मिली है....।"
—वह पलटा। आशा थी। प्रीति की एक सहेली, जो शादी के एक वर्ष बाद ही विधवा हो चुकी थी। आशा तथा प्रीति ने बचपन के दिनों को एक साथ ही बिताया था। देखकर उसे प्रसन्नता हुई। वह आशा के द्वारा प्रीति तक अपना सदश भेज सकता था। आशा निकट आ गयी— शायद आप प्रीति से मिलने आये हैं....।"
"हां....।" उसके मुंह से निकला।
"आओ मेरे साथा"
"कहां....?" उसने आश्चर्य से पूछा।
"सामने सड़क तक।"
"परन्तु प्रीति.....”
"बहीं मिलेगी।"
आशा की बातों ने उसकी बेचैनी को और भी बढ़ा दिया। वह समझ नहीं सका कि यकायक ही आशा के मिलने का क्या कारण है? तथा प्रीति सड़क पर क्या कर रही होगी? चलकर वह आशा के साथ गली से बाहर आ गया।
आशा ने कहा- "मिस्टर विनीत !"
"कहो....!"
"क्या तुम प्रीति को नहीं भूल सकते?"
"क्या मतलब....?"
“मैंने केवल एक बात पूछी है?"
"नहीं।" विनीत ने कहा-“यह मेरे लिये असम्भब है।"
"परन्तु विनीत ....."आशा एक क्षण के लिए रुकी और फिर बोली-"तुम्हारी प्रीति....अब इस दुनिया में नहीं है। वह कल....।"
"आशा!" विनीत का मुंह खुला का खुला रह गया। उसकी आंखें जैसे पथरा गयी थीं। उसने फिर कहा-"यह क्या कह रही हो तुम? प्रीति कभी ऐसा नहीं कर सकती। नहीं, नहीं! तुम झूठ बोल रही हो....।"
"सच्चाई यही है।" आशा बोली- कल दोपहर अचानक ही हृदय की गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। शायद उस बेचारी के भाग्य में यही लिखा था....कि वह जीवन में खोखले स्वप्न ही देखती रहे....उसका सपना अधूरा रह गया। विनीत, तुम्हारी यादों ने उसे बिल्कुल खोखला कर दिया था। उसने तो जीने की बहुत कोशिश की थी....अपनी अंतिम सांस को भी उसने संभालने की बहुत कोशिश की थी, परन्तु कुछ भी न हो सका। कठोर तपस्या ने उसकी सांसों को तोड़ दिया।"
"ओह...." थोड़ी देर बाद आशा चली गयी और विनीत पत्थर की मूर्ति बना हुआ देर तक वहीं खड़ा रहा। ठगा-सा आज वह जिंदगी का आखिरी दांव भी हार चुका था। प्रीति का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर गया। जैसे कह रहा हो—"विनीत ! मैंने तो अपनी प्रत्येक सांस को तुम्हारी माला का दाना बना दिया था। मैंने तो हर सुवह और शाम तुम्हारी पूजा में गुजारी थी....मैंने तो अपनी प्रत्येक रात को रोते और जागते हुये गुजारा था....इस पर भी तुमने मुझे कुछ नहीं दिया....."
विचारों में खोया हुआ वह चौंका। एक गाड़ी ठीक उसके निकट आकर रुकी थी। उसने गाड़ी से बाहर आती अर्चना को भी देख लिया था।
अर्चना ने निकट आकर कहा-"लौट आये विनीत ....."
"हां....।" विनीत ने बुझे स्वर में कहा।
"तो फिर यहां क्यों खड़े हो....?"
विनीत ने एक बार अपनी ग्रीबा उठाकर अर्चना की ओर देखा, फिर एक लम्बी सांस लेकर कहा-"अपने सपनों को देख रहा हूं....।"
“सपने तो बहुत ही कम पूरे होते हैं विनीत, अन्यथा सभी अधूरे रह जाते हैं। आओ...अब इस गली में कुछ भी नहीं है।"
यानि तुम....!"
"प्रीति के विषय में मुझे पता है।"
विनीत ने कुछ नहीं कहा। अर्चना ने उसका हाथ थामा और गाड़ी तक ले आयी। यंत्र चलित-सा वह गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी चल पड़ी। रास्ते भर वह प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। जबरन अपने आंसुओं को पीता रहा। प्रीति का कहा हुआ, अतीत में डूबा प्रत्येक शब्द रह-रहकर उसे याद आ रहा था। अर्चना ने गाड़ी को अपनी कोठी के कम्पाउंड में रोका तथा विनीत को लेकर सीधी अपने कमरे में आ गयी। विनीत की मनोदशा को वह जानती थी। बैठते ही उसने कहा-"विनीत, मैं भी जिन्दगी की एक बाजी हार चुकी हूं....।"
“मतलब?
“पापा ने कल एक लड़के से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया....। मैं कुछ भी न कर सकी। तुम्हें न पा सकी विनीत। जो रूप मैं चाहती थी, समाज ने उस रूप को मुझसे छीन लिया है। मैं तुम्हारे जीवन का कोई अभाव पूरा न कर सकी। मैं आज भी एक रिश्ता जोड़ना चाहती हूं....जिसके लिये तुम जीवन भर भटकते रहे हो....!" कहकर अर्चना उठी और आलमारी में रखी एक राखी उठा लायी।
विनीत अब भी पत्थर बना बैठा था। अर्चना ने उसकी कलाई में राखी बांध दी। फिर बोली-“एस.पी.अंकल सुवह ही यहां आये थे। उन्होंने मुझसे सब कुछ बता दिया है....."
"ओह....!" विनीत कुछ सोचने लगा।
क्यों, भाई बनना अच्छा नहीं लगा क्या?"
"नहीं वहन।" विनीत की आंखें भर आई-"सोच रहा था कि जीवन का सब कुछ दांव पर लगने के बाद....एक वहन तो मिली है....।"
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समाप्त
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