RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'मैं नहीं जाता—देखू कब तक द्वार नहीं खुलता।' चक्रवाल द्वार पर जमकर बैठ जाता, परन्तु कान भीतर की ओर लगे रहते।
भीतर से वीणा-विनिन्दित स्वर में एक मधुर रागिनी निकल पड़ती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल चुप रहता। भीतर से पुन: वही ध्वनि यावत् प्रकृति को विकल करती हुई प्रतिध्वनित हो उठती—'तुम आग लगाने क्यों आये?'
चक्रवाल का गायक हृदय स्थिर न रह पाता। वह झूम-झूमकर गाने लगता 'मधुर स्मृति आलिंगन-देवता मधुर पीड़ित चुम्बन ! कण-कण में तड़पन और जलन... अंदर से रागिनी निकलती मेरे उर की सूखी बगिया में, तुम आग लगाने क्यों आये? तुम आग जलाने क्यों आये?' गायन समाप्त हो जाता और प्रकोष्ठ के द्वार खुल जाते। चक्रवाल उठकर मन्थर गति से प्रकोष्ठ के भीतर प्रवेश करता। उसकी गंभीरतापूर्ण मुखाकृति पर तनिक भी हास्य की रेखा प्रस्फुटित न होती।
वह शून्य दृष्टि से किन्नरी की और निहारकर पुकारता—'किन्नरी...!'
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...............' निहारिका अपलक नयनों द्वारा चक्रवाल की सिद्धहस्त अंगुलियों का निरीक्षण करती रहती।
ये अंगुलियां, जो वीणा के चमचमाते तारों पर अविराम गति से दौड़ती हुई प्रकृति के कोलाहलपूर्ण वातावरण को शांत कर देने की क्षमता रखती थीं।
'एक बात पूछ् ?' चक्रवाल ने प्रश्न किया।
'पूछो न...?' कहते-कहते किन्नरी की दंत-पंक्तियां सघन घन में विद्युत छटा-सी आलोकित हो उठती।
'आज उपासना समाप्त हो जाने पर जब श्रीयुवराज के शुभ ललाट पर कुंकुम लगाने के लिए उद्यत हुई थी तो मैंने ध्यानपूर्वक देखा था कि उनके सामने तुम्हारे हाथ कांप उठे थे। तुमने अपने नेत्रों की सारी सुषमा श्रीयुवराज के मुखमंडल पर केंद्रित कर दी थी। तुम्हारे उज्ज्वल मुख पर लज्जाजनित सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठा था। जब तुमने थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर श्रीयुवराज के मस्तक पर लगाया था, उस समय तुम्हारे कम्पित करों ने अपना कार्य सुन्दरतापूर्वक पूर्ण नहीं किया था। फलत: कुंकुम का थोड़ा-सा भाग युवराज की नासिका पर गिर गया था। श्रीयुवराज के अधरद्वय, मधुर मुस्कान की प्रभा से परिपूर्ण हो उठे थे—तुम्हारी असावधानी देखकर ! जीवन में आज प्रथम बार श्रीयुवराज तुम्हारी ओर देखकर मुस्कराये थे...यों तो तुम नित्यप्रति ही महामाया के मंदिर में श्रीयुवराज एवं श्रीसम्राट के समक्ष नृत्य करती हो, उपासना समाप्त हो जाने पर प्रतिदिन तुम अपने करों द्वारा श्रीयुवराज के देदीप्यमान मस्तक पर कुंकुम की रेखा खींचती हो, परन्तु आज तक श्रीयुवराज ने तुमसे तनिक भी सम्भाषण नहीं किया था...।'
'कैसे सम्भाषण कर सकते हैं, श्रीयुवराज...?' किन्नरी निहारिका ने हृदय की आंतरिक पीड़ा को एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर बहिर्गत किया और बोली-'वे हैं एक परमोज्ज्चल कूल के अनमोल रत्न और मैं हूँ एक अधम किन्नरी। मेरे और उनके मध्य कहां गगनमण्डल का एक महान् अंतर है, चक्रवाल...। कहां निर्मल धवल चन्द्र और कहां एक तारिका।'
'एक बात तो है! लोकलज्जा एवं बाह्याडम्बर के वशीभूत होकर वे चाहे तुमसे संभाषण न कर सकते हों, मगर उनके हृदय में तुम्हारे प्रति एवं तुम्हारी कला के प्रति अपार आदर एवं प्रेम है। मुझसे बहुत बार वे तुम्हारी नर्तन-कला की प्रशंसा कर चुके हैं। आज भी तुम्हारे विषय में मुझसे बहुत-सी बातें कर रहे थे...।'
'सच?'
'और नहीं तो क्या?'
'आजकल श्रीयुवराज मंदिर में नहीं पधार रहे हैं?'
'कई दिन पूर्व वे आखेट को गये थे, वहीं आहत हो गये थे। आशा है कल वे राममंदिर में पधारेंगे। सच पूछो तो युवरज के बिना पूजनोत्सव सूना-सा लगता है। मुझसे गाया नहीं जाता और तुम्हारी तो सम्पूर्ण कला ही फीकी हो जाती है, श्रीयुवराज को अनुपस्थित देखकर। बड़े सहृदय हैं, श्रीयुवराज....।'
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