RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'किसकी सेना है वह?'
'सुना है कि मध्य अशांत महाद्वीप (एशिया) से आर्य सम्राट तिरमांशु अपनी सेना लेकर देश विजय करने निकले है। वही हो सकते हैं।
'इस प्रकार अनायास आक्रमण करने का तात्पर्य?'
'यह तो वही जानें, परन्तु गुप्त-रीति से पता लगाने पर ज्ञात हुआ है कि आर्य जाति के रहने के लिए मध्य अशांत महाद्वीप में स्थान की कमी है। अब वे देश-विदेश में अपना विस्तार चाहते हैं।
'वह किस प्रकार?'
'देश विजय करके वे उन देशों में अपनी जाति को बसायेंगे एवं अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार करेंगे, यही उनकी आकांक्षा है।'
"परन्तु यह तो न्यायसंगत आक्रमण नहीं है।'
'बिना बल प्रयोग के किसी नये धर्म एवं नई संस्कृति का का प्रसार नहीं होता, नायक महोदय !' दुर्मुख ने कहा—'यह समाचार इतना महत्त्वपूर्ण था कि इसे आपके पास अति शीघ्र पहचाना आवश्यक था। अब आप ही निर्णय करें कि इस विकट परिस्थिति में हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये?'
'हमारा कर्तव्य...?' पर्णिक दुर्दमनीय विचारों में निमग्न हो गया। उपस्थित किरात-समुदाय में धीरे-धीरे कानाफूसी होने लगी।
'यह समाचार शीघ्र ही द्रविड़राज के पास पहुंचाया जाना चाहिए...।' एक ने नम्र निवेदन किया।
'राजनगर पुष्पपुर यहां से सोलह योजन दूर है—यदि तुरंत ही किसी को न भेजा गया तो अनर्थ की संभावना है।"
'जब तक पुष्पपुर समाचार भेजा जायेगा, तब तक तो उनकी सेना खटवांग की घाटी पार कर हमारे प्रांत में पहुंच जायेगी और हमारा निवास स्थान नष्ट-भ्रष्ट कर देगी।' एक दूसरे ने कहा।
'क्या खट्वांग जैसी दुरूह घाटी वे इतनी शीघ्रता से पार कर लेंगे...?' पहले ने पूछा।
"पुष्पपुर समाचार भेजने की कोई आवश्यकता नहीं...।
' तीसरे ने कहा-'द्रविड़राज को अपने गुप्तचरों द्वारा अब तक यह समाचार मिल गया होगा, अथवा शीघ्र ही मिल जायेगा। समाचार मिलते ही द्रविड़राज स्वदेश-रक्षा का कोई उपाय करेंगे तो, तब तक...।'
"तब तक...।' पर्णिक उच्च-स्वर में बोला—'हमें ही स्वदेश रक्षा का भार ग्रहण करना होगा। भाइयों ! इस विषय पर अच्छी तरह विचार करने के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं । कि ऐसी परिस्थिति में स्वदेश-रक्षा का पूर्ण दायित्व हम पर है। यदि हम अपने समुदाय की पूरी शक्ति का प्रयोग करे तो आर्य सम्राट की सेना को हम पर्याप्त समय तक रोक सकते हैं।'
'ठीक है...।' कई किरात एक साथ बोल उठे।
'तो प्रस्तुत हो जाओ अपना रक्तदान करने के लिए। आज समरांगनण रक्तपिपासु दृष्टि से हमारी ओर देख रहा है। बलि होना है तो स्वदेश पर बलि हो। मरना है तो अपनी आन पर मर मिटो. चलो। हमारे समुदाय में जितने नवयुवक हैं, सभी शस्त्र सज्जित हो जायें। कल प्रात:काल हम लोग प्रस्थान करेंगे...।
पर्णिक की बीरतापूर्ण ललकार ने किरात-युवकों में नव चेतना प्रवाहित कर दी।
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"ऐसा न कहो माताजी।' पर्णिक ने अपनी माता के चरण पकड़ लिये—'मेरे हृदय में स्वदेश रक्षा की भावना प्रबल हो उठी है। इतने दिनों तक मेरी नस-नस में वीरता का संचार कर, तुम अब चाहती हो कि मैं कायर बनकर देशद्रोहिता का कलंक अपने भाल पर लगा लूं। मेरे हृदय में उठी उमंग पर पानी के छींटे मारकर ठंडा न करो मा। एक वीरमाता के समान मुझे युद्ध क्षेत्र में जाने की अनुमति दो...दोन माताजी...।' __
'वत्स! कैसे आज्ञा दं तुम्हें? आज तक जिसे एक क्षण के लिए भी नेत्रों की ओट न किया, उसे कैसे समरभूमि में जाने को को सकती हूं। पर्णिक! मत जाओ। मत जाओ वत्स। युद्धभूमि की भीषणता सहन करना परिहास नहीं।'
'माताजी! आज जब परीक्षा का समय आया है तो दुरूह यातनाओं का स्मरण दिलाकर मुझे पथविमुख करना चाहती हो? जिसे आज तक तुमने वीरतापूर्ण गाथायें सुनाकर मरने-मारने का उपदेश दिया उसे आज तुम कायरता के साथ जीने का उपदेश दे रही हो, माताजी! आज क्या हो गया है तुम्हें...? मुझे जाने की आज्ञा दो, मैंने समस्त समुदाय को प्रात:काल प्रस्तुत रहने की आज्ञा दे दी है।'
'तो जाओ पार्णिक, मुझे अधिक दुख न दो।'
पर्णिक पर वज्र गिर पड़ा—'ओह! क्या उसकी बातें तथ्यहीन हैं? यदि नहीं तो माता दुखी क्यों हो गई?'
पर्णिक को महान ग्लानि हुई। वह चिंताग्रस्त हो झोंपड़ी के एक कोने में जाकर पड़ रहा।
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"ऐसी आज्ञा क्यों दे रहे हो नायक...?' उस वृद्ध किरात ने कहा-'आज देश पर विपत्ति के बादल गहरा रहे हैं, एक विदेशी हमें पददालित करना चाहता है, यह देखते हुए भी तुम मौन होकर बैठ जाना चाहते हो?'
'क्या करूं? माताजी की आज्ञा...।' पर्णिक का मस्तक लज्जा से झुक गया।
'कहां गया वह तुम्हारा सारा गर्व...?' भूतपूर्व नायक के पुत्र का तीव्र स्वर गर्जन कर उठा —'कहां गया वह तुम्हारा पराक्रम? कहां गई वह तुम्हारी अनोखी डींग? मेरी माताजी देवी हैं, पूजनीय है? अपनी माता को वीर प्रसविनी कहते थे...? उसी के गुणगान में अहर्निश तल्लीन रहते थे? धिक्कार है ऐसी कायर माता की संतान पर।'
'चुप रहो...! चुप रहो नहीं तो...।'
'हां-हां बंद कर दो मेरा मुख, काट दो मेरी जीभ। तुम्हारे पास शक्ति है। पराक्रम है न। निर्बलों पर ही अपनी शक्ति का प्रयोग करना तुम्हारी माता ने सिखाया है। क्या असहायों पर ही शस्त्र का बल प्रयोग करना तुमने वीरता समझ रखी है? धिक्कार है तुम्हारी माता के इस आचरण पर और तुम्हारे जैसे कायर एवं अंध मातृ-भक्त पर।'
"...........' पर्णिक ने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर लिए।
'तुम्हारी माता ने तुम्हें योग्य बनाया, तुम्हारी माता ने तुम्हें शस्त्र संचालन सिखाया, तुम्हारी माता ने तुम्हें अतुलित शक्ति प्रदान की...परन्तु आज वहीं तुम्हारी माता देश पर विपत्ति के समय भीरुता का पथ ग्रहण कर रही हैं आज वहीं तुम्हें पथ विमुख कर रही हैं, ऐसे समय जबकि तुम समरांगण में अपनी बलि देकर सदैव के लिए अपवनी और अपनी माता की कीर्ति कौमुदी उज्जवल कर सकते हो...। तुम वीर हो, बलशाली हो, निर्बलों एवं असहायों पर अपने प्रज्ज्वलित नेत्रों से क्रोध की वर्षा कर सकते हो—अपनी माता की आज्ञा के विरुद्ध एक भी कार्य नहीं कर सकते हो तुममें इतनी बुद्धि, इतनी शक्ति नहीं कि देश की संकटापन्न स्थिति में तुम अपनी माता की अवहेलना कर सको...तुम नपुंसक हो, कायर हो, भीरू हो...।'
नायक-पुत्र की व्यंग्यपूर्ण बातों से घबराकर पर्णिक अपनी माता के पास भागा। 'मुझे आज्ञा दो माताजी!' पर्णिक के नेत्रों में अश्रुबिन्दु झलक आये थे। वह मातृ-भक्त वास्तव में बिना अपनी माता की आज्ञा पाय कुछ भी कर सकने में असमर्थ था—'देखो माताजी! तनिक दृष्टि उठाकर आज किरात समुदाय की ओर देखो। सभी तुम पर वाक् वाणों की वर्षा कर रहे हैं।'
'करने दो वत्स ! दुख में ही तो हमारा जीवन प्रस्फुटित हुआ है।'
'परन्तु तनिक अपने कर्तव्य पर ध्यान दो माताजी! वीर प्रसविनी होकर अपने पुत्र को भीरूता की गोद में समर्पित कर देना अन्याय होगा। तुम विचार भी नहीं कर सकीं कि इस समय मेरे हृदय में तुम्हारी भीरूता ने कितना दारुण शोर मचा रखा है। मैं जल रहा है कि मेरी माता का वीर हृदय नहीं, वरन् एक अनाथिनी का कायर हृदय बोल रहा है। मैंने ऐसा नहीं समझा था।'
'वत्स...!'
'मुझे आज्ञा दो माता जी।' पर्णिक ने माता के समक्ष घुटने टेक दिये।
विवश होकर माता ने प्रेमपूर्वक उसके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। तत्पश्चात् आंचल में से वही रत्नहार निकालकर उसके गले में डाल दिया—'जाओ वत्स...! यह अपनी अमूल्य निधि, यह पवित्र रत्नहार मैं तुम्हें प्रदान करती हूं। यह कल्याणकारी है। इसे बहुत ही यत्नपूर्वक रखना। एक क्षण के लिए भी इसे अपने से विलग न करना, नहीं तो अनिष्ट होगा।'
पर्णिक ने माता की चरण-धूलि मस्तक से लगाई।
पुन: गर्दन में पड़े हुए उस अमूल्य रत्नहार को मन-ही-मन प्रणाम किया और उत्साह से भरकर शीघ्रतापूर्वक उस ओर चल पड़ा, जिधर दस सहस शस्त्रधारी किरात-युवक खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
पर्णिक को देखकर सबने जयघोष किया। शीघ्र ही वह किरात सेना, तीव्रगति से खट्वांग घाटी की ओर अग्रसर हुई।
पर्णिक की माता झोंपड़े के द्वार पर उन वीरों का पद-संचालन तब तक देखती रही, जब तक कि सघन वनस्थली ने उन मदमस्त युवकों को अपने अंचल में छिपा नहीं लिया।
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