10-05-2020, 12:36 PM,
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desiaks
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RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'किन्नरी!' युवराज के मुख से अस्फुट स्वर निकले।
'देव!' किन्नरी हाहाकार करती हुई युवराज के रक्तरंजित शरीर पर पछाड़ खाकर गिर पीड़ी।
'किन्नरी! कलामयी!'
'देव...!' यह क्या हो गया, देव। तुमने मुझसे ऐसा छल क्यों किया...?' किन्नरी ने अपनी हथेलियों से युवराज का मुख पकड़ लिया—'बोलो देव! मुझे असहाय बनाकर तुम्हें क्या मिला? मुझे विनष्ट कर देने में तुम कौन-सी निधि पा गये—मुझसे नाता तोड़कर तुमने कौन सा संसार बसा लिया...?' किन्नरी के आरक्त कपोल अश्रु धारा से भीग गये थे।
चक्रवाल एक वृक्ष के नीचे अश्रुपूर्ण नेत्रों से खड़ा था। 'तुम मुझे छोड़कर जा रहे हो, सदैव के लिए जा रहे हो...कहां जा रहे हो, देव...न जाओ। मेरा संसार नष्ट कर, तुम अपना दूसरा संसार बसाने न जाओ।'
'जाना ही होगा किन्नरी...।' युवराज अत्यंत शिथिल वाणी में बोले—'यमदूत मेरा आह्वान कर रहे हैं...मैं प्रसन्न हूं-अत्यंत प्रसन्न हूं, शोक केवल इस बात का है कि नन्दन कानन में समग्र ऐश्वर्य की प्राप्ति करके भी, तुम्हारी मधुर मूर्ति का दर्शन न कर सकुंगा-जहां चन्द्र एवं तारागणों की कला अवलोकन करने को मिलेगी-वहां तुम्हारी मुग्धकारी कला न मिल सकेगी देखने को....।'
'तुम जो रहे हो स्वर्गीय अप्सराओं की कला का रसास्वादन करने, तुम भूल जाओगे इस भू किन्नरी की कला को? जाओ। मेरा संसार विनष्ट कर देने से, यदि तुम्हारा संसार हरा-भरा हो सके तो जाओ। मेरे हृदय में अनिर्वचनीय आनंद की सृष्टि कर, अब सदैव के लिए चले जा रहे हो, मधुर प्रेम का नाता तुड़ाकर...।'
'तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता।
चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं।' चक्रवाल गाने में तन्मय था।
ऐसा न कहो न कहो, कलामयी! मेरा रोम-रोम तुम्हारी सर्वतोमुखी कला द्वारा परिपूर्ण है। मैं ही जानता हूं कि तुम्हें सदैव के लिए त्याग देने में मुझे कितनी वेदना हो रही है, मैं कितना व्यथित हूं।'
युवराज के मुख से रक्त की धार बह चली, परन्तु वे शिथिल एवं अस्फुट-स्वर में कहते ही गये—'तुम्हारी कला! ओह...उसका स्मरण न दिलाओ, कलामयी। तुम्हारी कला पर यदि सब-कुछ निछावर कर दूं तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकती। जब तुम अपनी समग्र प्रभा का एकत्रीकरण कर, अपनी सम्पूर्ण कला का संचरण कर, महामाया के समक्ष नृत्य करती थीं तो मुझे ऐसा लगता था मानो तुम्हारे अवयव के संचालन के साथ जगत के यावत कार्य संचालित हो रहे हैं, मानो तुम्हारे नृत्य के साथ-साथ प्रकृति नटी का समस्त सौंदर्य नर्तन करने में तल्लीन है। मैं तुम्हारा यह अपूर्व नर्तन अवलोकन करते-करते मुग्ध हो जाता था, आत्मविस्मृत-सा हो उठता था, उस समय तुम कलामयी ! सुंदर प्रतिमा-सी प्रतीत होती थी। देवी-सा प्रोज्जवल मुख हो जाता था तुम्हारा। मानो स्वयं जगत् रचयित्री देवी महामाया अपने अपूर्व नर्तन से अपनी शक्ति की प्रभा बिखेर रह हो। उस समय मैं स्वयं मातेश्वरी महामाया का प्रतिरूप मानकर, तुम्हें भक्तिपूर्वक सादर प्रणाम करता था। तुम्हारा सौंदर्य मातेश्वरी महामाया-सा देदीप्यमान है, कलामयी? जहाँ उपासना की सद्भावना विराजमान है, वहां कलुषता की कालिमा का आभास कहां ...।'
युवराज की वाणी अवरुद्ध होनी लगी। उनके मुख पर आसन्न मृत्यु के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने लगे। फिर भी उनके मुख से अत्यंत क्षीण स्वर निकला—'अब विदा दो कलामयी...।'
उनके नेत्रों से अश्रुकण प्रवाहित हो चले। निहारिका उनके मुख की ओर अपलक नयनों से निहारती रही। निहारो नयीं प्रयेसी राह पर अब, सदा के लिए मैं चला जा रहा हूं। तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता, चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं। एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ चक्रवाल सिक्त स्वर में गा रहा था। किन्नरी ने अपने आंचल द्वारा युवराज के अथकण पोंछ पुन: आंचल के छोर से थोड़ा-सा कुंकुम निकालकर युवराज के ललाट पर लगा दिया।
युवराज का शरीर तीव्र वेग से कम्पित हो उठा। वायु गर्जन करता हुआ प्रवाहित होने लगा। वृक्षों पर बैठे हुए पक्षीगण आर्तनाद करते हुए दूर उड़ चले। किन्नरी निहारिका युवराज के निर्जीव शरीर पर चेतनाहीन होकर गिर पड़ी। शीघ्र ही चंदन की चिता तैयार की गई। उस पर युवराज का निर्जीव शरीर रख दिया गया। रुदन करते हुए पर्णिक ने अपने देवतुल्य भ्राता की चिता में अग्नि दी। अश्नुपूर्ण नेत्रों से महापुजारी पौत्तालिक ने महामाया का प्रार्थना की एवं शांति पाठ पड़ा। वायु का वेग पाकर चिता की प्रखर ज्वाला धू-धू कर प्रज्जवलित हो उठी।
और उसी के साथ-साथ प्रज्जवलित हो उठा निहारिका का सन्तप्त हृदय। उसने अपने कंठ प्रदेश से वह रत्नमाला एवं अनामिका से मुद्रिका निकाली, जिसे स्वयं युवराज नारिकेल ने उसे प्रदान किया था।
एक क्षण तक वह कुछ विचार करती रही, तत्पश्चात हाथ बढ़ाकर उसने वे दोनों वस्तुएं उस प्रज्जवलित चिता की गोद में फेंक दी।
चक्रवाल देख रहा था। वह दौड़कर उसके पास आया—'यह क्या किया तुमने।' वह बोला—'उनके अनुपम उपहारों को अपने से विलग क्यों कर दिया तुमने, निहारिका।'
'जाने दो...जाने दो चक्रवाल...।' निहारिका रो पड़ी—'इन वस्तुओं को उनके साथ ही जाने दो। मेरे पास रहकर ये सदा मुझे सन्तप्त करती रहनीं।'
चक्रवाल कुछ न बोला। उसके भी नेत्र अश्नुपूर्ण थे।
'चलो चक्रवाल... ! यहां से कहीं दूर निकल चलो...?' मैं यहां नहीं रह सकती—रहूं भी तो किसके लिए।'
'चलोगी...?' चक्रवाल ने शून्य दृष्टि से किन्नरी के मुख की ओर देखा—'व्योम की ओर चलोगी निहारिका।
'चलूंगी। जहां कहीं भी ले चलो।' निहारिका ने कहा।
चक्रवाल रथ की ओर बढ़ा।
निहारिका ने उसका अनुसरण किया। दोनों आकर रथ पर आकर बैठ गये। रथ तीव्र गति से भयानक बनस्थली का वक्ष भेदन करता हुआ भाग चला। चक्रवाल की मधुर स्वर-लहरी रुदन स्वर में परिवर्तित होकर अलाप उठी तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता। चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं। उस समय भगवान अंशुमाली ने अस्तांचल के कोड में अपना प्रोज्जवल मुख छिपा लिया था। वृक्षों के हरित पल्लव वेदनापूर्ण गति से हिल रहे थे। प्रतीच्याकाश पर रक्तरंजित लालिमा अभी तक विद्यमान थी मानो प्रकृति किन्नरी के कलापूर्ण करों ने शुभ्र नभमण्डल के देदीप्यमान ललाट पर कुंकुम की एक अरुणिम रेखा खींच दी हो।
*** समाप्त ***
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