RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
लिली उसके साथ समझाने की कोशिश करती रही। कभी उसे परिवार के लोगों ने सुना, कभी बेइज़्ज़त किया। कभी उसे ख़ुद पर कोफ़्त होती रही कि इस पचड़े में पड़ी ही क्यों, कभी लगता असीमा की जगह वो होती तो क्या करती।
इस तूफ़ान के बाद दोनों साथ ही लौटे थे। असीमा ज़्यादा दिनों तक घर पर नहीं रुकना चाहती थी।
दोनों की ज़िंदगी फिर वीकेंड के इंतज़ार में कटने लगी। लेकिन लिली ने कई रातों को नमाज़ के बहाने उठी असीमा की सिसकियाँ सुनी थी। उसे क़ुरान की आयतों में सुकून ढूँढ़ने की कोशिश करते देखा था।
लेकिन कमरे में किसी और को असीमा की हालत का ज़रा-भी इल्म ना था। चारों फेम ऐडलैब्स जातीं, लंच और डिनर के लिए मिलतीं। यहाँ तक कि साथ मिलकर मुंबई-दर्शन के लिए भी निकलतीं।
लिली के मंगेतर के मुंबई लौट आने के बाद ये सिलसिला कम हो गया। मार्च में लिली को घर जाना था, अपनी शादी के लिए। असीमा ने भी दुबई जाने का फ़ैसला कर लिया था और नौकरी के लिए अर्ज़ियाँ भी डालने लगी थी। फिर भी लिली अक्सर उसे एसएमएस में कोई-न-कोई शेर भेज दिया करती और साथ में लिख देती- रूममेट होने का फ़र्ज़ अदा कर रही हूँ।
“इट हैज़ टू बी दुबई इफ़ आई एम एन आर्किटेक्ट।” असीमा ने एक दिन दुबई के पक्ष में दलील दी और अपने लैपटॉप पर बुर्ज ख़लीफ़ा और पाम जुमैरा के कंस्ट्रक्शन की तस्वीरें और उनके थ्री-डी प्रेज़ेन्जेशन दिखाए, जिन्हें आर्किटेक्चर की दुनिया का अजूबा माना जाता है।
उस रात सोने से पहले लिली आदतन असीमा के पास गई, अपने बालों में तेल लगवाने के लिए। विशाखा और नफ़ीज़ा नहीं लौटे थे।
बालों में तेल लगाते हुए असीमा शादी की तैयारियों के बारे में पूछती रही। लिली हाँ-हूँ में ही जवाब देती रही।
बालों से निकलकर असीमा की उँगलियाँ लिली के कंधों को दबाने लगी थीं। लिली की आँखें अपने-आप बंद होने लगीं। पतली-सी नाइटी के भीतर से असीमा की उँगलियाँ अब लिली की गर्दन पर उभर आए उन नीले निशानों को सहला रही थीं जो उसने कल से कॉलर-वाली शर्ट पहनकर छुपा रखा था।
जब उँगलियों ने सवाल पूछने बंद कर दिए तब असीमा ने पूछा लिली से, “जिस मंगेतर से तुम अपनी रूममेट को नहीं मिलवा पाई, जिससे न मिलने के तुम सौ बहाने ढूँढ़ती हो और जिससे मिलकर आने के बाद तुम दो दिनों तक बीमार दिखती हो, उसी मंगेतर के प्यार की निशानी हैं ये ज़ख़्म?”
लिली हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। “नहीं, नहीं। वो तो बस ऐसे ही। शेखर को ग़ुस्सा ज़रा जल्दी आ जाता है।”
उसके पास इतना-सा ही जवाब था। ठीक ही कहता है शेखर, लिली को तो ठीक से झूठ बोलना भी नहीं आता।
“और ग़ुस्से का ये अंजाम होता है कि तुम चोट के दाग़ छुपाए फिरती हो? इतनी तकलीफ़ सह कैसे लेती हो लिली? दो ज़िंदगियाँ कैसे जीती हो?”
“शरीर के ज़ख़्मों को मन पर नहीं आने देती, इसलिए।”
“लेकिन कब तक? मैं रिश्तों की कोई एक्सपर्ट नहीं। बल्कि रिश्तों पर सलाह देने का मुझे कोई हक़ तो होना ही नहीं चाहिए। लेकिन जान-बूझकर ख़ुद को कुँए में मत ढकेलो लिली।”
लिली चुप रही। फिर धीरे-से कहा, “शादी के दो महीने पहले मैं कुछ नहीं कर सकती। मुझमें हिम्मत नहीं।”
“और सपनों को टूटने देखने की हिम्मत है, छुप-छुपकर पिटने की हिम्मत है? जो रात-रात भर बैठकर स्कि्रप्ट लिखती हो उनको समंदर में बहा आने की हिम्मत है? दस साल की उम्र से फ़िल्में बनाने का जो सपना देखा, उसे चूर-चूर करने की हिम्मत है?”
अगली सुबह लिली ने पटना फ़ोन किया, शादी तोड़ने की घोषणा करने के लिए।
अगला एक हफ़्ता बहुत भारी था। माँ-पापा और बाद में तमाम चाचाओं-मामाओं के सामने फ़ोन पर अपनी दलीलें रखते-रखते लिली थक गई थी। शेखर नाराज़ होकर सीधा उसके सामाजिक चरित्र-हनन पर उतर आया। टीवी की जिन पार्टियों में वो शेखर को अपना मंगेतर बनाकर ले गई थी, उससे कुछ न छुपाने के मक़सद से उसने जो राज़ शेखर से साझा किए थे, वे सभी आज उसी के ख़िलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे।
रिश्ता टूटने के बाद शेखर जैसे लिली से पेश आया, उसे देखकर लिली ने चैन की साँस ली। कम-से-कम शेखर का असली रूप तो सामने आ गया था!
एक शाम असीमा ने लिली को एसएमएस भेजा था, “हम जिस जन्नत की तलाश में हैं वो है कहीं!”
फिर एक दिन असीमा दुबई चली गई और लिली ने कुछ सालों के लिए मुंबई छोड़ दिल्ली को वापस अपना घर बना लिया। असीमा दुबई में इमारतें बनवाती रही, लिली दिल्ली में डॉक्यूमेंट्रीज़ बनाने में लग गई।
दोनों में बातचीत होती रही, लेकिन उतनी ही जितनी एक इंटरनेशनल कॉल पर मुमकिन हो सकती है। अकबर से मिलने और निक़ाह के बाद असीमा पहले अपना बिज़नेस बढ़ाने में मसरूफ़ हो गई और फिर अलीज़ा के आने के बाद तो दुनिया घर और दफ़्तर के बीच ही सिमटकर रह गई। लेकिन कुछ रिश्ते दूरियों से इतर हमारे भीतर उसी गर्माहट के साथ ज़िंदगी भर क़ायम रहते हैं, जिस गर्मजोशी के साथ उनकी शुरुआत होती है।
पिछले तीन घंटों में असीमा अपनी ज़िंदगी का रुख़ बदल डालनेवाले उन सात महीनों को एक बार फिर इन तस्वीरों के ज़रिए जी लिया था। उन सात महीनों की हमसफ़र अपनी सबसे अज़ीज़ रूममेट को उसने एक के बाद एक कई ई-मेल भेजे थे- उन पुरानी तस्वीरों और स्कि्रप्ट के साथ और मोबाइल पर भेजा था एक मैसेज, स्माइली के साथ- “हो गई ग़ालिब बलाएँ सब तमाम… आज एक बार फिर तुम्हारी रूममेट होने का फ़र्ज़ अदा कर रही हूँ।”
बिसेसर बो की प्रेमिका
पूरा गाँव मोतीचूर की खुशबू से गम-गम गमक रहा है। बाबू साब के यहाँ उनके छोटका सुपुतर का बियाह है और आँगन में आखिरी शादी का जशन पूरा टोला मना रहा है। टोला तो टोला, गाँव-जवार के लोग भी इसी एक ठो बियाह में उलझे हुए हैं।
बिसेसर बो को भी एक रत्ती फुर्सत नहीं है। पूरा-पूरा दिन मलकाइन के आगे-पीछे डोलती रहती है। जब देखो तब मलकाइन भी याद दिलाती रहती हैं उसको, “कान खोल के सुन लो बिसेसर बो। जो बियाह का सब काम ठीक से निपट जाएगा तऽ तुम्हरा दू ठो लुगा-धोती पक्का। एक जोड़ा बिछिया भी देंगे आउर चूड़ी-सिंदूर-टिकुली भी। कहीं जो गड़बड़ हुआ…”
“हाय हाय मलिकाइन! अईसा अपसगुन बात सब सुभ-सुभ मौका पर बोलते हैं का?” बिसेसर बो घी और बूँदी वाले हाथ से इतना कहकर अपना माथा ठोक के लड्डू पारने में या मिट्टी वाले हाथ से आँगन लीपने में या गेहूँ फटकने में और अधिक तन्मयता से लग जाती है। बात लुगा-धोती या रुपया-कौड़ी के लालच की नहीं है। बात पीढ़ियों के उस नाम की है जो बिससेरा बो के ससुराल वालों ने बबुआन लोगों की निश्छल सेवा करके इतने सालों में कमाया है।
पर्दे के पीछे से मलकाइन की बड़की पतोहू आवाज देती है तो आँगन छोड़ मिट्टी वाले हाथ लिए बिसेसर बो उधर भी दौड़कर हो आती है।
“आँगन लीप के आओ, फिर काम बताते हैं।” बड़की कनिया अपनी एड़ियों पर टह-टह लाल रंग लगाते हुए कह देती हैं। जो काम बड़की कनिया को कराने होते हैं, उनमें से अधिकांश काम बिसेसर बो के मिट्टी सने हाथों से नहीं हो सकते। अब मिट्टी सने हाथों से बड़की कनिया की उजली पीठ पर मुल्तानी मिट्टी और चंदन का उबटन तो नहीं लग सकता न…
ये जो बड़की कनिया हैं न, उनका बिसेसर बो पर विशेष स्नेह है। बियाह के दो बरस में बड़की कनिया ने अपने आगे-पीछे एक बिसेसर बो को छोड़कर किसी और को इतना घूमते-सेवा करते नहीं देखा। बड़की कनिया को अँगना में उतारने के सारे नेगचार के काम भी तो बिसेसर बो ही कूद-कूदकर करती रही थी।
इस वाले बियाह में भी उसी ने मोर्चा संभाला हुआ है। दउरा रंगवाने से कुदाल जुटाने तक, साड़ियों में फॉल लगाने से लेकर दाल भर के पूड़ी बेलने तक, जिम्मेदारियों वाले ऐसे सारे काम मलकाइन सिर्फ और सिर्फ बिसेसर बो को ही सौंपती हैं।
लेकिन दो साल बाद भी बिसेसर बो को बड़की पतोहू की खासम-खास टहलनी बनने की अनुमति बड़की मलकाइन नहीं दे पाई हैं। सास-बहू के बीच की ये दुखती रग है। दोनों बिसेसर बो पर अपना एकछत्र अधिकार चाहती हैं।
सास को घर-गृहस्थी के सारे काम कराने होते हैं। लाई, कसार बँधवाने से लेकर संक्रांत पर पूजा-पाठ के काम-इंतजाम तक, अँगना झाड़ने-बुहारने से लेकर शिवजी पर चढ़ाने के लिए कनैल फूल तोड़कर लाने तक। और बहू को अकेलेपन की एक सहेली चाहिए। ऐसी सहेली जो कभी उसके बालों में तेल लगा दे। कभी हाथों में लगाने के लिए मेहँदी के पत्ते सिल-बट्टे पर पीसकर ले आए और कभी दुआर पर चुपके से झाँक आए कि बड़की कनिया के मियाँजी वहाँ कौन-सी महफिल जमाए बैठे हैं। दिन-दिनभर कोर्ट-कचहरी, खेत-खलिहान, जमीन-जायदाद, पंच-सरपंच के चक्कर में गायब रहने वाले पति की गैर-मौजूदगी में दो बोल बतियाने वाली, बड़की कनिया के शिकवे-शिकायतों को झेलनेवाली एक घरेलू साथिन बनने का माद्दा अगर कोई रखता है, तो वो है बिसेसर बो।
लेकिन सास बड़ी हैं, सास के काम बड़े हैं। गृहस्थी पर दबदबा भी उन्हीं का चलता है। जाहिर है, घर-आँगन के साथ-साथ बिसेसर बो पर भी उन्हीं की चलती। फिर भी बदलते मौसम के बीच छोटी-बड़ी होती दुपहरी में मलकाइन की छोटी-सी परछाईं बनी घूमती बिसेसर बो दिन के ढलते-ढलते दो-एक बार बड़की कनिया की कोठरी में जरूर झाँक आती है।
ये जो बिसेसर बो है न, मलकाइन की गोड़िन ही नहीं है, उनके सारे मर्जों का इलाज भी है। जितना अच्छा भूँजा भूँजकर लाती है अपने गोड़सार से, उतना ही अच्छा कसार पारती है और उससे भी अच्छा आँगन लीपती है। खटकर काम करती है, चाहे बाड़ी में लगा दो चाहे चौके में। खुरपी थमा दो तो मिट्टी कोड़ आती है, वो भी गा-गाकर- “बलमुआ भईले दरोगा, हम हो गइनी दरोगाइन / सलामी बजईह, घरे मत अईह, हम भ गईनी दरोगाइन…”
एक हजार काम बिन मोल के निपटा देने वाली गोड़िन को कौन छोड़ देता कि बड़की मलकाइन छोड़ दें! एक वफादार चाकर अपनी बहू के नाम करना अपनी तिजोरी की चाभी सौंप देने के बराबर है। इसलिए बिसेसर बो पर खींचातानी चलती रहती है और दो साल में उसने भी बीच का रास्ता निकालते हुए दोनों पार्टियों को खुश रखने का तरीका सीख लिया है। एक आज है तो दूसरी उसका भविष्य है। बिससेर बो चाहकर भी दोनों में से किसी को नाराज कर ही नहीं सकती।
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