Antervasna नीला स्कार्फ़
10-05-2020, 12:42 PM,
#6
RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
सबकी अपनी-अपनी तकलीफें, सबके अपने-अपने दर्द। ये दर्द डोमकच छोड़कर महफिल में बैठी औरतों की बतकुंचन का कारण न बन जाए, ये सोचकर बिसेसर बो जल्दी से चूल्हे पर दस-बारह कप चाय चढ़ा देती है।
“चाय पिएँगी बड़की कनिया?” कोने में चुकु-मुकु बैठी बड़की कनिया से वैसे किसी उत्तर की उम्मीद है नहीं बिसेसर बो को।
“जहर किसी काम नहीं आया। चाय ही दे दो।” बड़की कनिया का जवाब सुनकर जाने क्यों बिसेसर बो खिलखिलाकर हँस देती है।
“मरना ही था तो हमसे कहते बड़की कनिया। हम कोई देसी बढ़िया इंतजाम करते। ऐसा कि अभी नाचने-गाने वाली ई सब औरत लोग छाती पीट-पीटकर रो रही होतीं।” चाय की प्याली बड़की कनिया की ओर करते हुए बिसेसर बो कहती है। इस बार फीकी-सी हँसी हँसने की बारी बड़की कनिया की है।
“तुम रात में यही रहोगी?” बड़की कनिया का ये सवाल अनेपक्षित है और संदर्भ से बाहर भी। “अगर यहीं रहोगी तो मेरे कमरे में आकर सो जाना। हमको अकेले अच्छा नहीं लगता। सुनो… अम्माजी को…”
“कुछ नहीं कहेंगे। दिमाग खराब है मेरा कि बिना बात के बात उठाएँ? आप ठीक हैं, ईहे बहुत है। अब आप अपनी कोठरी में जाइए। हम चाय-पानी करके एको घंटा के लिए सोने आ सके तो आ जाएँगे।”
बिसेसर बो चाय की ट्रे लेकर बाहर निकल गई है और बड़की कनिया का कप धरा-का-धरा रह गया है। जिस जुबान ने अभी थोड़ी देर पहले जहर चखा, उस जुबान को चाय की मिठास क्या रास आएगी!
बड़की मालकिन से कह-सुनकर थोड़ी देर के लिए बिसेसर बो बड़की कनिया की कोठरी में चली आई है। बड़की मालकिन भी शायद नई बहू के स्वागत की खुमारी में इस कदर व्यस्त हैं कि न खुद में और सिमटती जाती बड़ी बहू के बारे में सोचने की फिक्र है, न अपने हाथ से निकलती अपनी सबसे वफादार नौकरानी की चिंता। नए की उम्मीद कई बार पुराने के नियंत्रण में होने का भ्रम भी पैदा करती है।
“तू इधर रुकी है तो तेरे घरवाले नाराज नहीं होंगे?” बड़की कनिया पूछती हैं। जिसे अकेले अटारी तक जाने की आजादी न हो, उसे पराए घर में सोने के लिए रुकी औरत की स्वंच्छदता तो हैरान करेगी ही।
“घरवालों को लुगा-धोती, पायल-बिछिया से मतलब है। फिर नेगचार के नाम का थोड़ा-बहुत रुपया मिलेगा। दुधारु गाय किसके खेत में चरने जाती है, ग्वाले को इससे क्या मतलब है?” बिसेसर बो जवाब देते-देते दीवार की ओर मुँह किए लेट गई है।
बड़की कनिया न चाहते हुए भी सोच रही है कि जमीन पर ऐसे बिना चटाई-चादर के सोना पड़ता, दिनभर दूसरों की चाकरी करनी पड़ती, गोबर उठाना पड़ता, चिपरी पाथना पड़ता… तो उसकी क्या हालत होती? पता नहीं बेचारगी किसकी ज्यादा बड़ी है, लेकिन किसी की भी इतनी नहीं कि जहर खा लेनी पड़े। फिर उसे क्या हो गया था?
लेकिन नींद बड़ी बेरहम है। बड़की कनिया के जेहन में कोई जवाब आए, इससे पहले ही उसके कमजोर वजूद पर काबिज हुए जाती है नींद…
नींद को भगाने के लिए पौ फटते घर में फैलता शोर काफी है। बिसेसर बो कमरे में नहीं है। खिड़की से देखती है बड़की कनिया कि वो झुककर आँगन लीप रही है। थोड़ी देर में नई बहू के आने की तैयारी शुरू होनी है, घर में एक हजार काम हैं लेकिन बड़की कनिया के पास झूठ-मूठ का भी कोई काम नहीं। बड़की कनिया के पति बेशक दुआर और बाजार के मालिक बने बैठे हैं, बड़की कनिया के पास इस छह फुट के पलंग और बारह फुट के कमरे के अलावा कोई जागीर नहीं। चौका भी अम्माजी का इलाका है, आँगन भी और एक इलाके में एक ही शेरनी अपने शावकों को शिकार करना सिखा सकती है। बड़की कनिया के पास तो न सिखाने के लिए कोई है, न सीखने के लिए। उम्र में नौ साल बड़े जिस पति के साथ घरवालों ने दामन बाँध दिया था…जिससे जिंदगी, नाते-रिश्ते, प्यार-मोहब्बत, रीत-रिवाज सीखने की उम्मीद थी, उसने बेरुखी का दामन थाम लिया। गुसलखाने की तरफ जाने से पहले हर रोज की तरह आज भी बड़की कनिया घूम-घूमकर अपना बदन देख रही है। जाने पीठ की फिसलन में कोई अड़चन है या गर्दन की लचक में कमी… उसके साथ बड़का बाबू को कोई ठहराव क्यों नहीं मिलता? उसे क्यों लगता रहता है कि उसको थामनेवाले हाथ कहीं और से होकर आए हैं? ये सोचते ही उसे लगता है कि बड़का बाबू के हाथ नागफनी हो गए हैं और उसका शरीर बन गया है रेत का टीला।
बारात निकलने से पहले वाली रात किस बात पर नाराज हो गई थीं बड़की कनिया, ये तो अब उसको भी याद नहीं। लेकिन नागफनी के काँटे चुभते रहते हैं रात-दिन। दुनिया का कोई कमबख्त जहर न रेत में घुल सकता है न नागफनी की जड़ों को सुखा सकता है।
नई बहू के स्वागत की आपा-धापी में बिसेसर बो अपने शरीर पर चलते रेंगनी के काँटे भूल गई है और बड़की कनिया को नागफनी याद नहीं रहा। नेगचार, रस्म-रिवाज, मेहमान, मुँह-दिखाई, कंकन उतराई में घर की औरतें मसरूफ हो गई हैं और दुआर पर दुल्हन और कलेवा-मिठाई, दान-दहेज सहित दुल्हन को सही-सलामत अपने घर ले आने में काम आई मर्दानगी का सुकून पसरा है। इस सुकून में भी न बिसेसर नशे में खाई कसमें भूला है, न बड़का बाबू के मन की मुराद बदली है।
कनिया उतारने के बाद अपने हिस्से का ईनाम लिए बिसेसर बो उस दिन बड़ी प्रफुल्लित घर लौटने लगी है। हाथ में लटकते प्लास्टिक के थैले में वो सारी चीजें हैं जिनका वायदा बड़की मलकाइन ने किया था- साड़ी-लुगा, धोती, एक जोड़ी बिछिया और यहाँ तक कि पायल भी। बड़की मलकाइन की खुशी तिहरी जो हो गई है। अव्वल तो चंदन के रंग वाली कनिया उतरी है। ऊपर से दान-दहेज आया है, सो अलग। साथ में समधियाने से छोटकी कनिया और उनकी सास की सेवा करने के लिए छोटकी कनिया की दू ठो मुँहलगी सेविका भी आई हैं।
“पिछलग्गू कहीं की। थोड़ा भी सरम नहीं है कि समिधायन के दरवाजे नून-भात खाने आ गई दूनो।” जाने आँगन में अपने वर्चस्व और अपनी जरूरत के कम हो जाने की आशंका है या नीम के तले बैठे मोरारजी बाबा के स्थान की महिमा, बिसेसर बो वहीं धप्प से चबूतरे पर बैठ गई है और अपने आप बड़बड़ाने लगी है। भविष्य की चिंता ऐसी बीमारी है जो वक्त, जगह, दिन-रात – कुछ नहीं देखती। इस आँगन का काम छूटा तो गोड़सार से घर चलेगा नहीं, ये बात बिसेसर बो उतनी ही अच्छी तरह समझती है जितनी अच्छी तरह डागडर बदलते मौसम पर चढ़ते बुखार के लक्षण पहचानता है। खुद को थोड़ी-सी सांत्वना देने के लिए उसने अपने आँचल में बाँधे हुए बड़की कनिया के दिए दो सौ रुपए को जल्दी से टटोलकर देख लिया है। अब चढ़ती किरणों की सलामी करने के उपाय ढूँढ़ने होंगे। मंथराएँ जन्मजात नहीं होतीं, हालात की पैदा की हुई होती हैं।
अँधेरे में बैठे-बैठे बिसेसर बो का मन उकता गया है, लेकिन कदम हैं कि न घर की ओर बढ़ते हैं न पीछे लौटते हैं। घर में कोई इंतजार नहीं, कोई जरूरत नहीं और जहाँ से लौटी है अभी, वहाँ शादी के बाद का उजड़ा हुआ पंडाल है। अब लेन-देन और नवकी कनिया के रंग-रूप की जुगाली करती बची-खुची मेहमान औरतों को चाय-पानी पहुँचाने की बिसेसर बो की इच्छा एकदम मर गई है। एक बड़की कनिया के पायताने बैठने का उपाय हो सकता है तो उनकी कोठरी में भी आज की रात बड़का बाबू लौटेंगे शायद… वैसे ऐसा क्या दुख है कि बड़की कनिया को जहर खाना पड़ गया?
बैसाख की अधकट चाँद वाली रात नीम के ऊपर से होते हुए धीरे-धीरे पोखर की ओर बढ़ती जा रही है। यूँ तो अपने गाँव में कोई खतरा नहीं, लेकिन भटकती आत्माओं पर किसका वश चलता है! नीम के पेड़ तले चुड़ैलों के हमलों से तो मोरारजी भी रक्षा करने से पहले चार बार सोचेंगे। ख्याल का रुख बदलते ही बूढ़े नीम ने भी अचानक अपना रूप बदल लिया है और किसी कामुक बुड्ढे की तरह अपनी डाल झुका-झुकाकर नीचे बैठी औरत को छूने के बहाने ढूँढ़ रहा है। जाने क्यों बिसेसर बो को लग रहा है कि एक जोड़ी चमकीली आँखें उसकी पीठ से चिपकती जा रही हैं। ये सोचते ही बिसेसर बो के पूरे बदन में झुरझुरी फैल गई है और वो एक झटके से घर जाने को खड़ी हो गई है। उमस भरी उस रात में झूम-झूमकर चलती पुरवाई के बावजूद नीम के तले खड़ी बिसेसर बो के माथे पर पसीना उतर आया है। प्लास्टिक की थैली में हफ्तों की अपनी कमाई थामे बिसेसर बो हाँफती-दौड़ती सीधा अपने दरवाजे पर जाकर रुकी है।
बिसेसर वहीं है। बिसेसर की अम्मा वहीं है। उनकी नजरें बदली हुई लगती हैं लेकिन। मुमकिन है कि चंपाकली की आँखों का दोष हो। लेकिन कुछ-न-कुछ तो बदला है। जहाँ तक नजरों का सवाल है, पर्दे खुलते उसी के दम पर हैं और भ्रम की पराकाष्ठा भी उन्हीं में होती है।
उस रात रेंगनी के काँटों से चुभते दर्द पर बिसेसर के घूमते हुए हाथ अच्छे लग रहे हैं चंपाकली को। लेकिन रात की वीरानी को एक दीया कहाँ जीत सका है भला! बिसेसर तुरंत मुद्‌दे पर आ गया है।
“उस दुआर-आँगन का बहुत अहसान है हमपर।” बिसेसर कहता तो है लेकिन फूस की छत को एकटक निहारती, वहाँ से झाँकती रात की मुफलिसी पर तरस खाती बिसेसर बो अपने पति की बात का कोई जवाब नहीं देती, बस घूमकर उसकी ओर थोड़ा और खिसक जाती है।
“हम मालिक लोग की कोई बात काट नहीं सकते।” बिसेसर की आवाज में एक किस्म की बेचारगी है जिसे भाँपकर बिसेसरा बो को गुस्सा आ जाता है। “माँगे हैं हम किसी से, कुछ भी हाथ फैलाकर? काम करते हैं, चमचई नहीं करते। किसी को देखकर ही-ही नहीं करते। किसी के साथ मिलकर उसी परिवार में दूसरों के लिए गड्ढा नहीं खोदते। देह खटाकर, मन मारकर चाकरी कर ही रहे हैं। अब और क्या करें? जान दे दें क्या?” चंपाकली झटके में उठकर बैठ गई है।
जाने क्यों बड़की कनिया का सोचकर उसके भीतर कोई हूक-सी उठी है। वो तो चाकर है। अपमान उसकी नियति है। बड़की कनिया किस बात के लिए अपमानित की जा रही हैं? नई कनिया की घर-भराई के बाद मलकाइन ने बड़की कनिया को चुमावन के लिए बुलाया तक नहीं था। कोठरी में बहुत देर तक रोती रही थीं बड़की कनिया।
“बड़का बाबू ने बुलाया है तुझे चंपा। देख, मना मत करना। अम्मा भी कहती है कि तुझे मना नहीं करना चाहिए।” बिसेसर अचानक मुद्‌दे पर आ गया है।
“बुलाया है मने? हम कल काम पर जा ही रहे हैं। घर का बियाह-सादी निपट गया तो क्या, अँगना लीपने-पोतने के काम से छुट्‌टी थोड़े न मिल गई है?”
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RE: Antervasna नीला स्कार्फ़ - by desiaks - 10-05-2020, 12:42 PM

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