RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“अँगना में नहीं… कामथ पर बुलाए हैं तुमको। कल दिन का काम निपटाकर चली जाना थोड़ा। अँगना में कोई कुछ नहीं बोलेगा। सबको मालूम है कामथ पर गेहूँ दौउनी का काम चल रहा है।” बिसेसर बात अपनी पत्नी से कर रहा है लेकिन देख अलगनी पर लटकते कपड़ों की ओर रहा है। लेकिन जो इज्जत उसने अभी-अभी अपनी जुबान से निकाले हुए शब्दों से तार-तार की है उस इज्जत को अलगनी पर पड़े ये पुराने चिथड़े कपड़े कहाँ ढँक पाएँगे?
बिसेसर बो यानी चंपाकली जहाँ बैठी है, वहीं जड़ हो गई है। हवा थिर है। चंपाकली थिर है, भावशून्य। अधकटे चाँद वाली रात शून्य की परिक्रमा कर रही है। संभव है, परिक्रमा करते हुए बिसेसर के दरवाजे पहुँची रात अभी-अभी कही हुई उसकी बात सुनकर शर्माकर लौट भी जाए। लेकिन रात को शर्म नहीं है। जमीन, दौलत, औकात, पहचान, स्त्री, अधिकार… सब बंधक हैं। ताकतवरों के, रसूखवालों के बंधक। रात भी उनकी बंधक है, शर्म और इज्जत भी। रेंगनी के काँटों की चुभन बिसेसर बो की आँखों में उतर आई है। शरीर जड़ हो गया है। उसकी अंतरात्मा से न कोई आवाज निकलती है न किसी को धिक्कारती है वो- न किस्मत को, न बिसेसर को और न ही बड़का बाबू को जिनका इस रूप में आया प्रणय-निवेदन बड़की कनिया की बदहाली की सारी परतें उघेड़ देता है।
बिसेसर बो कुछ नहीं कहती। कोई जवाब नहीं देती। बिसेसर से थोड़ा-सा अलग हटकर सो जाती है बस। छाया की भाँति उम्मीद का पीछा करो तो यही होता है। परछाईं जीता-जागता इंसान नहीं होती और बंजर उम्मीद की कोख से अंकुर नहीं फूटते।
अगली सुबह बिसेसर बो ने सारे काम यंत्रवत किए हैं। दुआर और कोठरी को लीप-पोतकर चमकाना, गोड़सार में चूल्हा सुलगाना, दरवाजे-दरवाजे भूँजा पहुँचाना और हर किस्म के अपराधबोध को खर्राटों में निकालते बिसेसर को सोता छोड़कर मलकाइन के अँगना में सही वक्त पर हाजिर हो जाना… बिसेसर बो को वक्त पर कामथ पहुँचना है। उससे पहले उसे कई काम निपटाने हैं। बड़की कनिया की कोठरी में हाजिरी बजाना भी एक जरूरी काम है।
“मैदा घोल दिए हैं। अपना साड़ी कलफ के लिए दे दीजिएगा बड़की कनिया।” कोठरी में झाड़ू लगाते-लगाते बिसेसर बो कहती है।
“रहने दे बिसेसर बो। हम कलफ का साड़ी पहनकर कहाँ पटपटाते हुए जाने वाले हैं! इसी कोठरी में तो रहना है।” बड़की कनिया ने आज न उबटन तैयार करने को कहा है न मेहँदी पीसकर लाने को। बिस्तर पर ओलरकर बैठी हुई हैं बस। जाने सुबह से मुँह पर पानी के छींटे पड़े भी हैं कि नहीं।
“आप हमको चंपकली कहिएगा तो हमको ठीक लगेगा। उतरिए। बिस्तर झाड़ दें थोड़ा।” झाड़ू छोड़कर बिसेसर बो यानी चंपाकली अब बड़की कनिया की कोठरी का रंग-रूप सुधारने में लग गई है।
बड़की कनिया बिस्तर पर से फिर भी नहीं उतरतीं। बिस्तर बीती रात का मौन साक्षी रहा है। रात की सिलवटें जीवित हैं। अमिट हैं। जाने रेत-से शरीर में चुभते नागफनी के काँटों का क्या हुआ लेकिन बड़की कनिया की आत्मा अछूती रही है। प्रेम, ईर्ष्या, त्याग, समर्पण, स्वार्थ, जरूरत, छलावा, धोखे, झूठ… सबकुछ देखती रही है आत्मा। बड़की कनिया को लगता है कि उसके शरीर से नागफनी ने आप ही जन्म ले लिया एक दिन। आप ही काँटें उग आए थे उसमें। उसका शरीर रेत है रेत। ये शरीर दियारा की उपजाऊ बलुआही मिट्टी कभी नहीं हो सकता जिसपर अंकुर फूटे, वृक्ष लगे, पत्ते निकलें, फूल खिलें और फलियाँ आएँ। आकाश को टटोलती कोई टहनी नहीं निकलेगी बड़की कनिया के शरीर से। सिर्फ काँटे उगेंगे। आत्मसम्मान रहित शरीर ऐसे ही जी लेगा पूरी जिंदगी। कोई वशीकरण मंत्र भी तो नहीं है उसके पास।
“उठिए न। कितना सोचिएगा बड़की कनिया? सोचकर कोई जग की रीत बदल सका है जो आपका कुछ बदलेगा?” बिसेसर बो ने फटाक से बिस्तर से चादर खींचकर जोर से झटक दिया है, जैसे रात की सिलवटों के साथ-साथ छल और धोखे का बोझ भी उतार फेंकेगी। इस दुनिया में कितने अजीब-अजीब लोग हैं। एक से एक अजीब! कैसी-कैसी विकृति! कितना टेढ़ा-मेढ़ा स्वार्थी दिमाग! ऐसा दिमाग जो सिर्फ अपनी और अपने शरीर की सोचता है। बाकी, सामनेवाले का जिस्म तो जैसे सहजन की फलिया है- तोड़ा, पकाया, रस में डुबोया, चखा, दाँतों तले मसलते हुए जब बेस्वाद हो गया तो जुबान से बाहर ठेल दिया और कचरे में निकाल दिया। ये और बात है कि बिसेसर बो इतने सालों में आजतक सरसों-मसाला डालकर सहजन की तरकारी बनाना नहीं सीख पाई है।
कमरा साफ करके जाते हुए बड़की कनिया से बस इतना कह गई है बिसेसर बो, “मरद जात के गरदन में चाहे जो लटकता रहे, दुनिया को औरत के गले में लटकता हुआ मंगलसूत्तर ही अच्छा लगता है।”
कामथ की ओर जाते हुए बिसेसर बो की चाल में तेजी है और गर्दन में अकड़। बिसेसर पीछे-पीछे चलता आता है तो वो उसे वापस भेज देती है। “जेतना दलाली करना था, तुम किए। अब हमको अपना काम करने दो।” चंपाकली की आवाज की सख्ती से बिसेसर घबरा गया है। उसने अपनी पत्नी का ये रूप आठ सालों में नहीं देखा। लेकिन उसने इतने सालों में अपनी पत्नी को किसी और के बिस्तर पर जाते भी तो नहीं देखा!
पोखर किनारे उसे छोड़कर बिसेसर बो आगे बढ़ गई है- चंपाकली बनकर। बिसेसर पोखर में लगे कमल के पत्तों पर जमी काई देखने बैठ गया है। दुर्गंध को छुपाती है काई और काई को छुपाता है कमल। पोखर के आसपास सन्नाटा पसरा है। अब तो चंपाकली के पैरों की आहट भी गुम हो गई है। बिसेसर कामथ पर नहीं है, लेकिन उसका मन वहीं है। अब पहुँची होगी चंपा… अब बड़का बाबू ने थामा होगा उसको…
अचानक चंपा की तीखी गंध उसके नथुनों में भर आई है। उसका मन अति सीमित समयावधि में अति तीव्र गति से कामथ का भ्रमण कर आया है।
चंपाकली बिसेसर के मन के कामथ से लौट आने के कुछ देर बाद ही लौट आई है। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। जो घटना बिसेसर ने देखी नहीं, उस घटना के शब्दचित्र बिसेसर बो ने तीन वाक्यों में समेट दिया है।
“कह दिए हम बड़का बाबू को, हाथ एक ही शर्त पर लगाने देंगे। उनकी प्यास जितनी बड़ी बड़की कनिया की भी प्यास है। बड़की कनिया को बिसेसर दे दो एक रात के लिए, तुम बिसेसर बो को रख लो चाहे कितनी ही रातों के लिए।”
बिसेसर सुन्न हो गया है और चंपाकली पोखर में उतर गई है। पानी अंजुलि में भरकर मुँह में ले लिया है। फिर पानी में पानी के कुल्ले फेंक रही है। कटे हुए होठों से रिसते खून वाले पानी के कुल्ले। फिर उसी पानी से हाथ और माथे पर आए जख्मों को धो रही है। बड़का बाबू ने बिसेसर बो के दुस्साहस का बड़ा साहसिक जवाब दिया है।
हाथ-मुँह धोकर बिसेसर बो मलकाइन के आँगन लौट गई है – बियाह के बाद का घर समेटने, सीटने-साटने, मलकाइन के गोतिया-पटीदार लोग के यहाँ कलेवा की मिठाई का बायना बाँटने, शाम की चाय बनाने, चूल्हा सुलगाने, आलू छीलने और रोटी बेलने…
आँगन में घुटनों तक साड़ी खींचे बिसेसर बो भर परात आटा लिए गूँधे बैठी है और जोर-जोर से गा रही है, “बलमुआ भईले दरोगा, हम हो गइनी दरोगाइन / सलामी बजईह, घरेमत अईह, हम भ गईनी दरोगाइन…”
बड़की कनिया अपनी कोठरी में बिसेसर बो की चोट पर लगाने के लिए सुफ्रामाइसिन लिए बैठी हैं और वहीं से उसका बेसुरा गीत सुन-सुनकर मुस्कुरा रही हैं।
सिगरेट का आख़िरी कश
कमरे का कोना-कोना दुरुस्त कर दिया गया था। केन के लैंपशेड से ठीक उतनी ही रौशनी आ रही थी जितनी उसे पसंद थी- सिर्फ़ उसी कोने पर बिखरती हुई, जहाँ काँच के एक फूलदान में नर्गिस के गुच्छे बेतरतीबी से डाल दिए गए थे।
फूलदान के नीचे मेज़पोश पर गिरती रौशनी में उसने जल्दी से उसपर बिखरे रंग गिन लिए। छः थे। एक रंग छूट गया था। खरीदते हुए उसने ध्यान क्यों नहीं दिया था? सपने देखते हुए भी कहाँ सोचा था कि सात ही रंग के हों ये नामाकूल सपने?
कपड़े बदलते हुए उसने लिली ऑफ द वैली की शीशी को देखा। दम तोड़ती ख़ुशबुओं की कुछ आख़िरी बूँदें बाक़ी थीं। कुछ स्थायी नहीं होता। अपनी-सी लगने वाली ख़ुशबू का अपनापन भी एक दिन जाता रहेगा।
फ़्रिज़ में पिछली पार्टी की बची हुए बीयर की कुछ बोतलें थीं जिनका नसीब तय किया जाना था। पार्टी में उसने अपने एक कॉलिग से कहा था कि बीयर और घोड़े की लीद की बदबू में कोई ख़ास अंतर नहीं होता। उसका इतना कहना था कि पार्टी में सब बीयर को छोड़कर ब्रीज़र पर भिड़ गए थे और किंगफिशर की ये बोतलें अभी भी वैसी ही पड़ी थीं। लावारिस।
“बालों की कंडिशनिंग अच्छी होती है इनसे।” उसकी रूममेट ने कहा तो उसे सोनमर्ग की घाटियों पर पसरे आर्मी कैंप के अस्तबलों से आती बदबू याद आ गई।
“मिसमैच होगा। तुम्हारे बाल, ये बदबू… सोनमर्ग और कैंप्स की तरह।” और बोतलों में बची बीयर के इस्तेमाल की योजना फिर अनिश्चितकाल के लिए मुल्तवी हो गई।
जाने क्या सोचकर उसने बीयर के दो मग और बोतलें डाइनिंग टेबल पर रख दीं। बहुत ठंडी बीयर गले को नुकसान पहुँचाएगी और फिर कल प्राइम टाइम में उसी के शो के लिए कोई वॉयस ओवर करनेवाला नहीं मिलेगा।
रूममेट आज रात देर से आने वाली थी, क्लायंट पार्टी में एप्पल जूस पर बेतुके बहस-मुहाबिसों वाली एक लंबी शाम काटने की सज़ा भुगतकर। लड़का कभी एक घंटे से ज़्यादा वक़्त के लिए आता नहीं था इन दिनों उसके पास। दूरी एक बहाना हो सकती थी लेकिन रोहिणी और जीके वन की दूरी से उसे ये ज़ेहन की दूरी ज़्यादा लगती थी। मार्स और वीनस की दूरी जैसी कुछ।
हम दूरियाँ बचाए रखने पर आमादा हों तो कोई भी बहाना काम करने लगता है।
ख़ैर, रोहिणी से लड़के को आने में कम-से-कम डेढ़ घंटे तो लगते ही। यानी उसके पास बहुत सारा वक़्त था। इतनी देर में डिनर के लिए राजमा-चावल बन सकता था, कपड़ों की अलमारी ठीक की जा सकती थी, कोई किताब पढ़ने का दंभ भरा जा सकता था, हर हफ़्ते मँगाए जाने वाले न्यूज़वीक का एक आर्टिकल पढ़कर अख़बारवाले पर अहसान किया जा सकता था। या ये तय किया जा सकता था कि अपनी दिशाहीन रिलेशनशिप का करना क्या है। ये आख़िरी काम सबसे आसान था, क्योंकि इस रिलेशनशिप का करना क्या है, ये तय करना अब मुश्किल नहीं था।
छोटे शहर से आई थी वो, लौटकर वहीं चली जाती। वहाँ सुकून था, कुशन था और पहचान बनाने की कोई जद्दोज़हद नहीं थी। और प्यार भी कर लिया था आसानियों वाला। फलाँ-फलाँ की बेटी अमुक साहब की बहू होती, किसी को कोई शिकायत न होती। दोनों बचपन के दोस्त थे। ये अंतर्जातीय विवाह नहीं था। परिवार एक दूसरे को जानते थे, इसलिए पैरों के नीचे छह इंच मोटी गद्देदार लाल कालीन बिछाकर उसका स्वागत किया जाता। कोई लड़ाई नहीं थी, एक आसान रास्ता था। ज़िंदगी भर की आसानी थी।
मन सवाल पूछता रहा। मन जवाब देता रहा।
फिर ये ज़िद किसलिए? कैसी बेताब तमन्ना जो पूरी होते हुए भी अधूरी दिखती है?
ज़िद इसलिए क्योंकि ज़िंदगी की आसानियाँ ही सबसे बड़ी मुश्किलें होती हैं। हम जितने संघर्षों के बीच होते हैं, उतनी आसानी से जिए जाने के भ्रम को लेकर संतोष में होते हैं। और तमन्नाओं का क्या है? बेताब बने रहना उनकी फ़ितरत है।
फिर क्या बचाए रखना था?
बचाने वाले हम कौन होते हैं? ताउम्र बिखेर के समेटने का काम ज़रूर हमारा होता है।
तो फिर? हासिल क्या करना था आख़िर?
सिगरेट। सिगरेट हासिल करना था फ़िलहाल।
आदत न सही, तलब सही।
तलब न सही, ज़रूरत सही।
उसने लड़के को फ़ोन करके क्लासिक माइल्ड्स लाने की हिदायत दे दी। लड़के के आने में अब भी एक घंटे का वक़्त था।
60 मिनट। 3600 सेकेंड।
ज़रूरत इतना लंबा इंतज़ार क्यों करती? सो, उसने नीचे जाकर ख़ुद ही सिगरेट ख़रीदने का फ़ैसला किया। लाल रंग के चमकी चप्पलों में चमकते लाल रंग के नाख़ूनों पर नज़र गई तो रूममेट की एक और ज़िद का जीत जाना याद आया। वो इतनी जल्दी क्यों हार मान लेती है? अब घर जाकर नेलपॉलिश रिमूवर ढूँढ़ने का अलग काम करना होगा। वैसे हर नाख़ून पर बीस सेकेंड के हिसाब से वक़्त लगाया जाए तो 200 सेकेंड कम किए जा सकते हैं। रिमूवर ढूँढ़ने में कम-से-कम 600 सेकेंड।
जीके में लड़कियों को सिगरेट ख़रीदते देखकर किसी की भौंहें नहीं चढ़तीं और यहाँ सुपरमार्केट में आसानी से एल्कोहॉल मिल जाया करता है। सिगरेट भी ख़रीद ली गई और ग्रीन एप्पल फ़्लेवर वाले वोदका की बोतल भी। इस ख़रीददारी में 600 सेकेंड का सौदा भी कर आई थी वो।
वक़्त का सौदा इतना भी मुश्किल नहीं होता।
इंटरनेट नहीं था, वर्ना कोई अच्छी-सी कॉकटेल बनाई जा सकती थी। वोदका को नीट पिया जा सकता है या नहीं, ये जानने के लिए उसने फिर लड़के को फोन किया। ‘आख़िरी ट्रैफ़िक सिग्नल पर हूँ’ इस जवाब में लड़की के पूछे गए सवाल के जवाब जैसा कुछ नहीं था। नीट सही, ये सोचते हुए उसने एक ग्लास में वोदका डाल ली और क्लासिक माइल्ड्स के डिब्बे से सिगरेट निकाल ली, जलाने के लिए।
“तुम्हें सिगरेट पीना कभी नहीं आएगा लड़की।” रूममेट का ताना याद आ गया। बाएँ हाथ में सिगरेट थी और दाहिने में माचिस की जलती हुई तीली।
“मुँह में लेकर जलाओ और गहरा कश लो।” दिमाग़ में रूममेट का निर्देश फॉलो करती रही और वॉयला! जलती हुए एक सिगरेट उसके हाथ में थी। 240 सेकेंड…
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